शिक्षाशास्त्र

विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या | विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या के कारण | विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या | विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या के कारण | विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या

(Problem of Granting Autonomy to Universities)

स्वायत्तता का अर्थ है-

स्वतः नियमन, परन्तु विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता से यह अर्थ नहीं है कि वे हर क्षेत्र में स्वतः नियमन करेंगे, उन पर सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं होगा। विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का अर्थ है कि वे अपने आन्तरिक प्रशासन एवं शैक्षिक निर्णय लेने में स्वतन्त्र हों, उन्हें अपने पाठ्यक्रम बनाने का अधिकार हो, शिक्षकों के चयन एवं उनकी पदोन्नति करने का अधिकार हो, छात्रों के चयन का अधिकार हो, छात्रों की परीक्षा लेने और उनका मूल्यांकन करने और उन्हें उपाधि प्रदान करने का अधिकार हो और शोध के क्षेत्र चयन का अधिकार हो। साथ ही उन्हें अपने क्षेत्र के महाविद्यालयों को सम्बद्धता प्रदान करने का अधिकार हो और उन्हें शिक्षकों एवं छात्रों के चयन सम्बन्धी नियम बनाने का अधिकार हो।

हमारे देश में आधुनिक विश्वविद्यालयों की स्थापना ब्रिटिश शासनकाल में शुरू हुई। वुड के घोषणा पत्र 1854 के आधार पर सर्वप्रथम 1856 में लन्दन विश्वविद्यालय के आदर्श पर बम्बई और कलकत्ता में विश्वविद्यालय स्थापित किए गए। इसके बाद मद्रास में तीसरा विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। 1902 तक भारत में 5 विश्वविद्यालय स्थापित हो चुके थे। परन्तु इनका स्तर बहुत निम्न कोटि का था। तत्कालीन गवर्नर जनरल एवं वायसराय लॉर्ड कर्जन ने इन विश्वविद्यालयों में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए ‘भारतीय विश्वविद्यालय आयोग’ का गठन किया। उसने इस आयोग के सुझाव के आधार पर विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 की घोषणा की। इस अधिनियम से भारतीय विश्वविद्यालयों पर सरकार का सीधा नियन्त्रण हो गया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उच्च शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन दोनों में बाधा उत्पन्न हो गई। 1917 में हमारे देश में ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग’ का गठन किया गया। इस आयोग ने विश्वविद्यालयों को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करने और उन्हें हर क्षेत्र में स्वायत्तता (Autonomy) प्रदान करने की सिफारिश की। अतः विश्वविद्यालयों को सरकारी नियन्त्रण से कुछ मुक्त किया गया और साथ ही उन्हें अपने आन्तरिक प्रशासन एवं शैक्षिक निर्णय लेने में स्वायत्तता प्रदान की गई।

स्वतन्त्र होने के बाद हमारी केन्द्रीय सरकार ने 1948 में राधाकृष्णन आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग ने विश्वविद्यालयों को और अधिक स्वायत्तता प्रदान करने की सिफारिश की। इसके बाद कोठारी आयोग, 1964-66 ने भी विश्वविद्यालयों को और अधिक स्वायत्तता प्रदान की। इसके परिणाम कुछ उल्टे हुए, उच्च शिक्षा के प्रसार को तो गति मिली परन्तु उसके स्तर में गिरावट आई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में उच्च शिक्षा के स्तर को उठाने पर विशेष बल दिया गया। इससे विश्वविद्यालयों पर यू. जी. सी. का अंकुश बढ़ा।

वर्तमान में हमारे सामने यह समस्या है कि यदि विश्वविद्यालयों पर सरकारी अंकुश लगाया जाता है तो-

(1) विश्वविद्यालयों पर राजनैतिक दबाव बढ़ जाता।

(2) उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लाल फीताशाही बढ़ जाती है।

(3) विश्वविद्यालयों को स्वतन्त्र शैक्षिक प्रयोग करने के अवसर नहीं मिलते।

(4) विश्वविद्यालय राजनीति के अड्डे बन जाते हैं।

(5) उच्च शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन में बाधा आती है।

(6) विश्वविद्यालयों को अपने आन्तरिक प्रशासन में कठिनाई होती है।

(7) सरकार की तरफ से थोपे पाठ्यक्रम चलाने पड़ते हैं।

और यदि उन्हें यथा क्षेत्रों में पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की जाती है तो-

(1) शिक्षकों के चयन मानदण्डों में समरूपता नहीं रहती, उनके चयन में पक्षपात होता है।

(2) पाठ्यक्रमों के निर्माण एवं पाठ्य पुस्तकों के चयन में मनमानी होती है।

(3) विश्वविद्यालयों की कार्य प्रणाली में समरूपता नहीं रहती।

(4) स्वीकृत धनराशि का उचित प्रयोग नहीं होता।

(5) छात्रों के प्रवेश में अनियमितताएँ बढ़ती हैं।

(6) विश्वविद्यालयी शिक्षा का स्तरमान बनाए रखने में कठिनाई होती है।

(7) छात्रों की परीक्षा लेने और उनका मूल्यांकन करने में पक्षपात होता है।

विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या के कारण

(Causes of Problem of Granting Autonomy to Universities)

इस समस्या के मुख्य कारण हैं- (1) वोट की राजनीतिसत्ता चाहे सरकार के हाथ में रहे, चाहे विश्वविद्यालयों के हाथ में, दोनों ही दशाओं में राजनेताओं, विशेषकर मन्त्रियों का और मन्त्रियों में भी शिक्षा मन्त्रियों का दबाव रहता है। परिणाम यह है कि नियम चाहे सरकार बनाए और चाहे विश्वविद्यालय, दोनों ही स्थितियों में नियमों का खुलकर उल्लंघन होता है।

(2) ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा की कमी- सरकारी कर्मचारियों और विश्वविद्यालय अधिकारियों में भी ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा की कमी होती है। परिणाम यह होता है कि जब जिसके हाथ में शक्ति आती है, वही उसका दुरुपयोग करता है।

(3) भौतिकवादी संस्कृति का विकास- भौतिक विकास की चकाचौंध में नैतिक मूल्य धराशायी हो गए हैं।

(4) आए दिन सरकार बदलना- सरकार बदली कि नीतियाँ बदलीं। पुरानी नीतियों का पालन करने की दिशा में कदम बढ़े कि नई नीतियाँ आ गईं। परिणाम यह है कि नीतियाँ ही स्पष्ट नहीं हो पातीं, जो जितना शक्तिशाली होता है वह उतना ही अधिक नीतियों को अपने पक्ष में तोड़-मरोड़ लेता है।

विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता प्रदान करने की समस्या के समाधान हेतु सुझाव

(Suggestions for solving the Problem of Granting Autonomy to Universities)

इस बीच हमने विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियन्त्रण करके भी देख लिया है और उन्हें स्वायत्तता प्रदान करके भी देख लिया है। दोनों ही की अति की स्थिति में हानियाँ अधिक और लाभ कम हुए हैं। अतः सरकारी नियन्त्रण एवं स्वायत्तता में सन्तुलन बनाना आवश्यक है। इसके लिये निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं-

(1) सर्वप्रथम स्वायत्तता का अर्थ स्पष्ट होना चाहिए। स्वायत्तता का अर्थ केवल अधिकारों की प्राप्ति से नहीं होता। अधिकारी के साथ कर्तव्यों के पालन से भी होता है। विश्वविद्यालयों को कोई भी निर्णय राष्ट्र के हितों को सामने रखकर करने चाहिए।

(2) वर्तमान में विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के लिए न्यूनतम योग्यता निश्चित करने का अधिकार यू० जी० सी० को है और उनके चयन एवं पदोन्नति का अधिकार विश्वविद्यालयों को है, यह अपने में एकदम सह है। परन्तु सरकार की ओर से जाति के आधार पर जो आरक्षण किया गया है वह वर्तमान परिस्थितियों में युक्तिसंगत नहीं है। सरकार को अब वोट की राजनीति छोड़कर राष्ट्रहित में निर्णय लेने चाहिए।

(3) शिक्षकों की पदोन्नति के नियम थोड़े कठोर होने चाहिए और उनका पालन भी कठोरता से होना चाहिए।

(4) विश्वविद्यालयों को उनके आन्तरिक प्रशासन में स्वायत्तता होनी चाहिए परन्तु गड़बड़ी होने पर सरकार को हस्तक्षेप करने का अधिकार भी होना चाहिए।

(5) वर्तमान में विश्वविद्यालयों को अपने छात्रों की परीक्षा लेने और उनका मूल्यांकन करने का अधिकार है। परिणाम यह है कि विश्वविद्यालयों की परीक्षा और मूल्यांकन प्रणालियों में बड़ी भिन्नता है। किसी विश्वविद्यालय में आन्तरिक मूल्यांकन के सहारे श्रेणियाँ लुटाई जा रही हैं और किसी विश्वविद्यालय मैं केवल बाह्य मूल्यांकन प्रणाली चल रही है। श्रेणी प्रदान करने के मापदण्ड में भी बड़ी भिन्नता है, कहीं 60% पर प्रथम श्रेणी दी जाती है और कहीं 75% पर। इससे उच्च शिक्षा का स्तरमान समान बनाए रखने में बाधा आ रही है। यू. जी. सी. के निर्णय भी बड़े बेतुके होते हैं, आखिर वे निर्णय लिए तो मनुष्यों द्वारा ही जाते हैं, उस स्थिति में किसी भी विश्वविद्यालय अथवा शिक्षाविद् को उस पर खुली बहस की छूट होनी चाहिए।

(6) वर्तमान में कुछ राज्यों में महाविद्यालयों के लिए शिक्षकों का चयन उच्च शिक्षा आयोग द्वारा होता है जिसमें सरकार का बहुत दखल रहता है, सिफारिशें भी चलती हैं, जातिवाद और भाई-भतीजावाद भी चलता है और साथ ही पैसा भी चलता है। यह अधिकार पुनः महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को देना चाहिए। सत्ता के विकेन्द्रीकरण का भी यही तकाजा है।

(7) विश्वविद्यालयों को शैक्षिक निर्णय लेने में स्वायत्तता होनी चाहिए, पर चूँकि उच्च स्तर का स्तरमान बनाए रखने का उत्तरदायित्व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (U.G.C.) का है इसलिए उसे यह सुनिश्चित करने का अधिकार होना चाहिए कि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के हों और भारत की दृष्टि से उपयोगी हों और उनमें जो शोध कार्य हों वे भी उच्च स्तर के हों ।

(8) वर्तमान में कुलपतियों की नियुक्ति सरकार द्वारा होती है और सरकार के चहेते व्यक्तियों की होती है और कहीं-कहीं तो खुलकर लेन-देन के आधार पर होती है जिसका परिणाम यह है कि कुलपति निरंकुश शासक की भाँति कार्य करते हैं। अतः विश्वविद्यालयों में शक्ति का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। ऐकेडेमिक निर्णय ऐकेडेमिक बॉडीज करें और प्रशासनिक निर्णय प्रशासनिक तन्त्र करे।

(9) वर्तमान में यू. जी. सी. विश्वविद्यालयों एवं उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों को विकास अनुदान देती है। अत: यू. जी० सी० को यह अधिकार है कि वह यह सुनिश्चित करे कि यथा धनराशि का यथा विकास कार्य में सही उपयोग हो परन्तु इस क्षेत्र में यू० जी० सी० निष्क्रिय-सी है। परिणाम यह है कि स्वीकृत अनुदान का सही उपयोग नहीं हो रहा । उदाहरण के लिए, पुस्तकालय विकास अनुदान को लीजिए। इस अनुदान से अधिकतर विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में या तो बहुत अधिक मूल्यों वाली पुस्तकें क्रय की जाती हैं, या फिर रद्दी में बिकने योग्य पुस्तकें क्रय की जाती हैं। धनराशि का खुलकर बन्दर बाँट होता है। यू. जी. सी. को इस क्षेत्र में विशेष अधिकार मिलने चाहिए।

(10) वर्तमान में विश्वविद्यालयों को कुछ संकायों में छात्रों के चयन के नियम बनाने की स्वतन्त्रता है और कुछ में नहीं है और सरकार की ओर से आरक्षण का प्रावधान छात्रों के प्रवेश में भी है। हमारी दृष्टि से इस क्षेत्र में विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता होनी चाहिए। यू. जी० सी० को यह अवश्य देखना चाहिए कि ये नियम ऐसे हों जिनसे मेधावी एवं परिश्रमी छात्रों का ही चयन हो।

(11) जहाँ तक विश्वविद्यालयों द्वारा महाविद्यालयों को मान्यता एवं सम्बद्धता प्रदान करने की बात है, वर्तमान प्रणाली एकदम उपयुक्त है, यह शक्ति किसी एक के हाथ में होने से उसका और अधिक दुरुपयोग होने की सम्भावना अधिक है।

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Pankaja Singh

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