भारतीय लिपियों की उत्पत्ति | सिंधु घाटी की लिपि | ब्राह्मी लिपि | खरोष्ठी लिपि
भारतीय लिपियों की उत्पत्ति
प्राचीनकाल में, भारत में, ब्राह्मी, खरोष्ठी तथा सिंधु घाटी की लिपियाँ प्रचलित थीं। इसमें सिंधु घाटी की लिपि का पता तो मोहन-जोदड़ो तथा हड़प्पा की खुदाई होने के बाद ज्ञात हुआ। ब्राह्मी व खरोष्ठी का ज्ञान विद्वानों को पहले से ही था। ब्राह्मी तथा खरोष्ठी की उत्पत्ति के बारे में भी विद्वानों में बहुत मतभेद है, परंतु फिर भी विदेशी ग्रंथों द्वारा भारत में लिपि ज्ञान की प्राचीनता के संबंध में प्रमाण मिलते हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत में लिपि ज्ञान के अत्यंत प्राचीन काल में होने का उल्लेख किया है। कुछ पुराने सिक्के तथा ब्रह्मा व सरस्वती की मूर्तियों (जिनके हाथ में पुस्तक है) से भी भारत की लेखन कला की प्राचीनता के प्रमाण मिलते हैं। भारत में पुराने सिक्कों पर दो लिपियाँ (ब्राह्मी, खरोष्ठी) मिलती है। भारतीय लिपियों के अंतर्गत मुख्यतः तीन लिपियों को बताया जाता है-
1. सिंधु घाटी की लिपि 2. ब्राह्मी लिपि 3. खरोष्ठी लिपि ।
1. सिंधु घाटी की लिपि- प्राचीन विद्वान भारतीय सभ्यता का आरंभ यहाँ आर्यों के आगमन के बाद ऋग्वेद के रचना काल से मानते थे। सिंधु घाटी की सभ्यता का पता लगने पर उनकी यह धारणा गलत साबित हुई। मोहन जोदड़ो तथा हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त प्रमाणी के आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि सिंधु घाटी के निवासी सभ्यता के उच्च शिखर पर पहुंच चुके थे। हड़प्पा की सर्वप्रथम खोज मैसन ने सन् 1820 में की थी। बाद में सन् 1929 से 1984 तक यहाँ यह महत्वपूर्ण खुदाई हुई।
सिंधु घाटी के महत्वपूर्ण-सामग्री में चित्र लिपि से संयुक्त अनेक मुद्रायें प्राप्त हुई हैं। इन सुंदर चित्रों से युक्त मुद्राओं से उनकी चित्रकला की दक्षता का अनुमान लगाया जा सकता है। इन मुद्राओं पर अंकित लिपि अभी तक विद्वानों के लिए एक पहेली लिपि स्वरूप ही है। इस काल की लिपि के बारे में विद्वानों में बहुत मतभेद हैं-
(1) डॉ० प्राणनाथ के अनुसार सिंधु घाटी की लिपि का संबंध प्राचीन वैदिक संस्कृत से है।
(2) कुछ विद्वान इसे द्रविड़ लिपि मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार सिंधु घाटी की सभ्यता द्रविड़ सभ्यता थी।
(3) कुछ विद्वानों के अनुसार आर्यों से संबंधित लोग ही सिंधु घाटी की सभ्यता द्रविड़ सभ्यता थी।
(3) कुछ विद्वानों के अनुसार आर्यों से संबंधित लोग ही सिंधु घाटी के निवासी थे। इस लिपि का आविष्कार उन्होंने ही किया था।
(4) सिंधु घाटी की लिपि को भाव-ध्वनि मूलक भी बताया जाता है। परंतु इन सबमें अभी बहुत मतभेद है।
(5) कुछ विद्वान यह मानते हैं कि सिंधु घाटी की लिपि उस लिपि से उत्पन्न हुई है जिससे वाण-मुख तथा एलामीय लिपियाँ उत्पन्न हुई थी। परंतु निश्चित रूप से इस संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता है।
- ब्राह्मी लिपि- प्राचीनतम लिपियों में यह सर्वप्रमुख रही। यह अन्य लिपियों की अपेक्षा वैज्ञानिक थी। ऐसा कहा जाता है कि ब्राह्मी (वेद-ज्ञान) की रक्षा के लिए भारतीय आचार्यो ने इसका निर्माण किया था। इसलिए इसका नाम ब्राह्मी पड़ा। ऐसा भी मत है कि ब्राह्मण विदेशी भाषा से निकली है, तथा दूसरे के अनुसार इसका उद्भव और विकास भारत में हुआ है।
(क) ब्राझी स्वदेशी लिपि- पहले मत के विषय में कई मत हैं।
(i) द्रवड़ीय उत्पत्ति- एडवर्ड थॉमस तथा कुछ अन्य विद्वानों का यह मत है कि ब्राह्मी लिपि के मूल आविष्कर्ता द्रविड़ थे। आर्यों ने इन्हीं से वह लिपि सीखी किंतु ब्राह्मी का कोई भी प्राचीनतम नमूना अभी तक दक्षिण भारत (जो द्रविड़ों का निवास क्षेत्र था) से नहीं प्राप्त हुआ। ब्राह्मी लिपि के सभी शिलालेख भी उत्तर भारत में मिले हैं, दूसरे द्रविड़ों की प्राचीनतम तमिल लिपि अपूर्ण लिपि है उससे ब्राह्मी जैसे लिपि का विकास संभव नहीं है, यह मत अमान्य है।
(ii) सांकेतिक चिन्हों से उत्पत्ति- इसके अनुसार देवताओं की मूर्तियाँ बनने से पूर्व सांकेतिक चिन्हों द्वारा उनकी पूजा होती थी जो कई त्रिकोण तथा चक्रों आदि से बने हुए यंत्र के मध्य लिखे जाते थे। ये यंत्र देवनगर कहलाते थे। देवनगर के मध्य लिखे जाने वाले अनेक सकितिक चिन्ह कालांतर में उन-उन नामों के पहले अक्षर माने जाने लगे और देवनगर के मध्य उसका स्थान होने से उनका नाम देवनागरी हुआ परंतु इससे यह सिद्ध नहीं हो पाया कि जिन तांत्रिक पुस्तकों से अवतरण दिये गये हैं, वे वैदिक साहित्य से पहले के हैं या काफी प्राचीन है, यह मत मान्य नहीं हो सकता।
(iii) आर्य अथवा वैदिक उत्पत्ति– कनिंघम, आठसन, लैसेन आदि विद्वानों के मतानुसार ब्राह्मी लिपि का विकास प्राचीन भारतीय चित्र लिपि से हुआ। परंतु बूलर ने इसका विरोध करते हुए बताया कि जब भारत में कोई चित्रलिपि मिलती ही नहीं, तो चित्रलिपि से ब्राह्मी के विकसित होने की कल्पना निराधार है, परंतु संयोग से सिंधु घाटी में चित्रलिपि मिल गयी है। अतः पूर्ण रूप से तब ही सामने आयेगी जब सिंधु घाटी की लिपि पढ़ ली जायेगी। तब तक ब्राह्मी के साथ उसका संबंध जोड़ना अनुचित है।
(ख) ब्राह्मी किसी विदेशी भाषा से निकली है- इस संबंध में विभिन्न विद्वानों नें अपने अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं।
(1) सामी (सोमेटिक) से ब्राह्मी की उत्पत्ति- (अ) वेबर, बेनफ, बेनसन, एवं बूलर आदि विद्वानों का मत है कि ब्राह्मी लिपि ‘फोनेशीय लिपि’ से उद्भूत है। ब्राह्मी लिपि के एक तिहाई वर्ण फोनेशीय लिपि से मिलते हैं। बाकी एक तिहाई ब्राह्मी और फोनेशीय वर्णों में बहुत कुछ समानता है और अवशिष्ट वर्णों की समानता भी जैसे-तैसे सिद्ध हो जाती है- यही इस मत का आधार है। किंतु डॉ० राजबली पांडे ने ऋग्वेद से प्रमाणित किया है कि फोनेशीय लोग भारत के ही निवासी थे और उन्होंने बाहर जाने पर ब्राह्मी लिपि के आधार पर फोनेशीय लिपि की रचना की।
(ब) टेलर, डीके, सेथ, कैनन आदि के अनुसार ब्राह्मी लिपि का विकास ‘दक्षिणी सामी लिपि’ से हुआ परंतु यह मत भी पूर्णतः वैज्ञानिक नहीं है क्योंकि ‘दक्षिणी सामी लिपि’ का ब्राह्मी लिपि से किसी भी प्रकार का कोई साम्य नहीं मिलता। डॉ0 बूलर ने अपने विशिष्ट तर्कों द्वारा इस मत का खंडन किया है।
(स) डॉ. बूलर तथा डॉ. डिरिगर का कहना है कि ब्राह्मी लिपि ‘उत्तरी सामी लिपि’ से विकसित हुई। इन दोनों विद्वानों के अनुसार ब्राह्मी तथा सामी लिपि में समता यही सिद्ध करती है। किंतु डॉ० राजबली पांडेय ने इस मत का भी प्रबल तकों के आधार पर खंडन कर दिया है।
(2) चीनी लिपि से उत्पत्ति- फ्रांसीसी विद्वान कुपेरी के अनुसार ब्राह्मी लिपि का उद्भव चीनी लिपि से हुआ। परंतु यह इसलिए मान्य नहीं है कि ब्राह्मी लिपि में चीनी लिपि की एक भी विशेषता नहीं है। चीनी की अपेक्षा ब्राह्मी अधिक वैज्ञानिक है- चीनी चित्रात्मक है, किंतु ब्राह्मी ध्वन्यात्मक है।
(3) ग्रीक से ब्राह्मी की उत्पत्ति- प्राचीन यूरोपीय पंडितों की यह एक प्रमुख विशेषता रही है कि भारत की लेख-वस्तु का उद्गम वे ग्रीक से मानते रहे हैं। ओ0 मूलर, जेम्स, होसेफ, हाल्वे और बिल्सन आदि ब्राह्मी लिपि को ग्रीक से उत्पन्न हुआ मानते हैं। बूलर ने इस सिद्धांत को भी सर्वया अमान्य उहरा दिया।
संक्षेप में, उपर्युक्त तकों के आधार पर ब्राह्मी लिपि को भारतीय लिपि मानना ही अधिक उचित प्रतीत होता है। वैज्ञानिक अंक-प्रणाली तथा दशमलव-प्रणाली की आविष्कारक जाति अपने लिए लिपि का आविष्कार भी स्वयं कर सकती है। ब्राह्मी में ध्वनि संकेतों की संसार की सभी लिपियों से अधिक है। आधुनिक समस्त भारतीय लिपियाँ इसी से विकसित हुई है।
ब्राह्मी लिपि की विशेषताएँ-
(1) इसने सभी वर्ण जिस प्रकार उच्चारित होते हैं, उसी प्रकार लिखे जाते हैं।
(2) प्रायः सभी उच्चरित ध्वनियों के लिए निश्चित चिन्ह हैं।
(3) स्वरों व व्यंजनों की संख्या पर्याप्त है।
(4) स्वरों और व्यंजनों का संयोग मात्राओं द्वारा होता है।
(5) ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के लिए भिन्न-भिन्न चिन्ह मिलते हैं।
(6) ध्वनियों के उच्चारण के स्थान के अनुसार इसके वर्ण सुनियोजित हैं।
(7) इसके ध्वनि संकेत, संस्कृत भाषा की सभी ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
(8) इसमें स्वरों व व्यंजनों का संयोग मात्राओं द्वारा होता रहा है।
ब्राह्मी लिपि को भारतीय आर्यो का अपना आविष्कार माना गया है, इसलिए स्पष्ट है कि ब्राह्मी लिपि न तो किसी विदेशी लिपि की अनुकृति है और न ही विदेशी लिपि से प्रस्तुत हुई है वरन् यह भारतीय मनीषियों के स्वतंत्र चिंतन-मनन का ही फल है।
ब्राह्मी लिपि से भारत की द्रविड़ लिपियों को छोड़कर शेष समस्त लिपियाँ उद्भूत तथा विकसित है।
ब्राह्मी लिपि का काल ई0पू0 500 से सन् 350 ई0 तक माना जाता है। यह लिपि भारत की सीमा से बाहर विदेशों में भी गई तथा वहाँ इसके रूप में धीरे-धीरे भिन्नता आ गई। 350 ई0 के बाद इसकी दो शैलियाँ प्रमुख रूप से मिलती हैं-
(क) उत्तरी शैली इसके अंतर्गत चार लिपियाँ हैं।
(ख) दक्षिणी शैली के अंतर्गत छः लिपियाँ हैं।
(1) गुप्त लिपि- गुप्त काल के राजाओं के समय यह लिपि प्रचलित थी। अतः विद्वानों ने इसे गुप्त लिपि का नाम दिया।
(2) कुटिल लिपि- इसका विकास गुप्त लिपि से हुआ। इस लिपि की विशेषता यह है कि इसमें शब्दों की आकृति कुछ टेढ़ी होती है। इसी कारण इसका नाम कुटिल लिपि पड़ा। नागरी तथा शारदा लिपियाँ इसी से निकली हैं।
(3) शारदा लिपि- इस प्रकार का क्षेत्र उत्तर-पश्चिमी (कश्मीर, सिंध तथा पंजाब) में रहा। कश्मीर की शारदा देवी की बहुत महिमा है और इसी आधार पर कश्मीर की लिपि को शारदा लिपि कहा जाता है। कुंटिल लिपि से ही इसका उद्भव व विकास हुआ। आधुनिक काल की शारदा, टक्री, लराडा, गुरुमुखी, डोग्री, चमेआली तथा कोंछी आदि लिपियाँ शारदा लिपि से ही निकली। कश्मीर लिपि कश्मीर सो प्रचलित तथा टाकरी लिपि टक्क जाति में प्रचलित थीं। इसी से डाँगरी, अमेआली, सिरमोरी, कोंछी लिपियाँ जन्मी हैं।
(4) प्राचीन नागरी लिपि- इसे नागरी अथवा देवनागरी लिपि भी कहते हैं, यह उत्तरी लिपि मानी गयी है, परंतु दक्षिणी भाग में भी 8वीं सदी से यह मिलती है, परंतु यहाँ उसका नाम नागरी न होकर नंद नागरी है। नागरी का मूल अर्थ क्या है इसमें तो मतभेद हो सकता है, परंतु फिर भी कुछ विद्वानों के अनुसार बौद्धों के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ललित-बिस्तर’ की नाग लिपि ही नागरी है। कुछ लोग इसका संबंध नगर से जोड़ते हैं, अन्य के अनुसार देवताओं की भाषा संस्कृत को लिखने के लिए यह प्रयुक्त की गई, इस कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
यह लिपि 11वीं शताब्दी तक पूर्ण विकसित हो चुकी थी तथा समस्त उत्तरी भारत में सर्वत्र प्रसार था। गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र में ताड़ पत्र पर लिखे हुए एक अनेक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की उपलब्धि हुई है। भारत की एकता की दृष्टि से आज यह सोचा जा रहा है कि इस लिपि में सभी प्रादेशिक भाषायें लिखी जायें।
आधुनिक काल की नागरी या देवनागरी, गुजराती, महाजनी, राजस्थानी तथा महाराष्ट्री आदि लिपियाँ प्राचीन नागरी के पश्चिमी रूप से विकसित हुई है तथा कैथी, मैथिली, बंगला आदि लिपियों का विकास इसके पूर्वी रूप से हुआ है।
(ख) दक्षिणी भारत की लिपियाँ- दक्षिणी शैली के अंतर्गत 6 लिपियाँ हैं- (1) तेलगू- कन्नड़ लिपि, (2) तमिल लिपि, (3) ग्रंथ लिपि (4) कलिंग लिपि (5) पश्चिमी लिपि, (6) मध्यदेशीय लिपि।
(1) तेलगू कन्नड़-लिपि- ब्राह्मी की दक्षिणी शैली से विकसित यह लिपि वर्तमान तेलगू व कन्नड़ लिपियों की जननी भी है। यह लिपि महाराष्ट्र, शोलापुर तथा मद्रास के उत्तर-पूर्वी भाग, बेलगाँव, धारवाड़ तथा मैसूर के कुछ हिस्सों में प्रचलित रही है। 14वीं सदी के आस-पास ही इससे तेलगू व कन्नड़ लिपियाँ विकसित हुई।
(2) तमिल लिपि- वर्तमान लिपि की यह जननी है। इसके अक्षर ग्रंथ लिपि से मिलते हैं पर साथ ही साथ ‘क’ तथा ‘र’ ब्राह्मी की उत्तरी शैली से लिये गये मालूम पड़ते हैं।
(3) ग्रंथ लिपि- संस्कृत ग्रंथों को लिखने के लिए इसका प्रयोग होता था। इसी से इसका नाम ग्रंथ लिपि पड़ा। इसका प्राचीन रूप वट्टेलहु नाम से विख्यात है।
(4) पश्चिमी लिपि- यह लिपि ब्राह्मी की दक्षिण शैली से विकसित है। इसका क्षेत्र भारत में मध्य तथा दक्षिणी में पश्चिमी प्रदेश हैं।
(5) कलिंग लिपि- ब्राह्मी की दक्षिणी शैली से इसका विकास हुआ। इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं।
(6) मध्यदेशीय लिपि- इसका क्षेत्र मध्यप्रदेश, बुंदेलखंड, हैदराबाद राज्य का उत्तरी भाग तथा मैसूर के कुछ अन्य भाग भी है। इसका भी विकास ब्राह्मी की दक्षिण शैली से हुआ।
ब्राह्मी के साथ-साथ भारत में एक अन्य लिपि भी प्रचलित थी तथा यह लिपि खरोष्ठी कहलाती थी। खरोष्ठी लिपि के नामकरण के बारे में भी विद्वानों में बहुत अधिक मतभेद हैं।
खरोष्ठी लिपि नाम पड़ने के कारण-
(1) कुछ विद्वानों के अनुसार इस लिपि के आविष्कार कर्ता का नाम खरोष्ठ रहा होगा इसलिए इसका नाम खरोष्ठी पड़ा।
(2) यवन, शब्द तथा तुषार लोगों की तरह खरोष्ठ भी जाति-वाचक शब्द है। खरोष्ठ लोग बर्बर तथा असभ्य होते थे।
(3) इस लिपि का केंद्र बिंदु मध्य एशिया का प्रांत ‘काशगर’ था और खरोष्ठ काशगर का ही संस्कृत रूप है।
(4) गधे की खाल पर लिखे जाने से भी इसका नाम खरोष्ठ पड़ा, क्योंकि गधे की खाल को ईरानी खरपोश्त कहते हैं और उसी का अपभ्रंश रूप खरोष्ठ हुआ।.
(5) खरोष्ठ यानि गधे के ओठ वाली। इस लिपि के अधिक अक्षर गधे के ओंठ की तरह बेढंगे से हैं अतः इसी से इसका नाम खरोष्ठ पड़ा।
(6) यह कोई आर्य लिपि नहीं थी और थोड़ी होने के कारण जनसाधारण में प्रिय भी नहीं थी अतः इसे हीन समझ कर खरोष्ठी जैसी संज्ञा दी गयी।
खरोष्ठी लिपि की उत्पत्ति-
इसकी उत्पत्ति के संबंध में भी दो मत हैं-
(अ) यह आर्येइक लिपि से निकली है।
(आ) यह शुद्ध भारतीय लिपि है।
(अ) पॉ० गौरीशंकर हीरानंद ओझा ने इसकी उत्पत्ति प्राचीन ईरानी लिपि ‘आर्येइक’ से बतायी है। उनके अनुसार ईरानियों ने भारत आगमन के बाद जब भारतीयों की भाषा को सीख लिया था तब उन्होंने अपनी ईरानी लिपि में कुछ अदला-बदली करके काम चलाने के उद्देश्य से एक नई लिपि बना ली थी।
(आ) दूसरा मत केवल तर्क पर आधारित है उसके लिए कोई ठोस आधार नहीं है।
खरोष्ठी लिपि की विशेषतायें-
(अ) खरोष्ठी लिपि में वैज्ञानिकता का अभाव।
(ब) इसके लिखने का ढंग उर्दू की भांति दाहिनी ओर से बाँयी ओर को होता है।
खरोष्ठी लिपि भारत में ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दी तक रही और बाद में यह लिपि सदा के लिए समाप्त हो गयी।
प्राचीन नागरी या नागरलिपि
इसे देवनागरी या नागर लिपि भी कहा जाता है। उत्तर भारत में नवीं शताब्दी के अंतिम चरण में यह लिपि मिलती है। प्राचीन काल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात एवं राजस्थान में इसका प्रसार व प्रचार था। दक्षिण भारत में इस लिपि को नागरी न कहकर नंदनागरी कहा जाता है। आज भी दक्षिण भारत में संस्कृत ग्रंथों की रचना करने में इस लिपि का प्रयोग किया जाता है।
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