इतिहास

यूरोप की संयुक्त व्यवस्था | यूरोपीय संयुक्त-व्यवस्था क्या थी? | यूरोपीय संयुक्त-व्यवस्था के कार्यों का विवरण

यूरोप की संयुक्त व्यवस्था | यूरोपीय संयुक्त-व्यवस्था क्या थी? | यूरोपीय संयुक्त-व्यवस्था के कार्यों का विवरण

यूरोप की संयुक्त व्यवस्था

(Concert of Europe)

वियना कांग्रेस द्वारा यूरोपीय व्यवस्था की स्थापना 19 वीं शताब्दी के यूरोपीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इस व्यवस्था के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की एक योजना बनाई गयी थी। अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की दिशा में यह पहला महत्वपूर्ण कदम था।

यूरोप की संयुक्त व्यवस्था की स्थापना आस्ट्रिया, प्रशा, रूस और इंगलैण्ड ने परस्पर मिलकर की थी। इन राज्यों ने युद्ध में नेपोलियन को भारी पराजय दी थी। अब शान्ति काल में भी इन राज्यों को ही यह भार सौंपा गया कि वे युद्ध को सम्भावना को दूर करने का प्रयास करें।

यूरोपीय व्यवस्था में निहित उद्देश्य-

यूरोप की इस संयुक्त व्यवस्था की स्थापना के मूल में कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य थे जो निम्नलिखित हैं-

(1) नेपोलियन के युद्धों के पश्चात् अब यूरोप का प्रत्येक देश शान्ति का इच्छुक था क्योंकि युद्धों से अपार धन-जन की हानि हुई थी। यूरोपीय संयुक्त व्यवस्था के द्वारा स्थायी शान्ति के उद्देश्य का निर्माण करना था।

(2) यूरोपीय संयुक्त व्यवस्था का निर्माण एकता के व्यावहारिक अनुभव का भी परिणाम था। मित्र राष्ट्रों ने नेपोलियन का सामना संयुक्त प्रयास से किया था। परन्तु उनकी यह विजय उसी समय सफलीभूत हो सकती थी जब शान्तिकाल में भी वे सहयोग से रहें । अतः सहयोग पर आधारित संगठन बनाना आवश्यक हो गया।

(3) इस व्यवस्था के द्वारा यूरोप में फैल रही राष्ट्रीयता तथा प्रजातंत्र की प्रगतिशील भावना को दबाने के प्रयास किये जाने थे।

इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अर्थात् यूरोप में शान्ति बनाये रखने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की गई जो ‘यूरोप की संयुक्त व्यवस्था’ के नाम से विख्यात है।

इस प्रकार की व्यवस्था स्थापित करने के लिए दो योजनाएँ रखी गई-

(1) पवित्र मैत्री (Holy Alliance), (2) चतुर्मुख मैत्री (Quradruple Alliance)।

पहली योजना का प्रस्ताव रूस के जार अलेक्जेण्डर प्रथम ने किया और दूसरी योजना का प्रस्ताव आस्ट्रिया के चांसलर मैटर्निख ने।

  1. पवित्र संघ (Holy Alliance)

यूरोप की संयुक्त व्यवस्था का प्राथमिक रूपु ‘पवित्र संघ’ था। इसकी योजना रूस के जार अलेक्जेन्डर प्रथम ने की थी। जार योजनाएं बनाने में कुशल था परन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें कार्याविन्त नहीं कर पाता था। जार ने अपने निकट मित्र आस्ट्रिया और प्रशा के सामने एक लेख रखा। हेजन के अनुसार उस लेख में कहा गया था कि इसको स्वीकार करने वाली शक्तियों का संकल्प है कि भविष्य में वे अपनी स्वराष्ट्र और परराष्ट्र नीति में ईसाई धर्म के उपदेशों का अनुसारण करेंगे। शासकों ने घोषणा की कि हम एक-दूसरे को भाई और प्रजा को अपनी सन्तान के समान समझेंगे और एक-दूसरे को हर दशा में सहायता देंगे। जो भी शक्तियाँ इन पवित्र सिद्धान्तों को मानने के लिए तैयार होंगी उनको पवित्र संघ में हार्दिक प्रेम से प्रवेश दिया जायेगा।”

इस लेख से सहमत होकर 26 सितम्बर 1815 को रूस, आस्ट्रिया और प्रशा ने अपना वह गुट बना लिया जो पवित्र संघ कहा जाता है। इसे पवित्र इसलिए कहा गया कि इसमें ईसाई धर्म के सिद्धान्तों को ही राजनीतिक व्यवस्था का आधार माना गया।

26 सितम्बर 1815 को इस घोषणा-पत्र पर सभी युरोप के आमंत्रित राजाओं ने हस्ताक्षर किए, जिनमें तुर्की का सुल्तान नहीं था। ये राजा लोग जार को नाराज नहीं करना चाहते थे। परन्तु इंगलैण्ड ने घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए। उसने बाहरी रूप से केवल घोषणा की प्रशंसा की। मेटर्निख भी उसे शब्दाडम्बर मानता रहा। कैमलरे ने पवित्र संघ को निरर्थक तथा बवास बताया। इटली के पोप ने तो आस्ट्रिया के सम्राट को तथा रूस के जार और अन्य प्रोटेस्टेण्ट राजाओं द्वारा प्रतिपादित घोषणा को अनुमोदित करने से रोका था। फिर भी रूस का जार बड़े उत्साह से घोषणा के सिद्धान्तों का प्रचार करता रहा। अन्त में उसके मरने पर 1825 इसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

पवित्र संघ की घोषणा के द्वारा यूरोप के एक राजा को दूसरे राजा का भाई माना गया था। उसकी प्रजा सन्तान के समान स्वीकार की गयी थी। संकट के समय एक राजा दूसरे राजा की सहायता करेगा। इस प्रकार की घोषणा करने में वह अपने को योग्य मानता था। वह समझता था कि धर्म की रक्षा का भार ईश्वर ने उसे सौंपा है। उसकी मान्यता थी कि इन सिद्धान्तों के प्रचार में वह Black Angle के विपरीत White Angel है। वह राजा को ईश्वर का रूप मानता था। यदि राजा द्वारा दंड दिया जाता है तो वह ईश्वरीय दंड है।

पवित्र संघ की समीक्षा

पवित्र संघ की यह योजना केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से ही उदार योजना थी, व्यावहारिक दृष्टि से नहीं। इसीलिए किसी भी राज्य की गृह तथा विदेशी नीतियों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

इंगलैण्ड के विदेश मंत्री कैसलरे का कहना था, “वह पवित्र घोषणा थी जिसमें व्यर्थ की बकवास के अतिरिक्त सारभूत कुछ भी नहीं था। वह उत्तम प्रकार का रहस्य तथा व्यर्थ का प्रयत्न मात्र था।”

मैटर्निख के शब्दों में, “पवित्र मैत्री की योजना शब्दाडम्बर और निरर्थक नैतिक प्रदर्शन था।”

कैटलबी ने इसकी आलोचना के सम्बन्ध में लिखा है, “पवित्र संघ के सूक्ष्म शरीर को स्थूल रूप देने का जार ने प्रयत्न किया था।”

हार्नेशा ने भी स्पष्ट रूप में लिखा है, “पवित्र संघ का प्रारम्भ से अन्त तक तथा व्यावहारिक स्वरूप नहीं रहा।”

हेज ने इसको विशेषता को इस प्रकार सौमित किया है, ” 19वीं सदी के उदारवादियों के विचार में पवित्र संघ प्रजातत्र, राष्ट्रीयता तथा सामाजिक न्याय को नष्ट करने का एक पड्यत्र था।”

2 चतुर्मुख मैत्री (Quadruple Alliance)

पवित्र संघ शुरू से ही प्रभावहीन रहा और इसके लगभग दो माह बाद ही 20 नवम्बर, 1815 के दिन-रूस, प्रशा, आस्ट्रिया और प्रेट ब्रिटेन-चारों राज्यों ने मिलकर एक ‘चतुर्मुख मित्र (Quadruple Alliance) का निर्माण किया। यह संघ या मंडल यूरोप की संयुक्त व्यवस्था का आधार बना। यदि पवित्र संघ यूरोपीय व्यवस्था का नैतिक तथा धार्मिक स्वरूप था तो ‘चतुर्मुख मंडल इसका राजनीतिक तथा व्यावहारिक रूप था। यह मित्र मंडल बहुत समय तक यूरोप के राजनीतिक मामलों का संचालन करता रहा। इस मित्र मंडल के आधार पर यूरोप की संयुक्त व्यवस्था (Concert of Europe) कार्य शुरू हुआ।

चतुर्मुख मैत्री के उद्देश्य

यह संघ तत्कालीन यूरोपीय समस्याओं का शान्तिपूर्ण ढंग से हल खोजने के लिए बनाया गया था। इस संघ के उद्देश्य निम्न प्रकार थे-

  1. यूरोप में शान्ति स्थापित करने के लिए वियना-सम्मेलन के निर्णयों को लागू करना।
  2. यूरोप के राज्यों की सीमाओं को अखंडता प्रदान करना।
  3. 3. सभी देशों की आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं को सुलझाना ।
  4. यदि किसी राज्य में किसी कारणवश शान्ति भंग होने की सम्भावना हो तो उस राज्य के मामले में हस्तक्षेप करना।
  5. नेपोलियन या उसके सम्बन्धी को कभी फ्रांस का राजा न बनने देना।
  6. यूरोप की कठिन समस्याओं को शान्तिपूर्वक हल करने के लिए सम्मेलन करना ।

आलोचना- यूरोप की चार मुख्य शक्तियों का यह मित्र-मंडल लगभग 25 वर्ष तक यूरोप का भाग्य-विधाता बना रहा। चारों राज्यों के प्रतिनिधियों के इस निर्णय से कि यूरोप को समस्या पर विचार करने के लिए और इन समस्याओं के हल निकालने के लिए वे समय-समय पर सम्मेलन किया करेंगे, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों की व्यवस्था हुई।

प्रो. बेवस्ट्रर का विचार है कि इंगलैण्ड के विदेश मंत्री कैसलरे ने इस योजना को जन्म दिया था और यूरोप के अन्य कूटनीतिज्ञों ने इसका समर्थन किया था।

रुस की जनता से जार कहा करता था, “सुधारों को माँगने पर नहीं दिया जाता। उनको ज्परीय शक्ति अपनी इच्छा से देती है। इससे प्रकट होता है कि चतुर्मुख मंडल एक राजनीतिक आडम्बर था।

इस मंडल मे यूरोप के बड़े-बड़े राज्य सम्मिलित थे, अतः छोटे राज्यों ने इसे अन्यायपूर्ण कहा। सन् 1848 की राज्य क्रान्ति द्वारा चतुर्मुख मैत्री का अन्त हो गया।

ब्रिटेन ने इस मंडल के साथ पूर्ण सहयोग नहीं किया। वह केवल सीमाओं को कायम रखने और किसी बानापार्ट को पुन फ्रांस की गद्दी पर न बैठने देने के लिए कार्य करता रहा।

यूरोपीय संयुक्त व्यवस्था की मुख्य घटनाएँ

(Major Events of the Concert of Europe)

इस प्रकार पवित्र मैत्री’ (Holy Alliance) और चतुर्मुख मंडल (Quadruple Aliaance) को मिलाकर जो प्रबन्ध किया गया, वह यूरोप की संयुक्त-व्यवस्था के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस संयुक्त व्यवस्था में चतुर्मुख मैत्री के उद्देश्यों के अनुसार, यूरोप की समस्याओंको सुलझाने के लिए विभिन्न सम्मेलनों का आयोजन हुआ। अत: इस काल को ‘सम्मेलनों का युग’ (Era ol Congresses) भी कहते है।

संयुक्त व्यवस्था-काल में जो सम्मेलन हुए या जो घटनाएं घटी उनका अध्ययन हम निम्नांकित रूप में करेंगे-

ऐला शैपल (Airla Chapella) की कांग्रेस (1818 ई० कांग्रेस के सदस्यों की पहली बैठक् ऐला शेपल नामक नगर में हुई। सम्मेलन के सामने मुख्य कार्यक्रम यह था कि फ्रांस को हालैण्ड से वाण दिलाया जाये तथा फ्रांस से मित्र राष्ट्रों की फौजें हटा ली जायें। सभी ने फ्रांस से सेनाओं को हटाने तथा उसे मित्र मंडल का सदस्य बनाने की अनुमति दे दी।

इस सम्मेलन में यूरोप के राज्यों के अन्य प्रतिनिधि भी आते थे परन्तु उन्हें मत देने का अधिकार नहीं था, पर ते अपनी सम्मति अवश्य प्रकट कर सकते थे। इस सम्मेलन के सामने यूरोपीय देशों की आर्थिक दशा सुधारने, न्याय का आदर्श बनाये रखने, पारस्परिक सहयोग बनाए रखने तथा धार्मिक भावनाओं को पनपने देने आदि विषयों पर विचार करने के प्रश्न उपस्थित हुए। इन पर विचार करने के लिए एक बोर्ड की रचना की गई। बोर्ड ने स्वीडन के राजा लेनार्वे और डेनमार्क के सम्बन्ध में की गई संधि के अनुपालन में ढिलाई किए जाने के सम्बन्ध में पूछ-ताछ की। बोर्ड ने हेस के शासक को ‘राजा’ की उपाधि भी नहीं देने दी। मोनेको के शासन को अपने राज्यों में शासन सम्बन्धी दोषों को सुधारने की आज्ञा दी। फिर भी इस बैठक में अनेक प्रस्तावों पर ठीक से विचार नहीं किया।

हार्नशा के शब्दों में, “किसी भी कांग्रेस के अधिवेशन में इतने विषय विचार के लिए उपस्थित नहीं हुए थे जितने ऐला शैपल में हुए।”

ट्रोपो (Troppau) की कांग्रेस (1820 ई0) संयुक्त व्यवस्था का दूसरा सम्मेलन आस्ट्रिया में ट्रोपो नामक स्थान पर सन् 1820 में सम्पन्न हुआ। उस समय स्पेन, नेपल्स और पिडमौंट में वहाँ के राष्ट्रवादियों ने अपने निरंकुश शासकों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इससे रूस के जार और आस्ट्रिया के चांसलर मैर्निख को बड़ी चिन्ता हुई। स्पेन में सन् 1812 का संविधान लागू कर दिया गया था। नेपल्स् के राजा को नया संविधान लागू करने के लिए बाध्य कर दिया गया था। नेपल्स के विद्रोह से इटली में आस्ट्रिया के प्रभुत्व को खतरा उत्पन्न हो गया। इटली में राष्ट्रवादी गुप्त समितियाँ (Cobanari) गुप्त जाल बिछा रही थीं। रूस और आस्ट्रिया भयभीत हो उठे, कहीं उनके राज्य में क्रान्ति न हो जाये।

अतः क्रान्तियों से बचने के लिए तथा पुनः शान्ति स्थापित करने के लिए ट्रोपो का अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया।

ट्रोपो काँग्रेस में रूस, प्रशा और आस्ट्रिया ने दस्तक्षेप के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। ग्रेट ब्रिटेन तथा फ्रांस ने इसका विरोध किया।

सम्मेलन की मुख्य घोषणायें इस प्रकार थीं-

(1) रूस, आस्ट्रिया और प्रशा ने घोषणा की कि प्रजा को राजा के अधिकार छीनने का हक नहीं है।

(2) आस्ट्रिया के मैट्र्निख ने यह प्रस्ताव रखा, यदि किसी राज्य में राष्ट्रीय आन्दोलन होने लगें, जिनके कारण पड़ोसी राज्य में खतरा उत्पन्न होने की सम्भावना हो तो पड़ोसी राज्यों को अपनी सेनाओं के द्वारा उनका दमन करने का अधिकार है। इस प्रकार मैटर्निख ने एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

(3) उक्त घोषणा के सिद्धान्तों को रूस, प्रशा तथा आस्ट्रिया ने तुरन्त मान लिया किन्तु इंगलैण्ड और फ़्रांस ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि ऐसा सिद्धान्त प्रत्येक राज्य की स्वतन्त्रता और सत्ता के लिए घातक रहेगा।

ट्रोपा-कांग्रेस में यूरोप की महान् शक्तियों के आपसी मतभेद एक बार फिर उभरकर सामने आए। महान् शक्तियों के पारस्परिक विरोध के कारण सम्मेलन में घोषणा और विरोध के अतिरिक्त कोई निश्चय नहीं हो पाया।

लाइबेख (Laibach) का सम्मेलन (18210)- जब ट्राय पोषणा में विरोध के अतिरिक्त कोई निश्चय नहीं हो पाया तो 1821 में लाइबेख तीसरा अधिवेशन बुलाया गया। इस बैठक में रूस्, प्रशा तथा आस्ट्रिया ने मैटर्निख को इटली में होने वाले आन्दोलन तथा क्रान्तिकारी संस्थाओं को दबाने के लिए पूरे अधिकार दिए। मैटर्निख ने आस्ट्रिया की पूरी शक्ति से इस आन्दोलन को दबाया और निरंकुश प्रवृत्तियों को फिर से स्थापित किया।

वैरोना (Verona) का सम्मेलन-यूरोप की मित्रता का चौथा सम्मेलन् इटली के प्रसिद्ध नगर वैरोना में सन् 1822 ई० में हुआ। इस समय पेन तथा उसके अमेरिकन उपनिवेशों में विद्रोह हो रहे थे। इसी समय मीस में भी विद्रोह की आग भड़क रही थी। इन्हीं समस्याओं पर विचार करने के लिए यह सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में नैपल्स ने स्पेन में सैनिक हस्तक्षेप कर वहाँ के राजा फर्डनिंड सप्तम को पुनः सत्ता दिलवाने का सुझाव रखा। इंगलैण्ड ने इसका विरोध किया। पर आस्ट्रिया, रूस और प्रशा की बात मानी गई । फलस्वरूप वैरोना सम्मेलन में स्पेन हस्तक्षेप करने का निश्चय किया गया। हस्तक्षेप करने का काम फ्रांस को सौंपा गया। ब्रिटिश प्रतिनिधि सम्मेलन से उठकर चला गया।

वैरोना सम्मेलन के निश्चय से 1 लाख फ्रांसीसी सेना अप्रैल सन् 1823 में स्पेन में जा पहुंची। इस सेना ने 6 माह में स्पेन को बराबर कर दिया। स्पेन में फर्डिनेन्ड का निरंकुश शासन स्थापित हो गया।

वैरोना सम्मेलन में मीस का मामला भी उठाया गया। रूस, टर्की के विरुद्ध यूनान को सहायता देना चाहता था परन्तु मैटर्निख और कैसलरे ऐसा नहीं चाहते थे कि रूस ग्रीस को सहायता देने के बहाने भूमध्यसागर और बालकान प्रायद्वीप में अपना प्रभाव बढ़ाये। अतः अन्त में यही निश्चय हुआ कि यूनान की सहायता के लिए रूस के साथ-साथ मित्र राष्ट्रों की सेना भी भेजी जाए पर राष्ट्रों में मतभेद रहा। अतः प्रीस को सहायता देने का प्रश्न टल गया।

वैरोना सम्मेलन एक प्रकार से यूरोपीय संयुक्त व्यवस्था का अन्तिम सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में आस्ट्रिया, रूस और प्रशा की नीति से क्षुब्ध होकर इंगलैण्ड यूरोपीय-व्यवस्था से अलग हो गया।

सन् 1823 का पाँचवाँ अधिवेशन- यह अधिवेशन स्पेन के उपनिवेशों के सम्बन्ध में बुलाया गया था। स्पेन अमेरिकन उपनिवेशों पर अपना अधिकार रखना चाहता था, जबकि वहाँ की जनता स्पेन के विरुद्ध थी। अधिवेशन में रूस, प्रशा और आस्ट्रिया ने इस प्रकार की स्थिति को सम्भालने के लिए स्पेन को सहायता देने का निश्चय किया परन्तु ब्रिटिश विदेश मंत्री ने इसका विरोध किया। उसने घोषणा की कि यदि स्पेनी उपनिवेशों में स्पेन के अतिरिक्त यूरोप के किसी अन्य राज्य ने हस्तक्षेप किया तो इंगलैण्ड विरोध करेगा।

मुनरो-सिद्धान्त

इंगलैण्ड की तरह संयुक्त राज्य अमेरिका भी इन् उपनिवेशों से होने वाले अपने नवीन व्यापार को बनाये रखना चाहता था। अतः उसने इंगलैण्ड का सहयोग किया। अमेरिका ने सेन के उपनिवेशों की स्वतन्त्रता को मान्यता दे दी। अमेरिका के राष्ट्रपति मुनरो ने 1823 में दो महत्वपूर्ण विषयों का उल्लेख किया जो बाद में मुनरो सिद्धान्त (Munroe- Doctrine) के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये विषय थे-

(1) यूरोप के देश भविष्य में पश्चिमी गोलार्द्ध में उपनिवेश स्थापित नहीं करेंगे।

(2) यूरोप के राज्य नई दुनिया के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

यूरोपीय व्यवस्था का अंतिम अधिवेशन (सन् 1825)

कुछ समस्याए ऐसी थीं जो ग्रीस तथा टर्की के बीच उत्पन्न हो गई थी, जिनका समाधान आवश्यक था। अत: 1825 में रूस के जार ने अपनी ही राजधानी सेंट पीटसंबर्ग में मित्र मंडल के सदस्यों को आमंत्रित किया। पहले सम्मेलन में तो इंगलैण्ड ने भाग लिया, परन्तु दूसरे सम्मेलन में इंगलैण्ड का कोई प्रतिनिधि नहीं आया। इसके अतिरिक्त मित्र राष्ट्रों ने भी कोई रुचि नहीं दिखाई। अतः सम्मेलन में कोई निर्णय नहीं हो सका । जार ने क्रोधित होकर सम्मेलन कभी न बुलाने की घोषणा कर दी। फलस्वरूप यूरोपीय मित्र मण्डल सदा के लिए समाप्त हो गए और भविष्य में यूरोपीय संयुक्त व्यवस्था का भी अंत हो गया।

संयुक्त-व्यवस्था के असफल होने के कारण

(Causes of the Failure of the European Concert)

(1) उद्देश्यों की भिन्नता- यूरोपीय संयुक्त-व्यवस्था की स्थापना के सदस्य राष्ट्रों के अलग-अलग उद्देश्य थे। थामसन के शब्दों में, “आस्ट्रिया, रूस तथा प्रशा संयुक्त व्यवस्था का प्रयोग प्रजातंत्र की बाढ़ को रोकने के लिए एक बांध के रूप में करना चाहते थे, परन्तु इंगलैण्ड इसे एक फाटक के रूप में देखना चाहता था ताकि उदारता और राष्ट्रीयता की भावनाओं का प्रवेश आवश्यकतानुसार होता रहे ।”

(2) मतैक्य का अभाव- संयुक्त व्यवस्था के सदस्यों में परस्पर मतभेद थे। उनके दृष्टिकोण अलग-अलग थे। उनकी विचारधाराएँ भी मेल नहीं खाती थीं। सामान्य हितों के अभाव के कारण वे संगठित होकर कार्य नहीं कर सके। सदस्य देशों की शासन-संस्थाओं के रूप तथा प्रकृति भिन्न थी। आस्ट्रिया, रूस और प्रशा निरंकुशतंत्र को मानने वाले थे, जबकि इंगलैण्ड और फ्रांस प्रजातंत्र को मानते थे। इस भिन्नता ने सदस्य देशों को कभी एक नहीं होने दिया।

(३) आत्रिक हस्तक्षेप- प्रो० केटलबी के शब्दों में, “यूरोप की संयुक्त-व्यवस्था के टूटने के कारण थे, किन्तु इंगलैण्ड की व्यवस्था से निकल जाना ही मुख्य था। इस प्रकार इंगलैण्ड के सदस्यता छोड़ देने के कारण संयुक्त-व्यवस्था को बहुत धक्का लगा। परन्तु इसके पतन के बीज उसी समय बोये जा चुके थे जब आन्तरिक हुस्तक्षेप होते रहे। इस संघर्षपूर्ण नीति ने यूरोपीय व्यवस्था को असफलता के कगार पर पहुंचा दिया ।

(4) छोटे राज्यों की उपेक्षा- संयुक्त-व्यवस्था में केवल बड़े राज्यों को ही प्रतिनिधित्व मिला, छोटे राज्यों की सर्वथा उपेक्षा की गई। बड़े राज्य यूरोप के छोटे-बड़े राज्यों के सम्बन्ध में निर्णय देते थे। इस कारण छोटे राज्य क्षुब्ध थे। इसे अपनी स्वतंत्रता तथा आत्मसम्मान के विरुद्ध होने का प्रश्न बना लिया गया था। इन सब बातों के फलस्वरूप छोटे राज्य अन्दर ही अन्दर बड़े राज्यों के विरोधी होते गए और सन् 1825 के बाद तो उन्होंने अपनी समस्याओं को स्वयं ही सुलझाने के लिए कदम बढ़ाए।

(5) संगठनात्मक दोष- यूरोपीय व्यवस्था में संगठन के दोष भी अनेक थे। प्रो० वेब्सटर ने लिखा है, “यूरोपीय व्यवस्था का न तो कोई स्थायी कार्यालय था और न कर्मचारी ही। वह नेपोलियन के युद्ध के बाद शान्ति बनाये रखने की इच्छाओं का फल थी। इसके यंत्र कामचलाऊ थे। इसकी नींव किसी ठोस आधार पर नहीं रखी गई थी।”

इस प्रकार संक्षेप में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि सदस्य राष्ट्रों में एकता के अभाव, उनके उद्देश्यों की भिन्नता, प्रगतिशील प्रवृत्तियों को कुचलने की इच्छा आदि के कारण यूरोपीय संयुक्त-व्यवस्था का पतन हो गया।

इस सम्बन्ध में हार्नशा के शब्दों को भी नहीं भुलाया जा सकता, यूरोप की संयुक्त व्यवस्था के पतन के मूल कारण वियना सम्मेलन से लेकर वेरोना अधिवेशन तक प्रबल लोकतंत्रीय भावनाओं की तथा दमन थे।

स्मरण-बिन्दु

यूरोप की संयुक्त-व्यवस्था-

निहित उद्देश्य- (1) एकता का परिणाम । (2) राष्ट्रीयता की भावना। (3) योजनाओं का विकास।

पवित्र संघ (Holy Alliance)

(1)चतुर्मुख मैत्री । (2) मुख्य घटनाएँ । (3) एला शैपल की कांग्रेस । (4) ट्रोपो की

कांग्रेस । (5) लाईवेख का सम्मेलन । (6) वैरोना का सम्मेलन । (7) 1823 का पांचवां अधिवेशन (1825)।

संयुक्त-व्यवस्था की असफलता के कारण- (1) उद्देश्यों की भिन्नता । (2) मतैक्य का अभाव । (3) आन्तरिक हस्तक्षेप । (4) छोटे राज्यों की उपेक्षा । (5) संगठनात्मक दोष । (6) प्रतिक्रियावादी नीति।

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Pankaja Singh

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