‘तीसरी कसम’ का निबन्ध सारांश | ‘तीसरी कसम’ का निबन्ध सारांश अपने शब्दों में
‘तीसरी कसम’ का निबन्ध सारांश
प्रस्तुत रिपोर्ताज ‘तीसरी कसम’ की सूटिंग कमाल स्टूडियों में चल रही है। डायरेक्टर, प्रोड्यूसर तथा लेखक आदि सभी वही जमे हुए हैं। डायरेक्टर बाबू राम पहली नजर में लेखक को पहचानने से इन्कार कर देते हैं। बाद में पहचान कर उनसे गले मिलते हैं और उन्हें ददा कहत हैं। उसी समय स्टूडियों में डायरेक्टर बासु भट्टाचार्य का उच्च स्वर सुनाई पड़ता है ‘शैलेन्द्र………… उधर
देखो…..तुम्हारा गेस्ट।
एक और नौटंकी (दि ग्रेट भारत नौटंकी कंपनी) का सेट लगा हुआ है और स्टेज के पीछे करीब आधा दर्जन तंबू….तो, ‘लोकेशन’ देख आने का यह शुभ परिणाम है। हू-ब-हू वैसा ही स्टेज, जैसा पूर्णिया के गुलाबबाग मेले में प्रोड्यूसर , डायरेक्टर, कैमरामैन और असिस्टेंट्स देख आए हैं।
दूसरी ओर, गाड़ीवान, पट्टी के किनारे एक ‘टप्पर’ गाड़ी खुली पड़ी है। गाड़ी के पास, गोबर, गोमूत्र के कीचड़ में घुटना टेककर, भक्ति-भाव से गाड़ी की ‘बल्ली’ पर एक अभिनेता अपने हृदय की श्रद्धा बिछाये जा रहा है। ‘डॉयलॉग’ और ‘एक्शन’ का रिहर्सल कर रहा है, पलटदास? ……..तो यह उस समय की बात है जब ‘जनाना जात और रातवाली बात’ सोचकर हिरामन ने पलटदास को चेतावनी देकर भेजा था। लेकिन तुम वहाँ अपना भजन मत शुरू कर देना!’
………….लेकिन टप्परगाडी के अंदर तो सिर्फ एक तकिया चादर में लिपटा हुआ है और यह पलटदास उस तकिये को ही भक्ति-गद्गद स्वर में कह रहा है- ‘ए सीता मैया…….. सिया- सुकुमारी………..?
कैमरामैन सुब्रतबाबू घू-कुंचित करके एक ओर असंतुष्ट और तटस्थ खड़े थे, ‘मेला में हम जैसा फॉगी-ईवनिंग (कुहरा-भरी संध्या) देखा है वैसा इफेक्ट कहाँ………..?’
तीनों डायरेक्टर एक साथ चिल्ला उठे…. ए! चालू करो धूप……लोहबान डालो…….गुग्गुल!!
डाला………
तुरंत सुव्रत मित्रा के ‘मन के माफिक’ कुहरा-भरी साँझ (पवित्र सुगंधमयी संध्या) घिर आई…..गाड़ीवान पट्टी के उस कोने पर। ऐसे वातावरण में पीछे से एक भद्र महिला सिलेटी रंग की फूलदार साड़ी में ……..झुकी निहुरी (भले घर की बहू-बेटी जैसी) प्रकट हुई!……बासु भट्टाचार्य सेट पर ही नहीं……सेट के बाहर भी किसी बात पर तनिक अधिक जोर डालकर बोलते हैं और खास- खास मौके पर उनकी बात ‘दुधारी’ मार करती है। बोले, ‘देखुन राइटर साहब आपनार हीराबाई।’ (…..देखून हीराबाई!, आपनार राइटर साहब!)
हीराबाई टप्पर के अंदर जाकर बैठ गई। गाड़ीवान की ‘आसनी’ पर उसके दोनों पैर, पैरों में चाँदी के पाजेव, उंगलियों में चाँदी के छल्ले!……मुझे, न जाने क्यों ‘किसी प्रिय कवि’ की किसी कविता की एक पंक्ति , बार-बार याद आने लगी- ‘ये शरद के चाँद से उजले धुले से पाँव……!!’
उधर, पलटदारा इन चरणों की सेवा करने का आतुर, डायरेक्टर साहब पैरों के पोज एक लिए परेशान, कैमरामैन ‘फ्रेम और पोजीशन’ ठीक करने में व्यस्त और असिस्टेंट कांटीन्यूटी खोज रहे थे। और , मेरे पास बैठा हुआ गीतकार-प्रोड्यूसर शैलेंद्र, दूर से ही पैरों के रिदम की बात सोच रहा था। पौन घंटे के बाद सभी एक साथ संतुष्ट हुए और अब ‘संवाद’ और अभिनय का रिहर्सल शुरू हुआ।
‘क्या है? बोलो……..हाँ-हाँ कहो……. अरे क्या? बाजा बजाना चाहता है?’
‘जी…….चरण सेवा……आप सिया सुकुमारी ……में सेवक…..!
हीराबाई तमककर पैर छुड़ाती है, ‘अरे भाग!,…..= भाग जा यहाँ से।…..पलटदास देखता है….सिया सुकुमारी की आंखों में चिनगारी?
वह भागता है। हीराबाई मुस्कुराकर बुदबुदाती है, पागल! ‘ठीक है। रेडी फॉर टेक……।’
किन्तु, सुव्रत बाबू किसी कारणवश जरा ‘विव्रत’ हैं, ऐगिल ठो तो ठीक है लेकिन?…….अच्छा ठीक है, पलटदास का पीछू में माने ‘पेंदी’ में एक छ इंची का देना पड़ेगा!’
तीनों डायरेक्टर चिल्लाये, ‘लगाओ छै इंची’…… यह छै इंची क्या है राम? देखा, लकड़ी का एक पीढ़ा पलटदास के नीचे डाल दिया गया।
इसी बीच असिस्टेंट डायरेक्टर बासु चटर्जी ने मेरे पास आकर धीरे से कहा, ‘चलिए, जरा कैमरा के ‘व्यू फांइडर’ में आँखे सटाकर देखिए, तब पता चलेगा कि गाड़ी में कैसा ‘चम्पा का फूल!
इस प्रकार तीसरी कसम की सूटिंग चल रही है। टेक, रिटेक, एन जी ओक-आल, लाइट- बेबी-पंजा-कटार, एलकटर-नेट-फ्लोरा-जूम और छै इंची जैसे शब्दों का दौर चल रहा है। सूटिंग का आज तीसरा दिन है तीन तारे टूटने वाले हैं। पहला तारा अटरिया पर, दूसरा फुलबगिया में, और तीसरी बीच बजरिया में। सूटिंग की इसी क्रम में लेखक महादेय को किसी फुटबाल के मैच और उसके खिलाड़ियों की याद आ जाती है। सूटिंग चलती रहती है। लंच होता है। लंच के बाद लेखक महोदय के मित्र शैलेन्द्र जी कहीं चले जाते हैं इसी बीच लेखक के पास वहीदा रहमान की ‘हेयर ड्रेसर’ आकर बैठती है। जो लेखक महोदय से कहानी के विषय में पूछती है। लेखक महोदय और उसके बीच सम्वादों का चलता है जो इस प्रकार है-
उसने पूछा, “एक्सक्यूज मी….यह कहानी आपने लिखी है?……..
“जी हाँ।”
“और आप भी इस फिल्म में उतर रहे हैं।”
“नहीं तो?”
“ओ…….तो, फिर आपने ये बाल क्यों ‘उपजाये’ हैं? कोई धार्मिक कारण है या……?”
“थोड़ा धार्मिक और थोड़ा शौक भी!, गंजा होने के पहले एक बार बालों की बागवानी……?”
“नाइस…….कौन-सी क्रीम व्यवहार करते हैं?”
“पिछले तीस साल से कोई तेल या क्रीम कुछ नहीं डाला।”
भद्र महिला अचरज में पड़ गई, “सिर चकराता नहीं? केश झड़ते नहीं? रंग तो किन्तु…… !”
अंग्रेजी भाषा में दो-चार गज से ज्यादा बात करते मेरा दम फूलने लगता है। इसलिए मौका पाते ही सवालों का सूत्र मैंने अपने हाथ लिया, “आप स्टूडियों की ‘हेयर ड्रेसर’ हैं?”
“नहीं, सिर्फ (एक्सक्लूसिवली) वहीदा रहमान की।”
“ओ!”
“बेतरतीब होने के बावजूद, आपने बाल सुन्दर लगते हैं।…खूब घने हैं, नरम भी होंगे।”
(‘काले भी हैं। मैं कहना चाहता था।’)
……मेमसाहब के गंगा-जुमनीकेश पर नजर पड़ते ही मैंने बात बदल दी, “मैं बहुत दिनों से किसी ‘हेयर ड्रेसर’ की सलाह लेना चाहता था।”
वह हँसकर बोली, “हेयर ड्रेसर के अलावा मैं वेस्टर्न – म्यूजिक कपोज करती हूँ। मैंने अपना दो कंपोजीशन पर्ल बक को भेजा है। उन्होंने लिखा है, किसी फिल्म में उपयोग करेंगी।”
इस तरह बात केश-प्रसाधन से शुरू होकर पश्चिमी संगीत पर आई, फिर वहीदा रहमान की ओर मुड़ गई।
बस इसी प्रकार उठा पटक के बीच ‘तीसरी कसम’ की सूटिंग समाप्त हो जाती है। अन्त तक सूटिंग का न तो सिलसिला समझ में आता है और न ही कहानी ही। ‘येन-केन-प्रकारेण’ किसी प्रकार सूटिंग की बोरियत से लोगों को छुटकारा मिल जाता है।
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