शिक्षा में आदर्शवाद | आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का अर्थ | आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य | Idealism in Education in Hindi | Meaning of education according to idealism in Hindi | Aim of education according to idealism in Hindi
शिक्षा में आदर्शवाद
प्राचीन काल से आज तक शिक्षा विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का प्रभाव समयानुकूल पड़ता चला आया है। ऐसी दशा में आदर्शवाद ने भी शिक्षा के अर्थ, स्वरूप, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों, शिक्षक-शिक्षार्थी के ऊपर पूरा-पूरा प्रभाव डाला है और उसके निर्माण में अपना योगदान किया है। आदर्शवादी पाश्चात्य दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री प्लेटो और भारतीय शिक्षाशास्त्री विवेकानन्द ने उदाहरणस्वरूप अपने जो विचार दिये हैं उन्हें भी जान कर हम शिक्षा में आदर्शवाद के औचित्य एवं अनुप्रयोग को समझ सकते हैं। अतः इस स्थान पर हम सामान्य रूप से आदर्शवाद का शिक्षा पर प्रभाव देखेंगे और विशेष रूप से प्लेटो तथा विवेकानन्द का भी विचार इनके प्रसंग में पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोणों को प्रकट करने के लिये देंगे।
(i) आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का अर्थ-
सामान्य रूप से आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य उस अनुभव तथा ज्ञान और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया से है जिसके कारण मनुष्य में मूल्य, सद्गुण और आदर्श बढ़ते हैं और उसका चतुर्दिक विकास होता है तथा आत्मानुभूति होती है, ईश्वर की प्राप्ति होती है। (Education means that experience and knowledge and the process to acquire it on account of which values, virtues and ideals grow in man and his all-round development takes place and self- realization is achieved, attainment of God takes place.)
इससे स्पष्ट है कि शिक्षा के क्षेत्र में आदर्शवाद का एक विशिष्ट स्थान है।
प्लेटो ने बताया है कि “शिक्षा ज्ञान, विवेक, सद्गुण का व्यक्ति में विकास करता है। जिससे कि वह समाज के साथ अच्छी तरह समायोजन करता है और बुराइयों को दूर करता है।”
प्रो० काण्ट ने दूसरे प्रकार से इसी विचार को प्रकट किया है: “इस जगत में सफलता प्राप्त करने की योग्यता प्राप्ति ही शिक्षा नहीं है बल्कि मानवता के बाद से समाज के लिए तैयारी ही शिक्षा है।”
फ्रोबेल ने थोड़ा आगे बढ़ कर आदर्शवादी शिक्षा का तात्पर्य दिया है: “शिक्षा मानव जीवन के लगातार विकास की क्रिया है जो उसे भौतिक ज्ञान देती है और आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ले जाती है और अन्त में ईश्वर के साथ एकता कराती है।”
अब हम भारतीय दृष्टिकोण से भी शिक्षा के अर्थ पर विचार करते हैं। भारतीयों के आदर्शवादी विचार से शिक्षा का अर्थ है “सा विद्या या विमुक्तये” अर्थात् वही विद्या (शिक्षा) है जो मुक्ति दिलावे मुक्ति के लिये मनुष्य में अच्छा आचरण होना जरूरी है उसे अच्छे कर्म करना जरूरी है। गीता में निष्काम कर्म करने, भगवान का स्मरण करने और अपने आपको भगवान को समर्पण करने में मुक्ति होती है। अतएव शिक्षा मनुष्य की मुक्ति का साधन है। (Education is the means of salvation of man)।
ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा है कि “शिक्षा वह है जो मनुष्य को सच्चरित्र और मानवता के लिये उपयोगी बनाती है।” (Education is that which makes man of good Character and capable to serve humanity)। यह किस प्रकार सम्भव है? इसका उत्तर स्वामी विवेकानन्द ने दिया है। उनका विचार है कि जब तक मनुष्य अपने आपको नहीं जानता है वह मानवता के लिये उपयोगी नहीं बन पाता है। मनुष्य क्या है? इसके उत्तर में स्वामी जी ने बताया है कि वह ‘पूर्ण ब्रह्म’ है और इसी पूर्णता को समझना या प्रकट करना सच्ची शिक्षा है। इसलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से उपस्थित पूर्णता का प्रकाशन है।”
आगे उन्होंने स्पष्ट किया है कि पूर्णता भौतिक और आध्यात्मिक तत्वों के ज्ञान की प्राप्ति में पाई जाती है जिससे कि मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करता है। (Education gives knowledge of secular and spiritual elements so that man attains God.) I
ऊपर के भारतीय तथा पाश्चात्य दृष्टिकोणों को ध्यान में रख कर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा वह सांसारिक और आध्यात्मिक अनुभव ज्ञान है जिससे मनुष्य को पूर्णता प्राप्त होती है, मुक्ति मिलती है अथवा ईश्वर मिलता है। शिक्षा इस प्रकार से मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा का विकास है। (According to Idealism education is that secular and spiritual experience-knowledge by which man attains perfection, salvation or God. Education is thus development of man’s body, mind and soul.)
(ii) आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य-
आदर्शवाद के अनुसार हम शिक्षा का उद्देश्य आत्मा की अनुभूति (Realization of self) मानते हैं। आत्मा की अनुभूति एक ऐसा आदर्श है जिसमें मनुष्य की आध्यात्मिकता का पूर्ण प्रकाशन होता है। आत्मा की अनुभूति उस समय पूर्ण कही जा सकती है जब मनुष्य मन-कर्म से शुद्ध होकर, भक्तिभावना के साथ, अपना सब कुछ भगवान को और उसकी सृष्टि (मानव, पशु सभी) को अर्पण कर देता है, वह अपने आपको तथा संसार के सभी लोगों के हित में अपने जीवन को लगा देता है। यही उसे आध्यात्मिक, अलौकिक, अमर सत्य, ज्ञान और आनन्द की प्राप्ति होती है। शिक्षा का अन्तिम एवं परम उद्देश्य यही आत्मानुभूति है। प्रो० रॉस ने लिखा है कि “आदर्शवाद के साथ विशेष रूप से सम्बन्धित शिक्षा का उद्देश्य है आत्मानुभूति या आत्मा की सर्वोच्च शक्तियों को वास्तविक बनाना।” (The aim of education specially
highest potentialities of the self.) associated with idealism is self-realization, the making actual or real the
-Prof. Ross.
आत्मानुभूति कई ढंग से होती है अतएव आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा के कई उद्देश्य होते हैं। आत्मानुभूति के प्रकाशन के लिये व्यक्ति निजी एवं सामाजिक तौर पर जैसे प्रयत्न करता है वैसे ही उसकी शिक्षा के उद्देश्य जाते हैं। इस दृष्टि से आदर्शवादियों ने आत्मानुभूति से सम्बन्धित निम्नखित उद्देश्य रखे हैं-
(अ) शारीरिक शक्तियों के विकास का उद्देश्य – पाश्चात्य एवं भारतीय दानों दृष्टिकोणों से यह उद्देश्य मान्य है। प्राचीन काल एवं आज भी यह उद्देश्य आदर्शवादियों को स्वीकार है। अपने देश में मनुष्य के शरीर व्यक्तित्व का विकास विवेकानन्द, गांधी, अरविन्द, दयानन्द सभी ने बताया है क्योंकि ‘शरीरमाद्य खलु धर्म साधनम्’- सभी कार्यों को पूरा करने के लिये शरीर (स्वास्थ्य) आवश्यक है। अरस्तू ने भी कहा था, “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन’ (Healthy mind in a healthy body) । स्वस्थ शरीर होना भी एक आदर्श है। इसीलिए प्लेटो ने भी ‘जिमनास्टिक’ पर जोर दिया था जिससे शरीर का विकास हो, आत्मा का विकास हो।
(ब) बौद्धिक शक्तियों के विकास का उद्देश्य- बिना बुद्धि के अनुभव ज्ञान नहीं होता, बिना ज्ञान से विवेक नहीं होता है, बिना विवेक के सत्यं शिवं सुन्दरं को समझन ग्रहण करना और प्रयोग करना सम्भव नहीं है। बिना बौद्धिक क्षमता के मनुष्य आत्मानुभूति नहीं कर सकता है, अतएव आत्मानुभूति के उद्देश्य के साथ जुड़ा हुआ यह उद्देश्य-बौद्धिक शक्तियों के विकास का उद्देश्य-आदर्शवादियों ने बताया है। मेधा (बुद्धि) के विकास पर प्राचीन काल से ही जोर दिया जाता रहा है। पाश्चात्य एवं भारतीय आदर्शवादी इस उद्देश्य से पूर्ण सहमत हैं।
(स) चारित्रिक, नैतिक एवं इन्द्रिय निग्रह की शक्तियों के विकास का उद्देश्य- प्रो० हरबार्ट ने लिखा है कि शिक्षा का एकमात्र कार्य नैतिकता का विकास करना है। ऋषि याज्ञवल्क्य ने भी कहा है कि शिक्षा उत्तम चरित्र का विकास करती है। गाँधी जी ने भी जोर देकर कहा था कि सच्ची शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य के चरित्र को विकसित करना है। योग-दर्शन के अनुसार शिक्षा इन्द्रिय निग्रह है अतएव उसका उद्देश्य कर्मेन्द्रिों एवं ज्ञानेन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखना है जिससे मनुष्य भौतिक मार्ग से आध्यात्मिक मार्ग की ओर बढ़ने में समर्थ हो सके और सही अर्थ में उसे आत्मा की अनुभूति हो जावे। प्लेटो, विवेकानन्द आदि ने इस उद्देश्य को स्वीकार किया है।
(द) आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति का उद्देश्य- उपर्युक्त उद्देश्यों से ही यह उद्देश्य भी जुड़ा है। मनुष्य में सत्यं, शिवं, सुन्दरं के तीन आध्यात्मिक मूल्य शाश्वत रूप से पाये जाते हैं। इन तीनों के कारण व्यक्ति के शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सभी का सर्वोच्च विकास होता है। साधारण मानव से वह अति-मानव (From ordinary numan to Super-human) बन जाता है; इन मूल्यों के प्राप्त होने से सच्चे व्यक्तित्व (Truc Personality) का विकास होता है। अतः आदर्शवादियों के अनुसार यह एक महान उद्देश्य है।
(य) मानव व्यक्तित्व के सामाजिक पक्ष के विकास का उद्देश्य- प्रो० हार्न ने लिखा है कि “शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए मानव को अपने प्रकृति, अपने साथियों और विश्व की अन्तिम प्रकृति के साथ पारस्परिक समायोजन करने की क्षमता प्रदान करना।”
यह उद्देश्य इसलिए है कि आत्मानुभूति कहाँ तक हुई इसको प्रकट करे। यदि मनुष्य सार्वलौकिक गुणों एवं मूल्यों से युक्त होता है तो उसकी जाँच उसके द्वारा किये गये समायोजन से होती है। अतः पाश्चात्य एवं भारतीय दोनों देशों के आदर्शवादियों ने शिक्षा का यह उद्देश्य महत्वपूर्ण बताया है। दो और विवेकानन्द जैसे आदर्शवाद के
(र) सभ्यता एवं संस्कृति के ज्ञान, संरक्षण तथा विकास का उद्देश्य- मनुष्य अपनी बुद्धि एवं श्रमशीलता से अपने स्वयं एवं समूह के हित के लिए जो कुछ निर्मित करता है वह उसकी सभ्यता है और सभ्यता के प्रति मनुष्य के भावों तथा संस्कारों संगठन एवं क्रियान्वयन उसकी संस्कृति है। प्राचीन काल से आज तक शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की सभ्यता एवं संस्कृति को समझना, ग्रहण करना, सुरक्षित रखना और आगे बढ़ाना रहा है अन्यथा आज मनुष्य की दशा असभ्य एवं असंस्कृत होती, वह पशु की श्रेणी में ही रहता। अतएव शिक्षा का यह एक महत्वपूर्ण उद्देश्य आदर्शवाद के अनुसार कहा गया है और सभी ने इसे स्वीकार भी किया है।
(ल) पवित्र जीवन से विश्व में समरसता स्थापित करने का उद्देश्य- शिक्षा में आदर्शवाद होने से मानव जीवन की पवित्रता पर बल दिया गया। इसको व्यावहारिक रूप देने के लिए विश्व में एक प्रकार की समरसता लाना उसका कर्त्तव्य माना गया । फलस्वरूप यह उद्देश्य सामने आया। फ्रोबेल जैसे आदर्शवादी ने बताया कि “शिक्षा का उद्देश्य है भक्तिपूर्ण, विशुद्ध तथा निष्कलंक और इस प्रकार पवित्र जीवन की प्राप्ति ।” (The aim of education is attainment of devotional, pure and blameless and thus a holy life) | ईश्वर में भक्ति एवं विश्वास होने से मनुष्य संसार में समरसता लाता है। इसलिए प्रो० भाटिया ने लिखा है कि “शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य की इस प्रकार सहायता करना और उसकी शक्तियों को प्रेरित करना है कि वह अपने और विश्व के बीच समन्वय और समरसता स्थापित कर सके।”
आज विश्व-बन्धुत्व तथा अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध के लिये शिक्षा देने का यही उद्देश्य है। अतएव प्राचीन काल से आज तक शिक्षा का यह उद्देश्य आदर्शवाद ने बताया जिसे सभी शिक्षाशास्त्रियों ने माना है।
(य) अनुसन्धान शक्ति के विकास का उद्देश्य- शिक्षा-शास्त्रियों का विचार है कि शिक्षा का एक उद्देश्य ज्ञान की खोज में मनुष्य को लगाना है क्योंकि ज्ञान से बढ़कर कोई पवित्र वस्तु नहीं है ऐसा गीता का वाक्य है। अन्य धर्मों में भी ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। प्रो० रस्क ने इस उद्देश्य के लिये लिखा है कि “अपने नाम को सार्थक बनाने वाली कोई भी शिक्षा व्यक्ति की उन अनुसन्धानात्मक शक्तियों का विकास कर सकती है जो उसे प्राप्त सामग्री पर पूर्ण अधिकार के समर्थ बनाती है।” (To make its name meaningful any education can develop man’s inventive powers which can make him capable to have full command over available material) । सही भी ही है कि मनुष्य की आत्मिक पूर्णता वहीं प्रकट होती है जब वह अनुसंधान करने में सक्षमसफल होता है। यह नया दृष्टिकोण नहीं है। उपनिषदों में आत्मा की खोज की जाती थी, वह यही तो है। आज भी शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान पूरा होने पर ज्ञान की पूर्णता मानी जाती है। अतएव आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का एक महान श्रेष्ठ उद्देश्य इसे भी कहा गया है।
आदर्शवाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में प्लेटो को लिया जाता है। उसके अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(क) ज्ञान और मन्यों को धारण करना।
(ख) आदर्श नागरिक का निर्माण करना।
(ग) शारीरिक और मानसिक विकास करना।
(घ) आत्म-बोध और आध्यात्मिक विकास करना ।
(ङ) नागरिक कुशलता के द्वारा राज्य की एकता लाना।
आदर्शवाद के भारतीय प्रतिनिधि स्वामी विवेकानन्द के द्वारा शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताये गये हैं-
(क) परम पूर्णता की प्राप्ति करना।
(ख) सद्गुणी मानव का निर्माण करना।
(ग) धार्मिक, नैतिक, चारित्रिक विकास करना।
(घ) मानव समाज तथा मातृभूमि की सेवा की योग्यता प्रदान करना ।
(ङ) शारीरिक विकास करना ।
(च) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना और विश्वबन्धुत्व का विकास करना।
(छ) धर्म के साधन के रूप में आर्थिक विकास करना।
आदर्शवाद के इन दोनों प्रतिनिधियों के द्वारा दिये गये शिक्षा के उद्देश्यों में पर्याप्त समानता मिलती है जिसका कारण यह है कि मूलतः सभी आदर्शवादी एक समान परमशक्ति में विश्वास करते रहे और उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करने के लिए शिक्षा की सहायता लेने को कहते रहे। अतएव शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य आत्मा का ज्ञान सबने माना। अन्य उद्देश्य इसी से जुड़े रहे और यदि कुछ भिन्नता दिखाई दी तो वह आत्मा की विविध व्याख्या के कारण है।
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