सूफी साहित्य की प्रवृत्तियाँ | हिंदी सूफी काव्य परंपरा में जायसी का स्थान | प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा में मलिक मुहम्मद जायसी का योगदान
सूफी साहित्य की प्रवृत्तियाँ
वर्ण्य-विषय- सूफी साहित्य का मुख्य उद्देश्य भारतीय जन-सामान्य में प्रचलित कहानियों को प्रेम-कथा के रूप प्रस्तुत करना था। लेकिन सीधे-सादे ढंग से नहीं, उस पर कल्पना की एक पर्त चढ़ाकर। वे वर्ण्य-भेद को तिलांजलि देकर मानवता को ही धर्म की आधारभूत शिला मानते थे। साधारण कथानकों में अप्सराओं, देवों, देवियों को सम्मिलित कर वे लोग लौकिता को अलौकिकता बना देने में सिद्धहस्त थे।
वर्णन-क्रम- सभी सूफी साहित्यिकों की क्रम-योजना प्रायः एक-सी है। प्रारम्भ में मंगलाचरण, जिसमें ईश्वर की सर्वशक्तिमता तत्पश्चात् हजरत मुहम्मद और उसके संप्रदाय का वर्णन करने के पश्चात् कवि नायक के मन में प्रेम का संचार करता है। उसके बाद उनकी कठिनाइयाँ, प्रेम के लिए गुरू की अनुमति, नायिका के अपहरण की इच्छा (नायक द्वारा मिलन और अंत में दुःखपूर्ण उपसंहार- अर्थात् नायिका का सती होना।)
मसनवी परंपराओं का प्रभाव- सूफी कवियों ने अधिकतर महाकाव्यों की रचना की। उनका प्रेमाख्यानक काव्य भारतीय रचित काव्य की शैली पर न होकर फारसी की मसनवी शैली पर आधारित है। मसनवी शैली के अनुसार किसी काव्य को आरंभ करने से पूर्व ईश्वर वंदना, मुहम्मद साहिब की स्तुति तथा शाहेवक्त की प्रशंसा करना अनिवार्य है जिनका पूर्णतया प्रयोग इन सूफी काव्यों में भी हुआ। इन सभी सिद्धांतों का समावेश महान् सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पद्यावत् ‘ में हुआ है। सूफी कवियों का कथा कहने का ढंग तो मसनवी पद्धति पर था, किंतु इनके काव्य में व्यवहृत कथाएँ भारतीय संस्कृति का प्रभाव मात्र ही समझी जा सकती है।
सूफी काव्य-परंपरा- मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी कृति ‘पद्मावत’ में अपने समय तक की संपूर्ण रचनाओं का उल्लेख किया है-
विक्रम धंसा प्रेम के वारा। सपनावति कहँ गयउ पतारा।।
मधू पाछ मुगधावति लागी। गगन पूरि होइगा बैरागी॥
राजकुँवर कंचनपुर गयउ। मिरगावति कहँ जोगी भएउ॥
साध कुँवर खंडावत जोगू। मधुमालति कर कीन्ह वियोगू॥
प्रेमावति कहँ सुरसर साधा। ऊषा लगि अनिरूध वर बाँधा।
उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी के पूर्व ही ‘सपनावती’, ‘मुरधावती’, ‘मृगावती’ ‘मधुमालती’, ‘प्रेमावती’ ओर ‘ऊषा-अनिरूद्ध’ नामक प्रेमाख्यानक काव्यों की रचना हो चुकी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि जायसी मुल्ला दाऊद-कृत ‘चंदायन’ से परिचित नहीं थे अन्यथा उसका भी उल्लेख अवश्य मिलता।
हिंदी का सर्वप्रथम प्रेमाख्यानक काव्य मुल्ला दाऊद द्वारा लिखित ‘चंदायन’ है, जिसमें नूरक और चंदा की प्रणयगाथा वर्णित है। इसके पश्चात् पूर्वी बंगाल के शासक हुसेन शाह के अनुरोध से कुतुबन ने ‘मृगावती’ नाम का एक काव्य सन् 909 हिजरी में लिखा। इसमें चंदनगर के राजा गणपतिदेव राजकुमार और कंचननगर के राजा रूपमुरार की कन्या मृगावती की प्रेमकथा वर्णित है। मंझन द्वारा रचित ‘मधुमालती’ की भी एक खंडित प्रति विक्रम संवत् 1550-1595 के बीच लिखी प्राप्त हुई है। इसमें कनेसरनगर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर और महारसनगर की राजकुमारी मधुमालती की प्रणयकथा चित्रित है। ‘मुग्धावती’ और ‘प्रेमवाती’ का पता अभी तक नहीं लगा है। मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ नामक काव्य की रचना 927 हिजरी में की, जिसका आधार सिंहलदीप के राजा गंधर्वसेन की कन्या पदावती और चित्तौड़ के राजा चित्रसेन के पुत्र रत्लसेन की प्रणयगाथा है।
प्रमुख सूफी कवि-
प्रमुख प्रेममार्गी कवि निम्नवत् है-
- कुतुबन- ये संवत् 1550 के लगभग शेरशाह के पिता हुसैनशाह के दरबार में रहते थे। ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे। इनकी पुस्तक ‘मृगावती’ जिसका उल्लेख जायसी ने किया है, सन् 909 हिजरी सर्वत् 1558 वि) में लिखी गयी थी। इस पुस्तक में चंद्रगिरि के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर की राजकुमारी की प्रेमकथा का वर्णन है। मृगावती उड़ने की विद्या में निपुण थी। वह राजा को छोड़कर कहीं उड़ गयी थी। राजा उसके वियोग में योगी हो गया और उसकी खोज में निकल पड़ा। इसी बीच उसने एक राक्षस के चंगुल से बचायी हुई कन्या (रूक्मिन) से विवाह किया। अंत में उसका मृगावती से मिलन हो गया। वह दोनों रानियों को लेकर अपने देश को लौट आया। राजा के हाथी से गिर कर मारे जाने पर दोनों रानियाँ सती हो गयीं। कथा के बीच-बीच में प्रेममार्ग की कठिनाइयों का अच्छा वर्णन है, जो साधना के लिए बड़ा उपदेशप्रद है। इसमें रहस्य से भरे हुए कई स्थान हैं।
- मंझन- ‘मधुमालती’ इन्हीं का ग्रंथ है। इसकी कथा ‘मृगावती’ से अधिक रूचिकर है। इस ग्रंथ में कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र राजकुमार मनोहर का महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती के साथ प्रेम और पारस्परिक वियोग की कथा है। पहले नायक को अप्सराओं द्वारा मधुमालती की चित्रसारी में पहुंचाया जाता है। वे एक-दूसरे पर मोहित हो जाते हैं, किंतु वे शीघ्र ही अलग हो जाते हैं। इस प्रकार, एक बार मिलन के पश्चात् विरह होता है, परंतु अंत में फिर मिलन हो जाता है। इसमें प्रेमा और ताराचंद का त्याग अत्यंत सराहनीय है। इसमें विरह का अच्छा महत्त्व दिखाया गया है।
- मलिक मुहम्मद जायसी- ये महाकवि प्रेममार्गी कवियों के प्रतिनिधि माने गये हैं। इनका जन्म गाजीपुर में होना बताया जाता है। जायसी ने अपने ‘आखिरी कलाम’ में अपना जन्म सन् 900 हिजरी (सन् 1493 ई0) में बताया है। 30 वर्ष की अवस्था में यह कविता करने लगे थे-
भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरस ऊपर कवि बदी।
इनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पद्मावत’ का रचना-काल 947 हिजरी (सन् -1557) है। ‘सन् नौ सौ सैंतालिस’ अहा, कथा आरंभ बैन कवि कहा’। ये चेचक के प्रकोप के कारण एक आँख से वंचित हो गये थे। इसी कारण अपनी पुस्तक ‘जायसी’ में एक आँख का होना गौरव की बात बतलायी है तथा शुक्राचार्य से अपनी तुलना की है। ये पीछे से ‘जायस’ (रायबरेली) में रहने लगे थे, इसी से ये जायसी कहलाये।
‘मद्मावत’ सर्वाधिक प्रसिद्ध है। और इनकी सख्याति का स्थायी आधार भी।
जायसी कुरूप और काने थे। इनका बायाँ कान और बायीं आँख बेकार थी। इसका उल्लेख उन्होंने किया है-
मुहम्मद बायीं दिसि, तजा, इक सरवन इक आँख।
इनकी मृत्यु सन् 949 हिजरी में एक शिकारी की गोली से अमेठी में हुई थी। अमेठी के राजा ने वहीं पर इनकी समाधि बनवा दी। जायसी के गुरू कौन थे, इस पर विवाद है। इन्हें चिश्ती संप्रदाय के सूफी निजामुद्दीन औलिया की शिष्य परंपरा में गिना जाता है। जायसी ने इस संबंध में लिखा है-
सैयद असरफ पीर पियारा, जोहि मोहि पंथ दीन्ह उज्जियारा।
रचनाएँ- जायसी ने कितने ग्रंथों की रचना की, यह भी स्पष्ट नहीं है। शुक्ल जी ने ‘जायसी ग्रंथावली’ में इनके तीन ग्रंथ-पद्मावत, अखरावट तथा आखरी कलाम का संवाद किया। किंतु अब उनके निम्नलिखित ग्रंथ प्रकाश में आ गये हैं- पद्मावत, अखरावट, आखरी कलाम, चित्ररेखा, महिरी बाइसी, मसलानामा और कन्हावत।
प्रेमाख्यानक काव्यों में जायसी का महत्त्व- हिंदी के प्रेमाख्यानों में जायसी का स्थान निश्चित रूप से सर्वोच्च है और उनका ‘पद्मावत’ हिंदी के प्रेमख्यानक परंपरा का एक जगमगाता रत्न है। उन्होंने इराक या ईरान के शहजादों तथा शहजादियों की प्रेम-कथा न कहकर हिंदू राजकुमार तथा राजकुमारी की कथा कही है और उसे पूर्ण भारतीय संस्कृति के रूप में उपस्थित किया है। कथा के बीच-बीच में पीर-पैगम्बरों की अवतारणा न करके साधु-संतों और शिव आदि की अवतारणा की है। यह कहना कि जायसी ने पद्मावत के ब्याज से इस्लाम का प्रच्छन्न रूप से प्रचार करना चाहा, सर्वथा भ्रम होगा। जायसी ने प्रेम की अत्यंत मनोवैज्ञानिक पद्धति के द्वारा बड़ी कोमलता एवं काव्यमयता के साथ हिंदू-मुस्लिम हृदयों के अजनबीपन को मिटाया।
रामचरितमानस पद्मावत के 35 वर्ष बाद लिखा गया, किंतु जायसी ने अवध की जनता के मुख से सुनकर लगभग 100 बार पद्मावत में राम-कथा के संदों का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि उस महाकवि ने किस प्रकार हिंदू जन-जीवन से अपने को तदाकार कर लिया था। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार- “जायसी सच्चे पृथ्वीपुत्र थे। वे भारतीय जन-मानस के कितने सन्निकट थे, इसकी पूरी कल्पना करना कठिन है। गांव में रहनेवाली जनता का जो मानसिक धरातल है, उसके ज्ञान की जो उपकरण सामग्री है, उसके परिचय का जो क्षितिज है, उसी सीमा के भीतर हर्षित स्वर में कवि ने अपने गाँव का स्वर ऊंचा किया है। जनता की उक्तियाँ, भावनाएँ और मान्यताएँ मानों स्वयं छंद में बंधकर उनके काव्य में गूंथी गयी हैं।”
इसलिए मानना पड़ता है कि हिंदू-मुसलमानों को हृदय के स्तर पर मिलाने का काम सबसे अधिक सूफियों ने किया और उनमें भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रयत्न जायसी का था। कबीर की भाषा फटकार की भाषा थी, तर्क की भाषा थी इसीलिए उनकी अपेक्षा जायसी ने अनुभूति की भाषा में वही कार्य अधिक प्रभावशाली ढंग से किया।
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