वस्तुगत विधियाँ | निरीक्षण विधि | निरीक्षण विधि के तत्त्व | निरीक्षण विधि के गुण | निरीक्षण विधि के दोष | दोषों का निराकरण
वस्तुगत विधियाँ
वह है जिसमें व्यक्ति स्वयं नहीं बल्कि दूसरों के द्वारा विभिन्न तथ्यों का विभिन्न ढंग से संकलन करता है। इसके अन्तर्गत आधुनिक समय में निम्न विधियों आती हैं-
(अ) निरीक्षण विधि
(आ) तुलनात्मक विधि
(इ) व्यक्ति इतिहास अथवा व्यक्ति अध्ययन विधि
(ई) सांख्यिकीय विधि
(उ) प्रश्नावली विधि
(ऊ) प्रयोगात्मक विधि
(ए) मनोविश्लेषणात्मक विधि
(ऐ) मनोविकृत्यात्मक विधि
(ओ) परीक्षणात्मक विधि
(औ) विकासात्मक विधि
(अं) साक्षात्कार विधि
(अः) समाजमितीय विधि
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निरीक्षण विधि-
इस विधि को बाह्य निरीक्षण या वस्तु निरीक्षण विधि भी कहा जाता है। इनके द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के कार्य-क्रिया का व्यवहार-अपने पूर्व अनुभव के आधार पर करता है। उसके परिणामस्वरूप प्रथम व्यक्ति या निरीक्षणकर्त्ता दूसरे व्यक्ति की मानसिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त करता है और उसके मन का विश्लेषण भी करता जाता है। इस प्रकार यह विधि अन्तर्निरीक्षण विधि के उल्टे होती है। निरीक्षण शब्द में भी (निः+ईक्षण) दो शब्द हैं। जिसका अर्थ होता है। अच्छी तरह से देखना या समीप से स्पष्ट देखना । चूँकि इसमें दूसरा व्यक्ति देखता है इसलिए दूसरे के द्वारा बाहर से जो कुछ स्पष्ट देखा जाय, वह निरीक्षण होता है।
इस विधि में हम प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार का तथा उसके मन और शरीर की दशा को भी देखते हैं। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति रो रहा है, उसकी आँखों से आँसू गिर रहे हैं, उसके मुँह से दीनता-दुख से शब्द निकल रहे हैं और वह हाथ पैर मार रहा है। इस प्रकार के दृश्य कई तुलना हम अपने पूर्व अनुभव से करते हैं जब हम स्वयं रोए थे या औरों को ऐसा ही व्यवहार करते देखा था। अन्त में तुलना के उपरान्त हम एक निष्कर्ष निकालते हैं कि अमुक क्रिया, घटना या वस्तु की सही दशा बाहर से और बाहर के आधार पर भीतर से क्या है। इस तरह निरीक्षण विधि में बाह्य रूप शारीरिक चेष्टाओं का ज्ञान, पूर्वानुभव के आधार पर तुलना, बाह्य ज्ञान के आधार पर आन्तरिक मन की स्थिति और अन्त में यह निष्कर्ष कि वास्तविकता क्या है, निकालना होता है। अस्तु इससे बाह्य और आन्तरिक दोनों दशाओं का बोध होता है। इसे स्पष्ट करते हुए प्रो० स्टाउट ने लिखा है ।” इसमें वस्तु, व्यक्ति प्राणी और उसकी क्रिया का बाहर एवं भीतर से अध्ययन किया जाता है और बाहरी दशा से आन्तरिक दशा का अनुमान एवं ज्ञान किया जाता है।
निरीक्षण विधि के तत्त्व
(i) निरीक्षणकर्त्ता और निरीक्षण किए जाने बाला- इसमें दो व्यक्ति अवश्य होते हैं नहीं तो यह अन्तर्निरीक्षण होगा। ऐसी दशा में एक व्यक्ति निरीक्षणकर्ता होता है, दूसरा जिसके व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है।
(ii) व्यवहार का निरीक्षण करना और मनःस्थिति को मालूम करना- व्यवहार केवल निरीक्षण कर लेने में हमें केवल बाहरी स्थिति का बोध नहीं करना पड़ता बल्कि उसके आधार पर आन्तरिक स्थिति का बोध करना इस विधि में जरूरी है।
(iii) दूसरे के व्यवहार की व्याख्या अपने पूर्वानुभव के आधार पर करना- इस विधि में सम्यक् बोध के लिए निरीक्षणकर्ता अपने पूर्व अनुभव का प्रयोग करता है। निरीक्षण व्यवहार की व्याख्या में पूर्व अनुभव की सहायता लेता है।
(iv) सामान्य निष्कर्ष निकालना- अन्त में निरीक्षक को एक ऐसी स्थिति का पता लगता है जिससे वह निरीक्षित व्यवहार के बारे में अपना निर्णय देता है। ऐसा सामान्यीकरण वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है जिससे वह विश्वसनीय होता है।
(v) बाह्य परिस्थिति की प्रमुखता होना- बाहरी चीजों क्रियाओं को आधार इस विधि में बनाया जाता है। इस प्रकार से वस्तुनिष्ठ ढंग से अध्ययन करते हैं।
(क) गुण-
(i) यह विधि चूंकि बाहर से व्यवहार को देखती है इसीलिए बाह्यगत एवं वस्तुनिष्ठ है। इसमें यथार्थता भी पाई जाती है। (ii) यह विधि वैज्ञानिक और क्रमबद्ध है क्योंकि इसमें जिस ढंग से व्यवहार का अध्ययन करते हैं उसमें एक पद के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरे का प्रयोग किया जाता है। (iii) यह विधि प्रयोग में व्यापक कही जाती है क्योंकि इसके द्वारा सामान्य एवं असामान्य सभी व्यक्तियों का अध्ययन करना सम्भव होता है। इसलिए मनुष्य पशु, स्वस्थ, पागल, बालक, प्रौढ़, स्त्री, पुरुष सभी के व्यवहार का इस विधि में अध्ययन करते हैं। (iv) यह विधि अन्तर्निरीक्षण विधि के दोषों को दूर करती है और शिक्षा मनोविज्ञान को एक विज्ञान की कोटि में लाने का श्रेय इस विधि को है। (v) यह विधि बाह्यगत होती है इसलिए निरीक्षित व्यक्ति से कुछ नहीं पूछा जाता है और अध्ययन किया जाता है। यह अवश्य है कि व्याख्या को स्पष्ट बनाने के लिये निरीक्षित व्यक्ति से कुछ पूछा जा सकता है। अतएव इसमें प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता पाई जाती है। (vi) इस विधि में निरीक्षण परीक्षण विश्लेषण, तुलना आदि होती है। इस कारण परिस्थिति एवं क्रिया का सत्यापन किया जाता है। फलस्वरूप विश्वसनीय ढंग से आगे प्रयोग करना पड़ता है। (vii) आधुनिक युग में सांख्यिकी का प्रयोग भी निरीक्षण के साथ किया जा रहा है। ऐसी दशा में गणितीय सम्बन्ध एवं निष्कर्ष निकालने से इसमें प्रामाणिकता पाई जाती है।
(ख) दोष-
(i) निरीक्षणकर्ता अपने समान ही दूसरे निरीक्षित व्यक्ति एवं उसके व्यवहार को समझता है। निरीक्षणकर्ता अपने आपको आरोपित करता है। (ii) प्राणी का व्यवहार उसकी सही मानसिक दशा को नहीं बताता है जैसे चोर को मार खाने पर रुलाई नहीं आती यद्यपि पीड़ा होती है। (iii) पूर्व धाराओं के साथ निरीक्षण होने से तथा पूर्व अनुभव पर आधारित होने से पक्षपात की सम्भावना काफी होती है अनुमान से निष्कर्ष यथार्य नहीं होते। (iv) एक प्रकार के व्यवहार कई मानसिक दशा को बताते हैं इसलिए सही निष्कर्ष क्या हो यह कहना कठिन होता है। (v) निरीक्षित व्यक्ति का व्यवहार दिखावटी भी होता है अतएव वास्तविक स्थिति का बोध करना सम्भव नहीं है। (vi) सभी स्थितियों में निरीक्षण करना सम्भव नहीं होता है जैसे पागल बच्चों का भी भावावेश में होने पर सही ढंग का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है।
(ग) दोषों का निराकरण-
उपर्युक्त दोष ऐसे होते हैं जिनका निराकरण न हो सके। ऐसी दशा मे (i) निरीक्षणकर्ता को सावधानी से काम करना चाहिए। उसे व्यापक दृष्टिकोण से विचार और अनुमान सहित निरीक्षण करना चाहिए। (ii) उसे कल्पना के साथ व्यवहार के भीतर प्रवेश करके अध्ययन एवं निरीक्षण करना चाहिए। (iii) उसे अपनी पूर्व धारणाओं को दूर रख कर कार्य करना चाहिए। (iv) उसे धैर्य के साथ निरीक्षण करना चाहिये तथा वास्तविक स्थिति का पता लगाना चाहिये। (v) निरीक्षणकर्ता को निरीक्षित व्यक्ति के सभी व्यवहारों की जाँच करनी चाहिये और व्यापक दृष्टि से देखना चाहिये। आडम्बर को वास्तविक से अलग रखने का प्रयल करना चाहिये। (vi) जहा तक सम्भव हो सभी स्थितियों में निरीक्षण किया जावे और अन्त में वैज्ञानिक ढंग से निष्कर्ष निकाला जावे। अतः स्पष्ट है कि सही, यथार्थ, एवं वैज्ञानिक ढंग से निरीक्षण हो और धैर्य, सावधानी, सतर्कता का यथावश्यकता अनुप्रयोग किया जावे टो दोषों का परिहार असानी से होता है।
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