शिक्षाशास्त्र

शिक्षा में प्रयोजनवाद की आलोचना | प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षालय

शिक्षा में प्रयोजनवाद की आलोचना | प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षालय

शिक्षा में प्रयोजनवाद की आलोचना

प्रयोगवाद ने शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, विधि, अनुशासन, अध्यापक, शिक्षार्थी, विद्यालय सभी पर कुछ न कुछ प्रभाव डाला है। शिक्षा का अर्थ एक सामाजिक, प्रगतिशील, गत्यात्मक तथा विकास की प्रक्रिया के रूप में लिखा है और यह अर्थ आज तक सभी शिक्षाशास्त्री मानते चले आ रहे है। इसके साथ इसके सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्ष पर बल देकर इसने समाज एवं व्यक्ति को समन्वित एवं संश्लिष्ट स्वरूप प्रदान करने का प्रयत्न किया है। परन्तु एक कमी यह रह गई कि इसने सामाजिक पक्ष पर अत्यधिक बल दिया है।

शिक्षा का कोई निश्चित उद्देश्य प्रयोजनवाद ने नहीं माना है अतएव किस आदर्श तक पहुँचने का व्यक्ति प्रयल को यह मालूम नहीं हो पाता है। सामाजिक अनुकूलन, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति जैसे लक्ष्य के ऊपर प्रयोजनवाद ने जोर दिया है परन्तु यह किस सीमा तक सम्भव है इसका सन्तोषपूर्ण उत्तर देने में प्रयोजनयाव सफल नहीं रहा।

पाठ्यक्रम की दृष्टि से प्रयोजनवादी विचारों को अधिक मान्यता मिली है। बालकों की आवश्यकता, रुचि, योग्यता, अनुभव के अनुकूल पाट्य विषय एवं क्रियाओं को निर्धारित करना अच्छा होता है। पाठ्यक्रम की क्रियाशीलता एवं एकीकरण स्वरूप प्रदान करने में भी प्रयोजनवाद को श्रेय मिलता है।

शिक्षा विधि में अनुभव, स्वप्रयल, क्रिया तथा सह-सम्बन्ध एवं एकीकरण को महत्व दिया गया है। योजना विधि एक नई विधि है जिससे जीवन की वास्तविक समस्याओं का समाधान शिक्षार्थी करता है और सफल जीवन व्यतीत करता है। इस क्षेत्र में भी प्रयोजनवाद ने सराहनीय कार्य किया है। यह आवश्यक है कि सह-सम्बन्ध की विधि जटिल होती है और सफलतापूर्वक उसे प्रयोग करना एक कठिन कार्य है।

अनुशासन के क्षेत्र में सामाजिक अनुशासन पर बल दिया गया है जहाँ बालक अपने आप अपने साथियों के सहयोग से गुणों को धारण करता है। सामाजिक सम्पर्क से सच्चा अनुशासन कायम होता है। परन्तु इसके लिए अच्छे समाज का होना जरूरी है अन्यथा जो दुर्दशा हम अपने देश में पाते हैं वह इसका दुष्परिणाम होता है।

शिक्षक, शिक्षार्थी तथा विद्यालय के सम्बन्ध में कुछ नया दृष्टिकोण प्रयोजनवाद ने उपस्थित किया है जो आधुनिक युग में सभी देशों में मान्य है। समाज व्यक्तियों का सद्प्रयोजन पूर्ण संगठन होता है अतएव शिक्षक, शिक्षार्थी तथा शिक्षालय इस सद्प्रयोजन के साथ सामूहिक प्रगति के लिए प्रयल करे, ऐसा प्रयोजनवाद को स्वीकृत है। आज सामूहिक हित को भावना का संचार, प्रचार एवं प्रयोग मानव जीवन की एक आवश्यकता है अस्तु, इस दिशा मेंप्रयोजनवाद का कार्य स्तुल्य हैं। आलोचकों ने इनके अलावा निम्नलिखित गुण-दोष की ओर भी संकेत किया है-

गुण-

(1) बालक को शिक्षा का केन्द्र मानना न कि ज्ञान या विषय को।

(2) बालक को समाज का सक्रिय सदस्य बनाने का प्रयल करना।

(3) क्रियाशीलता को सूक्ष्म विचारों की अपेक्षा अधिक महत्व देना।

(4) क्रियाशील शिक्षा विधि अर्थात् प्रोजेक्ट विधि से शिक्षा देने का प्रयल करना।

(5) शिक्षा व्यावहारिक जीवन में सफलता प्रदान करे ऐसी युक्ति से काम करना।

(6) स्वतन्त्रता, समानता, अधिकार-कर्तव्य का सन्तुलन, सहयोगी एवं सहकारी जीवन व्यतीत करना, ऐसे गुणों का विकास करना।

(7) सामाजिक एवं जनतांत्रिक शिक्षा पर बल देना और सामाजिक कुशलता का लक्ष्य सामने रखना।

(8) शिक्षा के क्षेत्र में नई चीजें देना-समस्या समाधान की पद्धति, क्रियाप्रधान पाठ्यक्रम, सहसम्बन्ध एवं एकीकरण, प्रगतिशील शिक्षा, सोद्देश्य सीखने की प्रणाली आदि। शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति लाना।

दोष-

(1) कोई निश्चित उद्देश्य न रखकर छात्रों को निर्दिष्ट दिशा में न ले जाना ।

(2) सत्यं शिवं सुन्दर को परिवर्तनशील मानना, इससे क्या धारण किया जाये यह ज्ञात न होना।

(3) आध्यात्मिक जगत, धर्म, नैतिकता आदि की अवहेलना के ठेठ भौतिकवादी जीवन पर जोर देना, एकांगी दृष्टिकोण होना ।

(4) सिद्धान्त पर बल देने से बहुत-सी चीजों को उचित महत्व नहीं मिलता है अतएव दूषित विचारधारा होना।

(5) सांस्कृतिक आदर्श, मानक, प्रतिदर्श को हमेशा नया रूप देने से इनमें कोई स्थिरता नहीं आ पाती है जिससे लोगों को इन्हें स्वीकारने में. कठिनाई होना।

(6) प्रयोजनवादी मानव बुद्धि को कम और उसकी प्रवृत्ति एवं भावना को अधिक महत्व देते हैं, यह अनुचित है।

(7) कार्य कुशलता पर आवश्यकता से अधिक बल देना अनुचित है।

प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षालय-

प्रयोजनवादी दर्शन का दृष्टिकोण शिक्षक के सम्बन्ध में आदर्शवाद से बिल्कुल भिन्न है। यह दृष्टिकोण प्रकृतिवाद से मिलता-जुलता है। प्रयोजनवाद शिक्षक को गौण स्थान देता है। उसकी भूमिका शिक्षार्थी को स्वतन्त्र ढंग से कार्य करने में प्रोत्साहन प्रदान करने की होती है। स्वतन्त्र, स्वोपक्रमशील ढंग से कार्य करने में जो कठिनाई शिक्षार्थी को अनुभव हो उसमें सहायता एवं निर्देशन देना शिक्षक का कार्य है। “प्रयोजनवादी शिक्षक सुकरात की भाँति अपने विद्यार्थी को अपने आप सोचना और काम करना, जानने की अपेक्षा क्रिया करना, दोहराने की अपेक्षा अन्वेषण करना पसन्द करता है।” ऐसी स्थिति में अध्यापक स्थित प्रज्ञ, दूरदर्शी, ज्ञानवान और व्यावहारिक होता है और इन गुणों की अपेक्षा उससे की जाती है। शिक्षक का सबसे बड़ा कर्तव्य यह होता है कि वह जीवन की समस्याओं को विद्यार्थियों के सामने प्रस्तुत करता है और उन समस्याओं के समाधान में विद्यार्थियों को जुटाता है। मनोवैज्ञानिक विधि से वह उन्हें कार्य में लगाता है और अपने लोकतन्त्रीय व्यवहार से उन्हें प्रसन्न रखता है। यह अवश्य है कि शिक्षक सही ढंग से समाज का नेतृत्व करता है और इसके फलस्वरूप समाज के कुशल एवं योग्य सदस्य तैयार करने का उत्तरदायित्व रखता है। वह स्वयं क्रियाशील होता है तथा विद्यार्थियों को क्रिया में लगाये रहता है।

शिक्षार्थी प्रयोजनवादी दर्शन के विचार से शिक्षक का केन्द्र होता है जैसा कि प्रकृतिवाद मानता है। प्रयोजनवादी इस बात का समर्थन करते हैं कि शिक्षार्थी की रुचि, योग्यता, शक्ति, प्रवृत्ति आदि का ध्यान रखकर शिक्षा की व्यवस्था सामाजिक पर्यावरण में की जावे | पाठ्यक्रम, शिक्षा विधि एवं शिक्षालय संगठन में इन सभी बातों का ध्यान रखा जावे। शिक्षार्थी को स्वतन्त्र क्रिया, स्वानुभव, स्वयं खोज के सभी अवसर और साधन प्रदान किये जावें। शिक्षार्थी स्वयं मूल्यों को धारण करे। उस पर कोई चीज लादी न जावे बल्कि अपने मन से वह करे और सीखे। शिक्षार्थी ऐसा प्रयल करे कि उसकी व्यक्तिगत एवं सामाजिक शक्तियों का समुचित विकास हो जावे। शिक्षार्थी में सामाजिक हित की भावना का विकास करने के लिए उसे समाज के कामों में भाग लेने का अवसर दिया जाये । प्रयोजनवादी दर्शन समाज के साथ लोकतंत्र के निर्माण की ओर भी ध्यान देता है, इसलिए शिक्षार्थी से यह आशा की जाती है कि वह लोकतंत्रीय दृष्टिकोण अपनावे | ऐसी दशा में उसे परस्पर मिलजुल कर कार्य करने की आदत का निर्माण करना अत्यन्त आवश्यक है। लोकतंत्र एक प्रकार से सहयोगी जीवन व्यतीत करने की एक विधि है। इस दृष्टि से प्रत्येक विद्यार्थी अध्यापक एवं अन्य विद्यार्थियों के साथ समभाव तथा घनिष्ठ सम्पर्क रखे। विद्यालय में इन गुणों के विकास का प्रयत्न किया जावे।

शिक्षालय के सम्बन्ध में प्रयोजनवादियों का विचार आदर्शवादियों एवं प्रकृतिवादियों से बिल्कुल अलग है। प्रयोगवादी शिक्षालय को सामाजिक क्रिया का एक प्रतिदर्श मानते है। इस आधार पर विद्यालय समाज का लघु रूप होता है। शिक्षालय समाज में पाये जाने वाले जीवन की शिक्षा देने का स्थल होता है जहाँ शिक्षार्थी जीवन की वास्तविक समस्याओं का समाधान करने की योग्यता प्राप्त करता है। शिक्षालय के बारे में प्रयोजनवादी विचार यह है कि वह समुदाय केन्द्रित होता है। इसका तात्पर्य यह है कि समुदाय के लोग विद्यालय में आते हैं, विद्यालय में समुदाय के क्रिया-कलाप सम्पन्न होते हैं और समुदाय के लोगों के साथ विद्यार्थी एवं अध्यापक मिलते-जुलते और कार्य करते हैं। यह समाजवादी धारणा विद्यालय के सन्दर्भ में एवं उसके बारे में बिल्कुल नई है। एक अन्य विचार यह है कि विद्यालय समाज की प्रयोगशाला है। इसका तात्पर्य यह है कि विद्यालय में समाज के सुधार, उसकी प्रगति, उसकी समृद्धि एवं सम्पन्नता के लिए शिक्षा दी जाती है। इस आधार पर विद्यालय मानव समाज का वह उपयोगी अंग है जिससे मानवता का विकास होता है। ऐसी विशद् व्यापक, मानवीय और समाज हित की संख्या विद्यालय को प्रयोजनवाद में माना गया है। अतएव प्रयोजनवादी विद्यालय की व्यवस्था लोकतन्त्रीय ढंग से होती है।

प्रो० डीवी प्रयोजनवाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में उपर्युक्त सभी विचारों से सहमत हैं। उनके विचार में शिक्षक एक कुशल बढ़ई के समान हैं जिनका काम समाज के बच्चों को निर्देशन एवं मार्ग-दर्शन करना है। ऐसी दशा में वह समाज का सच्चा सेवक होता है, और नेता भी। वह बालकों के स्वतन्त्र विकास में सहायता देता है। मनोवैज्ञानिक ढंग से उन्हें आगे बढ़ाता है, अपने अनुभव एवं ज्ञान से बच्चों को लाभान्वित करता है। जैसे एक मित्र दूसरे मित्र की सहायता करता वैसे अध्यापक भी विद्यार्थी की सहायता करता है। वह ज्ञान का भार बच्चों को नहीं देता है बल्कि उन्हें अच्छे वातावरण और स्वयं ज्ञान खोजने के लिये प्रवृत्त करता है और इस प्रकार वे विकास करते हैं। देखिये प्रो० पुरी का कथन जैसे प्रो० डीवी के ही विचार हैं-

भारतीय प्रतिनिधि गांधी जी अपने को प्रयोजनवादी न रख सके और एक आदर्शवादी की भाँति उन्होंने शिक्षक को बालक के चरित्र, व्यक्तित्व, ज्ञान, प्रतिभा, बुद्धि तथा कौशल के विकास के लिए पूर्ण जिम्मेदार माना है। इस प्रकार प्रो० डीवी से भिन्न गांधी जी के विचार हैं जिसमें शिक्षक को अधिक महत्व प्रदान किया गया है, वह एक प्रकार से प्राचीन ‘गुरु’ का पद ग्रहण करता है।

शिक्षार्थी के सम्बन्ध में प्रो० डीवी का दृष्टिकोण जनतांत्रिक है और उसे अपने विकास के लिए सभी साधन तथा अवसर प्राप्त करने का अधिकारी माना है तथा शिक्षा का एकमात्र केन्द्र स्वीकार किया है। शिक्षार्थी अपने प्रयोग, प्रयल तथा कार्यशीलन से सभी व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुणों को प्राप्त करे तथा एक कुशल गृहस्थ, नागरिक तथा व्यवसायी बने । शिक्षक के समान यह समाज, शिक्षा और जीवन को प्रगति-पथ पर ले जाने का उत्तरदायित्व वहन करे। गांधी जी ने भी शिक्षार्थी को समाज का कमाऊ, उपयोगी एवं उत्तरदायी सदस्य माना है जो सदाचारी, ब्रह्मचारी तथा कर्तव्यपालन करने वाला भी हो । अतः गांधी जी के आदर्शवादी एवं प्रयोजनवादी विचारों का संश्लेषण किया है। इन्होंने लिखा है कि “विद्यार्थियों को अपने भीतर खोजना चाहिये और अपने व्यक्तिगत चरित्र की देखभाल करनी चाहिए क्योंकि बिना चरित्र के शिक्षा किस काम की?”

शिक्षालय को सम्बन्ध में प्रो० जीबी ने कहा है कि यह समाज का लघुरूप है समाज सच्चा प्रतिनिधि है और समाज की प्रयोगशाला है। बात सही है। और प्रोफेसर डीवी ने ‘समुदाय के केन्द्र” “प्रगतिशील विद्यालय’ का विचार प्रकट किया है। विद्यालय ज्ञान को सरल ढंग से प्रदान करने की संस्था है। यह जनतन्त्र को सुरक्षित रखने का साधन है। विद्यालय का यह कर्तव्य है कि वह बालकों को उत्तम वातावरण प्रदान करे और प्रत्येक यक्ति को ऊँचे उठाने में सहायक हो। विद्यालय डीवी के विचार में, परिवार तथा समाज को जोड़ने वाला होता है। डीबी के लिये विद्यालय कार्यशील नागरिकों के जीवन का स्थल है।

भारतीय प्रयोजनवादी गांधी जी ने विद्यालय को प्राचीन आदर्शमय आश्रम के रूप में सीधा-सादा साधन माना है तो दूसरी और ऐसे वातावरण से युक्त माना है जहाँ शरीर, मन, आत्मा का विकास हो । डीवी के समान ही गाँधी जी ने विद्यालय को समुदाय में बदलना चाहा जिससे वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास साथ-साथ हो। इस सम्बन्ध में प्रो० पटेल के शब्द विचारणीय है-

गांधी जी ने विद्यालय को जनतन्त्र की रक्षा करने वाला साधन माना है, जहाँ योग्य, आत्मनिर्भर तथा जीविकोपार्जन करने वाले नागरिक का निर्माण किया जा सके। इन विचारों से ज्ञात होता है कि डीवी और गांधी जी के विचारों में अधिक मेल है। गांधी जी आदर्शवाद की ओर झुके हुए हैं जबकि डीयी एक मात्र प्रयोजनवादी ही बने रहे।

शिक्षाशास्त्र महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!