अर्थशास्त्र

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के लाभ | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की मान्यताएँ | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की आलोचनायें | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सन्दर्भ में तुलनात्मक लागत सिद्धान्त

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त के लाभ | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की मान्यताएँ | तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की आलोचनायें | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सन्दर्भ में तुलनात्मक लागत सिद्धान्त

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तथा आर्थिक विश्लेषण के सन्दर्भ में तुलनात्मक लागत सिद्धान्त का महत्व सर्वाधिक है। प्रतिष्ठित सिद्धान्त के तरह ही तुलनत्मक लागत सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का कारण उत्पादन लागत में अन्तर को मानता है।

रिकार्डो का तुलनात्मक लागत सिद्धान्त श्रम के मूल्य सिद्धान्त पर आधारित है। यह सिद्धान्त स्पष्ट करता है कि वस्तुओं का मूल्य उसमें निहित श्रम से आँका जाता है और वस्तुओं का परस्पर विनिमय उन वस्तुओं के उत्पादन में लगे हुए श्रम के आधार पर होता है। जिन वस्तुओं का मूल्य समान होता है, उनको बनाने में श्रम की समान मात्रा लगती है। इस प्रकार रिकार्डो ने वास्तविक लागत को श्रम के समय (Labour Tine) के रूप में व्यक्त किया। दूसरे शब्दों में, किसी वस्तु का मूल्य उसकी श्रम लागत पर निर्भर रहता है।

लागतों में तुलनात्मक अन्तर (Comparative Difference in Costs)

आशय (Meaning)- लागतों में तुलनात्मक अन्तर उस समय होता है जब एक देश को दूसरे देश की तुलना में ही वस्तुओं के उत्पादन में तुलनात्मक श्रेष्ठता उपलब्ध हो लेकिन उत्पादन व्यय की दृष्टि से यह श्रेष्ठता एक वस्तु में कम और दूसरी वस्तु में अधिक हो सकती है।

लाभ (Advantage)-

यदि सम्पूर्ण उत्पादन की ओर ध्यान दिया जाये तो भी दोनों देशों के लिए किसी एक वस्तु के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त करना अधिक लाभदायक होगा जैसा कि निम्न विवरण से स्पष्ट है:

(अ) विशिष्टता के अभाव में (In Absence of Specialisation)- मान लीजिए, अमेरिका और ब्राजील दोनों ही अलग-अलग कपड़ा और शराब का उत्पादन कर रहें हों तो ऐसी स्थिति में:

अमेरिका 1 इकाई शराब + 1 इकाई कपड़ा = 170 श्रमिक

ब्राजील 1 इकाई शराब + 1 इकाई कपड़ा = 220 श्रमिक

2 इकाई शराब + 2 इकाई कपड़ा = 390 श्रमिक

(ब) विशिष्टता की स्थिति में (In Case of Specialisation)- अब मान लीजिए कि अमेरिका शराब में और ब्राजील कपड़े के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में:

अमेरिका द्वारा 2 इकाई शराब उत्पादन करने का व्यय = 160 श्रमिक

ब्राजील द्वारा 2 इकाई शराब उत्पादन करने का व्यय = 200 श्रमिक

अर्थात् 2 इकाई शराब + 2 इकाई कपड़े का उत्पादन व्यय = 360 श्रमिक

पहले 2 इकाई शराब और दो इकाई कपड़े का उत्पादन व्यय 390 श्रमिक था। जब दोनों ने अलग-अलग वस्तुओं का उत्पादन करना आरम्भ कर दिया तो उत्पादन व्यय 360 श्रमिक हो गया। इससे एक ही मात्रा में प्राप्त होने वाली वस्तुओं का उत्पादन-व्यय में 30 श्रमिक की बचत हुई। अत: स्पष्ट है कि यद्यपि दोनों में से एक देश को दूसरे देश की अपेक्षा दोनों वस्तुओं के उत्पादन में अधिक दक्षता प्राप्त है परन्तु लागत का अनुपात भिन्न-भिन्न है तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा उस वस्तु को उत्पादित करके भेजने में अधिक लाभ होगा जिससे उत्पादन में अधिक तुलनात्मक लाभ है।रिकार्डों के अनुसार, “इस तुलनात्मक लागत अन्तर की अवस्था में भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार लाभप्रद होगा यदि कुशल उसमें विशिष्टीकरण प्राप्त करे जिसमें उसकी कुशलता अधिकतम हो तथा अकुशल उसमें विशिष्टीकरण प्राप्त करे जिसमें अकुशलता न्यूनतम हो।”रेखाचित्र तुलनात्मक लाभ के सिद्धान्त को स्पष्ट कर रहा है। चित्र में AB अमेरिका की उत्पादन सम्भावना रेखा 1 इकाई शराब – 0.88 इकाई कपड़े के आधार पर खींची गयी है। AC रेखा ब्राजील की उत्पादन सम्भावना रेखा है जो कि 1 इकाई शराब – 1.2 इकाई कपड़ा के आधार पर खींची गयी है। BC वह ‘अतिरेक’ है जिसे विदेशी व्यापार के दोनों देश आपस में बाँट सकते हैं।

सारांश (Summary)-

संक्षेप में, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की सारभूत बातें निम्न प्रकार हैं:

(1) प्रत्येक देश के लिए उसी वस्तु के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त करना लाभप्रद है जिसके उत्पादन में उसे विशेष सुविधाएँ प्राप्त हैं । (2) कोई भी देश उन्हीं वस्तुओं को बनाता व निर्यात करता है जिनके निर्माण में उसे लागत-लाभ मिलता है और उस वस्तु का आयात करता है जिसकी प्राप्ति में उसे लागत-लाभ मिलता है। (3) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तभी सम्भव होता है जब दोनों देशों की उत्पादन लागतों में अन्तर होता है चाहे यह अन्तर निरपेक्षा हो अथवा तुलनात्मक। यदि उत्पादन लागत में समान अन्तर है तो अन्तराष्ट्रीय व्यापार सम्भव नहीं होता। (4) दो देशों के बीच वस्तुओं के विनिमय दर की सीमाएँ दोनों ही देशों की आन्तरिक विनिमय दरों द्वारा निर्धारित होती है। (5) दो देशों के बीच वास्तविक विनिमय दर पारस्परिक माँग की लोच द्वारा निर्धारित होती है।

सिद्धान्त की मान्यताएँ –

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रतिष्ठित सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है:

(1) केवल श्रम उत्पादन का साधन है और उत्पादन लागतों में केवल श्रमिक व्यय ही शामिल होते हैं। (2) सभी श्रमिक एक ही प्रकार के हैं। (3) उत्पादन में उत्पत्ति समता नियम लागू होता है अर्थात् दोनों वस्तुओं के लागत अनुपातों को स्थिर समझा जाता है। (4) उत्पादन के साधन देश के भीतर पूर्णतया गतिशील हैं परन्तु दो देशों के बीच पूर्णतया गतिहीन है। (5) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में किसी प्रकार की रुकावट नहीं है। (6) यह सिद्धान्त दो देशों के बीच दो वस्तुओं के व्यापार के आधार पर ही क्रियाशील होता है। (7) परिवहन लागत पर ध्यान नहीं दिया जाता है। (8) दोनों देशों में स्वर्णमान विद्यमान है और मुद्रा के परिणाम सिद्धान्त को कार्यशील माना गया है। (9) दोनों देश स्थायी सन्तुलन की ओर सदैव प्रयत्नशील माने जाते हैं और व्यापार-चक्र के समान घटनाओं में बाधा नहीं पड़ती है। (10) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समान आर्थिक शक्ति वाले दो देशों में तथा आर्थिक महत्व वाली दो वस्तुओं में होता है। (11) सभी उत्पादन के साधन दोनों देशों में पूर्णतया रोजगार की स्थिति में है।

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की आलोचनायें-

इस सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनायें की गयी हैं-

  1. स्थिर लागतों पर आधारित सिद्धान्त (Theory Based on Law of Constant Returns)- वास्तविक जीवन में उत्पादन उत्पत्ति इस नियम अथवा उत्पत्ति वृद्धि नियम के आधार पर होता है जबकि यह सिद्धान्त उत्पादन को स्थिर नियम पर आधारित मानता है जो कि एक अपवाद है।
  2. श्रम लागतों की मान्यता (Assumption of Labour Costs)- यह सिद्धान्त मूल्य के श्रम सिद्धान्त पर आधारित है, लेकिन आधुनिक अर्थशास्त्री इस मत से सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि श्रम में समरूपता नहीं पाई जाती है। इसके अतिरिक्त किसी वस्तु के उत्पादन में श्रम के अलावा पूँजी, भूमि तथा साहस की भी आवश्यकता होती है।
  3. श्रम तथा पूँजी की गतिहीनता (Immobility of Labour and Capital)- यह सिद्धान्त श्रम तथा पूँजी की बाह्यता की मान्यता पर आधारित है लेकिन आजकल श्रम एवं पूँजी देश के भीतर भी उतने गतिशील नहीं होते है जितना कि इस सिद्धान्त में माना गया है। इसी प्रकार दो देशों के बीच भी साधनों में पूर्णतया अगतिशीलता नहीं पाई जाती है। कुछ सीमा तक उनमें गतिशीलता अवश्य पाई जाती है।
  4. यातायात व्यय (Transportation Cost)- यह सिद्धान्त यातायात व्यय पर विचार करता है लेकिन व्यावहारिक रूप में जिन वस्तुओं का यातायात व्यय अधिक होता है उनकी उत्पादन लागत कम होने पर अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सीमित होता है जैसे – कोयला तथा लकड़ी।
  5. पूर्ण विशेषज्ञता सम्भव नहीं (Complete Specialisation Impossible)- विश्व में पूर्ण रूपेण प्रादेशिक विशिष्टीकरण अथवा श्रम विभाजन सम्भव नहीं होता है क्योंकि एक छोटा देश विशिष्टीकरण के द्वारा अपनी आवश्यकतायें पूरी कर सकता है परन्तु एक बड़ा देश नहीं है।
  6. माँग की लोच का प्रभाव (Influence of Elasticity of Demand)- यह सिद्धान्त माँग को स्थिर मानता है परन्तु आलोचकों का कहना है कि जिस देश में विदेशी माँग की लोच अधिक होती है, व्यापार की शर्ते उसके अनुकूल होती है तथा लाभ अधिक होता है, इसके विपरीत दशा में अपेक्षाकृत कम लाभ प्राप्त होता है। लेकिन यह सिद्धान्त माँग के इस प्रभाव की उपेक्षा करता है।
  7. सिद्धान्त की अयथार्थता (Unrealistic Nature of the Theory)- कभी-कभी कुछ विशेष परिस्थितियों में देश का वास्तविक उत्पादन तुलनात्मक लागत सिद्धान्त से मेल नहीं खाता। अर्थात् देश उन वस्तुओं का भी उत्पादन करने लगता है जिनमें उसे तुलनात्मक लाभ प्राप्त नहीं होता है।
  8. व्यापार प्रतिबन्ध (Trade Restriction)- यह सिद्धान्त स्वतन्त्र व्यापार की मान्यता पर आधारित है जबकि आजकल लगभग प्रत्येक देश कुछ न कुछ व्यापारिक प्रतिबन्ध लगाये है।
  9. अर्द्धविकसित देशों के लिए अनुपयुक्त (Unsuitable for Under-developed Countries)- अर्द्धविकसित देशों को कृषि उत्पादन में तुलनात्मक लाभ प्राप्त होता है। परन्तु कृषि उत्पादन में वृद्धि क्रमशः बढ़ती हुई लागत पर प्राप्त की जा सकती है। इसलिए ऐसे देशों के लिए, इस सिद्धान्त के अनुसार विशिष्टीकरण करना लाभदायक नहीं हो सकता है।

सारांशतः यह सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण एवं अवास्तविक है। इसके निष्कर्ष गलत ही नहीं बल्कि खतरनाक भी है। यही कारण है कि प्रो. बैरेट ह्वेल (Barret Whale) ने कहा है कि “हमें तो स्वीडन के सुविख्यात अर्थशास्त्री, वर्टिल ओहलिन का अनुसरण करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त को मूल्य की आधुनिक धारणाओं पर ही निर्मित करना चाहिए।

अर्थशास्त्रियों ने रिकार्डो के तुलनात्मक लागतों के सिद्धान्त की कुछ मान्यताओं को त्यागकर संशोधन किये हैं। यह सिद्धान्त मूल्य के श्रम सिद्धान्त (Labour Theory of Value) पर आधारित है और इसकी व्याख्या वस्तु विनिमय प्रणाली के अनुसार की गई है। यह सिद्धान्त दो वस्तु तथा दो-देश मॉडल की व्याख्या करता है जिसमें परिवहन लागतों को सम्मिलित नहीं किया गया था तथा तुलनात्मक सिद्धान्त स्थिर लागतों की मान्यता पर आधारित था। अतः प्रो. टॉजिग, ग्राहम, प्रो. मार्शल निकलसन, प्रो. हैबरलर तथा प्रो. बैस्टेबल आदि अर्थशास्त्रियों ने तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की अवास्तविक मान्यताओं का परित्याग करके इसमें अनेक संशोधन किये तथा इसकी सत्यता को सिद्ध किया।

तुलनात्मक लागत सिद्धान्त में निम्नलिखित सुधार किये गये हैं-

  1. लागत की तुलना श्रम के आधार पर न करके मौद्रिक लागत के आधार पर की गयी
  2. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तुलनात्मक मांग की लोच प्रभाव स्वीकारा गया।
  3. वस्तु का उत्पादन स्थिर प्राप्ति नियम पर न होकर वृद्धि नियम तथा उत्पत्ति ह्यस निय पर भी होता है।
  4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में यातायात लागत को भी विचार में रखा गया है।
  5. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में दो या दो से अधिक वस्तुयें तथा दो से अधिक देश ससम्मिलि किए गये हैं।
  6. वस्तुओं के उत्पादन पर मजदूरी का भी प्रभाव पड़ता है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि आधुनिक सिद्धान्त ने प्रतिष्ठित तुलनात्मक सिद्धान्तों की कमियों को काफी सीमा तक दूरी कर दिया है जिससे इसमें अधिक व्यावहारिकता एवं व्यापकता का गुण उत्पन्न हो गया है।

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Pankaja Singh

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