शिक्षाशास्त्र

शिक्षा में यथार्थवाद का मूल्यांकन | यथार्थवादी शिक्षा की विशेषताएँ

शिक्षा में यथार्थवाद का मूल्यांकन | यथार्थवादी शिक्षा की विशेषताएँ

शिक्षा में यथार्थवाद का मूल्यांकन

यथार्थवाद केवल एक दर्शन के रूप में अन्य दर्शनों की तरह अपनी कुछ विशेषताएँ रखता है। एक शिक्षा-दर्शन के रूप में उसके अनुसार शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षाविधि आज भी अपनी विशेषताओं के साथ पाये गये हैं। इन पर हमने कुछ प्रकाश डाला है लेकिन केवल वर्णनात्मक ढंग से। यहाँ हम आलोचनात्मक ढंग से ऐसा प्रयत्न करेंगे। अतएव इसके गुण-दोष का विवेचन यहाँ होगा।

गुण-

(1) यह विचारधारा शिक्षा को कल्पना जगत से हटा कर यथार्थ जगत में रखती है। वास्तविक जगत के अनुकूल जीवन की तैयारी भी यह कराती है। अतएव एक ठोस आधार पर शिक्षा होती है।

(2) यह विचारधारा व्यक्तिगत आवश्यकताओं, रुचियों, शक्तियों, योग्यताओं का परिचय कराती है और तदनुकूल शिक्षा की व्यवस्था कराती है। इसलिए सफलता की सम्भावना अधिक होती है।

(3) इन्द्रिय प्रशिक्षण पर बल दिया जाता है जिससे भौतिक सुख की प्राप्ति होती है। अस्तु ‘ज्ञान जीवन के लिये’ का नारा लगाया जाता है। ज्ञान और जीवन जुड़ गये हैं।

(4) इस विचारधारा के अनुसार सामाजिक जीवन को पूर्ण एवं सुखमय बनाने के लिये शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास का लक्ष्य होता है। इस पर बल दिया जाता है।

(5) शिक्षा के पाठ्यक्रम में उपयोगी विषयों को रख कर उसे व्यापक बनाया गया है जिससे शिक्षा लेने वालों को व्यापक रूप से चुनाव का अवसर भी मिलता है। विज्ञान, उत्पादन, उद्योग, व्यवसाय के क्षेत्र में इससे विकास हुआ है, भाषा-साहित्य, कला का भी क्षेत्र बढ़ा है। पाठ्यक्रम निर्माण के बहुत से नये सिद्धान्त बन गये हैं।

(6) नवीन वस्तुनिष्ठ विधियों का निर्माण करके इस विचारधारा ने बच्चों का बड़ा उपकार किया है। सहयोगी वस्तुओं की सहायता से सीखने की क्रिया मूर्त बन गई और अनुभव ग्रहण करना सरल हो गया।

(7) यथार्थवाद प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण पर विशेष बल देता है और विद्यालय में इसे प्रदान करके शिक्षा की प्रक्रिया को उत्तम ढंग से सम्पन्न किया गया । यह एक बड़ी विशेषता कही जाती है।

(8) विद्यालय के प्रति नया दृष्टिकोण बना। विद्यालय एक सामाजिक संस्था बना, समाज का केन्द्र हो गया और वहाँ के वातावरण से समाज के सफल सदस्यों का निर्माण करना सम्भव हुआ।

(9) शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों को इस विचारधारा ने महत्व दिया। शिक्षा के वृत्त में शिक्षार्थी केन्द्र हुआ तथा शिक्षक अर्द्ध व्यास और वातावरण परिधि हो गया। इससे वातावरण के अनुकूल शिक्षा की क्रिया चलने लगी तथा शिक्षक एवं शिक्षार्थी के साथ समायोजन करने वाले बन गये।

(10) इस विचारधारा ने लोगों को अदृश्य जगत की ओर से वास्तविक जगत की ओर खींच लिया जहाँ हम सभी ने जन्म लिया, काम किया और सारा जीवन व्यतीत किया, फिर तो उसमें विश्वास करना ही पड़ेगा। इसने अंध-विश्वास एवं कूपमंडूकता, संकीर्णता आदि दूर किया। वास्तविक दृष्टिकोण के नियम के निर्माण में इसने सहायता दी।

(11) धर्म और नैतिकता, कर्तव्यपरायणता, मानवता आदि के प्रति मनुष्य को सजग किया। यह इस विचारधारा के अन्तर्गत की जाने वाली शिक्षा का गुण है।

दोष-

(1) इस विचारधारा ने मनुष्य के शरीर को भौतिक माना और मन तथा आत्मा को अलग कर दिया, इनसे मनुष्य में दोषयुक्त चिन्तन का विकास हुआ। अनेकवाद, संशयवाद, सुखवाद, उपयोगितावाद जैसे अलग-अलग सम्प्रदाय खड़े हो गये। फलस्वरूप लोग शंकालु, निराशावादी, संदेहवादी, भोगवादी हो गये हैं।

(2) इस विचारधारा ने भौतिक जीव को आध्यात्मिक मूल्य से अलग कर दिया जिससे भौतिकता का प्रचार और प्रसार आ। ऐसा दृष्टिकोण जीवन के लिए घातक भी होता है। इससे परस्पर के सम्बन्ध टूट गये।

(3) यह विचारधारा भौतिक जगत के परे कुछ नहीं मानती। लेकिन इस जगत के परे दूसरे जगत के अस्तित्व का विश्वास कैसे हुआ? यहाँ चिन्तन में विरोधाभास है।

(4) शिक्षा में इस विचारधारा के अनुसार केवल तथ्यों को महत्व दिया गया है। इसके कारण लोगों में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अनुशासनहीनता और मानवता भी आ गयी है। इससे नई समस्याएँ भी खड़ी हो गई हैं।

(5) शिक्षा का उद्देश्य तथ्यों का ज्ञान प्रदान करना तथा वातावरण से समायोजन करना अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसा उद्देश्य एकांगी लगता है। इसी से समाज के अधीन व्यक्ति हो गया जैसा कि साम्यवादी देशों में हैं।

(6) पाठ्यक्रम का निर्माण आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर होने से विज्ञान, भाषा तथा व्यावसायिक विषयों को अधिक महत्व मिला। उदार शिक्षा की उपेक्षा हुई जिससे मनुष्य के संस्कारों का शोधन नहीं होता ।

(7) विज्ञान की प्रगति से संसार का कल्याण हर प्रकार से सम्भव नहीं है। इससे नुकसान भी अधिक हो रहा है।

(8) शिक्षाविधि के क्षेत्र में आज शिक्षण मशीन, श्रव्य-दृश्य सामग्री आदि के प्रयोग से शिक्षक की कोई आवश्यकता, उपयोगिता एवं महत्ता नहीं रह गई। यह भी एक घातक परिणाम है।

(9) शिक्षार्थी के सम्बर में भी अपर्याप्त विचार मिलते हैं, उसके “निर्माण” पर अधिक बल दिया गया है।

(10) शिक्षालय समाज का केन्द्र हो जाने से समाज की बुराइयाँ उसमें आ गयी है। अपने देश में इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। विद्यालय राजनीति के अखाड़े होकर शैक्षिक प्रगति में बाधक बन रहे हैं।

(11) शिक्षा के अधिकारी एवं प्रशासक शुद्ध एवं उदात्त विचारों से नहीं स्वार्थ के विचारों से काम कर रहे हैं। विश्वविद्यालय, डिग्री कालेज, इण्टर कालेज, हाई स्कूल और प्राइमरी स्कूल के लोगों में स्वार्य है। एक दूसरे को आगे बढ़ाने-बढ़ने का विचार नहीं है। इससे उदात्त गुणों का विकास नहीं होता है।

उपर्युक्त दोषों के होते हुए भी भौतिक प्रगति एवं विकास में यथार्थवादी विचारधारा का योगदान महान माना जाता है। इसने मनुष्यों को ऊँचा उठाने का एक संदेश दिया जिससे सभी स्तर के लोगों को शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान की गई और इस तरह से मानव जाति के उत्थान का श्रेय यथार्थवाद को दिया जाना चाहिए।

यथार्थवादी शिक्षा की विशेषताएँ

संक्षेप में हम यहाँ यथार्थवादी शिक्षा की विशेषताओं को बतायेंगे जिससे पूरी शिक्षा- व्यवस्था का पुनरावलोकन किया जा सके।

(i) यथार्थवादी शिक्षा मनुष्य के वर्तमान, वास्तविक एवं व्यावहारिक जीवन पर बल देती है। इसका कोई सम्बन्ध भविष्य जीवन में नहीं होता है।

(ii) यथार्थवादी शिक्षा एक मानवीय-सामाजिक संस्था है जो मानव को समाज के जीवन के लिए तैयार करने में सहायक होती है।

(iii) यथार्थवादी शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान, शाब्दिक ज्ञान की अपेक्षा इन्द्रिय-निरीक्षित ज्ञान, क्रिया से प्राप्त ज्ञान पर बल देती है, उसे प्राप्त कराती है।

(iv) यथार्थवादी शिक्षा का पाठ्यक्रम उपयोगी पाठ्यक्रमों एवं क्रियाओं से पूर्ण होता है जिससे मनुष्य का पूर्ण निर्माण होता है और समाज का वह उपयोगी सदस्य बनता है। पाठ्यक्रम व्यापक, विविध, विस्तृत और व्यावहारिक होता है।

(v) यथार्थवादी शिक्षा में विज्ञान, वैज्ञानिक विश्लेषण-संश्लेषण, परीक्षण एवं अनुभव पर अधिक बल दिया जाता है अतएव यघार्य जीवन में मनुष्य रहता है न कि कल्पना-जगत में।

(vi) सहायक सामग्री, अध्यदत्य साधन, यन्त्र, उपकरण आदि की सहायता से यथार्थवादी शिक्षक शिक्षा देने के क्रम में अधिकाधिक होते जा रहे हैं। इससे ज्ञान चिरस्थायी बनता है।

(vii) समाज केन्द्रित विद्यालयों की स्थापना, प्राकृतिक तत्वों एवं सामाजिक संस्थाओं को महत्व देना यथार्थवादी शिक्षा में सम्भव हो गया है। इससे समायोजन सरल होता है। जीवन सफल बनता है। सुख की प्राप्ति होती है।

(viii) सामान्य शिक्षा, उदार शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, विशेष-शिक्षा आदि पर सामान्य रूप से ध्यान दिया गया है फलस्वरूप सभी का विकास हुआ है।

(ix) व्यापक एवं संकुचित दोनों दृष्टिकोण से शिक्षा दी जाने की संस्तुति की जाती है अतएव यथार्थवादी शिक्षा में मानव जीवन में पूर्णता प्राप्त करने का प्रयल होता है।

(x) शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य समीपी सम्पर्क स्थापित करके विद्यालय में सामाजिक भावनापूर्ण अनुशासन की प्रवृत्ति का विकास यथार्थवादी करता है। इसीलिए तो विद्यालय को शिक्षार्थी के निर्माण का स्थल माना जाता है।

(xi) यथार्थवादी विचारधारा के बढ़ने से विभिन्न प्रकार के विद्यालय, सह-शिक्षा एवं क्रमशःवादी शिक्षा का प्रचार हो रहा है। भारत में (10+2+3) की व्यवस्था एक उदाहरण है।

(xii) जनसाधारण की शिक्षा के लिए यथार्थवादी विचारधारा में एक विशेष स्थान होता है। शिक्षा जन-समूह (Mass) के लिए होती है न कि केवल कुछ विशेष व्यक्तियों के लिए। इस प्रकार यथार्थवादी शिक्षा में जनतांत्रिक दृष्टिकोण रहता है।

(xiii) जनसमूह के कल्याण का विचार रखते हुए जनसमूह की शिक्षा का भार राज्य पर होता है। यथार्थवादी शिक्षा में यह भी एक विशेषता है। भारत में राष्ट्रीयकरण की व्यवस्था के लिए प्रयत्न इसका एक उदाहरण है।

(xiv) धर्म निरपेक्ष भावना से शिक्षा का विकास करना भी यथार्थवादी शिक्षा की एक विशेषता कही जाती है।

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Pankaja Singh

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