संगठनात्मक व्यवहार

व्यक्तित्व का विकास | व्यक्तित्व विकास में प्रवृत्तियाँ | व्यक्तित्व विकास की अवस्थाएं

व्यक्तित्व का विकास | व्यक्तित्व विकास में प्रवृत्तियाँ | व्यक्तित्व विकास की अवस्थाएं | Development of personality in Hindi | Trends in Personality Development in Hindi | stages of personality development in Hindi

व्यक्तित्व का विकास

(Development of Personality)

मानवीय व्यवहार की समझ के महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में व्यक्तित्व का विकास वर्षों से अध्ययन एवं शोधन का प्रमुख विषय रहा है वास्तव में, विकास अवधारणा व्यक्तित्व सिद्धान्त का ही एक रूप है जो कि शोध अभिमुखी (Resarch-oriented) है। प्राचीन मनोविश्लेषकों के विपरीत, जो वंश परम्परा, बातावरण परिपक्वता तथा सीखने को ही व्यक्तित्व में सम्मिलित करते हैं, विकासात्मक मनोविज्ञान का मत है कि इसमें मनुष्य के मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक अन्तक्रिया के भाग सम्मिलित हैं। अतः वंशानुगतता, वातावरण, परिपक्वता तथा सीखने जैसे घटक मानवीय व्यक्तित्व में योगदान देते हैं।

अधिकांश मनोविश्लेषकों का मत है कि व्यक्ति अधिकाधिक आवश्यकताओं एवं योग्यताओं को अपने में जोड़ते हुये परिपक्वता की प्राप्ति करता है। व्यक्ति अपने निजी जगत् के विभिन्न अंगों में विकास करता है। जैसे-जैसे वह परिपक्व होता जाता है, अधिकाधिक अंगों, आवश्यकताओं एवं योग्यताओं को अपने में जोड़ता है। जैसे-जैसे इन नवीन अंगों की प्राप्ति होती है, वे व्यक्ति के वर्तमान अंगों से एकीकृत हो जाती है। इस कार्य के फलस्वरूप व्यक्तित्व संगठन के सन्तुलन में कोई व्यक्क्रिम उत्पन्न नहीं होता है। नवीन अंगों के समावेश से व्यक्ति के निजी जगत् में भी फैलाव आता है। शिक्षा एवं प्रशिक्षण के द्वारा व्यक्ति सही-गलत का निर्णय कर पाता है तथा पूर्ण विकसित होने का प्रयास करता है। एरिक इरिकसन (Erik Erikson) ने विकास की आठ मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं का उल्लेख किया है-

(1) मुख एवं संवेदन, (2) त्यागने योग्य अंग एवं शरीर की माँसल संरचना, (3) स्थानान्तर चलन एवं जनन सम्बन्धी (4) अप्रसन्नता (5) यौवन अवस्था एवं युवास्था, (6) प्रारम्भिक बालिगावस्था, (7) युवा एवं मध्यम बालिगावस्था, (8) परिपक्व बालिगावस्था।

एरिकसन का मत है कि उपर्युक्त सभी अवस्थाओं में मनोवैज्ञानिक संकट उत्पन्न होता है तथा व्यक्तित्व को बनाये रखते हुये व्यक्ति प्रत्येक संकट को अनुकूलतम रूप से हल करता है। महत्वपूर्ण संकट यौवन तथा युवावस्था में उत्पन्न होता है। इसका मत है कि विगत लक्ष्यों के वर्तमान लक्ष्यों के साथ एकीकरण होने पर ही अनुकूलतम परिणाम प्राप्त हो सकता है। संगठनात्मक व्यवहार के दृष्टिकोण से युवा एवं मध्यम वालिगावस्था अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। इस अवस्था में स्थिरता बनाम उत्पादकता का संकट व्यक्ति के सम्मुख रहता है। एरिकसन का मत है कि व्यक्तित्व विकास के सन्दर्भ में इस समस्या का सर्वोत्तम उत्पादन अभिमुखी दृष्टिकोण है। अन्य शब्दों में, युवा एवं मध्यम उम्र बालिग अपने मनोवैज्ञानिक संकट का समाधान होकर कर सकते हैं तथा अपने व्यक्तित्वच का विकास कर सकते हैं।

जब व्यक्ति दूसरों के साथ अन्तर्क्रिया करता है, तो उसका व्यक्तित्व पूर्ण संगठित एवं एकीकृत हो जाता है। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति कुछ अंशों में दूसरों के समान होता है और कुछ अंश में दूसरे के समान नहीं होता है, अतः संस्कृति एवं आत्मानुभूति जैसे मुद्दे उसके व्यक्तित्व को प्रत्यक्षतः प्रभावित करते हैं। ए० के० फ्रैंक का मत है कि, “मानवीय व्यक्तित्व संस्कृति की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है। जब दो व्यक्ति सांस्कृतिक परिवेश से आते हैं तो उनके व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति विशेषताओं में भी अन्तर होता है। प्रबन्धक विभिन्न व्यक्तियों के सांस्कृतिक परिवेश को मद्देनजर रखते हुये उनके साथ व्यवहार कर सकता है तथा बेहतर परिणाम प्राप्त कर सकता है।” आर्गरिस के अनुसार, “व्यक्तित्व और संस्कृति एक-दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते हैं। वास्तव में व्यक्तित्व संस्कृति के साथ नहीं होता है, वरन् व्यक्तित्व में या तो संस्कृति होती या संस्कृति में व्यक्तित्व निहित होता है।” इसने बाल्यावस्था तथा युवा व्यक्तित्व की निम्नलिखित विशेषतायें बतलाती हैं।

बाल्यावस्था (Child)

युवावस्था (Adult)

निष्क्रिय

सक्रिय

निर्भर

स्वतन्त्र

कुछ ही तरीकों में व्यवहार

अनेक तरीकों में व्यवहार

तुच्छ रुचि

गहरी, बौद्धिक रुचि

अल्पकालीन दृश्य

दीर्घकालीन दृश्य

अधीनस्थ भावना

समान या अधिशासी भावना

जागरुकता का अभाव

जागरुकता एवं स्व-नियन्त्रण

व्यक्तित्व विकास में प्रवृत्तियाँ

वास्तव में आर्गरिस का अपरिपक्वता-परिपक्वता सातत्य (Immaturity-maturity- continuum) संगठनात्मक व्यवहार के अध्ययन एवं विश्लेषण की स्पष्ट व्याख्या करता है। आर्गेरिस का मत है कि संगठनात्मक कर्मचारियों के व्यक्तित्व को सातत्य के परिपक्व समापन (Maturity end of cht continuum) के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इसके अनुसार, “कर्मचारियों के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास हेतु औपचारिक संगठन में निष्क्रियता के स्थान पर सक्रियता, निर्भरता के स्थान पर स्वतन्त्रता, अल्पकालीन दृश्य के स्थान पर दीर्घकालीन दृश्य, समान या अधिशासी भावना तथा गहरी अभिव्यक्ति की अनुमति दी जानी चाहिये। ये विकासात्मक प्रवृत्तियाँ मानवीय व्यक्तितव की आधारभूत विशेषतायें है।”

व्यक्तित्व विकास की अवस्थाएं

(Stages of Personality Development)

एरिकसन (Erikson) ने व्यक्तित्व के विकास की आठ अवस्थाओं का उल्लेख किया है। जिन्हें निम्नांकित रूपों में समझा जा सकता है-

(1) शैशव-विश्वास बनाम अविश्वास (Infancy-Trust Vs. Distrust)- शैशव अवस्था में यदि शिशु की ठीक तरह से देखभाल की जाती है तथा उसे पूर्ण स्नेह दिया जाता है तो उसमें विश्वास का विकास होता है। इसके विपरीत, यदि शिशु की देखभाल में उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाता है तो वह बड़ा होकर असुक्षित और अविश्वासी प्रकृति का बन जाता है।

(2) आरम्भिक बाल्यावस्था-स्वयत्तता बनाम लज्जा और सन्देह (Early) Childhood Automacy Vs. Shame and Doubt)- एरिकसन के अनुसार बाल्यावस्था का यह समय 18 माह से लेकर 3 वर्ष की आयु तक चलता है। इसमें बच्चे को मल-मूत्र त्याग सम्बन्धी प्रशिक्षण दिया जाता है। यदि इस प्रशिक्षण को बच्चा सफलतापूर्वक ग्रहण कर लेता है तो उसमें अपने प्रति सन्तोष और स्वतन्त्रना की भावना का विकास होता है अन्यथा वह अपने आपको गन्दा समझकर लज्जा का अनुभव करने लगता है। लज्जा बच्चे को स्वयं के प्रति क्रोधी बना देती है। सन्देह और संशय जैसी भावनाओं का विकास भी लज्जा के कारण ही होता है।

उत्तरः

(3) क्रीड़ा आयु-पहल बनामदोषभाव (Playage-Initiative Vs. Guilt)- इस अवस्था में बच्चा परिवार की परिधि के बाहर निकलकर खेल के साथियों से अपना सम्बन्ध बनाना आरम्भ करता है तथा क्रीड़ा सम्बन्धी क्रियाओं को सीखता है। बच्चा यदि इन क्रियाओं में सफल होने लगता है तो उसमें पहल की भावना विकसित होती है। इसके विपरीत, यदि माता-पिता के कठोर नियन्त्रण के कारण बच्चे को परिवार से बाहर दूसरे बच्चों के साथ खेलने की छूट नहीं मिलती तो उसमें भय और हीनता की प्रवृत्ति विकसित होने लगती है। इसके लिए वह स्वयं को दोषी मानने लगता है।

(4) विद्यालय आयु-परिश्रम बनाम हीनता (School Age- Industry Vs. Inferiority) – व्यक्ति के विकास की यह अवस्था 6 से 11 वर्ष की आयु तक रहती है। इस अवस्था में बच्चे को विद्यालय में जाकर विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करना होता है। साथ ही उससे यह आशा की जाती है कि वह विद्यालय में मिलने वाले गृह कार्य को समुचित रूप से पूरा करे। इससे बच्चे में अनुशासन और परिश्रम की प्रवृत्ति साथ-साथ विकसित होती है। इस आयु में बच्चा कक्षा और खेल के मैदान में बराबर के अन्य बच्चों से सम्बन्ध स्थापित करता है। विद्यालय में बच्चा यदि समुचित ढंग से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता तथा शिक्षकों के द्वारा उपेक्षित रहता है तो उसमें हीनता की भावना विकसित होने लगती है।

(5) किशोरवास्था- तादात्म्य बनाम भूमिका विस्तार (Adolescence-Identity Vs. Role-diffusion)- यह अवस्था लगभग 12 वर्ष से 20 वर्ष तक की आयु के बीच की होती है। इस आयु में किशोर के अन्दर स्वयं को अन्य व्यक्तियों के अनुरूप बनाने की दृढ़ भावना उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप वह नई-नई भूमिकाओं के अपनाने का प्रयत्न करने लगता है। इस अवस्था में वह विपरीत लिंग के सदस्यों में भी रुचि लेने लगता है और अक्सर एक विद्रोही स्वभाव को भी प्रदर्शित करने लगता है। इस समय आजीविका के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए उसमें निर्णय की प्रक्रिया का आरम्भ हो जाता है और इसी के अनुसार वह एक विशेष प्रकार की शिक्षा में अधिक रुचि लेने लगता है। यदि स्वयं के बारे में वह कोई निर्णय नहीं ले पाता अथवा उसके मन में संशय की भावना उत्पन्न होने लगती है तो मनोवैज्ञानिक रूप से उसमें भूमिका विस्तार की दशा उत्पन्न हो जाती है।

(6) युवा वयस्कता- प्रगाढ़ता बनाम अलगाव (Young Adulthood-Intimacy Vs. Isolation) – इस अवस्था में एक नवयुवक कुछ ऐसे प्रगाढ़ सम्बन्धों की खोज में रहता है जिससे वह स्थायी और अच्छी मित्रता पा सके। जो व्यक्ति इस प्रक्रिया में असफल हो जाते हैं, उनमें अलगाव और पृथूकता की मनोवृत्ति उत्पन्न होने लगती है। अक्सर ऐसे युवा वैवाहिक सम्बन्धों से भी बचने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार प्रगाढ़ सम्बन्धों वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व अधिक सन्तुलित बनने लगता है, जबकि अलगाव वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व में विचलनकारी प्रवृत्तियों के उत्पन्न होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

(7) वयस्कता- उत्पादकता बनाम स्थिरता (Adulthood-Generativity Vs. Stagnation) – एरिकसन के अनुसार उत्पादकता का प्राथमिक स्वरूप है नयी पीढ़ी को स्थापित करते हुए उसके मार्गदर्शन में रुचि लेना। यह उत्पादकता वैवाहिक सम्बन्धों, अभिभावक के रूप में बच्चे के दायित्वों और पारिवारिक क्रियाओं को पूरा करने के क्षेत्र में देखी जा सकती है। इसके विपरीत, यदि एक वयस्क व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों का मार्गदर्शन नहीं कर पाता अथवा उन कार्यों से वंचित रहता है जिन्हें उत्पादक नहीं कहा जा सकता तो उसके जीवन में स्थिरता अथवा गतिहीनता की भावना विकसित होने लगती है।

(8) परिपक्वता- अहं-अखण्डता बनाम नैराश्य (Maturity-Ego Integrity Vs. Despair)- व्यक्तित्व के विकास से सम्बन्धित उपयुक्त सभी अवस्थाओं को पार करने के पश्चात् व्यक्ति एक परिपक्व और अखण्ड व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेता है। अखण्ड अथवा एकीकृत व्यक्तित्व का व्यक्ति स्वतन्त्र, परिश्रमी साहसी और सत्यनिष्ठ होता है। इसके विपरीत, जो व्यक्ति इन मनोवैज्ञानिक विशेषताओं से वंचित रह जाते हैं, उनका व्यक्तित्व हतोत्साहित अथवा निराशा से भरा हुआ हो जाता है। परिपक्व व्यक्तित्व में अहं-अखण्डता (Ego Integrity) की भूमिका को स्पष्ट करते हुए एरिकसन ने लिखा है कि अंह अखण्डता एक ऐसा संवेगात्मक एकीकरण है जो न केवल साहवर्य भाव से व्यक्ति को इसी कार्य में सम्मिलित होने की प्रेरणा देता है बल्कि नेतृत्व के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की भी शक्ति प्रदान करता है।

व्यक्तित्व के विकास से सम्बन्धित फ्रायड तथा एरिकसन के उपर्युक्त विचार मूलतः मनोवैज्ञानिक-संवेगात्मक पंक्षों पर ही आधारित हैं। इन विचारों से केवल यही स्पष्ट होता है कि विभिन्न अवस्थाओं में व्यक्ति का व्यक्तित्व किस प्रकार विकसित होता है। इन दोनों सिद्धान्तों में उन सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारकों को अधिक स्पष्ट नहीं किया गया है जो व्यक्ति के विकास में सहायक होते हैं। वास्तविकता यह है कि व्यक्तित्व अनेक कारकों के संयुक्त प्रभाव का परिणाम होता है।

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Pankaja Singh

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