वित्तीय प्रबंधन

वित्तीय साधनों का वर्गीकरण | दीर्घकालीन कोषों के साधन

वित्तीय साधनों का वर्गीकरण | दीर्घकालीन कोषों के साधन | Classification of Financial Instruments in Hindi | long term funds in Hindi

वित्तीय साधनों का वर्गीकरण

Classification of Financial Resources

निगमों के वित्तीय साधनों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया जा सकता है। स्वामिगत एवं ऋणगत साधनों के अतिरिक्त काल अथवा अवधि के अनुसार वित्तीय साधनों को जिन तीन वर्गों में विभक्त किया जाता है वे हैं- (1) दीर्घकालीन साधन (Long Term Sources), (2) मध्यमकालीन साधन (Medium-Term sources) तथा (3) अल्पकालीन साधन (Short-term Sources)। वित्त के दीर्घकालीन स्रोत स्थायी रूप से अथवा लम्बी अवधि के लिए पूँजी की पूर्ति करते हैं। सामान्य अथवा इक्विटी अंशों के आधार पर प्राप्त वित्त स्थायी साधन (Preference Shares) होता है। यह साधन निगम को जीवनपर्यन्त उपलब्ध होता है। केवल अवसायन (Liquidation) की दशा में ही इसके पुनः भुगतान का प्रश्न उठता है। जहाँ तक पूर्वाधिकार अथवा अधिमान्य अंशों (Preference shares) का प्रश्न है अब केवल शोध्य पूर्वाधिकार अंशों (Redeemable Preference Shares) का निर्गमन ही भारत में कम्पनियों द्वारा किया जा सकता है। इनके आधार पर प्राप्त वित्त दीर्घकालीन तो होता है, किन्तु इसे स्थायी साधन नहीं माना जा सकता है, क्योंकि निर्धारित अवधि (अधिक से अधिक दस वर्ष) में इनका भुगतान करना होता है।

ऋण-पूँजी किसी भी अवधि के लिए हो सकती है। समय क्रम के अनुसार ऋणों से प्राप्त वित्त को अल्पकालीन, मध्यमकालीन एवं दीर्घकालीन साधन के रूप में विभक्त किया जाता है। अल्पकालीन साधनों में प्रायः ऐसे सभी ऋण सम्मिलित किये जाते हैं जिनकी अवधि एक वर्ष अथवा इससे कम हो। अर्थात् इन ऋणों का भुगतान कुछ दिनों, कुछ सप्ताहों, कुछ महीनों अथवा अधिक से अधिक एक वर्ष के अन्दर करना होता है। ये साधन प्रायः व्यापारिक स्त्रोतों, जैसे उधार खरीद, देय-बिलों (Bills Payable) के आधार पर माल की खरीद, हुण्डियों, प्रपत्रों के आधार पर ऋण अथवा व्यापारिक बैंकों से सुरक्षित अथवा असुरक्षित ऋण अथवा अधिविकर्ष (Overdrafts) के रूप में होते हैं, जैसे माल के स्टॉक (Inventory), वेतन, पानी, बिजली एवं अन्य दैनिक व्ययों अथवा तैयार माल के उधार विक्रय ( Credit Sales) के वित्त पोषण के लिए। अल्पकालीन साधनों से प्राप्त वित्त को दीर्घकालीन उपयोगों (Long-term Uses) के लिए प्रयुक्त करना (जैसे भूमि, भवन, मशीनरी आदि की खरीद के लिए) वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्तों के अनुकूल नही माना जाता है; क्योंकि इनके भुगतान की समस्या प्रबन्धकों के समक्ष शीघ्र ही वित्तीय संकट प्रस्तुत कर सकती है।

दीर्घकालीन कोषों के साधनों को निम्न रेखाचित्र के आधार पर भली प्रकार समझा जा सकता है।

दीर्घकालीन कोषों के साधन

स्वामि-पूँजी (Owned Capital)

  • सामान्य या इक्विटी अंश (Equity Shares)
  • संचित लाभ (Reserves)
  • अधिमान्य या पूर्वाधिकार अंश (Preference Shares)

ऋण-पूँजी (Borrowed Capital)

  • ऋण-पत्र (Debentures)
  • बन्ध-पत्र या बॉण्ड (Bonds)
  • दीर्घकालीन ऋण (Long term Loans)

 

(1) ऋण-पूँजी के दीर्घकालीन साधनों की अवधि पाँच या सात वर्ष से लगाकर दसLoans वर्ष तक होती है। भारतीय कम्पनियों द्वारा जारी किये जाने वाले ऋणपत्रों की अवधि प्रायः दस-बारह वर्ष से अधिक नहीं होती है। भारत में वित्तीय निगमों (Financial Corporations) द्वारा कम्पनियों को दिये जाने वाले दीर्घकालीन ऋणों की अवधि सामान्यतः दस वर्ष की होती है, किन्तु पश्चिम के अनेक देशों में दीर्घकालीन ऋण साधनों की अवधि पन्द्रह से बीस वर्ष की होती है। दीर्घकालीन साधनों से प्राप्त ऋण-पूँजी, स्वामि-पूँजी की अनुपूरक होती है और इसका प्रयोग किसी कॉपीराइट, पेटेण्ट, साख या ‘गुडविल’ आदि के भुगतान के लिए किया जा सकता है। साथ ही नियमित कार्यशील पूँजी (जिसे स्थायी कार्यशील पूँजी कहा जाता है।) की पूर्ति भी दीर्घकालीन ऋण-पूँजी से की जा सकती है।

(2) मध्यमकालीन ऋण-पूँजी (Medium-term Loan Finance)-  की अवधि एक वर्ष से अधिक और तीन से लगातार पाँच वर्ष तक की होती है, किन्तु कुछ क्षेत्रों में सात वर्ष तक के ऋणों को भी मध्यमकालीन साधनों में ही सम्मिलित किया जाता है। व्यवसाय में ऐसे साधनों का सहारा ऐसे उपयोगों (Uses) की पूर्ति हेतु लिया जाता है जो न तो स्थायी प्रकृति (Fixed Nature) के हैं और न चालू प्रकृति (Current nature) के; बल्कि जिनकी आवश्यकता केवल कुछ वर्षों के लिए होती है, किन्तु इस विषय में कोई निश्चित दृष्टिकोण नही अपनाया जा सकता है; क्योंकि व्यवहार में अनेक प्रबन्धक आवश्यकता एवं सुविधा को देखते हुए चल सम्पत्ति (Current Assets) के एक भाग को (जितनी व्यवसाय में निरन्तर आवश्यकता बनी रहती हो) मध्यमकालीन साधनों से प्राप्त वित्त से पूरा कर लेते हैं। साथ ही दूसरी ओर कभी-कभी दीर्घकालीन साधनों से पूँजी-प्राप्त करने में कुछ कठिनाइयाँ होने पर एवं तत्कालीन अनिवार्यता के वशीभूत होकर मध्यमकालीन साधनों से प्राप्त वित्त का प्रयोग दीर्घकालीन उपयोगों (Long-term Uses ) में किया जाता है, तथा कुछ वर्षों बाद वित्तीय ढाँचे में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके वित्त के साधनों (Sources) और उनके उपयोगों (Uses) में समन्वय स्थापित कर लिया जाता है। वैसे सामान्यतः मध्यमकालीन वित्त का उपयोग उपकरणों, कल-पुर्जों, आफिस इक्विपमेण्ट, फर्नीचर तथा भवनों में साधारण फेर-बदल (Additions or alterations) आदि के लिए किया जाता है।

(3) अल्पकालीन ऋण पूँजी: (Short term Loan Finance)- मध्यमकालीन एवं दीर्घकालीन ऋण-पूँजी की आवश्यकता न्यूनाधिक रूप में प्राय: सभी निगमों या कम्पनियों में होती है। यदि कोई कम्पनी समस्त आवश्यकताएँ स्वामि-पूँजी से ही पूरा करने का सिद्धान्त अपनाती है, तो ऋण-पूँजी के उपयोग से प्राप्त होने वाले ऐसे लाभों से वह वंचित रहेगी। इसी प्रकार यदि कोई कम्पनी अपने ‘वित्तीय ढाँचे’ (Financial structure) में स्थायी अथवा दीर्घकालीन साधनों को बहुत ही कम अनुपात में स्थान देती है और अपनी अधिकांश आवश्यकताएँ अल्पकालीन साधनों के द्वारा पूरा करने का प्रयास करती है, तो ऐसी स्थिति और भी प्रतिकूल होगी, क्योंकि ऐसी दशा में प्रबन्धकों के समक्ष आये दिन चल दायित्वों (Current Liabilities) की पूर्ति के लिए तरल साधनों का अभाव बना रहेगा। अतः काल-क्रमानुसार वित्त के साधनों (Sources) एवं उनके उपयोगों (Uses) के बीच ‘समुचित तालमेल’ दीर्घकालीन, मध्यमकालीन और अल्पकालीन कोषों  के अनुकूलतम सम्मिश्रण (Optimum Mix) के द्वारा ही उत्पन्न किया जा सकता है।

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Pankaja Singh

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