विक्रय प्रबंधन

विक्रेताओं को पारिश्रमिक देने की विभिन्न पद्धतियाँ | एक विक्रेता को पारिश्रमिक देने की विभिन्न पद्धति

विक्रेताओं को पारिश्रमिक देने की विभिन्न पद्धतियाँ | एक विक्रेता को पारिश्रमिक देने की विभिन्न पद्धति | Various Methods of Remuneration to Vendors in Hindi | Different Methods of Remuneration to a Seller in Hindi

विक्रेताओं को पारिश्रमिक देने की विभिन्न पद्धतियाँ

(I) निश्चित वेतन

इस पद्धति के अन्दर विक्रेता की नियुक्ति के समय उसका पारिश्रमिक निश्चित कर दिया जाता है। प्रतिवर्ष यदि कार्य संतोषजनक होता है तो उसकी बढ़ती दे दी जाती है। यदि कार्य असंतोषजनक होता है तो उसे कोई बढ़ती नहीं मिलती है।

गुण- (1) पारिश्रमिक की दर निश्चित रहती है। उसे यह चिंता नहीं रहती कि किसी महीने में उसका वेतन कम भी हो सकता है।

(2) पारिश्रमिक देने की यह विधि अधिक आसान है। पारिश्रमिक निश्चित होने से उसका लेखा करने में किसी प्रकार की दिक्कत नहीं होती है।

दोष – (1) निश्चित पारिश्रमिक होने के कारण उसे बिक्री वृद्धि की चिंता नहीं रहेगी।

(2) इस प्रथा में उन्नति की आशा बहुत कम रहती है क्योंकि पारिश्रमिक की दर निश्चित रहती है। मनुष्य सदैव आशा की भावना से ही प्रेरित होकर किसी कार्य को किया करता है।

(II) विक्रय पर कमीशन

इस पद्धति के अन्दर विक्रेताओं का कोई पारिश्रमिक निश्चित नहीं होता है। केवल यह तय कर दिया जाता है कि बिक्री पर इतने प्रतिशत कमीशन मिलेगा। विक्रेता अपने प्रयत्नों द्वारा जितनी भी बिक्री कर लेता है। उसी हिसाब से उसे कमीशन दे दिया जाता है। इससे उसकी आय प्रति मास घटती-बढ़ती है।

गुण-(1) इस प्रणाली में व्यवसाय की उन्नति होती है, क्योंकि विक्रेता अधिकतम कमीशन प्राप्त करने के लिए अधिक से अधिक ग्राहक बनाने का प्रयास करता है।

(2) एक निश्चित पारिश्रमिक तय न होने के कारण विक्रेता अपने कार्य में ढील-ढाल नहीं डालता है, क्योंकि वह जानता है कि जितनी भी ढील वह डालेगा उतना ही उनको नुकसान होगा। अतः वह विशेष तत्परता के साथ काम करता है।

(3) जिन दिनों व्यावसायिक उन्नति बहुत होती है, उस समय इन विक्रेताओं को बहुत लाभ होता है क्योंकि अधिक बिक्री होने से उन्हें कमीशन भी अधिक मिलता है।

दोष-(1) व्यापार अवसाद के समय विक्रेताओं को बहुत हानि उठानी पड़ती है, क्योंकि उस समय बिक्री बहुत कम होने के कारण उनके कमीशन का धन भी कम हो जाता है।

(2) नये विक्रेताओं के लिए यह प्रणाली लाभप्रद नहीं है, क्योंकि आरम्भ में उन्हें ग्राहक बनाने में बहुत समय लगता है। आरम्भ में कई मास तक बहुत कम कमीशन मिलने के कारण वे निराश हो जायेंगे और अन्त में बाध्य होकर उस व्यवसाय को छोड़ देंगे।

(III) निश्चित वेतन तथा कमीशन

उपर्युक्त दोनों प्रणालियों के दोषों को दूर करने के लिए इस पद्धति का प्रचलन किया गया है। इस प्रथा में विक्रेता का वेतन निश्चित रहता है तथा विक्रय पर निश्चित दर से कमीशन भी मिलता है। ऐसा होने से विक्रेताओं को संतोष रहता है, क्योंकि उन्हें एक निश्चित वेतन मिलने की आशा सदैव बनी रहती है।

गुण (1) निश्चित वेतन के साथ-साथ कमीशन भी मिलता है। कमीशन का कम या अधिक होना बिक्री के ऊपर निर्भर है। अधिकतम कमीशन प्राप्त करने के लिए प्रत्येक विक्रेता खूब बिक्री करने का प्रयास करता है। इससे व्यवसाय को लाभ होता है।

(2) निश्चित वेतन तथा औसत कमीशन धनराशि इतनी हो जाती है कि विक्रेता अपने कार्य से प्रायः संतुष्ट रहता है। संतुष्ट रहने के कारण वह कुशलतापूर्वक कार्य करता है।

दोष- यदि वेतन की राशि कम कर दी जाती है तो विक्रेता को हानि की सम्भावना रहती है।

(IV) अभ्यांश प्रथा

इसके अन्तर्गत विक्रेताओं के निर्धारित क्षेत्रों में होने वाले विक्रय का अनुमान लगा लिया जाता है। प्रत्येक विक्रेता को एक निश्चित वेतन पर नियुक्त करके किसी क्षेत्र में कार्य करने के लिए भेज दिया जाता है और उससे यह आशा की जाती है कि वह कम से कम उस अनुमानित बिक्री की सीमा तक अवश्य पहुँच जायेगा जो कि उसके क्षेत्रों में सोची गयी थी। इस कार्य के लिए एक निश्चित दर से कमीशन दिया जायेगा। यदि वह अपनी लापरवाही के कारण उस अनुमानित बिक्री तक नहीं पहुँचता है तो उसके कमीशन की दर में कमी आ सकती है। इसके अतिरिक्त, यदि वह इस अनुमानित सीमा से आगे बढ़ जाता है तो उसको कार्य में कुशल समझा जायेगा तथा उसके कार्य के लिए अतिरिक्त कमीशन भी दिया जायेगा।

गुण-(1) इस प्रथा का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें विक्रेता अपनी अनुमानित बिक्री सीमा तक पहुँचने की चेष्टा करता है, क्योंकि यदि वह उससे कम बिक्री करेगा तो उसके कमीशन की दर भी कम हो जायेगी।

(2) कमीशन के साथ-साथ उसका वेतन भी निश्चित रहता है। इससे वह संतुष्ट रहता है तो उसकी कार्यकुशलता भी बढ़ती है।

(3) अनुमानित सीमा से अधिक बिक्री करने पर कमीशन की दर भी बढ़ जाती है। यह विक्रेता के लिए बहुत बड़ा प्रलोभन है।

दोष— इस प्रथा में कोई विशेष दोष नहीं है केवल यह हो सकता है कि अनुमानित बिक्री सीमा भूल से या पक्षपात के कारण कम या अधिक हो सकती है। इससे विक्रेता को लाभ या हानि हो सकती है। यदि इस प्रथा को सुचारू रूप से कार्यान्वित किया जाय तो यह हितकर सिद्ध होगी।

(V) लाभ विभाजन प्रणाली

विक्रेता को पारिश्रमिक देने की एक विधि यह भी है कि उन्हें संस्था के होने वाले लाभों में से एक हिस्सा दिया जाय। वर्ष के अन्त में संस्था को जो लाभ होता है उसे एक निश्चित प्रतिशत के आधार पर, निश्चित क्षेत्र की बिक्री के आधार पर, वर्ष भर की सम्पूर्ण बिक्री के आधार पर विक्रेता को पारिश्रमिक दिया जाता है।

गुण – (1) विक्रेता को लाभ का एक हिस्सा मिलता है। अतः वह अपने आपको संस्था का साझेदार समझता है।

(2) इस प्रणाली के अनुसार विक्रेता को लाभ तभी मिल सकता है, जबकि संस्था को लाभ हो।

अतः वह अपना कार्य ईमानदारी, परिश्रम एवं मितव्ययता से करने का प्रयत्न करता है।

दोष- इस प्रणाली में विक्रेता को निश्चित एवं नियमित पारिश्रमिक मिलने का विश्वास नहीं होता है, क्योंकि संस्था में प्रति वर्ष लाभ की मात्रा समान नहीं होती।

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Pankaja Singh

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