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विश्व बैंक | विश्व बैंक के कार्य | विश्व बैंक की आलोचनाएँ | अन्तर्राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण विकास बैंक के उद्देश्य | अन्तर्राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण विकास बैंक के कार्य

विश्व बैंक | विश्व बैंक के कार्य | विश्व बैंक की आलोचनाएँ | अन्तर्राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण विकास बैंक के उद्देश्य | अन्तर्राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण विकास बैंक के कार्य | World Bank in Hindi | Functions of the World Bank in Hindi | Criticisms of the World Bank in Hindi | Objectives of International Bank for Reconstruction Development in Hindi | Functions of International Reconstruction Development Bank in Hindi

विश्व बैंक

विश्व बैंक राष्ट्रों के बीच कुछ पूर्ण निर्धारित विस्तृत योजनाओं के अनुसार, जिसमें रोजगार की स्थिरता भी है, दीर्घकालीन पूँजी के आवागमन को नियन्त्रित करने की दिशा में पहला प्रयास हैं। इसके संगठनों का बहुराष्ट्रीय स्वरूप ‘भिक्षुक मेरा पड़ोसी’ नीति का कट्टर विरोधी है।’ द्वितीय विश्व युद्ध से क्षतिग्रस्त व जर्जरित देशों के पुनर्निर्माण एवं विकास के लिए यह आवश्यक था कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसी संस्था स्थापित की जाय जो इन जर्जरित देशों के आर्थिक विकास के लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता दे सके। अतः संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में ब्रेटनवुड्स नामक स्थान पर विभिन्न राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का एक मौद्रिक सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन में जिन दो संस्थाओं में जिन दो संस्थाओं की स्थापना का प्रस्ताव पास हुआ उनमें से एक अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक था। इसे विश्व बैंक भी कहते हैं। इस बैंक की स्थापना का मूल उद्देश्य अपने प्रतिनिधि सदस्य राष्ट्रों के आर्थिक विकास के लिए दीर्घकालीन ऋण प्रदान करना है।

विश्व बैंक के कार्य

विश्व बैंक एक निगमित संस्था है। इसके सदस्य इसकी पूँजी अभिदान करते हैं। यह अपने उधारदान कार्यों के लिए वित्तव्यवस्था प्रमुख रूप से अपने ही माध्यम से और अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी बाजारों से दीर्घावधि उधार ग्रहणों द्वारा तथा करेन्सी विनिमय प्रबन्धों के माध्यम से करता है। करेन्सी विनिमय प्रबन्धों के अन्तर्गत उधार लेने वाले देश की प्राप्तियाँ विभिन्न करेन्सी में बदल दी जाती हैं और साथ ही एक आगामी विनिमय समझौता किया जाता है जिसमें दोनों करेन्सियों के भविष्य में विनिमय की अनुसूची की प्रावधान रहता है ताकि परिवर्तित करेन्सी आसानी से वसूल की जा सके। करेन्सी विनिमय का प्रभाव यह पड़ता है कि मूल उधार लेने के लागत ऐसी लागत में रूपान्तरित हो जाती है जो बदलने में प्राप्त करेन्सी की बाजार प्राप्ति को व्यक्त करती है।

बैंक बट्टा-नोट-प्रोग्राम के अन्तर्गत भी उधार लेता है। प्रथम, यह अपने बॉण्ड और नोट सीधे अपने सदस्यों की सरकारों, सरकारी एजेन्सियों और केन्द्रीय बैंकों के पास रख देता है। दूसरे, यह निवेशक बँकिंग फर्मों, सौदागर बैंकों और कमर्शियल बैंकों के माध्यम से निवेशकों और जनता को निर्गम पेश करता है।

विश्व बैंक ने उधार ग्रहण के दो नये साधनों का विकास किया है : प्रथम, केन्द्रीय बैंक सुविधा जो सरकारी स्रोतों से विशेष रूप से केन्द्रीय बैंकों से उधार लेने की अमरीकी डालर प्रभुत्व युक्त सुविधा है इसका उद्देश्य 1970 ई० से विश्व बैंक के द्वारा उधार लेने में गिरावट की प्रवृत्ति  को पलटता है। 1984 ई0 में प्रशासनिक निदेशकों ने बैंक को यह अधिकार दिया कि वह इस सुविधा के अन्तर्गत एक वर्ष की परिपक्वता अवधि के जमा एक मास परिपक्वता अवधि के कोष 750 मिलियन डालर तक उधार ले ले। दूसरे, तिरती दर-नोट है जिसका उद्देश्य विश्व बैंक की अपनी कूटनीति के उद्देश्यों को पूरा करने में सहायता देना है। FRN मार्किट के माध्यम से बैंक कुछ ऐसे निवेश वर्ग जैसे कमर्शियल बैंक तथा कुछ अन्य वित्तीय संस्थाओं तक पहुँच सकता है। जिन्होंने परम्परागत रूप से विश्व बैंक नोट नहीं खरीदे हैं। FRNs की परिपक्वता की अवधि मध्यम और दीर्घ होती है।

बैंक अपने सदस्य देशों को निम्नलिखित तरीकों में से किसी भी तरीके से उधार देता है। (i) इसके अपने ही कोषों में से विपणन करके या ऋणों में भाग लेकर, (ii) सदस्य देश के बाजार में इकट्ठे किये गये अथवा बैंक द्वारा अन्यथा उधार लिये गये कोर्षों में प्रत्यक्ष ऋण देकर या ऋणों से भाग लेकर, (iii) सामान्य निवेश मार्गों के माध्यम से निजी निवेशकों के द्वारा दिये गये ऋणों की पूरी अथवा आंशिक गारण्टी देकर।

निष्कर्षतः विश्व बैंक अपने सदस्य राष्ट्रों को निम्नलिखित सुविधाएँ प्रदान करता है-

(1) ऋण प्रदान करना-

विश्व बैंक अपने सदस्य राष्ट्रों को निम्नलिखित साधनों से ऋण उपलब्ध कराता है-

(A) कोष से ऋण देना- बैंक सदस्य देशों की विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपनी पूँजी में से ऋण दे सकता है। बैंक इस कार्य के लिए अधिक से अधिक बची हुई पूंजी का 20% प्रयोग कर सकता है।

(B) कोष या पूँजी में से ऋण देना- बैंक सदस्य राष्ट्रों को ऋण देने के लिए अन्य राष्ट्रों से ऋण ले सकता है। इस प्रकार ऋण देने से पूर्व बैंक को उस देश की स्वीकृति लेनी पड़ती है, जिसके मुद्रा बाजार से यह ऋण लिया जाता है।

(C) गारण्टी देना- बैंक सर्वप्रथम स्वयं ऋण न देकर अन्य राष्ट्रों से या वित्तीय संस्थाओं से अपनी गारण्टी देकर अपने सदस्य राष्ट्रों को ऋण उपलब्ध कराता है।

(2) प्राविधिक सहायता-

बैंक अविकसित सदस्यों का आर्थिक सर्वेक्षण करता है तथा अपने विशेषज्ञों को विभिन्न आयोजन कार्यों में सलाह देने के लिए अपने समस्त सदस्य देशों में भेजता रहता है जो आर्थिक, वैज्ञानिक, प्राविधिक तथा अन्य कार्यों में सहायता देते हैं।

(3) प्रशिक्षित कार्यक्रम-

विश्व बैंक सदस्य देशों के अधिकारियों के लिए वित्त, मौद्रिक व्यवस्था, कर-प्रणाली, तकनीकी कुशलता तथा बैंकिंग संगठन इत्यादि विषयों पर प्रशिक्षण व्यवस्था भी करता है। इस कार्य के लिए 1955 ई० में वाशिंगटन में आर्थिक संस्था की स्थापना की गयी।

(4) अन्तर्राष्ट्रीय समस्या सुलझाना-

विश्व बैंक एक अन्तर्राष्ट्रीय निष्पक्ष संगठन होने के नाते विभिन्न देशों के आपसी झगड़े एवं समस्याओं का समाधान करता है। इसके भारत-पाक नहरी विवाद तथा स्वेज नहर विवाह को कुशलतापूर्वक सुलझाने में सराहनीय कार्य किया है।

इसीलिए भारत को विश्व बैंक के अन्य सभी सदस्यों की अपेक्षा लगभग सबसे अधिक ऋण दिये गये हैं। भारत को विश्व बैंक से 31 दिसम्बर, 1971 ई0 तक कुल 788-80 करोड़ रु० के ऋण प्राप्त हो चुके थे, जो वर्ष 1988 ई0 तक बढ़कर 27,524 करोड़ रु० हो गये, परन्तु इनमें से वास्तविक उपयोग केवल 16,688 करोड़ रु० का ही हुआ। ये ऋण निजी क्षेत्र एवं सरकारी खण्ड दोनों क्षेत्रों में प्रारम्भ की गई परियोजनाओं के लिए स्वीकृत किये गये थे। इन ऋणों पर 3.7 से लेकर 5.5 प्रतिशत तक ब्याज की दर वसूल की गई थी भारत को विश्व बैंक से जिन परियोजनाओं के लिए ऋण प्राप्त हुए हैं, वे इस प्रकार हैं-

(i) रेलों के विकास के लिए इनकी आवश्यक सामग्री तथा कल-पुजों का आयात

(ii) वन-भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए कृषि मशीनों के आयात के लिए।

(iii) एयर इण्डिया निगम द्वारा हवाई जहाजों की क्रय योजनाओं के लिए।

(iv) कोलकाता एवं मद्रास (चेन्नई) के बन्दरगाहों के विकास के लिए।

(v) दामोदर घाटी नियम (D.V.C) की विस्तृत परियोजनाओं के लिए।

(vi) ट्राम्बे में बिजलीघर की स्थापना के लिए।

(vii) टाटा, लोहा एवं इस्पात कम्पनी तथा इण्डियन लोहा एवं इस्पात कम्पनी के विस्तार के लिए।

(viii) आन्ध्र प्रदेश के कोठागुदम बिजलीघर के विस्तार के लिए।

(ix) निजी क्षेत्र के कोयला उद्योग के विकास के लिए।

(x) बिजली के तार के निर्माण हेतु आवश्यक सामग्री के आयात के लिए।

(xi) भारतीय औद्योगिक निगम द्वारा निजी कम्पनियों को ऋण देने में सहायता।

(xii) महाराष्ट्र की कोयला बिजली परियोजना |

(2) जल-विभाजन सम्बन्धी विवाद-

देश के विभाजन के पश्चात् भारत और पाकिस्तान के बीच नदियों के जल-विभाजन सम्बन्धी विवादों ने गम्भीर रूप धारण कर लिया। विश्व बैंक ने इस विवाद को हल करने के लिए सहायता प्रदान की। उसने इस विवाद में मध्यस्थता की। 1952 ई० में दोनों देशों के बीच वार्ता आरम्भ हुई तथा 1954 ई0 को बैंक ने सिन्धु घाटी के जल- विभाजन सम्बन्धी योजना प्रस्तुत की। अन्ततः 1960 ई० को दोनों देशों के बीच समझौता हो गया। इस विवाद को हल करने में स्वयं विश्व बैंक ने 80 मिलियन डालर का ऋण दिया। इसके अतिरिक्त, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैण्ड, न्यूजीलैण्ड, कनाडा तथा जर्मनी ने सिन्धु घाटी विकास कोष की स्थापना की तथा इससे 640 मिलियन डालर की सहायता देने के लिए प्रार्थना करनी पड़ती थी। इस प्रकार भारत व पाकिस्तान के जल-विभाजन के विवाद को विश्व बैंक ने सफलतापूर्वक निपटाने में महत्त्वपूर्ण सहायता की है।

(3) तकनीकी सहायता-

विश्व बैंक ने भारत को तकनीकी सहायता प्रदान की है। विश्व बैंक ने समय-समय पर भारत को तकनीकी सहायता देने के लिए तकनीकी विशेषज्ञों की सेवाएं प्रदान की हैं। इन विशेषज्ञों ने भारत की योजनाओं का अध्ययन कर इनको भली प्रकार कार्यान्वित करने के लिए महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं।

(4) भारत सहायता क्लब की स्थापना-

विश्व बैंक भारत के आर्थिक विकास में प्रत्यक्ष ऋण प्रदान करने की ही सहायता प्रदान नहीं की, वरन् 1958 ई0 में वाशिंगटन में कनाडा, जर्मनी, जापान, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका का एक सम्मेलन बुलाया। इन देशों के नेतृत्व में एक संघ की स्थापना की गयी। इस संघ का नाम भारत सहायता क्लब है। कालान्तर में इसमें बेल्जियम, इटली, फ्रांस, आस्ट्रेलिया तथा नीदरलैण्ड भी सम्मिलित हो गये। यह संघ भारत को अपनी योजनाएँ पूरी करने लिए महत्त्वपूर्ण ऋण प्रदान करता है।

विश्व बैंक की आलोचनाएँ-

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विश्व बैंक द्वारा भारत की महत्त्वपूर्ण सहायता की गई है। इससे भारत को एक सच्चे मित्र, सहायक तथा मार्गदर्शक के रूप में सहयोग प्राप्त हुए हैं, परन्तु कुछ विद्वानों ने विश्व बैंक से मिली भारत को सहायता की निम्न बिन्दुओं के आधार पर  आलोचना की है-

(1) केवल निश्चित उद्देश्यों के लिए ऋण- भारत को विश्व बैंक से जो ऋण प्राप्त हुए हैं वे सामान्य ऋण नहीं हैं वरन उससे केवल निश्चित उद्देश्यों के लिए ही भारत को ऋण प्राप्त हुए हैं। इसके विपरीत भारत को सामान्य ऋणों की अधिक आवश्यकता है। यद्यपि विश्व बैंक द्वारा आस्ट्रेलिया आदि अन्य देशों को ऐसे ऋण दिये गये हैं, तथापि भारत को इनसे वंचित ही रखा गया है।

(2) ऋणों की अपर्याप्त मात्रा-विश्व बैंक ने भारत को औद्योगिक तथा विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं के अनुरूप पर्याप्त मात्रा में ऋण प्रदान नहीं किए। इसके लिए आलोचकों का कहना है कि विश्व बैंक की अफ्रीका तथा एशिया के देशों के साथ ऋण देने की नीति पक्षपातपूर्ण रही है। इन देशों की तुलना में यूरोप के देशों को अधिक मात्रा में ऋण दिये गये हैं।

(3) ब्याज की ऊँची दरें- विश्व बैंक द्वारा जितनी ऊँची दर पर भारत को ऋण दिये गये हैं, भारत जैसे निर्धन देश लिए यह हितकर नहीं है।

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Pankaja Singh

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