राजनीति विज्ञान

टामस हिल ग्रीन का राजदर्शन | टामस हिल ग्रीन के राजदर्शन पर एक संक्षिप्त लेख

टामस हिल ग्रीन का राजदर्शन | टामस हिल ग्रीन के राजदर्शन पर एक संक्षिप्त लेख

राज्य का आधार इच्छा है शक्ति नहीं ।”टामस हिल ग्रीन

ग्रीन के राजनदर्शन का अध्ययन अध्यात्मवाद है। वह राज्य को दैवी शक्ति का प्रतीक मानता है। इस विषय में वह हीगल का अनुयायी है। आध्यात्मिक चिन्तन के पश्चात् वह राजनीतिक चिन्तन पर आता है। उसके राजनीतिक विचारों का हम विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन करेंगे-

(1) राज्य का स्वरूप-

ग्रीन राज्य को साध्य मानता था और उस साध्य को वह व्यक्तियो के नैतिक विकास में सहायता पहुँचाना मानता था। उसका मत था कि व्यक्ति में स्वतन्त्रता के लिये अपार प्रेम होता है। स्वतन्त्रता का अर्थ उन परिस्थितियों का होना है जिनमें रहकर व्यक्ति अपना वास्तविक हित करने में समर्थ हो सके। ग्रीन का कहना है कि स्वतन्त्रता की रक्षा राज्य में ही हो सकती है। वह कहता है, “मानवीय अन्तरात्मा स्वतन्त्रता की कल्पना करती है। इस कल्पना का मनुष्य के अधिकारों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और इन अधिकारों की रक्षा के लिये ही राज्य का जन्म होता है।” “Human Consciousness postulates liberty, liberty involves rights, rights demand state.”

(2) राज्य का आधार-

ग्रीन अनुबन्धवादी विचारकों की इस मान्यता से सहमत नहीं है कि राज्य का जन्म सामाजिक समझौता के द्वारा हुआ। वह राज्य को कृत्रिम समुदाय नहीं मानता। वह इसे यूनानी दार्शनिक की भाँति स्वाभाविक एवं अनिवार्य संस्था मानता है। इस राज्य में रूसो की भाँति सामान्य इच्छा (General will) का भारी महत्त्व है।

(3) राज्य का उद्देश्य-

ग्रीन ने राज्य के औचित्य पर विस्तार से विचार किया है। वह कहता है कि राज्य का कार्य. ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करना है जिनमें व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके । उसका कार्य व्यक्तियों को नैतिक बनाना नहीं है बल्कि परोक्ष रूप से उसके नैतिक विकास में सहायक होना है। स्वयं ग्रीन के शब्दों में, “राज्य का कार्य ऐसा वातावरण पैदा करना जिसमें नागरिकों का नैतिक उत्थान संभव हो सके।” इस प्रकार राज्य का कार्य बाधाओं का निराकरण करना है। ग्रीन राज्य के नकारात्मक (Negative) कार्यों पर विशेष बल देता है। वह हीगल की तरह व्यक्ति को राज्य के लिए बलिदान नहीं करता। ग्रीन के अनुसार राज्य को निम्नलिखित कार्य अवश्य करने चाहिए-

(i) अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा । (ii) मद्यनिषेध । (iii) व्यक्तिगत सम्पत्ति को मान्यता देना। (iv) स्वतन्त्र व्यापार को समर्थन एवं अनिवार्य विकास नियम, स्वास्थ्य नियम तथा फैक्ट्री नियम आदि बनाना।

(4) राज्य की आज्ञापालन का आधार-

ग्रीन रूसो की सामान्य इच्छा के विचार से प्रभावित था। वह यह मानता है कि व्यक्ति की वास्तविक इच्छा की अभिव्यक्ति सामान्य इच्छा मे होती है। इस प्रकार व्यक्ति राजा की आज्ञा का पालन करके स्वयं अपनी इच्छा की आज्ञा का पालन करता है। इस विचार में वह हीगल’ के अधिक निकट है।

(5) संप्रभुता का सिद्धान्त-

सम्प्रभुता के विषय में ग्रीन ने रूसो तथा आस्टिन के विचारों को समन्वित करने का प्रयास किया है। वह राजनीतिक सम्प्रभुता का स्रोत जनता को ही समझता था। उसका कहना था कि श्रेष्ठ प्रभुत्व वही है जिसकी सम्प्रभुता का अधिकार जन- इच्छा की स्वीकृति से प्राप्त हुआ है।

(6) राज्य तथा अन्य समुदाथ-

ग्रीन इस विषय में हीगल का अनुयायी नहीं अपितु अरस्तू के इस मत में विश्वास करता है कि राज्य समुदायों का समुदाय’ होता है और उसकी सामान्य चेतना से प्रभावित होना चाहिए।

(7) स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा- 

ग्रीन के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार काण्ट से मिलते हैं। राज्य का वह यही कर्त्तव्य बताता है कि वह ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करे जिनमें व्यक्ति स्वतन्त्रतापूर्वक अपना नैतिक उत्थान कर सके। ग्रीन के अनुसार कोई मनुष्य उस स्थिति में स्वतन्त्र रहता है, जब वह यह अनुभव करता है कि वह अपने आदर्श की ओर बढ़ने में स्वतन्त्र है, जब वह उन कानूनों का पालन करता है, जिनको वह समझता है कि उनका पालन करना चाहिये, जब उसको अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने का अवसर मिलता है अर्थात् वह प्रकृति के अनुसार रहता है।

(8) व्यक्ति के अधिकार-

व्यक्तित्व के विकास के लिए सुविधाओं की माँग तथा माँगों पर  समाज की स्वीकृति ये दो बातें अधिकार के अन्तर्गत आती हैं। अधिकारों का भेद बताते हुए ग्रीन कहता है कि प्रथम प्रकार के अधिकार वे हैं जिन्हें समाज सेमान्यता प्राप्त रहती है। उनको ग्रीन प्राकृतिक अधिकार कहता है। दूसरे प्रकार के अधिकार वे हैं जिन्हें राज्य मान्यता प्रदान करता है। इन्हें कानूनी अधिकार कहा जाता है। ग्रीन का कहना है कि यदि राज्य उन अधिकारों को छीनता है तो व्यक्ति को अधिकार है कि वह राज्य का विरोध करे।

(9) दण्ड सम्बन्धी विचार- 

ग्रीन के अनुसार राज्य का कार्य व्यक्ति के विकास में उपस्थित होने वाली बाधाओं को दूर करना है। दण्ड भी बाधा की कोटि में आता है। दण्ड देने के चार उद्देश्य होते हैं-(1) प्रतिरोधात्मक, (2) निवारणात्मक, (3) सुधारात्मक, तथा (4) निषेधात्मक। ग्रीन दण्ड के इन चारों उद्देश्यों को उचित नहीं मानता। उसके विचार से दण्ड अतीत के अपराध अथवा भविष्य के सुधार अथवा अन्य लोगों को शिक्षा देने के उद्देश्य से तहीं दिया जाना चाहिये वरन् दण्ड के द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न करना चाहिए जिसमें मुक्ति की क्रिया सम्पन्न हो।

(10) सम्पत्ति सम्बन्धी विचार-

ग्रीन सम्पत्ति को जनहित के लिये आवश्यक समझता है। इस प्रकार वह व्यक्तिगत सम्पत्ति का समर्थन करता है। उसके ये विचार अरस्तू से मिलते हैं। वह अरस्तू की इस बात में विश्वास करता है कि सम्पत्ति मानव को परोपकारी बनाने में सहायक सिद्ध होती है। ग्रीन सम्पत्ति के असमान वितरण को भी मान्यता देता है। उसके विचार से व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति में अन्तर का होना आवश्यक है। वह अचल संपत्ति पर नियंत्रण रखना आवश्यक समझता था। इस प्रकार संपत्ति विषयक विचारों में ग्रीन समाजवादी नहीं था।

(11) भूमि सम्बन्धी विचार-

ग्रीन के भूमि सम्बन्धी विचार भी तत्कालीन भूमि-व्यवस्था के विरुद्ध थे। ग्रीन का विचार था कि भूमि सीमित है और उसका वितरण असमान तथा दोषपूर्ण है। ग्रीन इन दोषों का उल्लेख इस प्रकार करता है:-

(1) शक्तिशाली लोगों ने नियमों की उपेक्षा करके अधिक भूमि पर अधिकार कर लिया है जो अनुचित है।

(2) भूमि पर कुछ व्यक्तियों का ही अधिकार है।

(3) भूमिहीन व्यक्ति भूमि के मालिकों की नौकरी करते हैं।

ग्रीन इन दोषों को दूर करने के लिये जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का समर्थन करता तथा कहता है कि भूमि पर राज्य का अधिकार होना चाहिये।

(12) युद्ध सम्बन्धी विचार-

ग्रीन के युद्ध सम्बन्धी विचार हीगल के विचारों से भिन्न है। ग्रीन युद्ध को किसी भी स्थिति में न्यायसंगत नहीं बताता। बार्कर के शब्दों में, “युद्ध किसी राज्य का आवस्यक कार्य नहीं हो सकता क्योंकि युद्ध की स्थिति राज्य की निपुणता का प्रमाण न होकर कुव्यवस्था का परिचायक होता है।” ग्रीन का विचार था कि एक युद्ध में दूसरे युद्ध के वीज निहित होते हैं। युद्धों का कभी अन्तिम निर्णय नहीं हो सकता। इतना मानने पर भी ग्रीन युद्ध का पूरी तरह बहिष्कार नहीं करता। वह कहता है, “जब तक हर सम्भव विधि से प्रकृति को मनुष्य के नियन्त्रण में नहीं रखा जायगा। जब तक समाज में प्रत्येक नागरिक को अपनी योग्यता के अनुसार उन्नति करने का अवसर नहीं दिया जायेगा। तब तक युद्ध को आरम्भ करने अथवा राष्ट्र प्रेम को प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं होगी।”

ग्रीन युद्ध की सम्भावना को स्वीकार तो करता है परन्तु तभी तक जब तक राज्य अपूर्ण रहेंगे। उसका विश्वास था कि ऐसा समय अवश्य आयेगा जब बर्बरता तथा नृशंसता का पूर्णतया अन्त हो जायेगा और अन्तर्राष्ट्रीय एकता की भावना का उदय होगा।

(13) अन्तर्राष्ट्रीयता-सम्बन्धी विचार-

ग्रीन के विचार इस विषय पर भी हीगल के विचारों से भिन्न थे। हीगल पूर्णतया राष्ट्रीयता का समर्थक था । वह राष्ट्रीयता को सर्वोच्च मानता था तथा राज्य को अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इच्छित आचरण करने की छूट देता था । ग्रीन हीगल के इन विचारों से सहमत नहीं है। ग्रीन कहता है कि जिस प्रकार राष्ट्रीय राज्य अपने आंतरिक क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्र नहीं है। वरन् वे अन्य समुदायों के अधिकारों और कार्य क्षेत्रों से सीमित है। उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय जगत में एक राष्ट्र का आचरण दूसरे राष्ट्र के अस्तित्व से सीमित होना आवश्यक है। वह अन्तर्राष्ट्रीय जगत में शांति सुव्यवस्था स्थापित करने के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय राज्य की स्थापना आवश्यक बताता है। ग्रीन अन्तर्राष्ट्रीय राज्य की कल्पना भी करता है जिसमें उसने प्रत्येक राज्य के कुछ अधिकार निश्चित किये हैं।

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Pankaja Singh

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