युद्ध पर ग्रीन के विचार | युद्ध पर ग्रीन के विचारों का मूल्यांकन
युद्ध पर ग्रीन के विचार
यद्यपि ग्रीन परम्परागत रूप से समझे जाने वाले प्राकृतिक आपकारों के विरुद्ध हैं फिर भी युद्ध पर उसके विचारों में इन प्राकृतिक अधिकारों के उपरिलिखित विचारों को ढूंढा जा सकता है। ग्रीन के अनुसार जीवन का अधिकार मूलभूत अधिकार है जिसके बिना और किसी अधिकार का कोई मूल्य नहीं। वास्तव में जीवन का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से पूर्व जीवन का आधार प्रारम्भिक आवश्यकता है जैसा कि डॉयल लिखते हैं, ग्रीन के लिए जीवन का अधिकार सार्वभौमिक भाई-चारे का आधार तत्त्व है जिसमें सभी राष्ट्र चाहे कितने भी जागृत क्यों न हों, इस प्रारम्भिरक आवश्यकता को लेकर सहमत हैं। इसलिए ग्रीन की वह धारणा, युद्ध के प्रति रवैये को एक सैद्धान्तिक उचितता प्रदान करती है, जो मैकगोवर्न (McGovem) के शब्दों में, “ग्रीन का महान् संविधान” (Green’s Great constitution) है। बेकर (Baker), ठीक ही कहते हैं कि, “ग्रीन का युद्ध पर विचार उसके संभाषण का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।”
हीगल की तरह ही जो युद्ध को भला कहता था, ग्रीन ने युद्ध को एक बुराई कहकर निन्दा की है क्योंकि यह मानवीय जीवन का विध्वंसक है। युद्ध पर ग्रीन के विचार को निम्नलिखित शीर्षकों में बाँट सकते हैं-
युद्ध एक निर्बाध अधिकार नहीं है-
युद्ध की अपनी धारणा में ग्रीन हीगल से अधिक मतभेद रखता था। ग्रीन के अनुसार, “युद्ध एक निर्बाध अधिकार नहीं हो सकता। इससे स्वतन्त्र जीवन के मानव के अधिकार का उल्लंघन होता है।” पहली गलतियों को सुधारने के लिए नयी गलतियाँ करना उचित नहीं। जैसा कि बेकर (Baker) लिखते हैं कि, “जो गलतियाँ ठीक हो जाएँ, वे गलतियाँ ही रहती हैं तथा वे जिन्होंने यह पुरानी गलतियाँ की होती हैं वही नयी गलतियों के उत्तरदायी होते हैं, जो इसे ठीक करती हैं। इसमें कहीं न कहीं तो दोष है।” ग्रीन के अनुसार, युद्ध किसी राज्य का आवश्यक आधारभूत तत्त्व नहीं है जैसा कि हीगल सोचते हैं। बल्कि यह तो एक अपूर्ण राज्य के लक्षण हैं। पूर्ण राज्यों के बीच युद्ध का खतरा भी उतना ही कम होगा। परिणामस्वरूप साझे भले ही भावना ज्यादा होगी तथा युद्ध की सम्भावना कम होगी।
यह व्यक्ति का अधिकार नहीं है कि वह अपनी इच्छा से जीवन रखे या समाप्त करे-युद्ध के पक्ष में दूसरा तर्क यह है कि युद्ध में सैनिक लड़ते हैं तथा स्वेच्छा से अपने जीवन जोखिम में डालते हैं तथा इसलिए कुछ गलत नहीं हो सकता। ग्रीन इस विचार पर सहमत नहीं थे। इस तर्क के उत्तर में ग्रीन यह तर्क रखते हैं कि किसी भी व्यक्ति को अपनी खुशी से जीवन रखने या समाप्त करने का अधिकार नहीं है। यह भी कदाचित गलत है कि आदमी दास बन जाये क्योंकि उसने अपने आप को दासता में बेच दिया है। व्यक्ति का अधिकार है कि वह जीवित रहे, परन्तु इसी अधिकार का दूसरा वह पक्ष है जो समाज का है जो उसे जिन्दा देखना चाहता है। मानव अब अपनी स्वेच्छा से इससे छुटकारा नहीं पा सकता उसे सामाजिक क्षमता का भी ध्यान रखना होता है, मानवीय स्वभाव इसका आधार हैं।
यह नैतिक गलती है-
ग्रीन के अनुसार युद्ध नैतिक गलती है। यह बहस करना गलत है कि जो व्यक्ति युद्ध में मर जाते हैं वे किसी को विशिष्ट रूप में मारना नहीं चाहते। ग्रीन के अनुसार कोई व्यक्ति जंगली जानवर से या बिजली के झटके से मर जाता है तो कोई अधिकार नहीं टूटता क्योंकि व्यक्ति और जंगली जानवर तथा व्यक्ति तथा बिजली के बीच कोई अधिकार नहीं है, परन्तु युद्ध में मृत्यु तो व्यक्तिगत एजेन्सी या अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सी द्वारा विशिषट रूप से होती है।
युद्ध में गुणों का पता चलता है, कि इस आधार पर युद्ध को ढाल देना गलत है कुछ लोग युद्ध के पक्ष में होते हैं क्योंकि इससे वीरता तथा आत्म-बलिदान के गुण उभर कर सामने आते हैं, परन्तु ग्रीन का विचार है कि इसतरह के गुणों की वजह से किसी का जीवन लेना गलत है। उसका कहना है कि कई दूसरे साधनों से भी इस तरह के गुणों की प्राप्ति हो सकती है। ग्रीन के अनुसार युद्ध की कोई भी स्थिति व्यक्ति द्वारा व्यक्ति की बरबादी नहीं कर सकती सिवाय गलती के, चाहे गलती का हमेशा युद्ध के सभी भागीदारी पर आरोप नहीं लगाया जा सकता। राज्यों के बीच कोई भी अनिवार्य झगड़ा नहीं हो सकता। राज्य के स्वरूप में कुछ भी ऐसा नहीं है जो कि विभिन्न स्तरों पर, एक का लाभ तथा दूसरे की हानि बन सके। इससे प्रत्येक व्यक्ति एक विशेष भू-क्षेत्र के अन्दर रहने वाले सभी व्यक्तियों की सभी क्षमताओं को स्वतन्त्र क्षेत्र देने के उद्देश्य को अधिक अच्छी तरह प्राप्त कर सकता है, दूसरों के लिए भी ऐसा करना सरल हो जाता है तथा जैसे ही वे सभी थोड़ा-थोड़ा ऐसा करते हैं संघर्ष का संकट ही समाप्त हो जाता है।
यह सोचना भी गलत है कि युद्ध अपरिहार्य है-
ग्रीन कहते हैं कि यह सोचना गलत है कि राज्यों के अस्तित्व के लिए युद्ध एक आवश्यक घटना है। ग्रीन के लिए राज्य एक संस्था है जिसमें वे सभी क्षमताएँ जो अधिकारों में बढ़ोत्तरी करती हैं स्वतन्त्र होती हैं तथा जितनी पूर्णता से कोई राज्य इस उद्देश्य को प्राप्त कर लेता है, उतना ही दूसरों के लिए ऐसा करना आसान हो जाता है।
युद्ध की ललकार से दूसरे राज्यों को डराना कोई वास्तविक देशभक्ति नहीं है-
आलोचक कहते हैं कि युद्ध की निन्दा करके ग्रीन एक तरह से देशभक्ति तथा प्रकृतिवाद को ठेस पहुँचता है। ग्रीन का विचार है कि प्रकृतिवाद तथा देशभक्ति अच्छी चीजें हैं, परन्तु इन्हें सैन्यवाद तथा युद्ध की ओर नहीं मोड़ना चाहिए। ग्रीन लिखता है कि वे जो समय-समय पर स्वार्थी भावनाओं का प्रदर्शन करने के लिए युद्ध को बुलावा देते हैं हमें यह सन्देह का एक कारण प्रदान करते हैं कि वे इतने स्वार्थी हैं कि अपने चारों तरफ चलने वाली निःस्वार्थी कार्यवाही को पहचान नहीं पाते क्योंकि सभी साधन प्रयोग हो चुके हैं जिनमें प्रकृति को मानव की भलाई के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, क्योंकि समाज इतना संगठित है कि इसमें मानव की सभी क्षमताओं में अपने विकास के लिए स्वतन्त्र क्षेत्र मिल जाता है तो ऐसे क्षेत्र के लिए युद्ध की क्या आवश्यकता है जिसमें देशभक्ति का प्रदर्शन हो सकता है।
अन्त में हम कह सकते हैं कि युद्ध की निन्दा करके ग्रीन वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय भाई-चारा स्थापित करता है तथा युद्ध का उसका अभ्यारोपण, बेकर के अनुसार, “उसके संभाषणों का उत्तम तथा दृढ़तर भाग है।” ग्रीन हीगल की धारणा को स्वीकार करने से इन्कार करता है कि “युद्ध स्थिति का अर्थ है, अपने व्यक्तिगत स्वरूप में राज्य का सर्वव्यापी होना।” ग्रीन का विचार है कि यदि एक ही समय में विभिन्न सरकारें सही ढंग से अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करें जैसा कि उन्हें राज्य के उचित संगठन से होना चाहिए तथा एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के साथ उलझाने में उनका अपना कोई विशेष हित शामिल न हो तो ऐसा कोई कारण नहीं कि वे भावनाहीन निष्पक्षता पर न पहुँच सकें।
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