शिक्षाशास्त्र

यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम | यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा की विधि

यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम | यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा की विधि

यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम-

यथार्थवाद भूत और भविष्य पर विचार करके वर्तमान पर ध्यान रखता है। यथार्थवादी शिक्षा इस प्रकार मनुष्य को वर्तमान जीवन के लिये तैयार करती है, इसलिए पाठ्यक्रम में भी वे विषय और क्रियाएँ शामिल किए जाते हैं जिनका सम्बन्ध वर्तमान जीवन से होता है। इस प्रकार पाठ्यक्रम निर्धारण में कुछ सिद्धान्तों का पालन किया जाता है। ये सिद्धान्त इस प्रकार हैं :-

(अ) जीवन में उपयोगिता का सिद्धान्त- जिससे वे ही विषय एवं क्रियाएँ पाठ्यक्रम में रहें जिनसे जीवन में लाभ उठाया जा सके जैसे भाषा, कौशल आदि।

(ब) व्यवसाय का सिद्धान्त- जिससे मनुष्य को जीवन में विभिन्न काम करने का अवसर मिले और उसको आर्थिक लाभ हो जैसे कृषि, विज्ञान आदि।

(स) व्यापकता का सिद्धान्त- जिससे पाठ्यक्रम में बहुत से विषय और व्यापक दृष्टिकोण के साथ रखे जाते हैं जैसे इतिहास, भूगोल, कला, साहित्य, विज्ञान, कृषि, कौशल, वाणिज्य, उद्योग तया तकनीकी विषय एवं अन्यान्य क्रियाएँ।

(द) मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त- जिससे रुचि, आवश्यकता, योग्यता, प्रवृत्ति आदि के अनुसार विषय चुने जा सकें जैसे कौशल के विषयों का चुनाव होता है या विभिन्न वर्गों में से चुनाव होता है।

(य) सामाजिकतावादी सिद्धान्त- जिसके आधार पर ऐसे विषय और क्रियाओं को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाये जो समाज और समाज की मानवीय संस्थाओं के अनुसार उपयोगी, आवश्यक और प्रगतिशील होवें जैसे विज्ञान, कृषि, कौशल, तकनीकी विषय आदि।

(र) सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त- जिससे सभी विषय एक साथ जुड़े रहें और एक समन्वित ज्ञान (Integrated knowledge) प्राप्त हो।

पाठ्यक्रम के विषय-

भाषा और साहित्य, विशेषकर दैनिक जीवन में काम आने वाली आधुनिक भाषाएँ, जीवनोपयोगी कौशल, उद्योग, वाणिज्य तथा व्यवसाय के विषय जैसे कानून, अध्यापन, डाक्टरी, इन्जीनियरी आदि कला, चित्रण, संगीत-नृत्य, भौतिक- प्राकृतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जैविक विज्ञान, वनस्पति तथा जीव विज्ञान, प्रयुक्त भौतिकी एवं रसायन, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, गृह-विज्ञान, गृह अर्थशास्त्र, बाल-मनोविज्ञान, स्वास्थ्य-विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, नक्षत्र-विज्ञान तथा धर्म।

पाठ्यक्रम में सम्मिलित क्रियाएँ-

खेल-कूद, व्यायाम, भ्रमण, सेमिनार, गोष्ठी, वाद- विवाद, साहित्यिक क्रियाएँ, सामाजिक क्रियाएँ और आधुनिक समय में विद्यालयों में होने वाला एन०सी०सी०, समाज-सेवा योजना, स्काउटिंग और गाइड, प्राथमिक चिकित्सा की क्रियाएँ, व्यावसायिक क्रियाएँ जैसे टाइपिंग, शार्टलैंड, बढ़ई, लुहार, दर्जी, आदि की क्रियायें, मशीन की क्रियाएँ, (मोटर-स्कूटर रिपेयरिंग), दुकानदारी की क्रियाएँ (सेल्समैनशिप्स), नेतृत्व की क्रियाएँ आदि।

ऊपर के तथ्यों को देखने से ज्ञात होता है कि यथार्थ के अनुसार पाठ्यक्रम जीवन के समान विस्तृत होता है। इसके अलावा भौतिक विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान और आधुनिक भाषाओं को इसमें अधिक महत्व दिया जाता है। तीसरी बात है कि पाठ्यक्रम जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करता है और जीवन को सुखी बनाने के लिए इसके द्वारा प्रयल किया जाता है। अन्त में पाठ्यक्रम में इतने अधिक विषय रखे जाते हैं कि लड़के को अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार चुनाव करने में कोई कठिनाई नहीं मालूम पड़ती है।

पाश्चात्य प्रतिनिधि कमीनियस के द्वारा पाठ्यक्रम स्कूल के स्तरों के अनुकूल बताया गया है। शिशुओं के लिए प्रकृति-निरीक्षण, खेल-कूद, नक्षत्रों का ज्ञान, ईश्वर का बोध, इतिहास, भूगोल, अंकगणित तथा जीवन की सरल बातों को रखा गया है। बालकों के लिए भाषा, साहित्य धर्म, इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, यंत्रकला, विज्ञान, गणित तथा लैटिन भाषा, खेल-कूद-व्यायाम को रखा गया है। किशोरों के लिए स्थानीय एवं प्राचीन भाषा, उदार कला, संगीत, चित्रण, काव्य-अलंकार-शास्त्र, व्याकरण, इतिहास, भूगोल, नीतिशास्त्र, गणित तथा विभिन्न विज्ञान और बहुत सी क्रियाओं को रखा गया है। युवाओं के लिए अन्यान्य विषय योग्यता और आवश्यकता को ध्यान में रखकर निश्चित किया गया है। इस विश्वविद्यालयीय स्तर पर शोधकार्य के लिए, भ्रमण के लिए जोर दिया गया है। सभी विषय सभी स्तर पर प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक उपयोगिता के साथ पढ़ाये जायें यह कमीनियस का विचार था।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में किसी भी आधुनिक शिक्षाशास्त्री की और ध्यान देने पर यथार्थवादी पाठ्यक्रम मिलता है। उदाहरण के लिए हम गांधी जी द्वारा प्रस्तुत पाठ्यक्रम लें। गांधी जी ने साफ-साफ कहा है कि “मैं इस बात को बिल्कुल आवश्यक नहीं समझता कि बालकों को पुस्तकों के बोझ से लादा जावे।”

गांधी जी के पाठ्यक्रम में मातृभाषा, हिन्दुस्तानी, अंकगणित, प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, इतिहास, भूगोल, हस्तकार्य, शारीरिक शिक्षा (खेल-कूद भी), कला और संगीत रखा गया है। इसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण में पढ़ाया जाये जिससे बालक योग्य नागरिक बन सके और समाज को आगे बढ़ा सके। अतएव स्पष्ट है कि गांधी जी का दृष्टिकोण यथार्थवादी है। गांधी जी के अलावा भारत में कोठारी आयोग के द्वारा प्रस्तुत पाठ्यक्रम यथार्थवादी कहा जाता है जैसा कि उसकी रिपोर्ट के शब्दों से ज्ञात होता है : “हमारा सम्पूर्ण सम्प्रत्यय यह है कि सामान्य शिक्षा को विज्ञान, कार्य, अनुभव, तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के क्षेत्रों में नये अभिविन्यास की आवश्यकता है। यह किसी विशेषीकरण के आरम्भ होने से पूर्व दस वर्ष की बिना विभिन्नता के एक साथ जुड़ी विद्यालयी शिक्षा हो । यह व्यावसायिक शिक्षा से एकदम अलग न की गई हो”

विज्ञान, कार्य अनुभव (शिल्प तथा तकनीकी विषय) तथा नैतिक शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा के साथ भाषा एवं सामाजिक विषयों को जोड़कर कोठारी कमीशन ने पाठ्यक्रम की चर्चा की है। इस रिपोर्ट के पढ़ने से आज का भारतीय पाठ्यक्रम पूर्णतया यथार्थवादी कहा जा सकता है क्योंकि उसका आधार ही विज्ञान और कार्य-अनुभव है।

यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा की विधि-

यथार्थवाद वस्तुओं पर अधिक बल देता है क्योंकि विज्ञानों पर उसका ध्यान अधिक है। ऐसी स्थिति में शिक्षा विधि भी वस्तु के सहयोग से बने यह यथार्थवादियों का विचार है। इसका कारण यह है कि शिक्षा को प्रत्यक्ष रूप से दिया जाये और शिक्षार्थी को स्पट ज्ञान हो जिससे कि वे उसे शीघ्र समझ लेवें, धारण कर लेवें और प्रयोग करें। यथार्थवाद के द्वारा स्वीकृत नीचे लिखी शिक्षा विधियाँ हैं-

(1) वस्तु विधि- यथार्थवाद के मानने वालों का कहना है कि भौतिक वस्तुओं की सहायता से शिक्षा दी जावे और शाब्दिकता को दूर रखा जावे । केवल शब्दों के द्वारा बालक को ज्ञान देना कठिन है क्योंकि स्यूल पदार्यों से प्रत्यक्षीकरण सरल होता है। आज श्रव्य-दृश्य सामग्री से सभी देशों में शिक्षा देने के पक्ष में शिक्षाशास्त्री हैं। यह यथार्थवाद का ही प्रभाव है।

(2) प्रयोग विधि- विज्ञानों के अध्ययन पर यथार्थवाद का विशेष ध्यान होता है। इसलिए प्रयोग विधि के लिए भी यथार्थवादी जोर देते हैं। इसके बिना विज्ञान की शिक्षा दी भी नहीं जा सकती । प्रयोग में प्रदर्शन विधि भी पाई जाती है।

(3) निरीक्षण विधि- प्रयोग विधि के साथ विज्ञानों के अध्ययन में निरीक्षण की विधि भी काम में लाई जाती है। इसमें वस्तु या क्रिया को चारों ओर से देख कर तथा अनुभव करके ज्ञान प्राप्त किया जाता है। निरीक्षण स्वानुभव को प्रेरित करता है।

(4) विश्लेषण-संश्लेषण विधि- विज्ञान के प्रयोग करते समय या निरीक्षण करते समय विश्लेषण तथा संश्लेषण की क्रिया भी की जाती है। अतएव यथार्थवाद केवल विज्ञान में ही नहीं अन्य विषयों के अध्ययन-अध्यापन में भी इस विधि के प्रयोग पर जोर देता है।

(5) स्वयं खोज या ह्यूरिस्टिक विधि- स्वानुभव की स्थिति में विद्यार्थी कुछ चीजें स्वयं खोज निकालता है। यदि उसे स्वतन्त्र ढंग से काम करने दिया जावे तो निश्चय है कि बालक नयी बातों को खोजने में सफल होता है। इस प्रकार के यथार्थवाद प्रकृतिवाद के समान ह्यूरिस्टिक विधि के प्रयोग के लिए जोर देना है।

(6) सहसम्बन्ध की विधि- यथार्थवाद ज्ञान को एक इकाई के रूप में स्वीकार करता है, और इस आधार पर वह सहसम्बन्धित ढंग से शिक्षा देने के पक्ष में है। अतः सहसम्बन्ध की विधि के प्रयोग के लिए वह जोर देता है।

(7) इन्द्रिय प्रशिक्षण की विधि- यथार्थवादी इन्द्रियों को ज्ञान का द्वार मानते हैं। ऐसी स्थिति में वे ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करके शिक्षा देने के पक्ष में रहते हैं। अतः ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण की विधि अर्थात् इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान देने की विधि के लिए जोर देते हैं।

(8) भ्रमण और यात्रा-विधि- यथार्थवादी शिक्षाशास्त्री अनौपचारिक ढंग से शिक्षा देने के पक्ष में हैं, वे स्वतन्त्रता के साथ ज्ञान ग्रहण करने के लिए जोर देते हैं। पुस्तकों के वे विरोधी तो नहीं हैं फिर भी भ्रमण और यात्रा के द्वारा शिक्षा देने पर वे बल देते हैं। मिल्टन ने इस विधि के लिए विशेष जोर दिया है।

(9) क्रिया और खेल विधि- अनौपचारिक विधियों में यह विधि भी आती है। यह व्यावहारिक एवं रोचक होती है। इसीलिये यथार्थवादी इस विधि से शिक्षा देने को कहते है। विशेषकर शिशु अवस्था में। “करके सीखना’ अधिक उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होता है, ऐसा सभी यथार्थवादी मानते हैं।

(10) पाठ्यपुस्तक विधि- कमीनियस ने उचित ढंग से शिक्षा देने के लिए अच्छी पाठ्य पुस्तकें बनाई और कई राज्यों से उसे इस कार्य के लिए बुलावा भी मिला । अतएव यथार्थवाद में हम इस पाठ्य-पुस्तक विधि का भी समर्थन करते हैं। यह विधि एक प्रकार से वस्तु-विधि का एक अंश है।

शिक्षण कार्य में विधियों का सहयोग लिया जाना स्वाभाविक है। इसके अलावा यथार्थवादियों ने शिक्षण के कुछ सूत्र भी तैयार किये जिसकी सहायता से शिक्षण कार्य को और भी अच्छी तरह किया जाना सम्भव होता है। ये सूत्र आध्यापक की जानकारी के लिए आवश्यक हैं क्योंकि इनसे शिक्षण कार्य में सफलता मिलती है। ये सूत्र हैं-

(1) ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा शिक्षा दो। (2) मातृ भाषा के माध्यम से शिक्षा दो। (3) स्वानुभव के लिए अवसर दो । (4) मूर्त से अमूर्त की ओर बढ़ो या स्थूल से सूक्ष्म का कर दी। (5) व्यावहारिक महत्व बताकर शिक्षा दो। (6) अभ्यास का अवसर दो। (7) क्रिया करके सीखने दो। (8) सरल से जटिल की ओर चलो। (9) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष का ज्ञान दी। (10) प्रयोग से सिद्धान्त प्राप्त करो।

विद्वानों ने यथार्थवादी शिक्षा की विधियों की बहुत सी विशेषताओं की ओर संकेत किया है। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) वस्तुनिष्ठ ढंग से ज्ञान देने का प्रयल किया जाता है। (2) वस्तु से सम्बन्ध स्थापित करके प्रतीक का स्पए बोध कराया जाता है। (3) भाषा की शिक्षा भाव, रुचि, इच्छा तथा क्रिया के साथ दी जाती है। (4) ययार्थ कथन पर बल दिया जाता है। (5) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रमाणों से तथ्यों को सिद्ध किया जाता है। (6) जगत को जगत के यथार्थ स्वरूप में समझाया जाता है। (7) स्पष्टीकरण करके पाठ्य-वस्तु बताई जाती है। (8) शिक्षा में तथ्यों को अधिक महत्व देते हैं। (9) यथार्थवादी शिक्षा विधि संप्रत्यय का स्पष्टरूप से निर्माण करती है। (10) खण्ड से पूर्ण विधि से शिक्षा दी जाती है। (11) यथार्थवादी शिक्षा विधि छात्रों को तर्कपूर्ण ढंग से विचार प्रकट करने के योग्य बनाती है। (12) यथार्थवादी शिक्षा-विधि। छात्रों को प्रेरणा देती है। (13) यथार्थवादी विधि सही ढंग से छात्रों के योग्यता की जाँच करती हैं। (14) यथार्थवादी शिक्षा-विधि से सूझ उत्पः होती है। (15) यथार्थवादी शिक्षा विधि छात्रों में उचित आदतों और अभिवृत्तियों का निर्माण करती है और विषय पर आधिपत्य प्राप्त करने में सहायक होती है।

पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में हम कमीनियस के द्वारा संस्तुत ये शिक्षा विधियाँ पाते है-वस्तुविधि-निरीक्षण विधि, प्रयोगात्मक विधि, आगमन विधि, भ्रमण विधि, क्रिया और खेल विधि, मनन विधि, सहकारी विधि | भारतीय शिक्षा में हमें यथार्थवादी दृष्टिकोण इस सन्दर्भ में कुछ तो मुदालियर शिक्षा आयोग तथा कुछ कोठारी शिक्षा आयोग की रिपोर्टों में मिलता है जिनका समर्थन टैगोर, गांधी, विवेकानन्द जैसे शिक्षाशास्त्रियों ने भी वर्तमान परिस्थिति को ध्यान में रखकर किया है। मुदालियर आयोग की रिपोर्ट में क्रिया विधि, योजना विधि, वस्तु विधि, प्रयोग और अभ्यास विधि, सामूहिक विधि, स्वाध्याय विधि का वर्णन मिलता है। कोठारी कमीशन की रिपोर्ट में प्रदर्शन विधि, कर्मशाला विधि, परीक्षण विधि, विचार गोष्ठियों की विधि, (Seminar Method), परिचर्या विधि, पाठ्यपुस्तक विधि का वर्णन मिलता है। इसके साथ “निर्देशन” को भी शिक्षा विधि का एक अंग बताया गया है। इन विधियों से नवीन झुकाव मालूम होता है और इसे हम यथार्थवादी प्रभाव ही मानते हैं।

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Pankaja Singh

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