विपणन प्रबन्ध

उत्पाद जीवन चक्र को प्रभावित करने वाले घटक या तत्व | वस्तु जीवन चक्र के समय विपणन नीतियाँ

उत्पाद जीवन चक्र को प्रभावित करने वाले घटक या तत्व | वस्तु जीवन चक्र के समय विपणन नीतियाँ | Components or elements affecting the product life cycle in Hindi | Marketing Policies at the Time of the Commodity Life Cycle in Hindi

उत्पाद (वस्तु) जीवन चक्र को प्रभावित करने वाले घटक या तत्व

उत्पाद जीवन चक्र के विस्तार को प्रभावित करने वाले घटकों के सम्बन्ध में जौयल डीन का यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि, उत्पाद जीवन चक्र के विस्तार का, निर्धारण तकनीकी परिवर्तन की गति, बाजार द्वारा स्वीकार किये जाने की गति तथा प्रयोगात्मक प्रवेश की सुगमता के द्वारा किया जाता है। उत्पाद जीवन-चक्र को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख घटकों का विवेचन निम्न प्रकार हैं।

  1. तकनीकी परिवर्तन की गति (Speed of Technical Change) – देश में जितनी तेज गति से तकनीकी परिवर्तन होंगे उतनी ही तेज गति से वस्तुओं का जीवन-चक्र छोटा होता जायेगा। इसके विपरीत यदि देश में तकनीकी परिवर्तन धीमी गति से हो रहे हो तो वस्तुओं का जीवन चक्र लम्बा होता जायेगा। भारत में तकनीकी परिवर्तन की गति धीमी है जिस कारण भारत में वस्तुओं का जीवन चक्र अपेक्षाकृत लम्बा है।
  2. बाजार स्वीकृति की गति (Speed of Market Acceptance) – बाजार स्वीकृति की गति से आशय ग्राहकों द्वारा वस्तु को स्वीकार करने की गति से है। यदि ग्राहक किसी वस्तु को तेज गति से स्वीकार करते हैं तो वस्तु का जीवन चक्र छोटा होगा, इसके विपरीत यदि ग्राहक वस्तु को धीमी गति से स्वीकार करते हैं तो वस्तु का जीवन-चक्र लम्बा होगा।
  3. प्रतिस्पर्धात्मक प्रवेश की सुगमता (Ease of Competitive Entry) – यदि बाजार में नयी-नयी प्रतियोगी उत्पाद तीव्र गति से प्रवेश कर रही हैं तो उत्पाद का जीवन-चक्र छोटा होगा और इसके विपरीत यदि बाजार में नयी-नयी प्रतियोगी उत्पाद बहुत देर से बाजार में प्रवेश करती है तो उत्पादों का जीवन-चक्र लम्बा होगा।
  4. जोखिम वहन करने की क्षमता (Risk Bearing Capacity) – ऐसे व्यावसायिक उपक्रम जिनकी जोखिम वहन करने की क्षमता अधिक होती है उनकी उत्पादों का जीवन-चक्र लम्बा होता है। इसकी विपरीत स्थिति में उत्पादों का जीवन चक्र छोटा होता है।
  5. आर्थिक एवं प्रबन्धकीय शक्तियाँ (Economic and Managerial Forces) – जिन व्यावसायिक उपक्रमों की आर्थिक एवं प्रबन्धकीय शक्तियाँ सुदृढ़ होती हैं उन व्यावसायिक उपक्रमों की उत्पादों का जीवन-चक्र लम्बा होता है। इसकी विपरीत स्थिति में उत्पादों का जीवन-चक्र छोटा होता है।
  6. पेटेण्ट द्वारा संरक्षण (Protection by Patent) – जिन उत्पादों के पेटेन्ट को पंजीकृत करा लिया जाता है प्रायः ऐसी उत्पादों का जीवन-चक्र उन उत्पादों की अपेक्षा लम्बा होता है जिनके पेटेन्ट का पंयोजन नहीं कराया जाता है।

वस्तु जीवन चक्र के समय विपणन नीतियाँ

(Marketing Strategies during Product Life-Cycle)

प्रत्येक संस्था के लिए यह ज्ञात करना अति आवश्यक है कि उसकी वस्तु जीवन चक्र की किस अवस्था से गुजर रही है। इसका कारण यह है वस्तु की अलग-अलग अवस्था के लिए अलग- अलग रणनीतियों को अपनाना पड़ता है जिससे कि वस्तु के जीवन-चक्र के समय को बढ़ाया जा सके। वस्तु की विभिन्न अवस्थाओं में विपणन रणनीतियाँ निम्न प्रकार अपनायी जाती है –

  1. प्रस्तुतीकरण (Introduction) – इस अवस्था में वस्तु की बिक्री बहुत कम मात्रा में होती है, उपभोक्ताओं को वस्तु के बारे में जानकारी नहीं होती है। उस अवस्था में संवर्द्धन पर अधिक व्यय किया जाता है जिससे कि जनसाधारण को वस्तु की शुरूआत के बारे में जानकारी दी जा सके। और उसके खरीदने के लिए लालायित किया जा सके। साथ ही मध्यस्थों को भी वस्तु बेचने के लिए तैयार किया जा सके।
  2. विकास (Growth) – विकास अवस्था में वस्तु की बिक्री बढ़ती है और उसका अधिकाधिक प्रयोग होने लगता है। संवर्द्धन कम अधिक ही बने रहते हैं लेकिन बिक्री के अनुपात में काफी कम हो जाते हैं इससे निर्माताओं को लाभ होता है। इस अवस्था में मूल्य उस समय तक ऊंचे रखे जाते हैं जब तक कि प्रतियोगी संस्थाएँ बाजार में नहीं आ जाती हैं। प्रतियोगी संस्थाओं के आ जाने पर मूल्य कम कर दिये जाते हैं।
  3. परिपक्वता (Maturity) – यह वह अवस्था है जिसमें प्रतियोगिता चरम सीमा पर पहुँच जाती है। इस अवस्था में विज्ञापन व विक्रय संवर्द्धन पर अधिक व्यय करना पड़ता है जिसमें निर्माता व मध्यस्थों के लाभ में कमी होने लगती है। वस्तु का मूल्य लागत के पास पहुँच जाता है। ऐसी अवस्था में एक विपणन प्रबन्धक द्वारा अपनी ब्राण्ड की छवि को बनाये रखने का प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से विपणन किया जाता है।
  4. संतृप्ति (Saturation) – संतृप्ति की अवस्था में में स्थिरता आ जाती है। यह स्थिरता उस समय तक बनी रहती है जबकि नयी स्थानापत्र वस्तुएँ बाजार में न आ जायें। इस स्थिति में विपणन प्रबन्धक द्वारा बाजार विभक्तीकरण करके या वस्तुओं के नये-नये प्रयोगों को सामने लाकर वस्तु स्थिति का सामना किया जाना चाहिए।
  5. पतन (Decline) – इस अवस्था में वस्तु की बिक्री घट जाती है और निर्माता के लाभों में भी काफी कमी हो जाती है। इसका कारण यह है कि उस अवस्था में नयी और उन्नत वस्तुएँ बाजार में अपना स्थान ग्रहण कर लेती हैं। इस अवस्था में विपपान रणनीति के माध्यम से अपने साधनों का उचित उपयोग ढूँढ़ा जाता है जिससे कि शीघ्र अतिशीघ्र इस स्थिति से छुटकारा मिल सके और हानि से बचा जा सके।
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Pankaja Singh

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