शिक्षाशास्त्र

आत्मगत विधियाँ | अन्तर्निरीक्षण विधि | उपाख्यानक विधि

आत्मगत विधियाँ | अन्तर्निरीक्षण विधि | उपाख्यानक विधि

आत्मगत विधियाँ

इनको हम दो भागों में बाँटते हैं- (अ) अन्तर्निरीक्षण की विधि और (ब) उपाख्यानक विधि। आत्मगत विधि का तात्पर्य उस तरीके से है जो व्यक्ति अपने आप प्रयोग करता है, जैसे अन्तर्निरीक्षण में व्यक्ति स्वयं अपने व्यवहार का विश्लेषण व्याख्या करता है और उपाख्यानक विधि में वह विभिन्न परिस्थितियों में जो अनुभव करता रहता है उन्हें संचित करता रहता है। वास्तव में यह शक्ति के द्वारा स्वयं एकत्र किया गया घटना-वृत्त है।

  1. अन्तर्निरीक्षण विधि-

मनोविज्ञान की यह सबसे प्राचीन अध्ययन विधि है और इस विचार से अन्तर्निरीक्षण की विधि का प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान में होता है। अन्तर्निरीक्षण = अन्तः + निरीक्षण (= निः + ईक्षण) अर्थात् भीतर से घुस कर देखना । इस प्रकार व्यक्ति अपने व्यवहार का अध्ययन अपने मन के भीतर घुस कर जब करता है तो वहाँ अन्तर्निरीक्षण की विधि होती है। आत्म अध्ययन करने के कारण इसे कुछ लोग “आत्म-निरीक्षण’ भी कहते हैं।

अन्तर्निरीक्षण या अन्तर्दर्शन के सम्बन्ध में प्रो० स्किनर ने लिखा है, “अपनी आत्मा में देखना ही अन्तर्दशन है” यह भाव प्रो० स्टाउट ने इसे कुछ वैज्ञानिक शब्दों में व्यक्त किया है : अपने मन के कार्यों का विश्लेषण करना ही अन्तर्दर्शन या अन्तर्निरीक्षण है ।” प्रो० आर० एस० वुडवर्थ ने बताया है कि “अन्तर्निरीक्षण निरीक्षण है”। इन कथनों से स्पष्ट होता है कि आदमी जब अपने आप मन की क्रियाओं को देखता, समझता, विश्लेषण और व्याख्या करता है तो वहाँ अन्तर्निरीक्षण की विधि पाई जाती है। इसे अभिव्यक्त करते हुए प्रो० बी० एन० झा ने लिखा है कि “अन्तर्निरीक्षण अपने मस्तिष्क का आत्म निरीक्षण करने की प्रक्रिया है। यह एक प्रकार का आत्म निरीक्षण है। जिसमें हम अपनी भावनाओं तथा किसी मानसिक कार्य के समय होने वाले अन्य कार्यों का निरीक्षण करते हैं तथा वर्णन करते हैं।”

प्रो० स्टाइट ने इस “प्रक्रिया” की तीन दशाएँ बताई हैं।

(1) अन्तर्निरीक्षण की दशा में व्यक्ति किसी बाहरी वस्तु का निरीक्षण करता है और साथ-ही-साथ अपने भीतर या अन्तः में होने वाली क्रियाओं के बारे में सोचता भी रहता है। निरीक्षण एवं चिन्तन साथ-साथ होता रहता है।

(2) अन्तर्निरीक्षण की दूसरी दशा में व्यक्ति अपने व्यवहार के बारे में प्रश्न करता है, ऐसा व्यवहार क्यों और कैसे हुआ और इन प्रश्नों का उत्तर भी वही व्यक्ति तुरन्त देता है। इस प्रकार व्यक्ति अपने व्यवहार के कारण, ढंग, परिणाम, सभी के बारे में अपने मानसिक तौर से कार्य करता है।

(3) अन्तर्निरीक्षण की तीसरी दशा में अपनी मानसिक क्रिया में सुधार लाने के लिए भी सोचने लगता है। ऐसी परिस्थिति में वह सुधार के लिए नियम और उपनियम भी बनाता है और पालन भी करता है।

(क) गुण- अन्तर्निरीक्षण विधि में नीचे लिखे गुण बताये गये हैं-

(i) स्वयं के व्यवहारों का अध्ययन स्वयं द्वारा होने से उसे भली-भाँति समझना सरल होता है।

(ii) इस विधि से अध्ययन करने के लिये किसी पूर्व निश्चित कार्यक्रम और योजना की आवश्यकता नहीं पड़ती है इसलिये इसमें समय की बचत होती है।

(iii) इस विधि से अध्ययन करने में किसी यंत्र. प्रयोगशाला, प्रयोगकर्ता, आदि की आवश्यकता नहीं होती है। इसलिये कोई कठिनाई नहीं होती।

(iv) इस विधि में स्वतन्त्र ढंग से स्वेच्छानुसार अध्ययन होता है |

(v) वास्तविक ढंग से व्यवहार का अध्ययन होने से इसमें विश्वसनीयता भी पाई जाती है।

(vi) इस विधि से तीक्ष्ण एवं सूक्ष्म अध्ययन करना सम्भव होता है।

(vii) इस विधि के अध्ययन करने में सम्पूर्ण मानसिक शक्ति का प्रयोग किया जाना सम्भव होता है, ध्यान एकाग्र रहता है।

(ख) दोष- इस विधि में नीचे लिखे दोष बताये गये हैं-

(i) अध्ययन करते समय मानसिक क्रिया बन्द हो जाती है। जैसे ‘क्रोध’ का अध्ययन करते समय क्रोध गायब हो जाता है। इससे अध्ययन में कठिनाई होती है।

(ii) मानसिक क्रिया अस्पष्ट और परिवर्तनशील होती है इसलिये मानसिक क्रिया की सही स्थिति का ज्ञान नहीं होता है।

(iii) बाह्य परिस्थितियाँ अवधान में बाधक होती हैं और बिना अवधान एवं अभ्यास के अन्तर्निरीक्षण नहीं हो सकता है।

(iv) एक ही तथ्य के बारे में लोगों का अन्तर्निरीक्षण अलग-अलग होता है। इससे लोगों की सत्यता की तुलना और जाँच नहीं हो सकती है।

(v) बच्चों, अस्वस्थ लोगों, विक्षिप्तों पशुओं द्वारा इसका प्रयोग नहीं होता है इसलिये व्यापकता एवं वैज्ञानिकता नहीं होती है।

(vi) वैयक्तिक विश्लेषण, व्याख्या होती है। इस दृष्टि से व्यक्तिगत प्रभाव पड़ता है।

(vii) अन्तर्निरीक्षण करने में व्यक्ति का मस्तिष्क दो भागों में बँट जाता है, एक निरीक्षण करता है तो दूसरा निरीक्षण किया जाता है।

(viii) मानसिक क्रियाएँ चंचल, अस्थिर एवं क्रियाशील होती हैं इसलिये उनका ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है। पुनः प्रकट करने में मानसिक क्रिया अस्वाभाविक रहती है।

(ix) कई लोगों के द्वारा एक मानसिक क्रिया या व्यवहार का अध्ययन होना और निरीक्षण करना सम्भव नहीं है। वैयक्तिकता और आत्मगत भाव के साथ अध्ययन होता है।

(x) इस विधि के पश्चात् निरीक्षण ही होता है, क्रिया के साथ-साथ निरीक्षण नहीं होता है जो सम्भव नहीं है। क्रिया होते समय विश्लेषण अस्वाभाविक होता है।

  1. उपाख्यानक विधि-

अन्तर्निरीक्षण के अलावा आत्मगत विधि के अन्तर्गत उपाख्यानक विधि होती है। उपाख्यान पूर्व घटित घटनाओं का संचय या अभिलेख होता है। उपाख्यानक विधि वास्तव में व्यक्तिगत जीवन के घटनाओं के संचय की विधि है। इसमें हर एक व्यक्ति अपने जीवन-घटनाओं को एकत्र करता है। इसमें केवल घटनाओं का संचय मात्र नहीं होता है बल्कि उनकी परस्पर तुलना की जाती है और अन्त में एक निर्णय भी लिया जाता है। इस प्रकार का संचय पूर्व-स्मरण और पुनः स्मरण के बल पर ही होता है अर्थात् विगत घटना का जो अंश मनुष्य को याद रह जाता है उसे ही वह पुनः प्रकट करता है। यह विवरण व्यक्ति अपने आप तैयार करता है। अतएव उपाख्यानक विधि भी आत्मगत विधि का एक प्रकार है।

इस विधि के निम्न तीन पद हैं।

(i) घटना का संचय पुनर्सरण के आधार पर

(ii) घटनाओं की तुलना जिससे कि स्थिति स्पष्ट हो जावे

(iii) निष्कर्ष और निर्णय जिससे कि स्थिति सही-सही एवं प्रामाणिक हो जावे

इन पदों को देखने से ज्ञात होता है कि यह विधि भी क्रमबद्ध ढंग से शिक्षा मनोविज्ञान के तथ्यों का अध्ययन करती है। अतएव इसे भी महत्त्व दिया गया है।

(क) गुण-(i)  यह व्यक्तिगत विधि है इससे तथ्यों का संचय सही-सही ढंग से होता है।

(ii) इस विधि से केवल पुनः स्मरण किये गये तथ्य संचय किये जाते हैं, इसलिये प्रभावकारी तथ्य ही संचित होते हैं, व्यर्थ वाले नहीं।

(iii) इस विधि से केवल उन तथ्यों को संचित करते हैं जो व्यक्तित्व का प्रकाशन करते हैं जैसा कि आत्मकथाओं में मिलता है और आत्मकथा भी एक प्रकार से उपाख्यानक विधि से संगृहीत तथ्य होती है।

(iv) इस विधि से घटनाओं का संचय करके पुनः उनकी तुलना होती है और निर्णय लिया जाता है फलतः आलोचनात्मक ढंग से तथ्यों की अभिव्यक्ति होती है। फलस्वरूप सत्यता का अंश भी रहता है।

(ख) दोष-(i)  इस विधि में वैयक्तिकता पाई जाती है इसमें सत्यता का अंश बहुत कम भी होता है। (ii) केवल पुनः स्मरण के आधार पर संचय होने से बहुत-सी घटनायें छूट जाती हैं। (iii) इसमें विश्वसनीयता की कमी होती है क्योंकि जो स्मरण होता है वह सही है, वास्तविक है अथवा नहीं यह कहना कठिन है। (iv) मनुष्य की भावात्मक तीव्रता और क्षीणता उसके अनुभव को प्रभावित करती है फलतः यथार्थ घटनायें प्रकट नहीं हो पाती।

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Pankaja Singh

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