इतिहास

ताम्रपाषाणिक संस्कृति | कुछ प्रमुख ताम्र पाषाणिक संस्कृतियाँ | ताम्रपाषाणिक संस्कृति का महत्व | ताम्रनिधियाँ और गैरिक मृद्भाण्ड | भारतीय संस्कृति के विकास में ताम्रपाषाणिक संस्कृति का महत्व

ताम्रपाषाणिक संस्कृति | कुछ प्रमुख ताम्र पाषाणिक संस्कृतियाँ | ताम्रपाषाणिक संस्कृति का महत्व | ताम्रनिधियाँ और गैरिक मृद्भाण्ड | भारतीय संस्कृति के विकास में ताम्रपाषाणिक संस्कृति का महत्व

ताम्रपाषाणिक संस्कृति

नव पाषाण काल को दो चरणों गैरमृद्भाण्ड और मृद्भाण्ड काल में विभाजित किया जाता है। मृद्भाण्ड नवपाषाण काल के अन्त में धातु का प्रयोग आरम्भ हुआ। प्रागैतिहासिक मानव द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली पहली धातु ताँबा थी। इस चरण में ताँबे के औजारों के साथ पत्थर का प्रयोग जारी रहा। इसी कारण इसे ताम्रपाषाणिक संस्कृति अथवा कैल्कोलिथिक कल्चर कहा जाता है। साथ ही इसे नवपाषाण, ताम्रपाषाण या पाषाण तामचरण के नाम से भी जाना जाता है। ताँबे के प्रयोग और उसके लाभों का विवेचन बी0 जी0 चाइल्ड ने अपनी पुस्तक “What Happened in History’ में किया है। तकनीकी दृष्टि से इस चरण को प्राक्-हड़प्पाई लोगों पर लागू किया जाता है, लेकिन अनेक ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ हड़प्पा संस्कृति के अन्त के बाद भी कुछ महत्वपूर्ण स्थानीय भिन्नताओं के साथ जारी रहीं। इन संस्कृतियों में मुख्य रूप से पत्थर एवं ताँबे का प्रयोग किया गया, तथापि कहीं-कहीं काँसे का प्रयोग मिलता है।

कुछ प्रमुख ताम्र पाषाणिक संस्कृतियाँ

(क) दक्षिण-पूर्व राजस्थान

इस क्षेत्र की ताम्रपाषाण संस्कृति को बनास नदी के नाम पर बनास संस्कृति की संज्ञा दी गई। इस संस्कृति की मुख्य विशेषताओं को दर्शाने वाले स्थल आहाड़ के नाम पर इसे आहार संस्कृति भी कहा जाता है। आहार संस्कृति के तीन चरण हैं A, B और C। इनके काल क्रमशः 2580 ई० पू०, 2080 ई0 पू0 और 1500 ई० पू० निर्धारित किये गये हैं।

आहार का प्राचीन नाम ताम्बवती अर्थात ताँबे वाली जगह है, क्योंकि यहाँ पत्थर की जगह ज्यादातर ताँबे के औजार प्राप्त हुए हैं। यहाँ से काले और लाल मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं, जिन्हें सफेद रैखिक चित्रों से सजाया गया है। गोड़ीदार तस्तरियाँ भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुई है। यहाँ से पालतू भैसे, बकरियाँ, भेड़ें और सुअर के प्रमाण मिले हैं। चावल, ज्वार, बाजरे आदि की खेती की जाती थी। यहाँ के घरों की दीवारें पत्थर और मिट्टी की या मिट्टी की अनपकी ईंटों की बनी होती थीं।

आहार के उत्तर-पूर्व स्थित गिलुण्ड में घरों के ढांचों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ पत्थर के फलकों का उद्योग भी प्राप्त हआ है। वालाथल से भी ताँबे और पत्थर के औजार तथा लाल और काले मृद्भाण्ड प्राप्त हुए

हैं।

(ख) मालवा

यहाँ ताम्रपाषाणिक संस्कृति मूलतः नर्मदा घाटी में विकसित हुई। यहाँ के प्रमुखस्थलों में कैथा, एरच, नगदा, नवदाटोली आदि हैं। ये सभी स्थल पश्चिमी मध्य प्रदेश में मिलते हैं।

उज्जैन के निकट छोटी काली सिन्ध के किनारे कैथा का उत्खनन दो बार हुआ है और वहाँ ताम्रपाषाणिक बस्ती के तीन चरणों का पता चला है। बस्ती का प्रारम्भिक काल 2400 ई० पू0 और 2120 ई० पूर्व के मध्य निर्धारित किया गया। दूसरा काल 2100 ई0 पू0 और 1800 ई0 पू0 के बीच जबकि तीसरा 1800 ई0 पू0 से 1500 ई0 पू0 के बीच। कयथा संस्कृति हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन मानी जाती है। कयथा के एक घर में ताँबे के 29 कंगन और दो अद्वितीय ढंग की कुल्हाड़ियाँ पाई गई हैं। इसी स्थल से स्टेटाइट और कैमेलियन जैसे उत्कृष्ट पत्थरों की गोलियों के हार पात्रों में जमा पाये गये हैं। इससे पता चलता है कि इस संस्कृति के लोग अमीर थे। कयथा संस्कृति की कई बस्तियाँ किला-बन्द हैं।

नर्मदा के दक्षिणी तट पर स्थित नवदाटोली में ताम्रपाषाण बस्तियों के चार चरण प्राप्त हुए हैं जिनका काल 2020 ई0 पू0 से 1660 ई0 पू0 के बीच पड़ता है। यहां की मुख्य विशेषता चित्रित काले व लाल मृद्भाण्ड हैं। ये एक विशिष्ट प्रकार के लाल पालिश वाले मृद्भाण्ड हैं जिन्हें काले रंग के चित्रों से सजाया गया है। इन्हें मालवा मृद्भाण्ड की संज्ञा दी गई है। मालवा मृद्भाण्डों को सभी ताम्रपाषाणिक मृदभाण्डों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। मालवा संस्कृति के लोग कताई और बुनाई में भी दक्ष थे, क्योंकि वहां चरखे ओर तकलियां भी प्राप्त हुई है।

मालवा किस्म की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ बेतवा नदी के किनारे एरण और जबलपुर के निकट त्रिपुरी में भी पाई गई है। नवदाटोली का उत्खनन दक्खन कालेज पूना के प्रो0 एच0 डी0 सांकलिया ने किया है और यह स्थल इस महाद्वीप का सबसे विस्तृत उत्खनित ताम्रपाषाण युगीन ग्राम स्थल है।

(ग) महाराष्ट्र

महाराष्ट्र के अनेक स्थलों से ताप्रपाषाण यगीन जीवन-यापन का साक्ष्य प्राप्त हुआ है। यहाँ के महत्वपूर्ण स्थल हैं-अहमदनगर जिले में स्थित जोर्वे, नेवासा और दैमाबाद तथा पुणे जिले में चन्दोली सोनगांव, इनामगांव, प्रकाश और नासिक। यहाँ के स्थलों में गोदावरी के तट पर स्थित दैमाबाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण और बड़ा स्थल है। यह लगभग 20 हैक्टेयर क्षेत्र में फैला है जिसमें 4000 लोग रह सकते थे। यहाँ ताँबे के साथ-साथ बड़ी संख्या में काँसे की वस्तुयें प्राप्त हुई हैं। यहाँ से ताँबे की चार प्रमुख वस्तुयें मिली हैं रथ चलाते हुए मनुष्य, साड़, गैंडे और हाथी की आकृतियां जिनमें प्रत्येक ठोस धातु की हैं। यहाँ से जौ, गेहूं, मसूर, कुल्थी, मटर और कहीं- कहीं से चावल प्राप्त हुए हैं। वेर की झुलसी हुई गुठलियां भी मिली हैं। फालतू बनाए गए पशुओं में गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर और घोड़ा शामिल हैं मृण्मूर्तियों में मातृदेवी के अनेक रूप मिलते हैं। मातृ देवी की एक आकृति सांड़ की आकृति के साथ जुड़ी हुई मिली हैं। यह कच्ची मिट्टी की है। यहाँ से बहुत सारे कलश शवाधान प्राप्त हुए हैं। ये कलश घरों के फर्श के नीचे रखे मिले हैं। कुछ अस्थियों से वयस्कों एवं बच्चों के दन्तक्षरण रोग का तथा शिशुओं में होने वाले स्कर्वी रोग का पता चलता है। काले पालिश युक्त या हल्के पाण्डुरंग वाले मृद्भाण्ड इस संस्कृति की अभिलक्षक विशेषताएं हैं।

इनामगांव में जोर्वे संस्कृति चरण की सबसे अधिक व्यापक तस्वीर उभरती है। यहाँ से चूल्हों सहित बड़े-बड़े कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकार गड्ढों वाले मकान मिले हैं। यहीं से बाद की अवस्था में (1300 ई0 पू0 से 1000 ई0 पू0) पाँच कमरों वाला एक मकान मिला है। इनाम गांव ताम्रपाषाण काल की एक बड़ी बस्ती थी। इनमें सौ से भी अधिक घर और कमरे पाये गये हैं। यह बस्ती किला-बन्द है और खाई से घिरी हुई है। इनाम गांव में शिल्पी पश्चिमी छोर पर रहते थे जबकि सरदार प्रायः केन्द्र स्थल पर रहता था। इससे निवासियों के बीच सामाजिक दूरी जाहिर होती है।

जोर्वे संस्कृति के लोगमृतक को अस्थि कलश में रखकर अपने घरकी फर्श के अन्दर उत्तर दक्षिण स्थिति में गाड़ते थे। कब्र में मिट्टी की हाड़ियां और ताँबे की कुछ वस्तुयें भी रखी जाती थीं जो परलोक में मृतक के इस्तेमाल के लिए होती थीं।

(घ) दक्षिण भारत

इस क्षेत्र में स्थित ग्राम्य जीवन की आधार रेखा नव पाषाण संस्कृति से प्राप्त होती है जिसके परवर्ती चरणों में कुछ ताम्रपाषाण तत्वों का संकेत मिलता है। यहाँ के प्रमुख स्थल हैं- ब्रह्मगिरि, मस्की, पिपलीहल, उतनूर, संगनकल्लू, पैयमपल्ली, हेम्मिणे, नागार्जुनकोण्डा, कोडेक्कल इत्यादि। दक्षिण भारत के स्वर्ण क्षेत्र का उपयोग इसी काल में हुआ। खेती की फसलों में बाजरा और चना मिला है। यहाँ कृषक की अपेक्षा चरवाहा संस्कृति का अधिक प्रमाण मिलता है। ये लोग अपने मवेशियों को घरों के बाहर बाँध देते थे तथा उसमें लकड़ी के डन्डों की बाड़ लगा दी जाती थी। बाड़ के भीतर जो गोबर इकट्ठा होता था, उसे प्रति वर्ष बाड़ के डन्डों के साथ जला दिया जाता था। फलस्वरूप, वहाँ राख का एक टीला बन गया; इन टीलों को भस्मटीले (Ash mounts) कहा जाता है।

ताम्रपाषाणिक संस्कृति का महत्व

परवर्ती काल में भारतीय संस्कृति के विकास के क्रम में ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों का बहुत महत्व है। संपूर्ण भारत में ग्रामीण कृषक समुदायों का गठन इसी काल में हुआ। इसी काल में आधुनिक भारतीय ग्रामीण समाज की नींव पड़ी। आधुनिक कर्मकाण्ड और आचार व्यवहारों का  ढाँचा भी इसी काल की देन है। इस काल की शव संस्कार विधियाँ भिन्न-भिन्न थीं। महाराष्ट्र में मृतक उत्तर-दक्षिण दिशा में रखा जाता था, किन्तु दक्षिण भारत में पूरब-पश्चिम दिशा में। पश्चिमी भारत में लगभग सम्पूर्ण (विस्तीर्ण) शवाधाने प्रचलित था, जबकि पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान (फ्रक्सनल वेरियल)।

इन ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों की सबसे प्रमुख विशेषता है उनके विशिष्ट प्रकार के चित्रित मृदभांड कायथा संस्कृति अपने उन मजबूत लाल लेप वाले मृदभांडों के लिए प्रसिद्ध है, जिन पर चाकलेटी रंग से तरह-तरह के चित्र बने हुए हैं। इस संस्कृति की एक अन्य विशेषता है लाल रंग से चित्रित पाण्डुभांड़। आहार संस्कृति वाले लोग काले-लाल रंग के बर्तन बनाते थे जो सफेद डिजाइनों से सजे होते थे। मालवा के बर्तन बनावट में कुछ अनघड़ हैं लेकिन उन पर मोटा लेप लगा है जिसकी सतह पर लाल या काले रंग में डिजाइन बने होते हैं। प्रभास और रंगपुर के मिट्टी के बर्तन हड़प्पा संस्कृति से लिए हुए है, लेकिन उनकी सतह चमकदार है जिसकी वजह से उन्हें चमकीले लाल भांड भी कहा जाता है। जोर्वे के भांड लाल पर लाल पर काले रंग से रंजित है। लेकिन उनकी तह धुंधली या खुरदरी है इन मृदभांडों में साधारण तस्तरियां टोंटीदार कलश डंडीदार चषक (प्याले) साधारण कटोरे, बड़े संचय पात्र और टोंटीदार पात्र एवं कटोरे।

ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के लोग नरकुल और मिट्टी के गारे से आयताकार और वृत्ताकार घर बनाते थे। गेहूँ और जौ की खेती मालवा क्षेत्र में की जाती थी। चावल इनामगाँव और आहार के खुदाई स्थलों से पाया गया है। ये लोग ज्वार और बाजरा भी उगाते थे और कुल्थी, रागी, हरे मटर, मसूर और हरे व काले चनों की खेती करते थे। ये लोग आपस में व्यापारिक क्रिया- कलापों से जुड़े थे। कंगन-चूड़ियाँ बनाने के लिए सीपियां व कौड़ियां सौराष्ट्र के समुद्र तट से व्यापार के जरिये अन्य ताम्र-पाषणिय क्षेत्रों को भेजी जाती थी। इसी प्रकार सोना और हाथी दांत भी टेक्कल कोट्टा (कर्नाटक) से जोर्वे संस्कृति वाले लोगों के पास आया होगा। इसी प्रकार राजपिपला (गुजरात) से उपरत्नों का व्यापार भी विभिन्न क्षेत्रों के साथ होता था।

धर्म के द्वारा सभी ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ आपस में जुड़ी थी, उनमें मातृ-देवी और वृषभ की पूजा प्रचलित थी। मालवा में वृषभ पूजा का बोलबाला था। दैमाबाद से प्राप्त एक पात्र पर की गई चित्रकारी में एक देवता को वाघों जैसे जन्तुओं और मोर जैसे पक्षियों से घिरा हुआ दिखाया गया है। कुछ विद्वान इसकी तुलना शिव-पशुपति से करते हैं। उत्तर कालीन जोर्वे संस्कृति के स्थल इनामगांव के पुरास्थल पर अनेक शिरकटी छोटी-छोटी मूर्तियाँ मिली हैं, उनकी तुलना महाभारत की देवी ‘विशिरा’ से की गई है। बड़ी संख्या में अग्निकुंड के मिलने से अग्नि पूजा का अनुमान लगाया जाता है।

ताम्र-पाषाण युगीन कृषकों ने मिट्टी और धातु की प्रौद्योगिकी में पर्याप्त प्रगति कर ली थी। उनके द्वारा चित्रित भांड बहुत अच्छे बनाये और आग में पकाये जाते थे। उनके भट्ठे की आग का तापमान 500° से 700°C तक होता था। धातु के औजारों में हम कुल्हाड़ियाँ, छेनियाँ, कड़े, मनके, कांटे आदि पाते हैं। जो अधिकतर तांबे के बने होते थे। सोने के आभूषण बहुत ही दुर्लभ थे और केवल जोर्वे संस्कृति में ही पाये गये हैं।

ताम्रनिधियाँ और गैरिक मृद्भाण्ड

सर्वप्रथम 1822 में कानपुर के जिले विठूर से तांबे के कांटेदार बरछे प्राप्त हुए। तब से लेकर आज तक लगभग एक हजार तांबे की वस्तुयें भारत के विभिन्न भागों में 90 पुरा स्थलों से प्राप्त हो चुके हैं। चालीस से अधिक ताम्रनिधियाँ जिनमें अंगूठी, कुठारी, खड्ग, हारपून दुसिंगी तलवारें, मानवाकृतियाँ आदि शामिल हैं, पूरब में बंगाल और उड़ीसा से, पश्चिम में गुजरात और हरियाणा तक तथा दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश से उत्तर में उत्तर प्रदेश तक के विशाल भू भाग में बिखरी पाई गई है। सबसे बड़ी निधि मध्य प्रदेश के गुंगेरिया से प्राप्त हुई है। इसमें 424 ताँबे के औजार और 102 चाँदी के पतले पत्थर हैं, लेकिन इन ताम्रनिधियों में से लगभग आधी गंगा यमुना दोआब में केन्द्रित हैं। इन ताम्रनिधियों‌ का सम्बन्ध कभी-कभी गैरिक मृद्भाण्ड (O.C.P.) से भी लगाया जाता है। यह एक लाल अनुलेपित भाण्ड है जो अक्सर काले रंग से रंगा रहता है और मुख्यतः कलश की शक्लों में होता है। अधिकांश गैरिक मृद्भाण्ड स्थल दोआब के ऊपरी हिस्से में पड़ते हैं। इन गैरिक मृद्भाण्डों का काल मोटे तौर पर 2000 ई० पू० और 1500 ई० पू० के बीच रखा जा सकता है। जब गैरिक मृद्भाण्ड की बस्तियाँ समाप्त हुई, उस समय से लगभग 1000ई० पू० तक दोआब में कोई खास बस्तियों नहीं दिखाई देतीं। हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर अवस्थित जोधपुरा में गैरिक मृद्भाण्ड का सबसे मोटा जमाव (1.1 मी0) देखा गया।

उत्खनन कार्यों के दौरान एटा जिले के सैवई स्थल पर ताम्र-संचय की वस्तुयें गैरिक मृदभांडों के साथ पाई गयी थी। इस प्रकार गंगा, यमुना दोआब ये जहाँ-जहाँ ताम्र-संचय मिले हैं वहाँ लगभग सभी स्थलों पर गैरिक मृदभांड भी पाये गये हैं। लेकिन बिहार, बंगाल और उड़ीसा में उनका सांस्कृतिक साहचर्य स्पष्ट नहीं है। पर गंगा घाटी के कुछ अन्य स्थलों जैसे-बहुदराबाद, नसीरपुर (हरिद्वार), राजपुर-परसु (मेरठ), विसौली (बदायूँ) और बहेड़िया (शाहजहांपुर) में पहले की खुदाइयों में ताम्र-संचय पाये गये थे वहीं बाद वाली खुदाइयों में गैरिक-मृदभांडों के ठीकरे मिले हैं।

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Pankaja Singh

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