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कार्ल मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद | मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की विशेषतायें | कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के महत्वपूर्ण लक्षणों का आलोचनात्मक परीक्षण

कार्ल मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद | मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की विशेषतायें | कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के महत्वपूर्ण लक्षणों का आलोचनात्मक परीक्षण | Dialectical Materialism of Karl Marx in Hindi | Features of Marxist dialectical materialism in Hindi | Critical examination of important features of Karl Marx’s dialectical materialism in Hindi

कार्ल मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्स का सर्वप्रथम सैद्धांतिक स्तंभ है। इसके निर्माण में जर्मन विचारधारा ने विशेष कार्य किया। इसे कार्ल मार्क्स के दार्शनिक चिंतन की एक महान सफलता माना जाता है। इस सिद्धांत के कारण ही दर्शनशास्त्र पहली बार विज्ञान बन सका।

द्वंद्वात्मक का अर्थ- शाब्दिक दृष्टि से द्वंद्वात्मक का अंग्रेजी रूप Dialectic, यूनानी शब्द Dialigo से बना है, जिसका अर्थ है- तर्क-वितर्क करना। प्राचीन विचारक तर्क-वितर्क को सत्य तक पहुँचाने के लिये आवश्यक समझते थे। बाद में चिंतन की द्वंद्वात्मक प्रणाली के अनुसार प्राकृतिक घटनायें सदैव गतिशील रहती हैं, प्रकृति का विकास विरोधी शक्तियों की अंतःक्रिया का परिणाम है।

यूरोप में द्वंद्वात्मक सिद्धांत का प्रवर्तन पहले पहल हीगल ने किया था। हीगल के अनुसार जगत का विकास वाद-विवाद मुक्तवाद के रूप में हुआ है।

भार्क्स ने हीगल से इंद्रवाद को ग्रहण कर, इसे नये वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत किया है। हीगल के अनुसार बाहा जगत अभ्यावर जगत का ‘प्रतिनिधित्व’ है। लेकिन मार्क्स ने द्वंद्वात्मक पद्धति का प्रयोग केवल विज्ञानों के क्षेत्र में नहीं अपितु समाज में भौतिक विकास पर भी किया है। हीगल की दृष्टि में जहाँ इतिहास मन का अनवरत आता अनुभव है, घटनायें उसकी बाहरी अभिव्यक्ति हैं, वहाँ मार्क्स यह मानता है कि घटनायें प्रधान हैं और उनके संबंध में हमारे विचार गौण हैं। इस प्रकार द्वंद्दात्मक प्रणाली के माध्यम से मार्क्स ने जिस रूप में भौतिक जगत का विश्लेषण किया उसे ही मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद कहते हैं।

मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की विशेषतायें

मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक प्रणाली की आधारभूत विशेषतायें निम्नलिखित हैं-

(1) तत्वशास्त्र विपरीत मार्क्सवादी द्वात्मक प्रकृति को ऐसी वस्तुओं और घटना-प्रवाहों का एक आकस्मिक संग्रह कदापि नहीं मानता है जो एक-दूसरे से बिल्कुल अलग-अलग असंबंधित तथा स्वतंत्र हो वह (द्वंद्वबाद) जो प्रकृति को एक सुसम्बद्ध तथा पूर्ण समग्रता के रूप में मानता है जिसमें कि विभिन्न वस्तुयें तथा घटनायें सावयवी रूप में एक-दूसरे से संयुक्त- एक-दूसरे पर निर्भर तथा एक-दूसरे के द्वारा निर्धारित हैं।

इस प्रकार द्वंद्वात्मक प्रणाली के अनुसार, प्रकृति की किसी भी वस्तु या घटना को दूसरी वस्तुओं या घटनाओं से पृथक, असंबंधित तथा स्वतंत्र रूप से समझा नहीं जा सकता। प्रत्येक घटना अनेक घटनाओं से घिरी हुई होती है और उन सबका प्रभाव प्रत्येक पर और प्रत्येक का प्रभाव सब पर होता है। इसके बिना कोई भी घटना अर्थहीन ही है और इसे स्वीकार किये बिना घटनाओं के संबंध में जानकारी प्राप्त करना असंभव है।

(2) तत्वशास्त्र के विपरीत, मार्क्सवादी दंदबाद यह मानता है कि प्रकृति एक स्थिर, अगतिशील, परिवर्तनशील और चिरंतन स्थिति नहीं है। प्रकृति तो निरंतर गतिशील परिवर्तनशील नवीन, परिवर्शित तथा परिमार्जित स्थिति है, जिसमें कुछ चीजों का सदैव उद्भव और विकास होता है, तो कुछ चीजों की अवनति और विनाश।

इस प्रकार द्वन्द्वात्मक प्रणाली इस बात पर बल देती है कि घटनाओं की विवेचना न केवल उनके अंतः संबंध तथा अंतनिर्भरता को ध्यान में रखते हुये करनी चाहिये बल्कि उनकी गति, उनके परिवर्तन, उनके विकास, उनके उद्भव तथा विनाश को भी ध्यान में रखना होगा। द्वन्द्वात्मक प्रणाली का संपर्क न केवल उन घटनाओं या वस्तुओं से है जोकि थोड़ा-बहुत स्थायी हैं बल्कि उन सबसे भी है जो अस्थायी हैं। वास्तव में संसार में कोई भी चीज या घटना स्थिर या स्थायी नहीं है। एंगेल्स ने लिखा है, “समस्त प्रकृति छोटे से लेकर बड़े तक, बालू-कण से लेकर सूर्य तक, बाह्यकणु से लेकर व्यक्ति तक आने और चले जाने की एक निरंतर स्थिति में निरंतर प्रवाह में अनवरत गति तथा परिवर्तन की स्थिति में है। संक्षेप में संसार में और प्रकृति में सब-कुछ अस्थायी, गतिशील तथा परिवर्तनशील है।

(3) तत्वशास्त्र के विपरीत मार्क्सवादी द्वंद्वात्मक यह विश्वास नहीं करता है कि विकास की प्रक्रिया एक सरल प्रक्रिया है जिसमें कि परिमाणात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन नहीं होते हैं। मार्क्सवादी द्वंद्ववाद के अनुसार छोटे से छोटे परिमाणात्मक परिवर्तन से बड़े से बड़े गुणात्मक परिवर्तन भी संभव हो सकते हैं, परंतु ये विकास या परिवर्तन धीरे-धीरे या सरल तरीके से नहीं होते, बल्कि शीघ्रता से और एकाएक होते हैं मानों एक स्थिति से दूसरी स्थिति को छलांग मारते हैं साथ ही ये इतफाक से पटित नहीं होते, वरन् परिमाणात्मक परिवर्तनों के संचित होने के स्वाभाविक परिणामस्वरूप होते हैं।

इस प्रकार द्वंद्वात्मक प्रणाली यह बतलाती है कि विकास की प्रक्रिया को एक चक्रवत गति के रूप में समझना चाहिये, अर्थात् विकास की प्रक्रिया केवल उसी की पुनरावृत्ति नहीं है जो कुछ पहले घटित हो चुका है। द्वंद्वबाद के अनुसार विकास की गति निरंतर आगे बढ़ती हुई ऊपर चढ़ती रेखा की भाँति है। वास्तव में यह तो एक पुरानी गुणात्मक स्थिति का एक नई गुणात्मक स्थिति में बदलना सरल का जटिल होना और एक निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर आगे बढ़ना है।

परिमाणात्मक परिवर्तनों से गुणात्मक परिवर्तनों का होना दो-एक उदाहरणों की सहायता से सरलता से समझा जा सकता है। पहले-पहल पानी का जो तापक्रम है वह उसकी तरह स्थिति को प्रभावित नहीं करता है, परंतु यदि तापक्रम को अधिक परिमाण में घटाया जाये या बढ़ाया जाये तो एक स्थिति ऐसी आयेगी जबकि पानी की पहले की स्थिति बदल जायेगी और फिर पानी, पानी न रहकर बर्फ या भाप में बदल जायेगा। उसी प्रकार प्रत्येक धातु के पिघलने का एक तापक्रम होता है। प्रत्येक गैस को उचित ढंग से दबाव और ठंडक मिलने पर वह तरल पदार्थ में बदल जाती है। स्पष्ट है कि ये सब परिवर्तन धीरे-धीरे या सरल तरीके से नहीं होते हैं बल्कि शीघ्रता से एकाएक होते हैं। अगर पानी के ही उदाहरण को फिर से लिया जाये तो हम कह सकते हैं कि यदि तापक्रम की मात्रा एक सीमा से आगे बढ़ा दी जाये तो एक ऐसी अवस्था आयेगी जबकि पानी एकाएक खौलने लगेगा और वह फिर केवल पानी नहीं बल्कि खौलता हुआ पानी होगा।

(4) तत्वशास्त्र के विपरीत द्वंद्ववाद के अनुसार समस्त वस्तुओं तथा प्रकृति की घटनाओं में आंतरिक विरोध स्वाभाविक होते हैं, क्योंकि इन सबका विलोमात्मक और अनुलोमात्मक पक्ष या ‘वाद’ और प्रतिबाद भूत और भविष्य, विनाशोन्मुखता और प्रगतिशील अर्थात् विनाश और विकास दोनों ही पक्ष होते हैं। इन दोनों विरोधियों के बीच संघर्ष अर्थात् पुराने और नये के बीच, मरता हुआ और नवजात के बीच, मिटता हुआ और विकसित होने वाले के बीच संघर्ष, विकास की प्रक्रिया की आंतरिक अंतर्वस्तु है। संक्षेप में, द्वंद्ववाद के अनुसार विकास आंतरिक विरोध या संघर्ष द्वारा ही संचालित होता रहता है। वास्तविक अर्थ में द्वंद्ववाद जैसा कि लेनिन ने कहा है, वस्तुओं में निहित आंतरिक विरोध का अध्ययन है।

इस प्रकार द्वंद्ववाद के अनुसार प्रत्येक विकास में ‘वाद’ प्रतिवाद और संवाद ये तीन अवस्थायें होती हैं। प्रत्येक अवस्था अपने पूर्व की अवस्था का विलोम या निषेध होती है। प्रत्येक अवस्था के अंत में थोड़ा सा ऊपर उठ जाते हैं और जहाँ से चले थे फिर वहीं नहीं पहुँच जाते अपितु उच्च स्तर पर उठते जाते हैं। समस्त प्रकृति में इसी क्रम में परिवर्तन चल रहा है। बोया हुआ अनाज का दाना सड़ जाता है (प्रथम निषेध), उससे अंकुर निकलता है और बढ़कर पौधा बन जाता है, जिसमें बाली लगती हैं (प्रथम निषेध का निषेध), फिर पौधा सूख जाता है (द्वितीय निषेध का निषेध), और फलस्वरूप पकी बाली से कई दाने मिलते हैं। निरिन्द्रिय सृष्टि में देखो-धूप, शीत, वायु से चट्टाने चूर्ण होती हैं (प्रथम निषेध या वाद) वर्षा के जल द्वारा बहकर वह चूर्ण समुद्र में चला जाता है (प्रतिवाद) बहुत काल में समुद्र में पर्वत उत्पन्न हो जाते हैं (संवाद) ये विकास आंतरिक विरोध द्वारा इस कारण संचालित होता है, क्योंकि गतिशीलता स्वयं विरोधमय है। यदि यह पूछा जाये कि तुम क्या आज वही बच्चे हो जो छह महीने की आयु में थे तो तुम क्या उत्तर दोगे? हाँ कहो तो भी गलत और ना कहो तो भी गलत। कहना यही पड़ेगा कि ‘हाँ, मैं वही हूँ और नहीं भी हूँ। यह परस्पर विरोधी उत्तर क्यों देना पड़ रहा है? कारण यह है कि तुम बढ़ते जा रहे हो, स्थिर स्थिति में नहीं रहे। अरस्तू के तर्कशास्त्र के अविरोध का नियम स्थिर स्थिति पर ही लागू होता है, गतिशील वस्तुओं पर नहीं। गति सर्वथा विरोधमय होती है।”

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