भारतीय संस्कृति के स्रोत | भारतीय संस्कृति के विभिन्न स्रोत | sources of Indian culture in Hindi | Various sources of Indian culture in Hindi
भारतीय संस्कृति के स्रोत
भारतीय संस्कृति के विषय में किसी एक स्रोत से जानकारी नहीं मिलती है बल्कि इसकी जानकारी विभिन्न साहित्यों एवं ग्रंथों से मिलती है जिनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्नवत् है-
धर्म-ग्रन्थ- भारतवर्ष प्राराम्भ से ही धर्मप्रधान देश रहा है। यहाँ की समस्त व्यवस्थायें- सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि-धर्म को ही केन्द्र बिन्दु मानकर आगे बढ़ी थीं। भारतीय जीवन के समस्त मूल्यों का निर्धारण धर्म के आधार पर ही हुआ था। धर्म की विशद एवं व्यापक परिभाषा के अन्तर्गत धर्म और जीवन अन्योन्याश्रित बन गए थे, उनके बीच की विभेद-रेखा तिरोहित हो गई थी। भारतीय के लिए धर्म जीवन का आदर्श बन गया था और जीवन धर्म का व्यवहार ।
धर्म के इस सर्वव्यापी महत्त्व के कारण यह नितान्त स्वाभाविक था कि भारतवर्ष में बहुसंख्यक धार्मिक ग्रन्थों की रचना होती। धर्म की व्यापक व्याख्या के अनुकूल इन धार्मिक ग्रन्थों ने न केवल धर्म चरन् जीवन के समस्त विषयों पर न्यूनाधिक मात्रा में विचार किया है। यही कारण है कि ये धार्मिक इतिहास के साथ-साथ राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के लिए भी अति महत्त्वपूर्ण हैं।
भारतवर्ष के धार्मिक साहित्य की एक अन्य विशेषता भी है। ब्राह्मण, बौद्ध, जैन आदि संप्रदायों ने अपने-अपने ग्रन्थों का पृथक् और स्वतन्त्र रूप में निर्माण किया था। अतः उनके धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों में बहुथा आधारभूत मतभेद हैं। परन्तु जहाँ तक उनके धर्म- ग्रन्थों में उपलब्ध सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक झाँकी का सम्बन्ध है वह प्रायः एक-सी है। यदि कहीं अन्तर है भी तो एकमात्र दृष्टिकोण का। उदाहरणार्थ, भारतीय वर्ण-व्यवस्था को लीजिए। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में समान रूप चतुर्वर्णों एवं अनेकानेक जातियों और उपजातियों के उल्लेख मिलते हैं। सभी में समानरूपा वस्तुस्थिति का चित्रण है। अन्तर एकमात्र यही है कि जहाँ ब्राह्मण-ग्रन्थ वर्ण-व्यवस्था को आवश्यक समझ कर उसे अक्षय रखने के लिए प्रयत्नशील हैं, वहाँ बौद्ध और जैन-ग्रन्थ उसे गर्हित एवं हानिकर समझ कर नष्ट करने का प्रयास करते हैं। ऐसी अवस्था में इन धर्मग्रन्थों का सापेक्ष महत्त्व है। किसी एक धर्म-ग्रन्थ में उल्लिखित वस्तु अप्रमाणिक हो सकती है, परन्तु जब उसकी पुष्टि अन्य स्वतन्त्र धर्मग्रन्थों से होती है वह प्रामाणिक समझी जाती है।
ब्राह्मण धर्म-ग्रन्थ
वेद-ब्राह्मण धर्म-ग्रन्थों में सर्वप्रमुख स्थान वेदों का है। विश्व के प्राचीन इतिहास में इसका विशेष महत्व है। वेद का शाब्दिक अर्थ ज्ञान है। वस्तुतः आर्य ऋषियों का प्राचीनतम ज्ञान इन्हीं वेदों में संरक्षित है। उनका समस्त परवर्ती ज्ञान इन्हीं वेदों पर आधारित है। ज्ञान किसी एक जाति, काल अथवा देश से सम्बन्ध नहीं रखता। इसी से बेद सार्वभौम, अनन्त, अपौरुषेय, शाश्वत और दैवी कहे गए हैं। ये वेट चार हैं ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।
ऋग्वेद- चतुर्वेदों में ऋग्वेद प्राचीनतम है। ऋक् का अर्थ होता है छन्दों और चरणों से युक्त मन्त्र । ऐसा ज्ञान (वेद) जो ऋचाओं (ऋक् का बहुवचन) में बद्ध हो ऋग्वेद कहलाया। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष में प्रवेश करने के पूर्व ही आर्य ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं की रचना कर चुके थे। भारतवर्ष में आने पर भी यह रचना जारी रही। शनैः-शनैः ऋचाओं की संख्या बढ़ती गई। परन्तु अभी तक वे अस्त-व्यस्त रूप में ही थीं। उनका संगठन न हुआ था। भारतवर्ष में अनार्यों के सम्पर्क आने से सम्पूर्ण परिस्थिति बदल गई। आनार्यों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परायें आर्यों से भिन्न थीं। अतः आर्यों को भय हुआ कि कहीं अनार्य सम्पर्क उनके धर्म और उनकी संस्कृति को विकृत रूप न कर दे। इसी से उन्होंने अब अपनी समस्त ऋचाओं को संग्रहीत करके सुरक्षित कर दिया। इसी से ऋग्वेद को ऋग्वेद-संहिता के नाम से भी प्रख्यात है। संहिता का अर्थ है संग्रह अथवा संकलन ।
ऋग्वेद में 10 मण्डल हैं। इनमें कुल मिलाकर 1028 सूक्त हैं। प्रत्येक मूक्त की कतिपय विशेषताएँ हैं-
(1) उसमें उस ऋषि का नाम अथवा गोत्र होता है जिसने उसकी रचना की थी।
(2) उसमें उस देवता का नाम होता है जिसकी उसमें स्तुति की गई है।
(3) छन्द 21 माने गए हैं। अमुक सूक्त का जो छन्द होता है वह भी उसमें लिखा रहता है।
(4) जिस विशेष कार्य के लिए सूक्त प्रयोग किया जाता है उसे विनियोग कहते है। अतः प्रत्येक सूत्र में विनियोग भी रहता है।
ऋग्वेद की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में परिशिष्ट भी जुड़े हुए मिलते हैं। इन परिशिष्टों को ‘खिल’ कहते हैं। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद के आठवें मण्डल के अन्त में एक परिशिष्ट मिलता है। इसे बालखिल्य सूक्त करते हैं।
सामवेद- साम का अर्थ होता है गान। अतः सामवेद ऐसा वेद है जिसमें मंत्र यज्ञों में देवताओं की स्तुति करते हुए गाये जाते थे। इस प्रकार यहवेद गान प्रधान है। इसमें कुल 75 मन्त्र मौलिक है। शेष सभी मन्त्र ऋग्वेद के हैं। परन्तु स्वर-भेद के कारण ये ऋग्वेद के मन्त्रों से भिन्न हो गए हैं। सामवेद को गाने की यह विशेष विधि थी। इसके लिए विशेषता की आवश्यकता थी। प्राचीन भारत में जो विशेषज्ञ सामवेद गाते थे उन्हें ‘उद्गाता’ कहते थे।
यजुर्वेद- यजु; का अर्थ है यज्ञ । इस वेद में अनेक प्रकार की यज्ञ-विधियों का प्रतिपादन किया गया है। इसी से यह यजुर्वेद कहलाया। इसे अध्वर्युवेद भी कहते हैं। अध्वर्यु भी यज्ञ का पर्यायवाची है।
यजुर्वेद 5 शाखाओं में विभक्त है-(1) काठक, (2) कषिष्ठल, (3) मैत्रायणी, (4) तैत्तरीय और (5) वाजसनेयी। प्रथम चार शाखाओं में कोई विशेष अन्तर नहीं है। ये शाखायें कृष्ण यजुर्वेद के अन्तर्गत परिगणित होती हैं। पाँचवीं शाखा वाजसनेयी को शुक्ल यजुर्वेद के अन्तर्गत रखा जाता है।
यजुर्वेद के मन्त्रों से यज्ञ करते हुए देवताओं का आह्वान करने वाले व्यक्ति को ‘होता’ कहते थे। इस प्रकार यजुर्वेद कर्मकाण्ड-प्रधान है।
अथर्ववेद- इस वेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी। इसी से इसे अथर्ववेद कहते हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। इसका वर्ण्य विषय भी विविध है। इसमें ब्रह्मज्ञान, धर्म, समाज-निष्ठा, औषधि-प्रयोग, शत्रु-दमन, रोग-निवारण, जन्त्र-मन्त्र, टोना-टोटका आदि अनेक विषय अन्तर्निहित हैं। विषय-विवेचन से स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि अथर्ववेद में आर्य और अनार्य विचार धाराओं का समन्वय मिलता है। कदाचित् अथर्ववेद की अन्तिम रूप में रचना तक आर्यों और अनार्यों का पारस्परिक संघर्ष समाप्त हो चुका था और एक-दूसरे में हिल-मिल रहे थे। विचारों के इन पारस्परिक आदान-परदान ने अनार्यों के अनेकानेक निम्न-सिद्धान्तों को उच्चता प्रदान करके आर्य-जीवन में प्रतिष्ठित किया। परन्तु उसने स्वयं आर्य-जीवन की उदात्तता, उच्चता और विशुद्धता पर भारी आघात पहुँचाया। आर्यों ने आनार्यों को अपने भीतर आत्मसात् तो कर लिया परन्तु ऐसा करने में उन्हें भारी सांस्कृतिक क्षति उठानी पड़ी।
ब्राह्मण- जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे ही वैसे समाज में यज्ञों एवं कर्मकाण्डों की प्रतिष्ठा बढ़ती गई। ये यज्ञ और कर्मकाण्ड अत्यन्त जटिल हो गए। इनके विधान तथा इनकी क्रियाओं को समझाने के लिए एक नए साहित्य का प्रादर्भाव हुआ जो ब्राह्म-साहित्य के नाम से प्रख्यात है। ब्रह्म का अर्थ है यज्ञ । अतः यज्ञ के विषयों का प्रतिपादन करनेवाले ग्रंथ ‘ब्राह्मण’ कहलाये। ये वेदों पर ही आधारित हैं। वैदिक मन्त्रों की व्याख्या करते हुए ही ये अपने यज्ञों को प्रतिपादित करते हैं। अधिकांशतः ब्राह्मण गद्य में लिखे मिलते हैं, परन्तु कहीं-कहीं पद्य भी मिलता है।
याज्ञिक विधियों की पृथक्-पृथक् व्याख्या करने के कारण ब्राह्मण अनेक हैं। इस प्रकार प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण हैं। यहाँ उदाहरण दे देना आवश्यक है-
(1) ऋग्वेद का ऐतरेय ब्राह्मण और कौषीतकि ब्राह्मण।
(2) यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण । इसे वाजसनेय ब्राह्मण भी कहते हैं।
(3) सामवेद का पंचविंश ब्राह्मण। इसे ताण्डव ब्राह्मण भी कहते हैं।
(4) अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण।
आरण्यक- ब्राह्मणों के पश्चात् आरण्यकों का स्थान आता है। आरणयक अरण्य (वन) से बना है। अर्थात् आरण्यक ऐसे ग्रन्थ हैं जो वन में पढ़े जा सकें। निश्चित है कि आरण्यकों ने कोरे यज्ञवाद के स्थान पर चिन्तनशील ज्ञान के पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है। इस प्रकार आरण्यकों में उस ज्ञानमार्गी विचार-धारा का बीजारोपण होता है जिसका विकास हम उपनिषदों में देखते हैं। इस दृष्टि से भी आरण्यक ब्राह्मणों और उपनिषदों के बीच में आते हैं।
इस समय सात आरण्यक उपलब्ध होते हैं-(1) ऐतरेय आरण्यक, (2) शांखायन आरण्यक, (3) तैत्तरीय आरण्यक, (4) मैत्रायणी आरण्यक, (5) याध्यन्दिन वृहदारण्यक, (6) तलवकार आरण्यक।
उपनिषद- ‘उप’ का अर्थ है ‘समीप’ और ‘निषद’ का अर्थ है ‘बैठना’। इनसे कुछ विद्वानों ने यह आशय निकाला है कि जिस रहस्य-विद्या का ज्ञान गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया जाता था उसे उपनिषद कहते थे। अन्य विद्वानों का मत है कि उपनिषद का अर्थ उस विद्या से है जो मनुष्य को ब्रह्म के समीप बैठा देती है अथवा उसे आत्मज्ञान करा देती है।
जो भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि उपनिषदों में विशुद्ध ज्ञान की सर्वत्र जिज्ञासा है। ये यान्त्रिक यज्ञों के स्थान पर ज्ञान-यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं, संसार के नानात्व के ऊपर एकत्व का आरोप करते हैं और बहुदेववाद के स्थान पर परब्रह्म की प्रतिष्ठा करते हैं। ब्रह्मविषयक होने के कारण ही उपनिषदों को ब्रह्मविधा भी कहते हैं। वैदिक साहित्य के अन्तिम भाग होने के कारण ये वेदांग भी कहे जाते हैं। भारतवासियों की आदितम चिन्तनशील कृति होते हुए भी हम उपनिषदों में काफी विचार-प्रौढ़ता पाते हैं। यद्यपि उनमें अनेक स्थलों पर परस्पर विरोधी और अवैज्ञानिक कथन भी मिलते हैं।
वेदांग- इसके पश्चात् वेदांग आते हैं। ये 6 हैं-(1) शिक्षा, (2) कल्प, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) छंद और (6) ज्योतिष । ये सब वेदों के अंग समझे जाते थे। इनसे वेदों को समझना सरल हो गया था।
शिक्षा- वैदिक स्वरों का विशुद्ध रूप में उच्चारण करने के लिए शिक्षा का निर्माण हुआ था। कालान्तर में प्रत्येक वेद की पृथक्-पृथक् शिक्षा हो गई।
कल्प- कल्प का अर्थ है विधिक-नियम। ऐसे सूत्र (कल्प) जिसमें विधि-नियम का प्रतिपादन किया गया है कल्पसूत्र कहलाते हैं। कल्पसूत्रों के 3 भाग हैं-(1) जो सूत्र यज्ञसम्बन्धी विधि-नियमों को बताते हैं वे श्रौतसूत्र कहलाते हैं। यज्ञों में बहुधा वेदियाँ और मण्डप बनाए जाते थे। इन्हें बनाने के लिए नाप-जोख का आवश्यकता पड़ती थी। इस कार्य के लिए भी अनेक विधि-नियम बनाए गए जो सुल्व सूत्र के अन्तर्गत रखे गये हैं। सुल्व का अर्थ नापना होता है। ये सुल्वसूत्र श्रौतसूत्र के ही भाग हैं। इनमें हम सर्वप्रथम रेखागणित के बीज देखते हैं। (2) जो सूत्र मनुष्य के समस्त लौकिक और पारलौकिक कर्त्तव्यों का वर्णन करते हैं वे गृहसूत्र कहलाते हैं और (3) जो सूत्र मनुष्य के विभिन्न धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक अधिकारों, और कर्तव्यों का वर्णन करते हैं वे धर्मसूत्र कहलाते हैं। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि गृह्यसूत्रों और धर्मसूत्रों के अनेकानेक विषय समान हैं।
व्याकरण- इसमें नामों और धातुओं की रचना, उपसर्ग और प्रत्यय के प्रयोग, समासों और सन्धियों आदि के नियम बनाए गए। इनसे भाषा का सूत्र सुस्थिर हो गया। इस समय पाणिनि का सर्वविदित व्याकरण-ग्रन्थ अष्टाध्यायी मिलता है। परन्तु स्वयं पाणिनि ने ही अपने ग्रन्थ में व्याकरण के 10 पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है। इससे प्रकट होता है कि पाणिनि ने पूर्व भी कुछ व्याकरण-ग्रन्थ थे।
पाणिनि की अष्टाध्यायी में 18 अध्याय हैं। इन सब अध्यायों में समस्त सूत्रों की संख्या 3863 है।
कालानतर में यह अनुभव हुआ कि पाणिनि के सूत्रों में कहीं-कहीं पर कुछ कमी है। उसी कमी को पूरा करने के लिए कात्यायन ने वार्तिक बनाए। कालान्तर में पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों और कात्यायन के वार्तिकों को समझाते हुए अपना व्याख्या-ग्रन्थ लिखा जो महाभाष्य के नाम से प्रख्यात है। इस प्रकार संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि का प्रमुख स्थान है।
निरुक्त- जो शास्त्र यह बताता है कि अमुक शब्द का अमुक अर्थ क्यों होता है उसे निरुक्त-शास्त्र कहते हैं। यास्क ने निरुक्त की रचना की थी। इसमें वैदिक शब्दों की निरुक्ति बताई गई है।
यास्क ने अपने निरुक्त में 12 पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है। इससे विदित होता है कि यास्क के पूर्व भी निरुक्त लिखे गए होंगे, परन्तु अभाग्य से वे विलुप्त हो गए हैं
यास्क के निरुक्त में 12 अध्याय हैं। यदि उनमें दो परिशिष्ट भी गिन लिये जायँ तो कुल अध्यायों की संख्या 14 हो जायेगी।
छन्द- वैदिक साहित्य में गायत्री, त्रिष्टप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि वैदिक-काल में भी कोई छन्दःशास्त्र रहा होगा। परन्तु आज वह प्राप्य नहीं है। आज तो आचार्य पिंगल द्वारा रचित प्राचीन छन्दःशास्त्र ही प्राप्त होता है।
ज्योतिष- इस शास्त्र के प्राचीन आचार्यों में लगध मुनि का नाम प्रमुख है। इनके अतिरिक्त नारद संहिता ज्योतिष के 18 आचार्यों का उल्लेख करती है। इनके नाम में ब्रह्मा, सूर्य, वशिष्ठ, अत्रि, मनु, सोम, लोमश, मरीचि, अंगिरा, व्यास, नारद, शौनक, भृगु, च्चयन, गर्ग, कश्यप और पराशर। कालान्तर में आर्यभट्ट, लल, वराह-मिहिर, ब्रह्मगुप्त, मुंजाल और भास्कराचार्य ने ज्योतिष-शास्त्र की विशेष उन्नति की।
स्मृतियाँ- सूत्र-साहित्य के पश्चात् भारतवर्ष में स्मृति-शास्त्र का उदय हुआ। सूत्रों की भाँति स्मृतियाँ भी मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन के विविध कार्य-कलापों के विषय में अगणित विधि निषेधों का प्रतिपादन करती हैं। प्रारंभिक स्मृतियों में मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति प्रमुख हैं।
महाकाव्य- भारतवर्ष के दो प्राचीन महाकाव्य हैं रामायण और महाभारत ।
पुराण- ‘पुराण’ का शाब्दिक अर्थ ‘प्राचीन’ है। अतः पुराण-साहित्य के अन्तर्गत वह समस्त प्राचीन साहित्य आ जाता है जिसमें प्राचीन भारत के धर्म, इतिहास, आख्यान, विज्ञान आदि का वर्णन हो। हमारे पुराणों में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री भरी पड़ी है। वस्तुतः कौटिल्य ने इतिहास के अन्तर्गत पुराण और इतिवृत्त दोनों को रक्खा है।
पुराण 18 हैं-
(1) ब्रह्मपुराण, (2) पद्मपुराण, (3) विष्णु-पुराण, (4) शिव पुराण, (5) भागवत पुराण, (6) नारदीय पुराण, (7) मार्कण्डेय पुराण, (8) अग्निपुराण, (9) भविष्य पुराण, (10) ब्रह्मवैवर्त पुराण, (11) लिंगपुराण, (12) वराहपुराण, (13) स्कन्द पुराण, (14) वामन पुराण, (15) कूर्मपुराण, (16) मत्स्य पुराण, (17) गरुड़ पुराण और (18) ब्रह्माण्ड पुराण।
साधारणतया पुराणों का विषय- (1) सर्ग सृष्टि, (2) प्रति सर्ग (प्रलय के पश्चात् पुनः सृष्टि), (3) वंश, (देवताओं और ऋषियों के वंश), (4) मन्वन्तर (अनेक मनु) और (5) वंशानुचरित (राजवंश) है।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
- संस्कृति का शाब्दिक अर्थ | संस्कृति की परिभाषा | संस्कृति के तत्व तथा उपकरण | संस्कृति की प्रकृति | संस्कृति की व्यापकता अथवा विस्तार क्षेत्र
- सभ्यता तथा संस्कृति का अंतर | संस्कृति का अर्थ | सभ्यता तथा संस्कृति का सम्बन्ध | सभ्यता तथा संस्कृति के सम्बन्धों का वर्णन
- संस्कार का अर्थ | संस्कारों के प्रकार | आधुनिक भारत में संस्कारों का रूप | प्रमुख हिन्दू संस्कारों का वर्णन
- पुरुषार्थ क्या है? | पुरुषार्थ का अर्थ | पुरुषार्थ के प्रकार | पुरुषार्थ का महत्व
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