देवनागरी लिपि का उद्भव विकास | देवनागरी लिपि की विशेषतायें | देवनागरी लिपि के गुण | देवनागरी लिपि नाम पड़ने का कारण

देवनागरी लिपि का उद्भव विकास | देवनागरी लिपि की विशेषतायें | देवनागरी लिपि के गुण | देवनागरी लिपि नाम पड़ने का कारण

देवनागरी लिपि का उद्भव विकास

भाषा अपने मूल रूप में श्रवणेन्द्रिय का विषय है एवं ध्वनियों पर आधारित है। यह काल और स्थान की सीमा से परिसीमित है। (अर्थात् भाषा भाषित होने या बोलने पर ही सुनी जा सकती है।) इसी सीमा से भाषा को निकालने, उसे श्रव्य से नैत्र ग्राह्य बनाने, दूरस्थ संदेश भेजने तथा भावी पीढ़ी तक ज्ञान राशि की स्मृति संजोये रखने के लिए लिपि का जन्म हुआ। इससे यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भाषा के अपने पूर्ण विकास को प्राप्त कर लेने के बाद ही लिपि का प्रादुर्भाव हुआ होगा। इस प्रकार भाषा ध्वनियों पर आधारित है और लिपि उन ध्वनियों के शब्दों को रेखांकन करके साँकेतिक रूप में व्यक्त की जाती है। यह दृश्य व स्पर्श इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य है।

लिपि की परिभाषा- भाषा मानव मात्र के हृदय के भावों को अभिव्यक्त करने का साधन है तथा लिपि इन उच्चारित या भाषित-भावों की भाषा को संकेत रूप में अंकित करके, अपने अभिप्राय को नेत्र-ग्राह्य एवं स्पर्श से बोध-गम्य बनाकर अभिव्यक्ति करने वाले साधन का नाम है।

भाषा व लिपि का श्रव्य एवं दृश्य मूलक भाव महाकवि रत्नाकर की निम्न पंक्तियों में स्पष्टतः व्यक्त किया जा सकता है-

नैकू कही बैननि अनेक कहीं नैननि सौं।

रही सही सोऊ कहि दीठि हिचकीनि सौं॥

लिपि की उत्पत्ति आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है। मानव प्राणि मात्र सभ्यता की ओर अग्रसर हुआ। उसके सामाजिक जीवन का विकास हुआ। समाज के रहन-सहन में उसमें संचय तथा संकलन की प्रवृत्ति ने जन्म लिया, समग्रता में अपनी चीजो-घड़ों आदि समानों की पहिचान हेतु चिन्ह अंकित किये जाने लगे। जादू-टोनों के लिए रेखायें खींची गयी। पहिचान के लिए पहले जो चिन्ह कंदराओं, गुफाओं के दरवाजों पर बनाये जाते थे वह सुंदरता के लिए अंकित होने लगे। धीरे-धीरे कालांतर में यही चिंह भावाभिव्यक्ति का साधन बन गये। परंतु स्थूल वस्तुओं पर यह चिन्ह एक स्थान विशेष पर ही भावों को प्रकट करते थे। अपने भावों को दूरस्थ प्रकट करने के हेतु मानव ने पेड़ों की छालों पर चिन्ह तथा रस्सियों में गाँठ लगाकर व्यक्त करके प्रेषित किया। संभवतः मानव की यही भावों की अभिव्यक्ति का सतत प्रयास धीरे- धीरे विकसित होकर लिपि के रूप में ढला और लिपि की उत्पत्ति हुयी। इस प्रकार मनुष्य ने अपनी आवश्यकतानुसार लिपि को रूप प्रदान किया।

लिपि का विकास- अब तक प्राप्त प्राचीनतम सामग्री के आधार पर हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि 4000 ई० पूर्व के मध्यकाल तक लेखन परंपरा की किसी भी सुव्यवस्थित प्रणाली का प्रादुर्भाव विश्व के किसी भी स्थान पर नहीं हो पाया था। इसके लिए जो प्राचीनतम प्रयत्न किए गए वह 10,000 ई0पू0 से कुछ समय पूर्व ही किये गये थे। इस बीच के समय में जो 10,000 ई०पू० से 4000 ई0पू0 तक है लिपि का विकास अपने प्रथम स्वरूप में धीरे-धीरे विकसित होता रहा।

लिपि के विकास क्रम की विभिन्न दशायें-

  1. चित्र लिपि 2. सूत्र लिपि 3. प्रतीकात्मक लिपि 4. भाव मूलक लिपि 5. भाव ध्वनि मूलक लिपि, 6. ध्वनि मूलक लिपि।
  2. चित्र लिपि- यह लिपि का सबसे प्राचीन व लोकप्रिय रूप माना जाता है क्योंकि यह लिपि विस्तार में व्यापक रही होगी और लोग इसे सर्वत्र समझ भी लेते होंगे। इस लिपि के अंतर्गत किसी विशेष वस्तु को लिपिबद्ध न करके उसके लिए उसका चित्र बना दिया जाता था। जैसे-सूर्य के लिए गोला और उसके चारों तरफ निकलती रेखायें, आदमी, पशु, पक्षी के लिए भी उन्हीं का चित्र बना दिया जाता था। चित्र लिपि प्राचीन काल से आज तक किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है। भौगोलिक नक्शों में मंदिर, मस्जिद, नदियाँ, सड़कें, पहाड़, बड़े-बड़े महानगर हवाई अड्डे, रेलमार्ग, आदि चित्रों के द्वारा प्रकट किये जाते हैं।

चित्र लिपि के दोष-

(1) स्थान की अधिकता होनी चाहिए। (2) चित्र बनाने में अधिक समय लगना। (3) सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति में असमर्थता (4) लिपि संकेतों की अनंतता व पृथकता। (5) समय व काल की अभिव्यक्ति में भी असमर्थ होना। (6) कुछ लोग चित्र बनाने में अपने को असमर्थ पाते थे।

इस प्रकार चित्र लिपि में अनेक कठिनाइयाँ थीं और इसको दूर करने के उद्देश्य से सूत्र लिपि को अपनाया गया।

  1. सूत्र लिपि- सूत्र लिपि प्राचीन काल से वर्तमान समय तक किसी न किसी रूप में चली आ रही है। इस लिपि में सूत्रों (रस्सियों) में गाँठ लगाकर अपने भावों को व्यक्त किया जाता है। प्राचीन समय में लोग सूत्र, पेड़ों की छालों, रस्सियाँ आदि में गाँठ बाँध दिया करते थे। आज भी वर्षगाँठ आदि के अवसर पर इसके उपयोग को देखा जा सकता है।

सूत्र लिपि में निम्न प्रकार के प्रयोग करके अपने भावों को व्यक्त किया जाता था-

(1) रस्सी में रंग बिरंगे सूत्र बाँध कर।

(2) रस्सी को रंग-बिरंगे रंगों से रंग कर।

(3) रस्सी को या जानवरों की खालों को विभिन्न प्रकार के मोती, घोंघे, मूँगे, मनके या अन्य चिन्ह बाँध कर।

(4) रस्सियों की विभिन्न लंबाइयों को बनाकर।

(5) रस्सी की मोटाई में अंतर रखकर।

(6) रस्सी में गाँठ के स्थानों की दूरियों में भिन्नता करके तरह-तरह की गाँठ लगाकर।

(7) विभिन्न प्रकार के डंडों में भिन्न-भिन्न मोटियों या रंगों की रस्सी बाँधकर ।

चीन तथा तिब्बत में प्राचीनकाल में भी सूत्र लिपि का व्यवहार होता था। संथालो तथा जापान के कुछ द्वीपों में आज भी सूत्र लिपि का प्रयोग कुछ रूपों में होता आ रहा है।

  1. प्रतीकात्मक लिपि- प्रतीकों द्वारा संदेश भेजने की प्रथा भी अति प्राचीन काल से विभिन्न देशों में प्रचलित है। तिब्बती चीनी सीमा पर मुर्गी के बच्चे का कलेजा, उसकी चर्बी के तीन टुकड़े तथा एक मिर्च के साथ लाल कागज में लपेट कर भेजे जाने का अर्थ हो जाता था कि लड़ने के लिए तैयार हो जाओ। हमारे यहाँ उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जातियों में लड़की के विवाह का निमंत्रण हल्दी भेजकर व लड़के के विवाह का निमंत्रण सुपारी भेजकर दिया जाता है। अधिकांश भागों में किसी व्यक्ति की मृत्यु संबंधी सूचना वाला पत्र कोने से फाड़ दिया जाता है और उसे लाल रंग की स्याही से लिखा जाता है। परंतु इस प्रकार के प्रतीकों को सभी लोग समझ सकें यह संभव नहीं हो पाता था। इसका प्रयोग सीमित ही रहा।
  2. भावमूलक लिपि- यह लिपि चित्र से ही विकसित हुई। जब चित्र लिपि के द्वारा सभी चित्रों, व्यक्तियों के चित्र ठीक-ठीक नहीं बन पाते थे तब शनैः शनैः पूर्ण चित्रों का स्थान अपूर्ण चित्रों और भावाभिव्यक्ति के लिए सूक्ष्म संकेतों ने ले लिया। इस लिपि में चित्र वस्तुओं के प्रतिनिधि नहीं होते, अपितु इन वस्तुओं से संबंधित भावों के भी घोतक होते हैं, उदाहरणस्वरूप चित्र लिपि में सूर्य के लिए केवल एक गोला बनाते हैं, परंतु भाव लिपि में यह एक वृत्तक का ही नहीं बल्कि वह ‘उष्णता’ ‘प्रकाश, ‘गर्मी’, ‘दिन’, ‘सूर्य’, से संबंधित देवता का द्योतक है। भाव लिपि पैरों के लिए दो रेखाओं से ही व्यक्त किया जा सकता है।

विभिन्न देशों की भाव लिपियों में भी बहुत कम अंतर देखने को मिलता है। उदाहरणस्वरूप- दुःख के भाव-बोध के लिए आँख का चित्र बनाकर अनुवाद कराना, प्रायः केलिफोर्निया, अमेरिका के मूल निवासी, तथा चीनी लोगों की लिपियों में मिलता है। इसी प्रकार अस्वीकृति के लिए पीठ फेर लेना, युद्ध के लिए शस्त्र उठाना, दोस्ती के लिए हाथ मिलाना, आदि को विभिन्न देशों की भावलिपियों द्वारा प्रदर्शित किया जाता रहा है।

  1. भाव-ध्वनि मूलक लिपि- यह लिपि एक प्रकार से अत्यधिक समुन्नत चित्र लिपि है। इस लिपि में भावमूलक व ध्वनि मूलक दोनों ही प्रकार के संकेत रहते हैं। अतः यह कुछ बातों में भावमूलक है तथा कुछ बातों में ध्वनिमूलक। आधुनिक चीनी लिपि भी कुछ अंशों में इसी के अंतर्गत आती है। कुछ विद्वान सिंधु घाटी की लिपि को भी इस श्रेणी की लिपि के अंतर्गत रखते हैं।
  2. ध्वनिमूलक लिपि- लिपि के इतिहास में ध्वन्यात्मक लिपि का स्थान बहुत ऊंचा है। यह लिपि के विकास की अंतिम एवं महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इसमें पूर्ण या अपूर्ण चित्रों के स्थान पर ध्वनियों को लिखा जाता है। भाषा में प्रयुक्त ध्वनियों के एक निश्चित ध्वनि चिन्ह होते हैं उनका प्रयोग होता है, तथा उनके द्वारा भावों-विचारों को अभिव्यक्त किया जाता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें भाषा व लिपि एक दूसरे का अंग बन जाती है। देवनागरी, अरबी तथा रोमन आदि लिपियाँ, इसके अंतर्गत आती हैं।

इस लिपि के दो भेद हैं-

(1) अक्षरात्मक लिपि, (2) वर्णनात्मक लिपि ।

(1) अक्षरात्मक लिपि- इस लिपि में संकेत किसी अक्षर को व्यक्त करता है वर्ण को नहीं। नागरी लिपि अक्षरात्मक है तथा रोमन वर्णनात्मक। उदाहरण-नागरी लिपि के ‘क’ चिन्ह कृ +अ (दो वर्ग) मिले हैं। पर रोमन में K में केवल क है। अक्षरात्मक लिपि सामान्य प्रयोग की दृष्टि से अधिक उपयोगी है, परंतु ध्वनि विश्लेषण इतनी सुंदरता से नहीं हो पाता। अतः इसकी लिपि अच्छी नहीं लगती, उदाहरणार्थ- ‘विराट’ की ध्वनियों का विश्लेषण नागरी लिपि के द्वारा व+ई+र्+आ+ट्+अ होगा। यही विश्लेषण रोमन में v-i-r-a-t-a होगा।

(2) वर्णनात्मक लिपि- यह लिपि विकास की अंतिम सीढ़ी है। इस लिपि में ध्वनि की प्रत्येक इकाई के लिए अलग-अलग चिन्ह होते हैं, भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह आदर्श लिपि है। रोमन लिपि इसी के अंतर्गत आती है। इसमें कुल 26 वर्ण हैं। इन्हें आसानी से सीखा जा सकता है। वर्णनात्मक लिपि की सबसे बड़ी विशेषता है कि किसी प्रकार की कठिनाई के बिना इसकी सहायता से अनेक भाषाओं को लिया जा सकता है। वर्णनात्मक लिपि के कारण आज समस्त विश्व में साहित्य का भंडार भरा पड़ा है।

देवनागरी लिपि नाम पड़ने का कारण

इस लिपि का नाम देवनागरी लिपि-नागर नागरी पड़ने के विविध कारण बतलाये जाते हैं। अनेक विद्वानों के इस बारे में अलग-अलग मत है जो निम्नलिखित हैं-

(1) कुछ भाषाविदों का मत है कि गुजरात के ‘नागर ब्राह्मणों’ में प्रचलित होने के कारण ही यह लिपि ‘नागरी’ कहलायी।

(2) कुछ विद्वान इसका संबंध ‘नागर’ शब्द से जोड़ते हैं। ‘नागर’ का अर्थ वे नगर (शहर) से लगाते हैं, अर्थात् नगरों में प्रचलित होने के कारण यह ‘नागरी लिपि’ कहलायी।

(3) बौद्धों के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ललित बिस्तर’ की ‘नागलिपि’ से भी इसका संबंध लगाया जाता है किंतु डॉ० एल०डी० वार्नेट के अनुसार ‘नाग-लिपि’ तथा नागरी का कोई संबंध नहीं है।

(4) देवभाषा संस्कृत के लिखने में इसका प्रयोग होता है। अतः यह देवताओं की भाषा होने के कारण यह लिपि ‘देवनागरी लिपि’ कहलायी।

(5) एक अन्य मत के अनुसार मध्य युग में स्थापत्य की एक शैली थी जिसे नागर कहा जाता था, इसमें चतुर्भुजी आकृतियाँ होती थी। नागरी लिपि में भी चतुर्भुजी अक्षरों (म, प, य) के कारण इसे नागरी कहा गया।

(6) तांत्रिक यंत्रों में बनने वाले चिन्ह ‘देवनागर’ से मिलते-जुलते अक्षरों के कारण इस लिपि को देवनागरी कहा जाने लगा। ओझा जी व श्री आर0 शाम शास्त्री ने भी इस बात का समर्थन किया है।

(7) देवनगर अर्थात् काशी में प्रचलित हो जाने के कारण यह देवनागरी कहलायी।

इन समस्त मतों पर दृष्टिपात करके हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ये अनुमान पर आधारित है। नागरी का मूल अर्थ क्या है यह निश्चित रूप से कहना कठिन है।

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