संविधानवाद के मुख्य आधार | संविधानवाद के विभिन्न सैद्धान्तिक आधार
संविधानवाद के मुख्य आधारों की व्याख्या
संविधानवाद के विभिन्न सैद्धान्तिक आधार हैं, जो निम्नलिखित प्रकार हैं:-
(1) प्राकृतिक कानून, (2) कानून का शासन, (3) शक्तियों के विभाजन तथा वितरण- सम्बन्धी सिद्धान्त, (4) मानवीय अधिकारों की सुरक्षासम्बन्धी सिद्धान्त, (5) परम्परावाद तथा सामाजिक बहुलवाद।
(1) प्राकृतिक कानून
(Natural Law)
प्लेटो के अनुसार-“मानवीय कानून नैसर्गिक कानून का वास्तविक किन्तु अपूर्ण प्रतिक्षा है, प्राकृतिक कानून की धारणा ही है।” ऐतिहासिक दृष्टिकोण के अनुसार संविधान का सबसे प्राचीन तथा वर्तमान तक सर्वमान्य सैद्धान्तिक आधार प्राकृतिक कानून की धारणा थी। संविधानवाद को इस धारणा पर आधारित समझने वाले प्राचीन विद्वान् हैं-प्लेटो, अरस्तू तथा हेरॉक्लिट्स । हेरॉक्लिट्स के अनुसार-“सभी मानवीय कानून एक दैविक कानून द्वारा पोषित होते हैं; यह दैविक कानून असीमित रूप से सशक्त है तथा. उन्हें पूर्णता प्रदान करता है।” ग्रीक विद्वान स्टोइक ने प्राकृतिक कानून को शासन तथा उसके कार्यों का आधार बनाया था। संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्राकृतिक कानून संविधानवाद का आधार माना गया है। यह धारणा इसलिए भी उचित प्रतीत होती है क्योंकि आधुनिक संविधान-प्रधान राज्यों का औचित्य प्राकृतिक कानून के आधार पर ही स्थापित हो रहा है।
बाद में प्राकृतिक कानून की धारणा में परिवर्तन होने से इसमें आधिभौतिकता का अभाव हो गया तथा मनुष्य के अधिकारों और स्वतन्त्रताओं का महत्व स्थापित हुआ। अब प्राकृतिक कानून मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं का प्रतिनिधित्व करने लगा तथा मानवीय अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं के महत्व में वृद्धि हुई। जॉन लॉक की इस सम्बन्ध में परिवर्तित विचारधारा निम्नलिखित प्रकार है-“प्राकृतिक कानून की प्राचीन धारणा पूर्णतः विघटित होकर मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार में परिवर्तित हुई।”
(2) कानून का शासन
(Rule-of-Law)
कानून की शासनसम्बन्धी धारणा बिग अथवा उदारवादी संविधानशास्त्रियों द्वारा ब्रिटेन में विकसित की गई थी। यह धारणा लॉक की प्राकृतिक कानून तथा अधिकारसम्बन्धी धारणा से सम्बद्ध है। वास्तव में यह विचारधारा प्राकृतिक कानून की धारणा के परिवर्तित रूप का संविधानिक प्रयोग है। 18वीं सदी के पश्चात् संविधानवाद का यह महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक आधार रहा है। वर्तमान युग में कानून का शासन वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार सरकारी संस्थाएँ अपनी शक्तियों की प्राप्ति और प्रयोग वैध सत्ता द्वारा बनाए गए कानूनों के आधार पर करती हैं। कानून सभी निर्वाचित या नियुक्त व्यक्तियों के कार्यों को निर्धारित सीमा के अन्तर्गत स्थापित करते हैं तथा उसकी सत्ता का परीक्षण न्यायालय द्वारा किया जाता है। इस प्रकार कानून का शासन आधुनिक सरकारों पर प्रभावशाली नियन्त्रण रखता है।
कानून के शासन का वृहद् अर्थ है-शासन व्यवस्था में स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं द्वारा परिवर्तन होना। दूसरी तरह से यह भी कहा जा सकता है कि कानून का शासन शासन-व्यवस्था के परिवर्तन को सांविधानिक और स्थापित नियमों द्वारा सम्भव बनाता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार संविधानवाद ‘सामाजिक समझौता’ धारणा से सम्बद्ध हो जाता है। पेनक तथा स्मिथ के अनुसार, “काल्विन तथा जॉन लॉक जैसे विद्वानों द्वारा स्थापित समझौतासम्बन्धी धारणा का मूल उद्देश्य नागरिकों के सामान्य सहयोग तथा संयुक्त एवं समान उत्तरदायित्वों की धारणा को ही मात्र प्रतीकात्मक रूप में व्यक्त करना नहीं था। उन्होंने मनुष्य के राजनीतिक व्यवहारों में कानून के प्रति सचेतनता की भावना को भी विकसित करना चाहा।”
(3) शक्तियों का विभाजन तथा वितरणसम्बन्धी सिद्धान्त
(Division and Distribution of Power)
राजनीति सत्ता में विभाजन तथा वितरण को अनेक राजनीतिशास्त्रियों ने सांविधानिक शासन और जनतंत्रीय व्यवस्था के लिए आवश्यक माना है। प्राचीन रोमन विद्वान् पोलिबियस तथा वर्तमान लॉक तथा मॉन्टेस्क्यू ने सांविधानिक शासन के लिए इसे आवश्यक माना है। इस सिद्धान्त को संविधानवाद के सन्दर्भ में विभिन्न रूपों में प्रयुक्त किया गया है। वर्तमान जनतंत्रीय शासन-प्रणालियों वाले राज्यों में राजनीतिक शक्ति में जनता की सहभागिता, निर्वाचनाधिकार और अन्य माध्यमों द्वारा अत्यधिक वृद्धि हो गयी है। आधुनिक संविधानवाद जनतंत्रवाद का ही प्रतिरूप हो गया है। प्रारम्भ में संविधानवाद सम्राटों की शक्ति के प्रतिरोध के लिए विकसित किया गया। परन्तु यह शक्ति कुलीन वर्ग तक सीमित हो गई थी। निर्वाचनाधिकार और प्रतिनिध्यात्मक सरकार एवं संस्थाओं के विकास के बाद परिस्थिति आमूल परिवर्तित हुई। वर्तमान संविधानवाद का जनता के अधिकारों के विषय में कुछ महत्वपूर्ण समस्याओं का सामना करना शेष है तथा इसके लिए ही राजनीतिक शक्ति का विभाजन और वितरण आवश्यक माना गया है। इसके अतिरिक्त वर्तमान जनतंत्रीय राजनीतिक पद्धतियों में स्थापित प्रतिनिध्यात्मक सरकार की संस्थाएँ और उनकी कार्यविधियाँ अल्पमत के लिए यथोचित भी नहीं हैं; अतः उनमें सुधार आवश्यक हो सकता है। इसलिए भी कुछ विद्वान् राजनीतिक शक्तियों के विभाजन और वितरण को आवश्यक समझते हैं। इस प्रकार राजनीतिक शक्तियों का विभाजन और वितरण का सिद्धान्त संविधानवाद का महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक आधार बन गया है।
(4) मानवीय अधिकारों की सुरक्षासम्बन्धी सिद्धान्त
(Human Rights Theory)
संविधानवाद का महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक आधार मानवीय अधिकार से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्त हैं। वैसे विद्वानों में संविधान की परम्परा के संदर्भ में अधिकार के महत्व को लेकर बहुत मतभेद रहा है। ब्रिटिश तथा अमेरिकन संविधान में यह अंतर है कि ब्रिटिश संविधान नागरिकों के किसी विशेष अधिकार का संरक्षण नहीं करता किन्तु अमेरिकन संविधान में मूल अधिकारों की घोषणा कर दी गई है। इसके पश्चात् भी वर्तमान युग में ब्रिटिश परम्परा पर आधारित अधिकारों को उन देशों में भी मानवीय अधिकारों का मूल स्रोत माना जाता है, जिन देशों ने अपने संविधानों में नागरिकों के अधिकारों की लिखित घोषणा की है।
स्वेच्छाचारवाद के विरुद्ध संविधानवाद को विशिष्टता प्रदान करने में नागरिकों के अधिकार के उपभोग के संदर्भ में समानता एक महत्वपूर्ण तत्व बन गई। समानता के सिद्धान्त से यथोचित कानूनी शासन और सरकार की शक्तियों में जनता की सहभागिता की धारणाओं के मध्य सम्बन्ध स्थापित किया है। सर्वप्रथम अधिकारों की समानता राजनीति में सबको समान सुविधाओं के उपभोग को सम्भव बनाती है। दूसरे अर्थों में अधिकारों के उपभोग में नागरिकों की समानता की धारणा से नागरिक राज्य के विरुद्ध अपने दावे को व्यक्त करते हैं; परिणामस्वरूप राज्य स्वयं ही अपने सांस्थानिक समूहों द्वारा राजनीतिक तथा गैर-राजनीतिक, रीतियों द्वारा नियंत्रित होता है।
(5) परम्परावाद तथा सामाजिक बहुलवाद
(Traditionalism and Social Pluralism)
वर्तमान संविधानशास्त्री जनता के अधिकारों और अल्पमतों की सुरक्षा के लिए राजनीतिक शक्तियों के विभाजन तथा वितरण के अतिरिक्त अन्य उपायों पर भी बल देते हैं। ये अन्य उपाय परम्परा और सामाजिक बहुलवाद हैं। वर्तमान संविधानशास्त्रियों ने संविधान की परम्परा के विकास पर अधिक बल दिया है और बताया है कि इस परम्परा के बिना राजनीतिक सत्ताधारियों की शक्तियों पर प्रभावशाली नियंत्रण करना कठिन है। संविधानशास्त्रियों ने इस तथ्य को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हुए कहा है कि राजनीतिक शक्तियों की नियंत्रण से सम्बन्धित उपाय, जिनका विकास पश्चिमी जनतंत्रीय देशों में हुआ है, इनको लातीनी अमेरिका और अन्य विकासशील देशों में लागू किये गये हैं। परन्तु ये उपाय इन देशों में सांविधानिक परम्परा की कमी के कारण उपयोगी सिद्ध नहीं हुए।
राबर्ट हॉल तथा अन्य बहुलवादी विद्वानों ने संविधानवाद को वास्तविक जनतंत्रीय रूप देने के लिए एक निश्चित ‘सामाजिक संरचना’ को आवश्यक माना है। वास्तव में यह सामाजिक संरचना सामाजिक बहुलवाद का व्यक्त रूप है। इनमें एक समाज की कल्पना की गई है जिसमें विभिन्न सामाजिक वर्ग एक दूसरे से पृथक् तथा भिन्न होकर अपने हितों की पुष्टि करते हैं और सामान्य सामाजिक तथा राजनीतिका समस्याओं के समाधान में अपना योग देते हैं। इन विद्वानों के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका की राजनीतिक पद्धति एक आदर्श ‘सामाजिक बहुलवादी’ संरचना’ है।
संविधानवाद के उक्त आघारों के विश्लेषण के पश्चात् कहा जा सकता है कि संविधानवाद के अस्तित्व, विकास तथा व्यावहारिक उपलब्धियों के लिए उपयुक्त आधार अत्यधिक आवश्यक है।
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