तुलसी के काव्य में लोक मंगल और भाषा शैली | तुलसी की समन्वय चेतना तथा धार्मिक समन्वय | सूर का श्रृंगार वर्णन
(1) तुलसी के काव्य में लोक मंगल और भाषा शैली
(1) गोस्वामी तुलसीदास जी ने लोक-जीवन के परलौकिक जीवन आदर्श को प्रस्तुत किया है। (2) गोस्वामी जी के काव्य में काशी, प्रयाग, सीतावट, चित्रकूट आदि का वर्णन है। इन स्थानों में भारतीय लोक-जीवन का विशेष आकर्षण है। (3) तुलसी के मुख्य उद्देश्य लोक- जीवन के समस्त भावों को ईश्वर-भक्ति से ओत-प्रोत था। (4) गोस्वामी जी के काव्य में राम जीवन कथा में लोक-संस्कृति का रूप दृष्टिगोचर होता है। (5) भारतीय लोक-संस्कृति में यात्रा आदि के मय सगुन विचार का विशेष महत्त्व है। इसका वर्णन तुलसी की रामकथा से सम्बन्धित रचना में मिलता है।
(1) तुलसी की भाषा में प्रभाव-सृष्टि को अनुपम शक्ति हैं (2) तुलसी ने अपने समय की प्रचलित समस्त काव्य शैलियों को अपनाया। (3) गोस्वामी जी को ब्रज और अवधी भाषा पर समान अधिकार प्राप्त था। (4) तुलसी का काव्य स्वाभाविक, सरल एवं भाव गम्भीरता से पूर्ण है। (5) गोस्वामी जी के काव्य में संस्कृत बहुलता तथा ठेठ प्रचलित भाषा का प्रयोग है।
(2) तुलसी की समन्वय चेतना तथा धार्मिक समन्वय
(1) तुलसीदास जी ने अपने समय के विभिन्न मत-वादों और भावों को समन्वयवादी स्वरूप प्रदान किया। (2) गोस्वामी जी ने अपनी प्रतिभा से रामकाव्यधारा और कृष्ण काव्यधारा में भी समन्वय स्थापित किया। (3) तुलसी ने अपने काव्य में तत्कालीन प्रचलित ब्रजभाषा और अवधी भाषा का प्रयोग किया है तथा इस प्रकार साहित्यिक समन्वय स्थापित किया है। (4) तुलसीदास जी ने भाषा के साथ अपनी शैली में भी समन्वय का परिचय दिया है। (5) तुलसीदास जी के साहित्य में विविध रसों की सुन्दर योजनाएँ प्रस्तुत हुई है।
(1) सगुण पंथी व निर्गुण पंथियों के विचारों को जो दूरी थी, उसको तुलसी ने मिटाने का प्रयास किया। (2) विष्णु को अपना सवर्चस्व मानने वाले भक्तगण “वैष्ण’ कहलाते थे तथा शिव को अपना स्वामी मानने वाले भक्तगण ‘शैव’ की संज्ञा पाते थे। (3) भारतीय धार्मिक संस्कृति की प्रमुख विशेषता है कि यहां विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना की जाती है। (4) तुलसी का विचार है कि वर्ग, ज्ञान और भक्ति का समन्वय ही जीवन की पूर्णता है।
(3) सूर का श्रृंगार वर्णन (दृष्टि)
अथवा
सूर का वात्सल्य वर्णन
संयोग-श्रृंगार में राधा का चित्रण- इसके पश्चात् एक दिन आकाश में काली घनघोर घटाएँ छा जाती हैं और नन्द इस आँधी-पानी को देखकर भयभीत हो जाते हैं। वे राधा को अपने पास बुलाते हैं और कहते हैं कि जा कान्हा को घर ले जा। राधा और कृष्ण दोनों वर्षा में भीगते हुए वन से लौटते हैं परस्पर सटे-सटे मार्ग में दोनों रति-क्रीड़ा भी करते-चलते हैं। उदाहरण दृष्टय है।
“चूमत अंग परसपर जनु जुग, चंद करत हितचार।
रसन दृगन भरि चाँपि चतुर अति, करत रंग विस्तार।”
इसके पश्चात् फिर एक दिन राधा कृष्ण के घर आती हैं और कृष्ण को आवाज देती हैं। राधा की कोयल के समान मीठी वाणी को सुनकर भला कृष्ण को चैन कहाँ? आतुर होकर दौड़े आते हैं और राधा को अपने घर में ले जाते हैं। देखिये, माँ से राधा की कितनी प्रशंसा करते हैं-
“खेलन के मिस कुंवरि राधिका नन्द महरि के आई हो।
सकुच सहित मधुरे करि बोली घर हौ कुंवर कन्हाई हो।
सुनत स्याम कोकिल-सम बानी निकसे अति अतुराई हो।
माता सों इह करत कलह हरि सो डाट्यों बिसराई हो।
मैया री तू इनको चीन्हति बारम्बार बताई हो।
यमुना-तीर कान्हि मैं भूल्यों बांह पकरि ले गई हो।
आवति यहाँ तोहि सकुचति है मै दै सौंह बुलाई हो।”
कृष्ण यशोदा के पास राधा को बिठा देते है। यशोदा और राधा में वार्तालाप-आरम्म होता है। यशोदा राधा से उनके माता-पिता का परिचय पूछती हैं। राधा बताती हैं कि वे वृषभानु की बेटी हैं। यशोदा कहती हैं कि- हाँ, मैं जानती हूँ। वे तो बड़े ‘लाँगर’ हैं। राधा पूछती हैं कि उन्होंने तुम्हें कब छेड़ा था? यशोदा हँसकर राधा को अपने गले से लगा लेती हैं।
सूर का वात्सल्य वर्णन-
(1) वात्सल्य की प्रेरणा,(2) वात्सल्य रस के भेद,(3) वात्सल्य के अवयव,(4) बाल- मनोविज्ञान,(5) शरीर के सौन्दर्य वर्णन,(6) बाल-लीलाओं का वर्णन।
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