इतिहास

वियना कांग्रेस का आरम्भ | वियना की कांग्रेस (1815) के कार्यों का उल्लेख | वियना कांग्रेस के निर्णयों की आलोचनात्मक व्याख्या

वियना कांग्रेस का आरम्भ | वियना की कांग्रेस (1815) के कार्यों का उल्लेख | वियना कांग्रेस के निर्णयों की आलोचनात्मक व्याख्या

वियना कांग्रेस का आरम्भ

(Beginning of the Vienna Congress)

यूरोपीय इतिहास में नेपोलियन के पतन के पश्चात् यूरोप की स्थिति बड़ी शोचनीय हो गई थी। वाटरलू के युद्ध में पराजित होने के पश्चात् नेपोलियन को सेण्ट हेलीना के द्वीप में एक अमेज ब्रिगेडियर की देख-रेख में भेज दिया गया था। फ्रांस में लुई अठारहवें को पुन: सिंहासनारूढ कर दिया गया था। परन्तु यूरोप के अन्य छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व समाप्त हो गया था। कई राज्यों की सीमाओं और व्यवस्थाओं में वड़ा परिवर्तन आ गया था। सारे यूरोप में भारी उथल-पुथल हो गई थी। पुरानी मान्यताओं को उठाकर ताख पर रखा जा रहा था। फ्रांस का नेपोलियन कालीन वैभव भस्मासुर के उदर में समा गया था। समाज में स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व की भावना सुरा की भाँति मुँह फैलाए खड़ी थी। राष्ट्रीय भावनाएँ प्रतिदिन सुदृढ़ हो रही थीं। इन नये विचारों के साथ-साथ प्राचीन राज्यों के नरेश अपनी-अपनी शक्ति को संगठित करने में संलग्न थे। नेपोलियन का अन्त जैसे नई तथा पुरानी प्रवृत्तियों के संघर्ष का आरम्भ था।

इस समय यूरोप में चार मुख्य समस्याएँ थीं- (1) क्रान्तिकारी तत्वों के दमन की समस्या। (2) नेपोलियन के साम्राज्य की पुनर्व्यवस्था। (3) चर्च की समस्या तथा (4) शान्ति रक्षा के उपाय।

इन्हीं सब समस्याओं तथा विविध प्रश्नों की पृष्ठभूमि में आस्ट्रिया को राजधानी वियना में यूरोपीय राष्ट्रों का वह महत्त्वपूर्ण सम्मेलन (1814-1815) में हुआ जो वियना कांग्रेस (The Vienna Congress) के नाम से प्रसिद्ध है। इस सम्मेलन के विषय मे इतिहासकार हेज के शब्दों को नहीं भूलाया जा सकता, “संख्या, विविधता, प्रस्तुति तथा निर्णय प्रश्नों के पानी के कारण नियना कोमेस यूरोप के इतिहास में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कूटनीतिक सभाओं में से एक भी। इसकी सदस्यता की प्रतिभा नेपोलियन की योजनापूर्ण कूटनीति के युग में उल्लेखनीय है।”

वियना कांग्रेस का यह सम्मेलन सितम्बर, 1814 ई० में प्रारम्भ हो गया था। परन्तु एल्बा नेपोलियन के भाग निकलने पर इसकी कार्यवाही में बाधा आ गई। वियना-सम्मेलन में एकत्रित राजनेताओं ने नेपोलियन के पुनः फ्रांस पहुंच जाने का समाचार सुनकर आपसी संघर्ष तुरन्तु बन्द कर दिए। यूरोप की शान्ति भंग करने वालों के विरुद्ध के पुनः एक हो गए। उन्होंने उसे अपराधी मानी तथा उसके विरूद्ध अभियान प्रारम्भ कर दिया। एक ओर तो वाटरलू के युग में 18 जून, 1815 को अन्तिम रूप से हराया गया था दूसरी ओर इस युद्ध से कुछ दिन पहले ही कांग्रेस ने अपने निर्णय ले लिए जिन पर 9 जून, 1815 को राज्यों ने हस्ताक्षर कर दिए थे। इस प्रकार युद्ध-भूमि में तो गोलियों का युद्ध जीता गया और मेज पर वैधानिक युस के निर्णय किए गए। कांग्रेस के इन्हीं निर्णयों से 19वीं शताब्दी की यूरोपीय राज्य व्यवस्था (State system) की आधारशिला रखी गई।

वियना काप्रेस में प्रतिनिधित्व-

वियना कामेस के अवसर पर खूब धूम-धाम रही। टर्की के सिवाय यूरोप के सुब देशों के प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित हुए थे। रूस, आस्ट्रिया प्रशिया, डेनमार्क, बावेरिया और ब्रटेंमबर्ग के राजा तो स्वयं उपस्थित थे। अन्य कई छोटे राजा, सामंत तथा कई देशों के मंत्री तथा सेनापति इसमें लेने आए थे। कुल मिलाकर 90 बड़े तथा 53 छोटे राजा या उनके प्रतिनिधि इसमें एकत्रित हुए थे। इससे पूर्व यूरोप में कभी इतनी बड़ी संख्या में बड़े-बड़े लोग इकट्ठे नहीं हुए थे। इनमें रूस का जार अलेक्बैंडर प्रथम आस्ट्रिया का सम्राट फ्रांसिस प्रथम और उसका प्रधानमंत्री मैटर्निख प्रशिया का राजा फ्रेड्रिक विलयम तृतीय (Fredrick William III), ब्रिटेन का लार्ड कैसलरे (Castlereagh) तर्था वैलिंगदन का ड्यूक (Duke of Willington), फ्रांस का प्रतिनिधि तालीरा (Talleyard) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

इन पदाधिकारियों या समृद्ध व्यक्तियों के समूह के बारे में उस समय के एक यात्री ने लिखा है, “वियना नगर की शोभा दर्शनीय है। वहाँ यूरोप की बड़ी से बड़ी हस्तियाँ अपने पूर्ण वैभव से उपस्थित है,”

सम्मेलन का प्रमुख समस्यायें

(Main Problems of the Vienna Congress)-

नेपोलियन यूरोप के राज्यों पर एक आँधी के समान उमड़कर आया था जिसने यूरोपीय राज्यों को उलट-पुलट दिया था। देशों की सीमाएँ बदल गई थीं, कई नये राज्य बना दिए थे और कुछ पुराने राज्यों को समाप्त कर यिा गया था। अब उनको नये सिरे से व्यवस्थित किया जाना था। वियना कांग्रेस के सामने विचारणीय प्रश्न अग्रांकित थे-

(1) पोलैण्ड, बेल्जियम, हालैण्ड, राइन के राज्य संघ तथा स्विटजरलैण्ड की क्या सीमाएं निश्चित की जाएँ। इन देशों को अलग राज्य के रूप में रखा जाये या दूसरों के साथ मिला दिया जाए।

(2) नेपोलियन के समय में जो पुराने राजुवंशों का अन्त हो गया था, उनकी स्थापना फिर से की जाए या नहीं। जो नवीन राज्य और उनके शासक बना दिए गए थे, उनके भाग्य का भी निपटारा करना था।

(3) फ्रांस किसी भी समय महान शक्ति बन सकता है और यूरोप के लिए संकट पैदा कर सकता है- इसकी भी सुदृढ़ व्यवस्था करनी थी।

(4) जिन राज्यों अथवा शासकों ने नेपोलियन का साथ दिया था, उनको क्या दण्ड दिया जाये।

समझौते के सिद्धान्त

इस सम्मेलन ने निम्निलिखित सिद्धान्त के अनुसार यूरोप की व्यवस्था करने का विचार किया-

(1) वैधता का सिद्धान्त- यूरोप की ठीक प्रकार से व्यवस्था करने के लिए मैटर्निख ने यह सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि जहाँ तक व्यवहारिक रूप बन सके, यूरोपीय देशों की जो सीमाएँ और शासक राजवंश फ्रांसीसी क्रान्ति या नेपोलियन के अभ्युदय से पूर्व थे, उन्हें फिर से स्थापित कर दिया जाए। इसी को वैधता का सिद्धान्तु (Legitiinasy) कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि पुरानी सीमाएं ही कानूनी थीं और उन पर पुराने राजवंशों का हीं अधिकार होना चाहिए।

(2) शक्ति-सन्तुलन का सिद्धान्त- वैधता का सिद्धान्त शक्ति सन्तुलन के साथ संगत था। सब राज्यों की पुरानी सीमाएं बना देने से पुराना शक्ति सन्तुलन फिर स्थापित हो जायेगा।

(3) क्षतिपूर्ति का सिद्धान्त- इस तीसरे सिद्धान्त के अनुसार जिन राज्यों ने नेपोलियन को हराने में पूरा सहयोग दिया था, उनको क्षतिपूर्ति उन राज्यों के खर्च पर की जानी चाहिए, जिन्होंने नेपोलियन का साथ दिया था।

परन्तु ये सिद्धान्त तो दिखावटी थे। बड़े राष्ट्र अपनी सीमाएं तथा प्रभाव को अधिक से अधिक बढ़ा लेना चाहते थे, जिससे यह कहा जा सके कि ऐसा उन्होंने सर्वसम्मति से किया है। परन्तु परेशानी की बात यह थी कि उन बड़े राष्ट्रों की इच्छाएं और हित ही परस्पर टकराते थे। इस सम्मेलन का असली कार्य उनमें मेल बिठाना था। जिन देशों या प्रदेशों को हस्तान्तरित किया जाना था उनकी जनता की राय जानने की इस कांग्रेस ने बिल्कुल आवश्यकता नहीं समझी।

वियना कांग्रेस की कार्य-प्रणाली

एक इतिहासकार ने वियना-कांग्रेस की कार्य-प्रणाली के विषय में लिखा है कि कांग्रेस का कोई निश्चित ढंग नहीं था, कोई प्रस्ताव पेश नहीं होते थे, वोट लेने की भी व्यवस्था नहीं थी, नाचघर में राज्यों की सीमाएँ तय की जाती थी, गम्भीर से गम्भीर मामले सहभोजों, तमाशों तथा संगीत सम्मेलनों में तय कर लिए जाते थे तथा किसी ने कोई हंसी-मजाक की बात कही, औरों को पसन्द आ गई और मान ली गई।”

मैटर्निख इस सम्मेलन का प्रधान भी था और मंत्री भी। उसुकी इच्छा थी कि चार बड़े राष्ट्र-बिटेन, रूस, आस्ट्रिया और प्रशिया-आपस में मिलकर सारे फैसले कर लें और शेष सब प्रतिनिधियों से उन्हें स्वीकार करा लिया जाए। परन्तु फ्रांसीसी प्रतिनिधि तालींरा भी अत्यन्त मृदुभाषी और मैटर्निख की टक्कर का प्रतिनिधि था, उसने मैटर्निख को बाध्य किया कि सब महत्वपूर्ण विचार-विमर्शों में फ्रांस को भी शामिल किया जाए। सभी देश अपना स्वार्थ सिद्ध करने पर तुले हुए थे। परन्तु सभी के स्वार्थ आपस में टकराते थे। इसका लाभ उठाकर और छोटे राष्ट्रों के हितों की दुहाई देकर फ्रांसीसी प्रतिनिधि तालीरा फ्रांस के हितों की रक्षा करने का प्रयल कर रहा था।

वियना कांग्रेस के निर्णय

उपरोक्त कार्य-प्रणाली तथा सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए वियना कांग्रेस ने निम्नलिखित निर्णय लिए-

(1) पोलैण्ड- सबसे पहला विवाद पोलैण्ड को लेकर हुआ । नेपोलियन ने वार्सा का ग्रांडडची नामक एक अलग राज्य बना दिया था। पहले यह पोलैण्ड का भाग था। रूस के जार ने आस्ट्रिया और प्रशिया से वायदा किया था पर वार्सा की प्रांडडची को समाप्त करने के बाद सारे पोलैण्ड को स्वयं ही हड्प लेना चाहा। उससे कहा कि आस्ट्रिया इसके बदले इटली का कुछ प्रदेश और एशिया को सैक्सनी का पूरा प्रदेश दे दिया जाए। इतना ही नहीं जार ने पहले पोलैण्ड में अपनी सेना भेज दी और फिर अपना प्रस्ताव वियना कांग्रेस में पेश किया। प्रशिया ने इस प्रस्ताव को मान लिया, क्योंकि उसे सैक्सनी का विशाल प्रदेश मिल रहा था। परन्तु आस्ट्रिया और ब्रिटेन विरोध पर उतर आए। अन्त में तालींरा के प्रयास से यह समझौता हुआ कि प्रशिया को सारा सैक्सनी नहीं, बल्कि उसका कुछ भाग दे दिया जाए। पोलैण्ड का बड़ा भाग रूस को दे दिया गया, परन्तु गैलिशिया आस्ट्रिया के तथा पोसेन और कोरिडोर (Corridor) प्रशिया के पास रहा।

(2) फ्रांस- फ्रांस में पूर्वोन वंश का शासन पुनः स्थापित कर दिया गया। लुई अठारहवें को राजसिंहासन मिला । सन् 1789 की सीमा को ही फ्रांस की सीमा तय किया गया तथा उसे फ्रैन्च गायना, मार्तिनिक तथा बूबोंन के द्वीप दे दिए गए। क्रान्तिकारियों के दमन के लिए 1 1/2 लाख ब्रिटिश सेना फ्रांस में रखी गई। इसका व्यय फ्रांस को देना था।

(3) ब्रिटेन- नेपोलियन को हराने में विटेन का बहुत बड़ा हाथ था। अत: उत्तर सागर में हैलिगोलैण्ड भूमध्य सागर में माल्टा, सेंटलूसिया, डोवैगे और मौरिशस द्वीप फ्रांस से छीनकर बिटेन को दिए गए। स्पेन के ट्रीनीडाड और होंडुरास तथा हालैण्ड के सीलोन (श्री लंका), केप कोलोनी और गायना का कुछ भाग विटेन को दे दिया गया। ये सब द्वीप बिटेन की नौसैनिक शक्ति के लिए बहुत उपयोगी थे।

(4) रूस- इसे पोलैण्ड का बड़ा भाग मिल गया। स्वीडन से उसे फिनलैण्ड मिला।

(5) आस्ट्रिया- आस्ट्रिया से बेल्जियम लेकर हालैण्ड को दे दिया गया था अतः पुनः उसकी शक्ति को भी बढ़ाया गया। उसे इटली में लोम्बर्डी (Lombardy), बैनीशिया, इलीरिया प्रान्त दिए गए। बबेरिया से टिरोल तथा रूस से गैलिशिया ले लिए गए और उन्हें आस्ट्रिया के सुपुर्द कर दिया गया।

(6) प्रशिया- इस देश को काफी लाभ हुआ। उसे उत्तरी सेक्सनी, पोसेन, कोरिडोर, डोंजिज तथा र्थोन मिला। राइन नदी का कोलोन (Cologne), त्रिवे (Trives) और ए-ला-थापैल (Aixla Chapelle) वाला प्रदेश और स्वीडिश पोमैरोमिया भी उसे मिल गया। इससे उसके राज्य का विस्तार दुगना हो गया। दक्षिणी जर्मनी में उसका प्रभाव बढ़ गया।

(7) इटली- इस देश की व्यवस्था में काफी परिवर्तन किए गए। बूर्बन वंश का शासन पुनः नेपल्स में स्थापित कर दिया गया, पोप की शासन प्रणाली उसके आश्रित राज्यों में स्थापित कर दी गई। साडोंनिया को पीडमोण्ट, जिनोआ तथा सेवाय प्राप्त हुए। पार्मा का राज्य नेपोलियन की पत्नी मेरी लुईसा को मिला। टस्कनी और मोडीना पर पुराने आस्ट्रियन वंश के राजाओं का स्वामित्व स्वीकार किया गया। वेनिस, लोम्बार्डी तथा मिलान आस्ट्रिया के अधीन रहे। इस प्रकार नेपोलियन द्वारा इटली को एक संगठित शक्ति बनने की जो प्रेरणा मिली थी, वह पुनः छिन्न-भिन्न कर दी गई।

(8) पुर्तगाल- पुर्तगाल को कुछ नहीं दिया गया।

(9) स्पेन- इस प्रदेश में पुनः बूढेन वंश का राज्य स्थापित किया गया। उसका ट्रीनीडाड प्रदेश ब्रिटेन ने ले लिया।

(10) जर्मनी- जर्मनी के 38 राज्यों को संगठित करके एक जर्मन राज्य संघ बनाया गया। इस राज्य की एक संसद (Diet) होती थी, जिसका अध्यक्ष आस्ट्रिया का सम्राट फ्रान्सिस प्रथम बना । संसद में इन जर्मन राज्यों के राजा अपने प्रतिनिधि भेजते थे। उनका चुनाव जनता द्वारा होता था। इन राज्यों की आन्तरिक स्थिति स्वतन्त्र थी, परन्तु वे अपनी इच्छानुसार एक-दूसरे से युद्ध नही कर सकते थे और न कोई संधि ही कर सकते थे। जर्मनी के एकीकरण की ओर यह पहला कदम उठाया गया था।

(11) हालैण्ड तथा बेल्जियम- हालैण्ड को बेल्जियम के साथ मिला दिया गया और इन दोनों पर ओरेंज (Orange) वंश का शासन स्थापित गया।

(12) स्वीडन तथा डेनमार्क- स्वीडन का पोमेरेनिया प्रदेश प्रशिया को और फिनलैण्ड रूस को दे दिया गया। इसके बदले में नार्वे को डेनमार्क से छीनकर स्वीडन को दे दिया गया।

इस प्रकार यूरोप के राज्यों को नये ढंग से पुनर्गठित करने के अतिरिक्त वियना कांग्रेस ने कुछ अन्य निर्णय भी किए। इनमें से पहला दास प्रथा के विरुद्ध प्रस्ताव तथा दूसरा अन्तर्राष्ट्रीय कानून बनाने का प्रयल उल्लेखनीय है।

दास-प्रथा का विरोध- 18वीं शताब्दी में दास-प्रथा प्रचलित थी। सन् 1807 में ब्रिटेन, सन् 1813 में स्वीडन और सन् 1814 में हालेण्ड ने अपने यहाँ से दास-प्रथा को समाप्त कर दिया था। सन् 1815 में वियना कांग्रेस के लिए दासता के विरुद्ध प्रस्ताव पास करके घोषणा की कि दास-प्रथा सभ्यता और मानव अधिकारों के प्रतिकूल है। परन्तु इस प्रस्ताव पर अमल करना न करना राज्यों की इच्छा पर छोड़ दिया गया।

अन्तर्राष्ट्रीय कानून- वियना कांग्रेस ने एक अन्तर्राष्ट्रीय कानून बनाया जिसमें यूरोप की नदियों में नौका-परिवहन के और विविध राज्यों द्वारा समुद्रों के उपयोग के बारे में और राज्यों के पारस्परिक व्यवहार के विषय में नियम निश्चित किए गए।

कांग्रेस-निर्णय की भूलें

कांग्रेस की घोषणाओं तथा उसके नियमों की दुहाई जिस ऊँचे आदर्श से दी गई, उसके अनुसार उसका पालन नहीं किया गया। कांग्रेस के सदस्यों ने आडम्बर की ओट में लूट के नृशंस कार्य पर परदा डाल दिया। सीमाओं को बदलने में जनता अथवा उस देश को परम्परा का कोई ध्यान नहीं रखा गया। प्रजा से किसी प्रकार का परामर्श नहीं लिया गया। इसमें सम्मिलित होने वाली शक्तियाँ राष्ट्रीयता या प्रजातन्त्रीय भावनाओं की विरोधी थीं। यूरोप के मानचित्र में जो परिवर्तन किए गए थे, वे या तो स्वार्थपूर्ण थे या उनका स्वरूप पहले ही बनाया जा चुका था। छोटी-छोटी रियासतों को कुछ अदल-बदल करके बड़े राज्यों का मतलब सिद्ध किया गया। हालैण्ड, बेल्जियम तथा नार्वे और स्वीडन में स्वार्थ दृष्टि स्पष्ट थी। यहाँ लोकमत या परम्परा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इटली के बंटवारे में उस देश की एकता पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। जर्मन संघ को इस हेतु कमजोर बनाया गया जिससे यूरोप में आस्ट्रिया का प्रभुत्व तथा महत्व बढ़ सके।

प्रशा को शक्ति इतनी अधिक बढ़ा दी गई कि आगे चलकर वह यूरोप के लिए घातक सिद्ध हो गई। इस बँटवारे में इंगलेण्ड ने अपनी औपनिवेशिक शक्ति बहुत बढ़ा ली। कांग्रेस के सदस्यों ने प्रजातन्त्र के आदर्श को ताख पर रख दिया।

हेजेन के शब्दों में, “वियना के निर्णय ऊँचे आदर्शों से रिक्त थे। इनमें स्वार्थ-दृष्टि की प्रमुखता थी।”

आगे चलकर हेजेन ने लिखा है, “इसमें वास्तविकता की कमी थी। सारा समझौता कुछ और आगे चलकर अस्थायी रहा। यही कारण था कि 1815 से आज तक यूरोप का इतिहास इसी महान भूल को सुधारने का प्रयत्न मात्र है।”

साउथगेट के शब्द भी इस सम्बन्ध में दृष्टव्य हैं, “19वीं शताब्दी का यूरोप का इतिहास इन्हीं भूलों को निकालने का परिणाम है।”

हेज ने इसकी निन्दा इन शब्दों में की है, “सीमा-परिवर्तन अधिकांश में अस्थायी था और बहुत कम स्थायित्व लिए हुए था।”

स्वीडन और नार्वे का मिलाया जाना भी अस्वाभाविक था और इसीलिए वह कुछ वर्षों तक ही रहा। हालैण्ड और बेल्जियम का संयोग 15 वर्ष ही टिकने पाया। जर्मनी तथा इटली का स्वरूप 50 वर्षों में परिवर्तित हो गया।

हेज ने इस भावना की समीक्षा इन शब्दों में की है,” वियना-कांग्रेस उच्च अधिकारियों का जाल मात्र थी, जिनको प्रजातन्त्रीय विचारों या क्रान्ति के सिद्धान्तों से घृणा थी।

निर्णयों का समर्थन (लाभ)

आक्षेपों के साथ-साथ कांग्रेस के निर्णयों से लाभ भी हुए। इन लाभों को हम निम्नलिखित रूप में देखेंगे-

(1) नवयुग का आरम्भ- कांग्रेस सम्मेलन के निर्णयों के फलस्वरूप हो यूरोप में नवयुग का श्रीगणेश हुआ। छोटे-छोटे झगड़ों को शान्त करने तथा सुलझाने में बड़ी सहायता मिली।

(2) शान्ति का वातावरण- कांग्रेस के निर्णय के पश्चात् यूरोप में आगे लगभग 40 वर्षों तक शान्ति बनी रही। जनता को सुख मिला।

(3) गुलामी- प्रथा की समाप्ति- कांग्रेस के प्रयलों से गुलामी प्रथा समाप्त हो गई। यद्यपि स्पेन तथा पुर्तगाल गुप्त रूप से दासों के क्रय-विक्रय का कार्य करते रहे। परन्तु फिर भी उन्हें इस घृणित प्रथा को छोड़ने के लिए बाध्य किया गया था।

हार्नेशा ने इस निर्णय का समर्थन करते हुए लिखा है, “आखिर वियना के निर्णायक कोई ईश्वर का अवतार न थे।”

दास प्रथा के विरोध में मेरियट के शब्दों को भी नहीं भुलाया जा सकता, “यद्यपि कांग्रेस के कार्य प्रतिक्रियावादी थे, परन्तु इससे एक पुराने युग की समाप्ति और नये युग का आरम्भ भी होता है।”

इसी प्रकार केटलबी लिखते हैं, कांग्रेस के निर्णय में विचारशीलता तथा गम्भीरता थी जिसके द्वारा भावी यूरोप की स्थापना हुई और चालीस वर्षों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनी रही।”

निर्ष्कष (Conclusion)

वियना कांग्रेस के निर्णय से यूरोप के पुरातनकाल की समाप्ति हो गई थी। साथ-साथ एक नए युग का प्रादुर्भाव हुआ। इटली, जर्मनी, प्रशिया आदि राष्ट्र अपने राष्ट्रीयकरण की ओर झुक गए। आस्ट्रिया ने काफी उन्नति की। रूस् को भी कम लाभ नहीं हुआ। यूरोप में शान्ति स्थापना की लहर दौड़ रही थी और यूरोप के राजनीतिज्ञों द्वारा शान्ति की स्थापना आगे चालीस वर्षों तक रही।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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