अर्थशास्त्र

उत्पादन लागत का अर्थ | उत्पादन लागत का महत्व | उत्पादन लागत के प्रकार

उत्पादन लागत का अर्थ | उत्पादन लागत का महत्व | उत्पादन लागत के प्रकार

उत्पादन लागत का अर्थ-

वस्तु के उत्पादन के लिए कुछ खर्च करने पड़ते हैं, जिनके योग को वस्तु की ‘उत्पादन लागत’ कहा जाता है।

उत्पादन लागत का महत्व-

वस्तु के मूल्य निर्धारण में उत्पादन लागत का बहुत महत्वपूर्ण भाग होता है। उत्पादक की दृष्टि से सीमान्त लागत वह सीमा है जिससे कम मूल्य लेना वह स्वीकार नहीं करेगा। अर्थात पूर्ति-मूल्य उत्पादन लागत से ही निर्धारित होता है। यदि उत्पादन लागत कम हो जाये, तो पूर्ति मूल्य भी कम हो जायेगा। यदि उत्पादन लागत बढ़ जाये, तो वह भी बढ़ जायेगा। उत्पादक वस्तु का उत्पादन उस सीमा के पहुँचने तक बढ़ाता है जहाँ कि मूल्य और लागत समान नहीं हो जाती। ऐसी समानता स्थापित होने के बाद वह उत्पादन अधिक बढ़ाना पसन्द नहीं करेगा और न ही समानता की स्थापना के पूर्व उत्पादन को रोकना चाहेगा।

उत्पादन लागत के प्रकार/वर्गीकरण-

इसे तीन भागों में वर्गीकृत किया गया है-

(1) मौद्रिक या द्राव्यिक लागत-द्राव्यिक लागत से आशय उस द्रव्य से है जो कि एक उत्पादक किसी वस्तु के उत्पादन हेतु उत्पत्ति-साधनों के प्रयोग के लिए व्यय करता है। यह अर्थ साधारण बोलचाल में है परन्तु अर्थशास्त्र में इसे अपर्याप्त समझा जाता है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार, द्राव्यिक लागत में निम्न तीन प्रकार की मंदें सम्मिलित होती हैं-

(क) स्पष्ट लागतें- इन लागतों का आशय उस द्रव्य से है जो कि वह स्पष्ट रूप से विभिन्न साधनों के खरीदने में व्यय करता है। स्पष्ट लागतों के अन्तर्गत (i)उत्पादन कार्य से सम्बन्धित लागतें (जैसे-कच्चे माल लागत, श्रमिकों की मजदूरियाँ, उधार ली गयी पूँजी का ब्याज, भूमि तथा भवनों का किराया, प्लाण्ट अर्थात स्थिर पूँजी का घिसाई व्यय इत्यादि), (ii) विक्रय करने सम्बन्धी लागतें (जैसे-विज्ञापन एवं प्रसार पर हुआ व्यय), एवं (iii) अन्य लागते (जैसे सरकार एवं स्थानीय निकायों को दिये गये कर, बीमा व्यय, आदि) गिनी जाती हैं। स्पष्ट लागतों को भुगतान की गयी लागते या परिव्यय लागतें भी कहा जाता है।

(ख) अस्पष्ट (या सन्निहित) लागतें- उत्पादन के लिए उद्यमी या उत्पादक ऐसे साधनों एवं वस्तुओं का भी प्रयोग करता है, जिनके लिए वह प्रत्यक्ष या स्पष्ट रूप से कीमतें नहीं चुकाता। उदाहरण के लिए वह स्वयं ही प्रबन्धक के रूप में कार्य कर सकता है, कुछ अपनी पूँजी भी लगा सकता है और कुछ अपनी भूमि भी दे सकता है। इनके लिए वह कोई कीमत या पुरस्कार नहीं देता। परन्तु इन साधनों के लिए भी, जो कि उद्यमी ने अपने पास से लगाये हैं, बाजार दर पर उसकी कीमत या पुरस्कार की गणना करके, आवश्यक राशि उत्पादन लागत में शामिल कर लेनी चाहिए। इसका कारण यह है कि यदि उत्पादक अपने साधन किसी अन्य व्यक्ति को उपयोग के लिए देता, तो भी उसे बदले में पुरस्कार या मूल्य प्राप्त होता। अतः उत्पादन लागत में उद्यमी के अपने साधनों का पुरस्कार भी गिना जाता है। उद्यमी (या साहसी) के स्वयं के साधनों के बाजार दर पर पुरस्कारों को ‘अस्पष्ट लागतें’ कहते हैं। इनको ‘गैर-व्यय लागते’ भी कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि व्यावहारिक जीवन में प्रायः एकाउण्टेण्ट या उद्योगपति लागतों को द्राव्यिक लागत में शामिल नहीं करते हैं।

(ग) सामान्य लाभ- किसी उद्योग में एक साहसी के लिए सामान्य लाभ वह लाभ स्तर है जो कि उसे उद्योग में कार्यशील बनाये रखने हेतु केवल पर्याप्त मात्रा में है। अर्थशास्त्री द्राव्यिक लागत में लाभ को भी शामिल करते हैं क्योंकि यदि उद्योग विशेष में साहसी को दीर्घकाल में लाभ का न्यूनतम स्तर (सामान्य लाभ) प्राप्त नहीं होता है, तो वह उस उद्योग में कार्य नहीं केरग और इसे छोड़कर किसी अन्य उद्योग में चला जायेगा। चूँकि सामान्य लाभ साहसी को उद्योग विशेष में बनाये रखने की लागत है, इसलिए इसे द्राव्यिक लागत का अंश मानना उचित ही है।

(2) वास्तविक लागत-वास्तविक लागत की धारणा प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की देन है। इन अर्थशास्त्रियों का कहना था कि वस्तु की कीमत अन्त में उसकी वास्तविक लागत पर निर्भर होती है। उन्होंने बताया कि उत्पत्ति-साधनों के स्वामियों को उत्पादन कार्य के लिए अपने-अपने साधन देने में कुछ कठिनाईयाँ, कष्ट एवं असुविधाएँ उठानी पड़ती हैं। उदाहरणार्थ, पूँजीपति को बचत करने में प्रतीक्षा अथवा उपभोग त्याग के रूप में कुछ कष्ट उठाना पड़ता श्रमिकों को अपना श्रम देने में शारीरिक एवं मानसिक असुविधाएँ उठानी पड़ती हैं, आदि। उत्पत्ति कार्य में होने वाली इन समस्त असुविधाओं और कठिनाइयों के योग को ‘वास्तविक लागत’ कहते हैं। इनको सामाजिक लागतें भी कहा जाता है क्योंकि वस्तुओं के उत्पादन में समाज को कष्ट, त्याग या असुविधाओं का सामना करना होता है।

मार्शल के अनुसार, “किसी वस्तु के निर्माण में विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रयत्न और वस्तु के उत्पादन में प्रयोग की जाने वाली पूँजी को बचाने में विपरीत या प्रतीक्षा सम्बन्धी असुविधा या कष्ट, इस सब (प्रयत्नों और कष्टों) को मिलाकर वस्तु के उत्पादन की वास्तविक लागत कहा जाता है।”

स्पष्ट है कि वास्तविक लागत कष्ट एवं त्याग पर आधारित है, जो मनोवैज्ञानिक एवं व्यक्तिपरक है। अत: इन्हें ठीक-ठीक मापना सम्भव नहीं है। पुनः एक ही कार्य के करने मे विभिन्न व्यक्तियों के लिए कष्ट और त्याग विभिन्न हो सकते हैं और यह बात भी है कि कुछ व्यक्तियों को अपने कार्य में कष्ट के स्थान पर आनन्द की अनुभूति हो सकती है, जैसे-एक गवैया अपना गीत गाने में अत्यन्त आनन्द प्राप्त कर सकता है। जब कष्ट के बजाय आनन्द की प्राप्ति हो तब सम्बन्धित सेवाओं का द्राव्यिक मूल्य कैसे लगाया जाय।

(3) अवसर लागत- आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने वास्तविक लागत के बजाय अवसर लागत पर ध्यान दिया है। अवसर लागत को अन्य नाम भी दिये गये हैं, यथा व्यक्त विकल्प, वैकल्पिक लागत, विस्थापन लागत, हस्तान्तरण आय। अवसर लागत को वास्तविक लागत के रूप में तथा द्राव्यिक लागत के में भी समझाया जाता है। यह लगान के आधुनिक सिद्धान्त का आधार है। लगान के आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार, ‘लगान’ अवसर लागत के ऊपर एक आधिक्य है। यह लागत उत्पादन विभिन्न साधनों को अनेक वैकल्पिक प्रयोगों से इस प्रकार वितरित करता है कि वे अपनी अधिकतम आय प्राप्त कर सकें। अर्थात् जब एक के स्थान पर दूसरी वस्तु के लेने के अवसर न रहने पर अथवा वैकल्पिक त्याग में या एक के स्थान पर दूसरी साधन सेवा का प्रयोग करते हैं तो इसे अवसर लागत समझा जाता है।

इसलिए अवसर लागत का सिद्धान्त वास्तविक लागत का एक संशोधित रूप मात्र है। आधुनिक अर्थशास्त्री कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु की उत्पादन लागत अवसर लागत के बराबर होती है। जैसे: एक श्रमिक पेड़ लगाने का कार्य करने लगता है, जबकि पहले वही श्रमिक मेडबन्दी व गड्ढे खोदने का कार्य करता था, तो मेडबन्दी व गड्ढे खोदने के कार्य का त्याग पेड़ लगाने के कार्य की अवसर लागत होगा।

वास्तविक लागत व अवसर लागत में अंतर-

‘वास्तविक लागत’ उत्पत्ति कार्य मे होने वाली समस्त असुविधाओं और कठिनाइयों का योग हैं जबकि अवसर लागत उत्पादन के विभिन्न साधनों को अनेक वैकल्पिक प्रयोगों में सहायक है।

वास्तविक लागत कष्ट एवं त्याग पर परम्परागत सिद्धान्त पर आधारित है, जो मनोवैज्ञानिक एवं व्यक्तिपरक है। अत: इन्हें ठीक-ठीक मापना सम्भव नहीं है। जबकि अवसर लागत लगान के आधुनिक सिद्धान्त का आधार है। यह इस सत्य को बताने में सहायक है कि कोई निश्चित साधन किसी विशेष वस्तु के उत्पादन में क्यों लगे हैं।

वास्तविक लागत हमारा ध्यान इस महत्वपूर्ण तथ्य की ओर खींचता है कि उत्पादकों के लिए वस्तु की जो द्राव्यिक लागत है वह समाज के लिए वस्तु की लागत (अर्थात वास्तविक लागत) से कहीं कम हो सकती है। सर्वविदित है कि कुछ कार्य सरल एवं आनन्दायक होते हैं जबकि अन्य कार्य कठिन, कष्टप्रद अथवा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक। अत: यदि किन्हीं दो कार्यों की मौद्रिक लागत एक हो तो दोनों की वास्तविक लागत भी एक समान होना आवश्यक नहीं है जबकि अवसर लागत विशिष्टता पर निर्भर करती है, जो साधन जितना अधिक विशिष्ट होगा उसकी अवसर लागत उतनी ही कम होगी।

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Pankaja Singh

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