इतिहास

टैगोर का मानवतावाद | टैगोर की धार्मिक और नैतिक अस्थायें | टैगोर के नैतिक एवं सामाजिक विचार | टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी विचार

टैगोर का मानवतावाद

टैगोर का मानवतावाद | टैगोर की धार्मिक और नैतिक अस्थायें | टैगोर के नैतिक एवं सामाजिक विचार | टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी विचार

टैगोर का मानवतावाद

टैगोर की धार्मिक आस्थायें और उनका प्रकृति प्रेम उनको मानवतावाद की ओर अग्रसर करता है। वे अपनी विचारधारा में भी अपने काव्य में भी एक मानवतावादी के रूप में उपस्थित होते हैं। उनके इसी पक्ष को देखकर गाँधी जी ने उनको ‘गुरुदेव’ की उपाधि से विभूषित किया था। उनके अनुसार जो सौंदर्य प्रकृति में है वही हमारे अंतःकरण में भी निहित है। केवल इस तथ्य को पहचानने की आवश्यकता है। जब हम इस सत्य को पहचान लेते हैं तो हमारे सारे संसार के प्राणियों में इसी का आभास मिलता है, यहाँ तक कि निर्जीव जगत् में भी यही सत्य विद्यमान है। ऐसी स्थिति में पारस्परिक भेदभाव के लिए कोई स्थान ही नहीं है। इस सत्य के प्रकाश में राष्ट्रवाद भी अपनी कोई अस्मिता नहीं रखता। ”वसुधैव कुटुम्बकम्’ ही एकमात्र सत्य है। इस प्रकार टैगोर के सौंदर्य-बोध की अंतिम परिणति मानवतावाद है। इसी अर्थ में सारे विश्व ने टैगोर को भारत के सांस्कृतिक-दूत (Cultural ambassador) के रूप में देखा। वास्तव में वे भारत की सांस्कृतिक आत्मा के अनन्य गायक थे। वही उनकी कविता का सच्चा अर्थ है। इसी अर्थ में वे विश्व-कवि के रूप में जाने जाते हैं।

टैगोर के मानवतावाद का ही स्वरूप उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों में देखा जा सकता है। उनकी समस्त धार्मिक तथा नैतिक आस्थायें इसी महान बिचार से अनुप्राणित हैं।

टैगोर की धार्मिक और नैतिक अस्थायें-

टैगोर एक धनाढ्य किन्तु सुसंस्कृत परिवार में पैदा हुआ थे, उनको जो कुछ भी विरासत में मिला उसको उन्होंने आत्मसात किया, किन्तु इतना ही, उनके लिए पर्याप्त नहीं था, उन्होंने उपनिषदों के, वेदान्त दर्शन का गहन अध्ययन किया। इस बौद्धिक दर्शन में कवित्व की खोज उनकी मौलिक उपलब्धि थी। यह कठिन है कि उन्होंने किस मनःस्थिति में यह खोज की, हमारे पास जो प्रमाण हैं वह उनकी कविता है। उन्होंने किस प्रकार इस विषय में सोचा होगा कहा नहीं जा सकता। वेदों में कविता खोजना तो आसान है। ऐसा कई बार किया भी गया है, किन्तु टैगोर की कविता पढ़ने से एक और बात का भी पता चलता है, कि सम्भवतः वे यह अनुभव करते थे कि जब वेद भी नहीं थे, तब शायद कविता थी। अगर कविता के तत्व सृष्टि में विद्यमान न होते हों ‘अज्ञात” अथवा ‘अदृश्य” की दार्शनिक अनुभूति भी न होती, असीम से, ससीम की ओर प्रवृत्त होना कविता की दृष्टि से इतना वाञ्छनीय नहीं है, जितना ससीम से असीम की ओर प्रवृत्त होना। ईश्वरानुभूति का एकमात्र मार्ग, सौंदर्यानुभूति है। ईश्वर है इसलिए प्रकृति है यह दार्शनिक तथ्य तो स्वयं सिद्ध है किन्तु  यह अवधारणा कि प्रकृति है, इसलिए ईश्वर है यह एक नया दृष्टिकोण है। इस तथ्य की अनुभूति या तो टैगोर में मिलती है या अंग्रेजी कवि वर्डसवर्थ में। जो सौंदर्य प्रकृति में है क्या वह वस्तु-परक है? क्या यह प्रकृति का अपना है? वह कौन सा तत्व है, वह कौन सी सत्ता है, जिसके सम्पर्क से या जिसके अनुग्रह (grace) से, यह सौंदर्य एक वास्तविकता है? यही प्रश्न टैगोर और वर्डसवर्थ दोनों की कविताओं में बार-बार उठाया गया है। सम्भवतः वर्डसवर्थ को इस प्रश्न का उत्तर उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि में नहीं मिला या नहीं मिल सकता था, किन्तु टैगोर को इस प्रश्न का उत्तर मिला, भारत के वेदान्त दर्शन में।

टैगोर की दार्शनिक आस्थायें, शंकर के अद्वैतवाद पर नहीं बल्कि रामानुज के विशुद्धाद्वैतवाद पर, आधारित हैं, इसी दार्शनिक परंपरा में, चैतन्य महाप्रभु भी हैं। कबीर रज्जब और दादू का भी प्रभाव, टैगोर पर है और इनके माध्यम से, शंकर द्वारा प्रणीत, अद्वैतवाद से भी, उनकी दार्शनिक आस्थाओं का आकलन किया जा सकता है किन्तु उनका प्रकृति-प्रेमी हृदय केवल उसी रहस्य को ग्रहण करता है, जिसकी अनुभूति सृष्टि के माध्यम से होती है, कभी-कभी वे मायावाद की ओर झुकते-प्रतीत होते हैं, किन्तु माया उनके लिए भ्रम (illusion) न होकर आनन्दानुभूति है। इस दृष्टि से वे कबीर की अपेक्षा, चैतन्य के अधिक समीप प्रतीत होते हैं, इसीलिए वे कहते हैं-अपने हृदय के द्वार बन्द मत करो-“Do not close up your heart.” “

प्रकृति-प्रेम की, इसी आस्था के आधार पर वे मानव-प्रेम और देश-प्रेम की भी अनुभूति ग्रहण करते हैं, मानव के अन्दर प्रेम ईश्वर का ही एक अंश है और प्रेम के विपरीत व्यवहार करना ईश्वर की अवहेलना करना है, प्रेम ही एक ऐसा तत्व है, जो मानव को मानव से जोड़ता है। हमारी समस्त बलवती शक्तियाँ इसी प्रेम-भावना की देन हैं, यही एक ऐसा तत्व है जो समस्त मानवता को जोड़ता है, विबिन्न देशवासियों में बाह्य अन्तर हो सकते हैं, राजनीतिक सामाजिक तथा आर्थिक विभिन्नतायें हो सकती हैं, किन्तु उनका हृदय-पक्ष सर्वदा एक होता है। इससे वह विदित होता है कि सभी मानव, चाहे वे जिस देश के भी वासी हों। एक ही ईश्वर की संतानें हैं और उनमें किसी भी प्रकार का आंतरिक भेदभाव नहीं हो सकता, जो भेदभाव बाह्य रूप से दिखाई पड़ते हैं वे मनुष्य के बनाये हुए हैं। इसलिए सारी, जातिगत या सम्प्रदायगत भावनायें, अप्राकृतिक हैं, मानव-हृदय की सबसे बलवती शक्ति प्रेम है और प्रेम, सारी मानवता से सम्बन्धित भावना है।

इसी मौलिक अवधारणा पर टैगोर का देश-प्रेम और उनका अन्तर्राष्ट्रीयतावाद अवस्थित है। वे पश्चिम के भौतिकवाद से दुःखी अवश्य थे और भारत की धार्मिकता को, अधिक महत्त्व देते थे किन्तु उनका दृष्टिकोण मानवतावादी था राष्ट्रवादी नहीं। उनको अपनी आस्थाओं का मूल स्त्रोत, भारत की धार्मिक और दार्शनिक परम्परा में दिखायी दिया, इसलिए वेगाँधी जी की ही भाँति, भारत की आस्थाओं के अधिक नजदीक दिखायी पड़ते हैं। भारत की राजनीतिक में जो भी भूमिका उन्होंने निभायी, उससे प्रकट होता है कि वे देश की पराधीनता से अत्यन्त संतप्त थे, उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम के संदर्भ कई गीत भी लिखे और यदा-कदा भाषण भी दिये, अपनी कई कविताओं में उन्होंने दासत्व की भावना से उद्भुत दुःख और चिन्ता की अभिव्यक्ति भी की है, किन्तु वे मानवता के धरातल पर भारतीय और विदेशी में अन्तर नहीं कर सकते थे। कई अवसरों पर गाँधी जी से उनका मत-वैभिन्य भी हो गया किन्तु वे यह कभी नहीं मानते थे कि भारतीयता का विकास पश्चिमी मूल्यों को पूर्णतया त्याग देने से ही सम्भव होगा।

टैगोर का लालन-पालन, ब्रह्म समाजी वातावरण में हुआ था। उनके पिता ब्रह्मसमाज के, आदर्शों पर आधारित व्यक्तिवाद के समर्थक थे। टैगोर की विचार पद्धति पर इन आदर्शों का सीधा प्रभाव पड़ा था। वे तर्कबुद्धि से समस्याओं को समझने का प्रयास करते थे, किन्तु वे ब्रह्मसमाज की नीरस तर्कवादिता से पूर्णतया सहमत नहीं थे। उनका दृष्टिकोण उनकी सौंदर्य- भावना पर अवस्थित था। कोरा बौद्धिक तर्क उनको संतुष्ट नहीं कर सकता था, इसी कारण वे अन्य ब्रह्म समाजियों से भिन्न प्रतीत होते हैं, वे उनकी कई मान्यताओं का समर्थन करते हैं, वे उन्हीं की भाँति हर प्रकार की संकीर्णता के विरोधी हैं, कर्मकाण्ड में उनकी रुचि नहीं थी और वे जातिवाद के भी खिलाफ थे, किन्तु उनकी आध्यात्मिक आस्थायें ,इन समस्याओं से उलझती नहीं है, वे इन समस्याओं को, महज एक समय विशेष में उपजी विकृतियाँ ही मानते हैं, ये समस्यायें जटिल हैं, इनके समाधान ढूँढ़े जाने चाहिए, किन्तु इन्हीं के पीछे पूरी तरह जुट जाने से अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य छूट सकते हैं, जातिप्रथा का अंत होना चाहिए, किन्तु हमारी मौलिक चिन्ता, जातिप्रथा का उन्मूलन मात्र न होकर एक मानववादी दृष्टि का, प्रचार-प्रसार होना चाहिए, हम इसकी आलोचना केवल इसलिए न करें कि इससे हमारी आर्थिक व्यवस्था छिन्न- भिन्न होती है, हम इसकी आलोचना इसलिए भी करें क्योंकि यह मानव-मूल्यों के प्रतिकूल हैं

टैगोर के नैतिक एवं सामाजिक विचार-

एक रहस्यवादी कवि होते हुए भी टैगोर राजनीति और समाज की समस्याओं से जुड़े रहे। प्रत्यक्ष रूप से राजनीति के क्षेत्र में कभी भी सक्रिय नहीं रहे, किन्तु उनके विचारों का प्रभाव गाँधी तथा नेहरू जैसे राजनीतिज्ञों के ऊपर पड़ा और दोनों ने ही उनकी भावनाओं का सम्मान किया।

टैगोर के, राजनातिक जीवन का प्रारम्भ 1888 से माना जा सकता है, जब कलकत्ता में सम्पन्न, अखिल भारतीय कांग्रेस सम्मेलन में उन्होंने भाग लिया और एक कविता का पाठ भी किया। इस कविता में उन्होंने अपने कवि से जागृत होने का अनुरोध किया है। वे कहते हैं कि यहाँ सब भाई-भाई की हैसियत से, इकट्ठा हुए हैं ताकि वे एक सामूहिक ध्येय की ओर अग्रसर हो सकें। उन्होंने भारत की गरीबी और दरिद्रता को बहुत समीप से देखा और उसके निराकरण के मार्ग सुझाये। उन्होंने कहा कि उन्नति का एकमात्र मार्ग पारस्परिक सहयोग है। भारत की पराधीनता का मुख्य कारण गरीवी है और गरीबी को हटाने का एक मात्र उपाय है सहयोग।

टैगोर भी गाँधी और नेहरू की भाँति, विश्व शांति के प्रबल समर्थक थे, उनका मत था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को, एक अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ मिलना चाहिए। विश्व की भलाई इसमें नहीं है कि हर देश हथियारों के बल पर अपनी-अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास करे, ऐसा करने से तो विनाश का मार्ग ही प्रशस्त होगा। संसार के प्रत्येक व्यक्ति को यह महसूस करवाना आवश्यक है कि विश्व-शांति एक अनिवार्य आवश्यकता है, इसी विचार की वजह से टैगोर भारत की स्वतन्त्रता के पक्षधर होते हुए भी संकीर्ण राष्ट्रवाद की बात नहीं कर सके। उनकी मूल चिन्ता थी मानव की सार्वभौमिक गरिमा। वे अंग्रेजी-शासन के विरोधी थे, किन्तु उन्होंने अंग्रेजों की अपेक्षा कहीं अधिक भारतवासियों को ही उत्तरदायी माना। उनका कहना था कि हम अपने परिष्कार के लिए, अंग्रेजी राजसत्ता या किसी भी राजसत्ता पर क्यों निर्भर रहें। हमारा  सीधा सरोकार सरकारी तन्त्र से नहीं, अपने समाज से है। समाज को बनाने या बिगाड़ने का उत्तरदायित्व हमारा अपना है। अगर हम व्यक्ति गरिमा पर आधारित समाज की संरचना कर सकें तो कोई विदेशी शक्ति हमको दबा नहीं सकती, आध्यात्मिकता के स्तर पर, हम अंग्रेजों से बैरभाव रखने के अधिकारी नहीं हैं न ही हम हिंसक आंदोलनों के माध्यम से अंग्रेजों को भगा सकते हैं।

टैगोर की राजनैतिक धारणाओं के विषय में पूर्णरूप से कुछ कह सकना शायद आसान नहीं है। उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग लिया ही नहीं। इसके क्या कारण हो सकते हैं? वे समसामयिक राजनीति के हर क्षेत्र में एक जाने-माने हस्ताक्षर थे और उनका समुचित आदर होता था। फिर भी उन्होंने यह आवश्यक क्यों नहीं समझा कि वे राजनीति में प्रत्यक्ष रूप से कूद जायें? इसके मुख्य दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि टैगोर मूलतः एक रहस्यवादी कवि थे और उनकी प्रतिभा अंतर्मुखी थी जो राजनीति जैसे विषय में पूर्ण रुचि नहीं ले सकती थी, दुसरा कारण यह हो सकताहै कि वे सम्भवतः राजनीति को मानव-जीवन का.मुख्य ध्येय नहीं समझते थे। हम जब उनके राजनीतिक विचारों की चर्चा करते हैं तो हमें इन विचारों का कई स्थानों से संकलन करना पड़ता है या किसी हद तक विश्वसनीय नतीजे निकालने का प्रयास करना पड़ता है। उदाहरणार्थ, उन्होंने राज्य की सत्ता को पूरी तरह से नकारा तो नहीं है किन्तु उसके महत्त्व को पूर्णरूपेण स्वीकार भी नहीं किया है। इसी प्रकार वे देश-प्रेम की भावना से अछूते नहीं थे और उन्होंने बार-बार इसकी उपयोगिता की बात की है, किन्तु उसके साथ ही यह भी माना है कि राष्ट्रवाद की भावना. संकीर्णता की ओर ले जाती है और हमारा मुख्य ध्येय राष्ट्रवाद नहीं अंतर्राष्ट्रीयवाद होना चाहिए। उसी प्रकार उन्होंने लोकतांत्रिक पद्धति को सही माना है, किन्तु यह भी कहा है कि विना सामाजिक-समानता के इस पद्धति का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

टैगोर उस हर भावना के विरोधी थे, जो अंतर्राष्ट्रीयता के विरुद्ध हो, यही कारण है कि वे गाँधी द्वारा संचालित असहयोग-आन्दोलन के विरुद्ध थे, भले ही शुरू के कुछ वर्षों में उन्होंने इसका समर्थन किया था। उनका मत था कि असहयोग, देश के नैतिक चरित्र को हानि पहुँचा सकता है। आज के सन्दर्भ में इसका अर्थ है अंग्रेजी सरकार से असहयोग, किन्तु भविष्य में यह एक राष्ट्रीय वृत्ति बन सकती है, जो विश्वशांति और विश्वमैत्री के सिद्धान्तों के विरुद्ध चली जायेगी। गाँधी के विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के सम्बन्ध में भी वे पूर्णतया सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि आज जो आन्दोलन वस्तुओं के बहिष्कार तक ही सीमित हैं वह विदेश की अनेक अच्छी वस्तुओं के बहिष्कार की दिशा में भी जा सकता है। इससे जिस असहिष्णुता का जन्म होगा वह हमारे हित में नहीं होगा। ऐसा लगता है कि वे गाँधी के राजनैतिक कार्यक्रम के बहुत प्रशंसक नहीं थे, वे सम्भवतः यह नहीं चाहते थे कि गाँधी जैसा सत्यनिष्ठ व्यक्ति राजनीति के झंझट में फंसे, वे गाँधी के कई कार्यक्रमों को सामयिक अवश्य मानते थे किन्तु सनातन नहीं, वे गाँधी द्वारा की गई विदेशी शिक्षा-पद्धति की निन्दा को भी सही नहीं समझते थे, उनका कहना था कि पश्चिम की अवधारणाओं से, हम लाभ उठा सकते हैं, उनके पास बहुत कुछ ऐसा भी है जो सम्भवतः हमारे पास नहीं है। उनके संसर्ग में, हमने एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एहसास किया है और कई ऐसे सिद्धान्त, जिनसे आज हमारा सहज-परिचय है, पश्चिमी शिक्षा की देन है। किन्तु हम इसम कुछ जाड़ भी सकते हैं। बहिष्कार की भावना हम अपूर्णता की ओर ले जायेगी और हमारे विचार एकांगी हो जायेंगे। इसलिए समय की आवश्यकता यह है कि पूर्व और पश्चिम की मान्यताओं का समन्वय किया जाय, यही स्थिति अंतर्राष्ट्रीयतावाद की ओर, एक सही कदम हो सकती है। वे जापान की प्रगति से परिचित थे। और चाहते थे कि भारत भी उन्हीं के साम्यवादी दृष्टिकोण को अपनाये। वे पश्चिम का तिरस्कार नहीं करना चाहते थे। सांस्कृतिक क्षेत्र में वे संकीर्ण राष्ट्रवाद के समर्थक नहीं थे, वे समन्वयवादी थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण टेगोर द्वारा स्थापित विश्वभारती है।

टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी विचार-

टैगोर एक महान कवि, सुधारक तथा सामाजिक और राजनैतिक चिन्तक होने के अतिरिक्त एक महान् शिक्षाविद् भी थे। शिक्षा एक ऐसा विषय है जिसका क्षेत्र केवल किसी राष्ट्र-विशेष तक ही सीमित नहीं होता। शिक्षा का महत्त्व सार्वभौमिक है, और इसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य के मस्तिष्क और उसके हृदय से है। शिक्षा व्यक्ति की गरिमा की पोषक तथा मानवता के आत्मिक पक्ष की परिचायक है। शिक्षा के ही द्वारा हम किसी व्यक्ति या समाज की उन्नति या अवनति की पहचान करते हैं। कोई देश, कितना स्वतन्त्र है इसका अन्दाजा भी इसी बात से लग सकता है कि उस देश के लोग शिक्षित है अथवा नहीं और अगर साधारण अर्थ में, शिक्षित हैं भी तो वास्तव में मानव-संस्कृति के वाहक के रूप में अपने को प्रस्तुत कर सकते हैं कि नहीं। टैगोर अपने काव्यात्मक अंतर्मुखी प्रतिभा के कारण सहज ही शिक्षा के प्रश्न को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानते थे और इसकी विशद् व्याख्या उन्होंने की है।

टैगोर के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों का श्रीगणेश 1892 से माना जाना चाहिए, इसी वर्ष उन्होंने शिक्षा हेरफेर” नामक पुस्तक लिखकर समकालीन शिक्षा प्रणाली के दोषों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। सन् 1901 में उन्होंने “शांतिनिकेतन” नामक विद्यालय की स्थापना की और नयी शिक्षा पद्धति की नींव डाली। 1921 में “विश्व भारती” विश्वविद्यालय की नींव पड़ी और आज भी यह विश्वविद्यालय देश में ही नहीं विदेशों में भी प्रसिद्ध है।

टैगोर के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का प्रारम्भ, समकालीन शिक्षा-व्यवस्था की आलोचना से होता है। अंग्रेजों द्वारा थोपी गई, शिक्षा व्यवस्था को वे महज एक बन्धन और अनुपयोगी मानते थे, शिक्षा का उद्देश्य केवल यह नहीं है कि विद्यार्थी, अपने मस्तिष्क को अनावश्यक सूचनाओं से भरता चला जाय। शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है-अपनी प्रतिभा की पहचान । अपनी दार्शनिक आस्थाओं के आधार पर उन्होंने कहा कि, शिक्षा का मूल उद्देश्य है आत्म-साक्षात्कार, अपने को पहचानना इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा के माध्यम से, व्यक्ति बाहय जगत से तादात्म्य स्थापित करता है। उनके शब्दों में-‘सबसे श्रेष्ठ शिक्षा यह है जो सूचना मात्र नहीं बल्कि विश्व के साथ व्यक्ति का सामंजस्य स्थापित करती है।” (The highest education is that which does not give us more information but makes our life in harmony with all existence)| शिक्षा का उद्देश्य कितना महान् है। वह कहने की आवश्यकता नहीं है, अपने आप की पहचान तो आवश्यक है ही, इसके अतिरिक्त अपने को दूसरों से जोड़ना भी आवश्यक है।कुएं का मेंढक, आत्मसंतुष्टि का अनुभव कर सकता है, किन्तु उसको इस बात का कोई अनुभव ही नहीं होता कि मुक्त वातावरण में साँस लेने से कैसा अनुभव होता है। शांतिनिकेतन और विश्वभारती की स्थापना इसी भावना से की गई थी। हम अपने साहित्य धर्म, संस्कृति, दर्शन आदि की जानकारी तो प्राप्त कर ही साथ में यह भी जानकारी उपलब्ध करें कि हमारी संस्कृति के बाहर क्या और कैसा है, इन दोनों के समन्वय से ही हम समग्र-दृष्टि उत्पन्न कर सकते हैं।

टैगोर ने शिक्षा के क्षेत्र में जो योगदान दिया उसके विषय में किसी उद्देश्य की गुंजाइश नहीं है, किन्तु यह मानना पड़ेगा कि उनकी शैक्षिक अवधारणा एक प्रयोग थी। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे संदेह की अवस्था में कोई प्रयोग कर रहे थे, इसका अर्थ सिर्फ इतना ही है कि किसी भी महान् कार्य की उपलब्धि का निर्धारण, भविष्य करता है। टैगोर नै जिस व्यवस्था की शुरुआत की थी उसमें कुछ ही समय बाद विकृतियाँ आने लगीं। आज विश्वभारती में भी. शांति निकेतन के सिद्धान्तों का वह आदर नहीं किया जा रहा, जो अपेक्षित है। सम्भवतः आज एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है, जो गुरुदेव के आदर्शों को पुनर्स्थापना कर सके। जो प्रयोग टैगोर ने किया था, उसका सार्वभौमिक महत्त्व स्वीकार किया जाना चाहिए।

टैगोर के लेख “शिक्षार मिलन” से भी उनके शिक्षा सम्बन्धी विचारों का परिचय मिलता है। वे मानते हैं कि शिक्षा का मूल उद्देश्य सामाजिक तथा धार्मिक संकीर्णताओं से ऊपर उठना है। शिक्षा की व्यक्ति के जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। व्यक्ति की आत्मा का परिष्कार तभी सम्भव है जब उसको उच्च शिक्षा दी जाय। वह इस योग्य बन सके कि अपने को पहचान सके। अपने को पहचानने की इसी क्षमता में उसका भविष्य निर्भर है। यह पहचान तभी हो सकती है जब व्यक्ति को स्वतन्त्र रूप से विचरण करने का अवसर मिले। ज्ञान का भंडार उसके मस्तक पर लादा न जाय बल्कि उसको ऐसे अवसर प्रदान किए जायें कि वह सहज रूप से बाह्य जगत को समझने के लायक हो जाये।

शिक्षा के उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है कि शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि मानव सार्वभौमिकता के मार्ग पर अग्रसर हो। उनका मत था कि शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रवादी अहंकार का निराकरण स्वतः ही हो जाता है और व्यक्ति मानवता के सार्वभौमिक मूल्यों को समझने लगता, उनके मतानुसार शिक्षित होने का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति (हम) अपनी संकीर्ण वृत्तियों के पोषण में संलग्न हो जाये, शिक्षा तो आत्मा के परिष्कार का साधन है और आत्मा का परिष्कार तभी संभव है जब हम शिक्षा को सही दिशा की ओर मोड़ सकें, इसी बिन्दु से टैगोर का वर्तमान शिक्षा पद्धति पर असंतोष की शुरुआत होती है, हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमको न आत्मा के परिष्कार की दिशा में ले जाती है न ही हमको मानवता को सही अर्थ में समझने का अवसर देती है, यह तो मात्र एक ऐसा तन्त्र बनकर रह गया है जिसके माध्यम से हम अनावश्यक सूचनायें इकट्ठा करते रहते हैं।

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Pankaja Singh

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