राजनीति विज्ञान

विधि के शासन का अर्थ | विधि के शासन की सीमाएँ अथवा अपवाद | विधि के शासन का ह्रासोन्मुख होने के कारण | विधि का शासन और इंग्लैंड

विधि के शासन का अर्थ | विधि के शासन की सीमाएँ अथवा अपवाद | विधि के शासन का ह्रासोन्मुख होने के कारण | विधि का शासन और इंग्लैंड

विधि का शासन एवं प्रदत्त व्यवस्था

(Rule of Law and Delegated Legislation)

परिचय

समस्त आंग्ल सैक्सन देशों में विधि-व्यवस्था का प्रमुख सिद्धान्त विधि का शासन है, जबकि योरोप महाद्वीपीय देशों, जैसे-फ्रांस, जर्मनी आदि में ‘प्रशासकीय विधि’ का सिद्धान्त मान्य है। इंग्लैण्ड और अन्य राष्ट्रमण्डल के देशों में यह माना जाता है कि राज्य कर्मचारियों से जनता की स्वतंत्रता की रक्षा-विधि के शासन द्वारा ही हो सकती है।

ब्रिटेन में विधि के शासन को विशेष महत्व दिया गया है। ‘विधि के शासन’ का अर्थ साधारणतया यह माना जाता है कि उस राज्य में शासन कानून के अनुसार चलता है, व्यक्ति की इच्छानुसार नहीं। किसी भी व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति की इच्छानुसार दण्डित नहीं किया जा सकता है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि सभी व्यक्ति कानून के अधीन होते हैं तथा कानून के ऊपर कोई भी व्यक्ति नहीं होता है और कानून की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान होते हैं। विधि के शासन का सरल अर्थ यह है कि राज्य में विधियों का शासन होता है, न कि किसी व्यक्ति की निरंकुश इच्छा का। विधि ही सर्वोच्च मानी जाती है तथा यह न्याय व्यवस्था की अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता होती है। विभिन्न विद्वानों ने कानून के शासन को स्पष्ट किया है परन्तु उनमें डायसी का विवेचन अधिक स्पष्ट है।

विधि के शासन का अर्थ

ब्रिटेन की शासन-व्यवस्था की सर्वप्रमुख विशेषता विधि का शासन’ (Rule of Law) है। यह वहाँ के नागरिकों के अधिकार का ‘रक्षा कवच’ तथा ‘न्याय-व्यवस्था का प्राण’ है। विभिन्न विद्वानों ने विधि के शासन की विभिन्न व्याख्याएँ दी हैं। किसी ने उसे ‘शाश्वत् नैसर्गिक नियम तो किसी ने उसे केवल ‘राजाज्ञा’ कहा है। लार्ड हेवर्ट के अनुसार, “व्यक्तियों के अधिकारों के निर्णय में स्वेच्छाचारी या ऐसे ही किसी अन्य प्रकार के ढंग के स्थान पर विधि की सर्वोच्चता का अर्थ विधि का शासन है।” प्रो० डायसी ने सर्वप्रथम इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसने ‘विधि के शासन’ में तीन तत्वों का समावेश माना है।

(1) “किसी भी व्यक्ति को विधि के विरुद्ध आचरण करने के अपराध को सामान्य न्यायालय में सिद्ध किये बिना किसी भी प्रकार का शारीरिक अथवा आर्थिक दण्ड नहीं दिया जा सकता है।”

(2) डायसी के ही शब्दों में विधि के शासन का दूसरा तत्व यह है कि “कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है और प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसका पद और स्थिति कुछ भी हो, देश के सामान्य कानून से शासित होता है और सामान्य न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आता है। जो चीज एक व्यक्ति के लिए कानून है वह सबके लिए कानून है। इसका अर्थ यह है कि वहाँ सबके लिए एक कानून और एक ही प्रकार के न्यायालय हैं। कानून व्यक्ति-व्यक्ति में भेद नहीं करता | अपराध करने पर बड़े से बड़े आदमी पर साधारण न्यायालय में मुकदमा चलेगा और उसे वही दंड मिलेगा जो एक साधारण नागरिक को मिलता है।

(3) नागरिक के अधिकार संविधान की उपज नहीं है बल्कि न्यायालयों के निर्णयों के परिणाम हैं। संविधान उनका परिणाम है, उनका स्रोत नहीं। स्वयं डायसी के शब्दों में, “संविधान के सामान्य सिद्धान्त उन न्यायिक निर्णयों के परिणाम हैं जिनमें न्यायालयों ने विशेष अभियोगों का फैसला करते समय नागरिक के अधिकारों को निश्चित किया है।”

डायसी की विचारधारा को हम संक्षेप में इस प्रकार कह सकते हैं-“(1) विधि ही सर्वोच्च है, (2) व्यक्ति विधि के अधीन है, तथा (3) विधि का शासन संसद की प्रभुसत्ता का आधार है।” लॉस्की के शब्दों में-“कानून के शासन द्वारा हमने केवल प्रशासन में कार्यपालिका की मनमानी के खतरों को दूर करने का ही प्रयास नहीं किया है, प्रत्युत् इस बात की भी व्यवस्था की है कि नागरिकों के अधिकार ऐसे व्यक्तियों द्वारा निश्चित हों जो अपनी पदावधि के सुरक्षित होने की वजह से राजनीतिक प्रवाहों बचे रहें।” इसी सन्दर्भ में लार्ड हेवर्ट ने लिखा है-

“The Rule of Law means the supremacy or predominance of law as distinguished from arbitrariness.”

विधि के शासन का अर्थ स्पष्ट करते हुए वेड और फिलिप्स ने लिखा है-“कानून के शासन का अभिप्राय यह है कि शासन की शक्तियों के प्रयोग पर कानून की मर्यादा रहेगी और शासन की मनमानी इच्छा का शिकार नहीं होगा।” अत: हम कह सकते हैं कि ब्रिटेन में किसी व्यक्ति या व्यक्तियों का नहीं वरन् कानून का शासन है। इंग्लैण्ड के नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा एवं स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये मौलिक अधिकार आदि की कोई व्यवस्था नहीं है, जबकि ब्रिटेन में व्यक्ति की स्वाधीनता की रक्षा सबसे अधिक होती है। इसका कारण यह है कि वहाँ विधि का शासन है। विधि का नियम ही वहाँ के नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।

अत: विधि के शासन में हम निम्नलिखित बातों का समावेश पाते हैं:-

(1) किसी व्यक्ति को जीवित रहने देने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है।

(2) प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्रता को किसी भी अवैधानिक अथवा स्वेच्छाचारी ढंग से समाप्त नहीं किया जा सकता।

(3) किसी भी व्यक्ति को जब तक कि उसने कोई कानून भंग नहीं किया हो, दण्डित नहीं किया जा सकता। डायसी ने इस सम्बन्ध में लिखा है।

(4) किसी भी व्यक्ति के सम्पत्ति रखने के अधिकार पर प्रतिबन्ध अथवा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता । यह अवश्य है कि कानून भंग करने की अवस्था में उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति पर वैधानिक ढंग से हस्तक्षेप किया जा सकता है।

(5) कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। सभी व्यक्तियों पर कानून समान रूप से लागू होगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि विधि का शासन कानून के समक्ष सभी व्यक्तियों को समान स्वीकार करता है। इस सम्बन्ध में वेड और फिलिप्स ने लिखा है-“कानून की समानता का अभिप्राय यह नहीं है कि एक सामान्य व्यक्ति तथा कर्मचारी के अधिकार समान हैं।” इसका अर्थ यह हुआ कि कानून के विरुद्ध कार्य करने पर सामान्य व्यक्ति एवं सरकारी कर्मचारी दोनों ही समान दण्ड के भागी होंगे तथा एक ही न्यायालय में दोनों के विरुद्ध कार्यवाही की जायगी। इस सम्बन्ध में डायसी ने लिखा है-“हमारे यहाँ हर एक कर्मचारी प्रधानमन्त्री से लेकर सिपाही और कर-संग्रहकर्ता तक अपने अवैध कार्यों के लिये उतना ही उत्तरदायी है जितना कि कोई अन्य नागरिक।”

(6) डायसी ने लिखा है-“संविधान के साधारण नियम न्यायाधीशों के निर्णय के परिणाम हैं।” अतः हम कह सकते हैं कि संविधान के जितने भी प्रमुख सिद्धान्त हैं सब न्यायाधीशों के निर्णय पर आधारित हैं।

(7) नागरिकों को सरकार के निरंकुश व्यवहार के विरोध में सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है। सरकार उसे मनमाने तरीके से बन्दी नहीं कर सकती।

(8) कानून के विरुद्ध आचरण करने पर साधारण अदालतों में ही कार्यवाही की जा सकती है, विशेष सरकारी अदालतों में नहीं। व्यक्ति अपने बचाव के लिये वकीलों की सहायता ले सकता है।

(9) विधि के शासन द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को स्वाधीनता, भाषण देने की स्वतन्त्रता, संघ बनाने अथवा बैठकें बुलाने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। भाषण की स्वतन्त्रता ब्रिटिश जीवन का एक अनिवार्य अंग है।

(10) किसी न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध नागरिक को बड़े न्यायालयों में अपील करने का अधिकार प्राप्त है।

विधि के शासन की सीमाएँ अथवा अपवाद

(Limitations of the Rule of Law)

प्रो० डायसी ने विधि के शासन की जो परिभाषा दी है उससे यह प्रकट होता है कि ब्रिटेन की राज-व्यवस्था पूर्ण रूप से विधि के शासन पर आधारित है। परन्तु वर्तमान समय में विधि के शासन की यह स्थिति नहीं रह गई है जो पहले कभी थी। अब उसमें काफी ह्रास हो गया है और उसके अनेक अपवाद उत्पन्न हो गये हैं-

(1) सम्राट् विधि के शासन से परे है- विधि के शासन की सबसे बड़ी सीमा है कि यह क्राउन पर लागू नहीं होता। राजा पर उसके किसी दोष के कारण न्यायालय में अभियोग नहीं चलाया जा सकता है, जबकि साधारण व्यक्ति तथा कर्मचारी, कानून भंग करने पर दण्ड का भागी होता है। राजा अभियोगी इसलिये नहीं होता है क्योंकि वह किसी कार्य के लिये स्वयं उत्तरदायी नहीं होता है। यदि राजा कोई हत्या भी कर दे तो उसको किसी न्यायालय में उपस्थित नहीं किया जा सकता। इसलिये यह कहा जाता है कि, “राजा कोई गलती नहीं करता।” इस सम्बन्ध में प्रो० लॉस्की ने अपने विचारों को प्रकट करते हुये लिखा है-“पोस्ट- मास्टर जनरल की गाड़ी कुमारी बेन ब्रिज को कुचल सकती है परन्तु राज्य का अनुत्तरदायित्व उसे क्षतिपूर्ति के अधिकार से वंचित कर देता है। हाँ, उसे गरीब ड्राइवर के वेतन में से अवश्य कुछ मिल जाता है।”

“The van of the Postmaster-General may run over Miss Bain Bridge but the irresponsibility of the State deprives her of any right to compensation except from the humble wages of the driver.

(2) राज्य प्रतिरक्षा अधिनियम- प्रथम और द्वितीय महायुद्धों के समय राज्य ने प्रतिरक्षा अधिनियम (Defence of Realm Act) जैसे अधिनियम बनाये थे जिनके द्वारा कार्यपालिका को विशेषाधिकार प्राप्त हुए। सिविल कर्मचारी किसी भी व्यक्ति को जन-सुरक्षा के नाम पर बन्दी बना सकते हैं।

(3) सार्वजनिक अधिकारी संरक्षक अधिनियम- यह अधिनियम से भी विधि के शासन की अवहेलना होती है। क्योंकि यह सरकारी पदाधिकारियों को कुछ ऐसी सुविधा देता है जो साधारण नागरिकों को प्राप्त नहीं है। इस अधिनियम के अन्तर्गत सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध कोई व्यक्ति तभी मुकदमा चला सकता है जब वह कुछ शर्तों की पूर्ति करे। साधारण नागरिकों के सम्बन्ध में यह नियम लागू नहीं होता।

(4) न्यायिक पदाधिकारियों को छूट- विधि के शासन के विरुद्ध न्यायाधीशों को न्यायालय में कहे गये कार्यों के लिए और किए गए कार्यों के लिए कुछ उन्मुक्तियाँ प्राप्त हैं जो विधि के शासन का उल्लंघन करती हैं।

(5) श्रम संघों के पदाधिकारियों को छूट- 1946 के Trade Dispute Act के अनुसार श्रमसंघ पदाधिकारी अपने द्वारा किए गए दोषपूर्ण कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। इसी कारण प्रो० डायसी ने लिखा है-“ब्रिटेन में विधि का शासन अब खतरे में पड़ गया है।”

(6) विदेशी राज्यों और कटुनीतिज्ञों की उन्मुक्तियाँ-विधि का शासन विदेशी राज्यों और उनके शासकों और राजदूतों पर भी कुछ दशाओं में लागू नहीं होता है। इन लोगों को भी कुछ उन्मुक्तियाँ प्राप्त हैं।

विधि के शासन का ह्रासोन्मुख होने के कारण

(Causes of the Decline of Rule of Law)

वर्तमान काल में विधि के शासन का काफी पतन होता जा रहा है। अब संसदीय अधिनियमों ने विधि के नियम की महत्ता को समाप्त-सा कर दिया है। इसके महत्व में कमी के निम्नलिखित कारण हैं:-

(1) आधुनिक युग में प्रदत्त व्यवस्थापन का अत्यधिक विकास होता जा रहा है जिससे ‘विधि के शासन’ को बड़ा आघात पहुँचा है।

(2) राज्य के कर्मचारियों को कुछ न्यायिक अधिकार प्राप्त हो गए हैं जिससे वहाँ के न्यायालयों के अधिकार, शक्तियों तथा क्षेत्राधिकार सीमित हो गए हैं।

(3) इसके अतिरिक्त सार्वजनिक संस्थाओं को भी संसद द्वारा कुछ न्यायिक अधिकार दे दिए गए हैं।

(4) गृह-सचिव को नागरिकता प्रदान करने का अधिकार तथा नागरिकता छीनने का अधिकार प्राप्त हो गया है। ऐसा करने पर उसके विरुद्ध कोई भी न्यायिक कार्यवाही नहीं हो सकती।

(5) सम्राट् विदेश जाने के लिए पासपोर्ट दे भी सकता है अथवा नहीं भी दे सकता है। उसके इस अधिकार को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

(6) न्यायाधीश अपने क्षेत्र में जो कार्य करते हैं उनके लिए वे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं।

(7) किसी भी नाटक को लार्ड चैम्बरलेन सेंसर कर सकता है और उसके इस अधिकार को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।

(8) विदेशी शासको के विरुद्ध भी किसी न्यायालय में, देश का कानून भंग करने के अभियोग में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।

(9) इसी प्रकार किसी वैध व्यापारिक विवाद के सिलसिले में किसी ट्रेड यूनियन के अधिकारी द्वारा किए गए किसी कार्य के कारण यूनियन के विरुद्ध मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

(10) ब्रिटेन में किन्हीं शासकों और कूटनीतिक प्रतिनिधियों पर सामान्य न्यायालय में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त कारणों से विधि के शासन’ की महत्ता समाप्त होती जा रही है तथा संसदीय नियम सर्वोपरि हो गए हैं। इस सम्बन्ध में हेग तथा पावेल ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है-

“The persons who compose the Government of the day cannot do what they please but must exercise their powers strictly in accordance with the rules which the Parliament has laid down.”

-Hegan & Powell.

विधि का शासन और इंग्लैंड

इंग्लैण्ड में विधियों का शासन है, न कि किसी व्यक्ति की निरंकुश इच्छा का। विधि ही सर्वोच्च है, यह विधि का शासन ब्रिटिश न्याय-व्यवस्था की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता है। ब्रिटेन में विधि के शासन को विशेष महत्व दिया जाता है। इंग्लैण्ड में राजा को छोड़कर सभी व्यक्तियों को, चाहे वे सरकारी कर्मचारी हों, या साधारण यक्ति, एक ही कानून माना जाता है। गैरसरकारी कर्मचारी कानून के लिए जितना अधिक उत्तरदायी है उतना ही सरकारी कर्मचारी भी। डायसी के शब्दों में- “प्रधानमन्त्री से लेकर एक सिपाही अथवा कर-संग्रहकर्ता तक प्रत्येक कर्मचारी गैरकानूनी कार्यों के हेतु कानून के प्रति उसी प्रकार से उत्तरदायी है जिस प्रकार कि साधारण व्यक्ति है।” यही कारण है कि इंग्लैण्ड में फ्रांस की भाँति साधारण न्यायालयों के साथ ही प्रशासनिक न्यायालयों की व्यवस्था नहीं की जाती है। फ्रांस में साधारण नागरिकों पर साधारण न्यायालयों में ही मुकदमा चलाया जा सकता है। परन्तु इंग्लैण्ड में सभी के लिए एक ही प्रकार के न्यायालय हैं और राजा को छोड़कर कोई भी व्यक्ति कानून से परे नहीं है। इसके कुछ अपवाद भी हैं। जैसे सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध तथा न्यायाधीशों के विरुद्ध पदेन किये हुये कार्यों के लिए तब तक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता जब तक कि सिद्ध न हो जाय कि उन्होंने जानबूझ कर कोई गलत कार्य किया है। सैनिक कर्मचारी और धर्माधिकारी भी साधारण कानूनों से बाहर हैं।

इंग्लैण्ड में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है कि वहाँ किसी व्यक्ति को अपराध के विरुद्ध सिद्ध हुए बिना दण्डित नहीं किया जा सकता। जब तक कि कोई निर्णय न दे दे कि किसी विशिष्ट व्यक्ति ने अमुक का उल्लंघन किया है और उसे अमुक दण्ड मिलना चाहिए । यहाँ यदि प्रधानमन्त्री कोई अपराध करता है तो उसे भी सामान्य न्यायालयों द्वारा सामान्य कानूनों का उल्लंघन करने के लिए उसी प्रकार दण्डित किया जाएगा जिस प्रकार एक साधारण नागरिक को। जो नागरिक अधिकार प्रधानमन्त्री को प्राप्त हैं वही अधिकार एक साधारण नागरिक को भी प्राप्त है। दोनों के अधिकारों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। वस्तुतः नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा न्यायालय करते हैं, संविधान नहीं। संविधान में नागरिकों के अधिकारों सम्बन्धी किसी भी बात का उल्लेख नहीं किया है। वास्तव में विभिन्न न्यायालयों द्वारा समय- समय पर दिये गये निर्णयों को ही संविधान के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिया गया है।

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Pankaja Singh

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