शिक्षाशास्त्र

शिक्षा का तात्पर्य | शिक्षा-दर्शन का तात्पर्य | शिक्षा-वर्शन का कार्य | शिक्षा-दर्शन का स्वरूप | शिक्षा-दर्शन का अध्ययन-क्षेत्र | भारतीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा-दर्शन

शिक्षा का तात्पर्य | शिक्षा-दर्शन का तात्पर्य | शिक्षा-वर्शन का कार्य | शिक्षा-दर्शन का स्वरूप | शिक्षा-दर्शन का अध्ययन-क्षेत्र | भारतीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा-दर्शन

  1. शिक्षा का तात्पर्य

शिक्षा शब्द का तात्पर्य सीखना, जानना, अनुभव लेना अथवा ज्ञान प्राप्त करना होता है जिससे मनुष्य का विकास होता है और मनुष्य आगे बढ़ने में समर्थ होता है (The word education means to learn, to know, to get experience or attain knowledge so that man develops and becomes capable of advancement.) ऐसी स्थिति में विचारकों ने शिक्षा को एक क्रिया अथवा प्रक्रिया (an active or process) कहा है। जो भी समझा जावे शिक्षा लेना-देना वास्तव में मनुष्य की एक क्रिया-प्रक्रिया और उसका एक प्रयास है। अब हमें कुछ लोगों के विचारों पर भी ध्यान देना चाहिए जिससे यह बात स्पष्ट हो जावे।

(i) प्रो० एडलर- “शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से सम्बन्धित क्रिया है। यह तो जन्म से आरम्भ होती है और मृत्यु तक चलती है।” (Education is the business of a whole human life. It begins with birth and ends with death.) -Prof. Adler.

(ii) प्रो० बैटॉक- “शिक्षा सभी प्रकार के अनुभवों का कुल योग है जो मनुष्य अपने जीवन काल में प्राप्त करता है और जिसके द्वारा वह जो कुछ है उसका निर्माण होता है।” (Education is sum-total of the experiences of all kinds which a person has had during his life time and which have made him what he is.)

-Prof.G.H. Bantock.

शिक्षा की प्रक्रिया की अपनी एक विशेषता विचारकों ने बताई जैसा कि हम प्रो० एडम्स के शब्दों में पाते हैं। प्रो० एडम्स ने लिखा है कि “शिक्षा एक सचेतन और विचारपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्तित्व दूसरे पर इसलिए प्रभाव डालता है कि दूसरे का विकास और परिवर्तन हो सके।” (Education is a conscious and deliberate process in which one personality acts on another in order to modify the development of that other.)

-Prof. Adams.

प्रो० ऐडम्स के शब्दों से हमें मनुष्य की और शिक्षा की एक विशेषता मालूम होती है, वह ‘चिन्तन’ की है। मनुष्य जो कुछ अनुभव ज्ञान ग्रहण करता है वह सोच-विचार के साथ ग्रहण करता है, अतएव ऐसी दशा में शिक्षा चिन्तनयुक्त क्रिया होती है। (Education becomes a reflective activity) और जहाँ चिन्तन होता है वहाँ एक निर्णय भी करना पड़ता है (There is a decision also) | इस चिन्तन और निर्णय में ही ‘दर्शन’ (Philosophy) पाया जाता है जिससे मनुष्य की जिज्ञासा, समस्या सभी का समाधान होता है। अतः दर्शन क्या है। इसे भी समझना चाहिए।

  1. दर्शन की तात्पर्य

दर्शन के लिए अंग्रेजी में Philosophy शब्द है। इसमें फिलॉस (Philos) और सोफिया (Sophia) शब्द मिले है जिनका अर्थ क्रमशः ‘प्रेम’ और ‘ज्ञान’ होता है। एक फिलॉसफी (दर्शन) का अर्थ होता है- ज्ञान के लिए प्रेम या अनुराग (Love for knowledye or wisdom) | हिन्दी में दर्शन का तात्पर्य होता है ‘जो कुछ देखा जावे । इसे जीवन के सम्पर्क में ही लिया जाता है यद्यपि संसार और संसार से दूर की चीजों को देखना-जानना भी दर्शन है। दर्शन की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें पूर्णता की ओर ही दृष्टि रहती है। अतएव जीवन से सम्बन्धित सभी तथ्यों, सत्यों एवं परिस्थितियों पर पूर्णता के साथ चिन्तन करना और निर्णय लेना दर्शन होता है (Philosophy is thinking about all facts, truths and situation related to life with a wholeness, and to makc a decision there i) | इसे स्पष्ट करने के लिए कुछ विद्वानों के कथन पर भी हमें ध्यान देना है-

(i) प्रो० ब्राइटमैन- “दर्शन को ऐसे प्रयास के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा मनुष्य की अनुभूतियों के सम्बन्ध में समग्र रूप से सत्यता के साथ विचार किया जा सकता है अथवा जो सम्पूर्ण अनुभूतियों को बोधगम्य बनाता है।” (Philosophy may be defined as an attempt to think truly about human experience as a whole or to make our whole experience intelligible.)

Prof. Brightman.

(ii) प्रो० सेलर्स- “दर्शन एक ऐसा लगातार प्रयास जिससे कि मनुष्य संसार तथा अपनी प्रकृति के सम्बन्ध में क्रमबद्ध ज्ञान द्वारा एक अन्तदृष्टि प्राप्त करने की चेष्टा करता है।” (Philosophy is persistent attempt !0 gain inst the nature of world and ourselves by means of a systematic reflection)

-Prof. R. W. Sellars.

(iii) प्रो० पैट्रिक- “दर्शन को वस्तुओं के सम्बन्ध में पूर्ण चिन्तन की कला कहा जा सकता है।” (Philosophy may be called as an art of complete thinking about things.)

-Prof. Patrick.

(iv) प्रो० रसेल- “दर्शन अन्तिम प्रश्नों का आलोचनात्मक उत्तर देने का प्रयास है।” (Philosophy is the attempt to answer ultimate questions critically.)

Prof. B. Russel.

(v) प्रो० लॉग- “दर्शन विशेष रूप से उचित तथ्यों के व्यवस्थित विचार, उनको व्याख्याओं और जीवन की समस्या के लिए अभिप्रेताओं से विशेषकर सम्बन्धित होता है!” (Philosophy is specially concerned with a systematic view of relevant facts with their interpretations and implications for the problem of living.

-Prof.A.R. Long-

ऊपर के विचारों का निष्कर्ष निकालने पर हमें ज्ञात होता है कि दर्शन संसार की सभी चीजों, मनुष्य के जीवन के सभी तथ्यों एवं सत्यों पर आलोचनात्मक दृष्टि के साथ विचार करने का व्यावहारिक प्रयत्न है। (Philosophy is a practical antempt to Think critically about all things of the world, all facts and truths of human इसी कारण यह कहा गया है कि दर्शन तो मनुष्य जीवन की सभी समस्याओं का समाधान करता है। (Philosophy solves all the problems of human life)!

भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोण से ‘दर्शन’ व ‘फिलॉसफी’ का अर्थ- यों तो ‘दर्शन’ और ‘फिलॉसफी’ समानार्थी शब्द है फिर भी दोनों के दृष्टिकोण में अन्तर बताया जा सकता है। दोनों में निम्नलिखित अन्तर पाया जाता है :-

भारतीय दृष्टिकोण

(1) दर्शन दृश् धातु से बना है

जिसका अर्थ है जो कुछ देखा जाय।

(2) दर्शन शब्द प्रत्यक्ष ज्ञान का अर्थ देता है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान अन्तःकरण के द्वारा प्राप्त किया जाता है। इसमें आत्म- निष्ठता होती है। ऐसा विचार हमें प्राचीन भारतीय शिक्षाशास्त्रियों से मिलता है।

(3) वैयक्तिक घटना पर बल दिया जाता है। दर्शन वास्तव में व्यक्ति विशेष के ज्ञान, अनुभूति, कल्पना और ध्यान पर आधारित होता है।

(4) दर्शन का उपागम अन्तःज्ञाना-त्मक होता है। इसमें अन्त: दृष्टि से सब कुछ जानने का प्रयास किया जाता है।

(5) दर्शन ब्रह्म, आत्मा, ईश्वर की प्राप्ति का साधन है। इस दृष्टि से यह एक आध्यात्मिक साधन है। दर्शन- आध्यात्मिकता पर केन्द्रित होता है। यह तथ्य हमें अरविन्द जैसे शिक्षाशास्त्री के विचारों में मिलता है।

(6) भारत में दर्शन का लक्ष्य मानव की मुक्ति है जो ईश्वरानुभूति में पाई जाती है। यह उद्देश्य हमें विवेकानन्द जैसे शिक्षा- शास्त्री के विचारों में मिलता है।

(7) दर्शन का क्षेत्र भारत में धर्म और उच्च जीवन के मूल्यों से सम्बन्धित था और कुछ-कुछ आज भी है। आज के धार्मिक नेता अच्छे दार्शनिक समझे जाते हैं और उनके विचारों में सत्य, ज्ञान, मुक्ति के बारे में गहरी अनुभूति मिलती है।

पाश्चात्य दृष्टिकोण

 (1) ‘फिलॉसफी’ फाइतॉस और सोफिया शब्दों के मेल से बना है जिसका अर्थ है ज्ञान के लिए प्रेम या जिज्ञासा ।

(2) फिलॉसफी शब्द विषय-वस्तु की ओर संकेत करता है जिसमें केवल अन्तिम ज्ञान का लक्ष्य होता है। इसमें वस्तुनिष्ठता होती है।

(3) सार्वभौमिक घटना पर बल दिया जाता है। फिलॉसफी समग्र रूप से सार्वभौमिक सत्यों की खोज करता है। कल्पना के साथ तर्क पर बल दिया जाता है।

(4) फिलॉसफी का उपागम प्रयोगात्मक होता है, तार्किक उपागम होता है। इसी के द्वारा सभी की जानकारी की जाती है।

(5) फिलॉसफी यथार्थता की प्राप्ति का साधन है। यथार्थता वैज्ञानिक अधिक है आध्यात्मिक कम। सांसारिक यथार्थता पर आज फिलॉसफी केन्द्रित होता है। प्रायः सभी पाश्चात्य विचार ऐसे हैं।

(6) फिलॉसफी का लक्ष्य ऐसा नहीं होता है।

(7) इस प्रकार का दृष्टिकोण ‘फिलॉसफी में नहीं पाया जाता। धर्म तो बिल्कुल अलग है। हाँ जीवन के मूल्यों पर फिलॉसफी का कुछ ध्यान है।

भारतीय शिक्षा दार्शनिक दर्शन का तात्पर्य आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ढंग से लगाते हैं। प्राचीन काल में आध्यात्मिक तात्पर्य पर बल दिया गया है जैसे शङ्कराचार्य ने लिखा है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् यही विधा है जिससे मुक्ति होती है। उपनिषदों एवं गीता में श्रेयस एवं प्रेयस् ज्ञान पर बल दिया गया है। आधुनिक भारतीय दार्शनिक डा० सर्वपल्लि राधाकृष्णन ने लिखा है कि “दर्शन यथार्थतम की प्रकृति का तार्किक अन्वेषण है।” यथार्थता आध्यात्मिक और भौतिक दोनों अर्यों में यहाँ लक्षित है परन्तु समयानुसार भौतिक यथार्थता की ओर ही संकेत है। इसी प्रकार से रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दर्शन को सर्वव्यापी सत्य एवं यथार्थ समझा है जो मानव, प्रकृति एवं कला में प्रकट होता है। स्वामी विदेकानन्द एवं महायोगी अरविन्द ने दर्शन को पूर्णतया आध्यात्मिक खोज माना है और दोनों ने इसे आत्मा की अनुभूति घोषित किया है।

पाश्चात्य देशों में दर्शन (फिलॉसफी) वास्तविक यथार्थता तक ही सीमित पाई जाती है। प्लेटो से लेकर डीबी तक में यही विचारधारा पाई गई। डीवी सबसे अधिक वास्तविक या वस्तुनिष्ठ विचारक हुआ है। वह तो हरेक यथार्थता को वैज्ञानिक कसौटी पर कसते है। डीवी को पूर्व काण्ट, हीगेत, स्पिनोजा एवं लाइबनिज जैसे दार्शनिक भौतिक यथार्थता का सिद्धि में लगे पाये गये हैं यद्यपि इनका हम शिक्षाशास्त्री के रूप में अध्ययन नहीं करते। । हरबर्ट यद्यपि नैतिकता की ओर झुका है फिर भी वस्तुनिष्ठ चिन्तन की रोशनी में ही उसने इसे देखने का प्रयास किया। फ्रोबेत आध्यात्मवादी शिक्षाशास्त्री अवश्य है परन्तु वह भी खेल की वस्तुओं से शिक्षा देने में इतना व्यस्त हो गया कि उसकी आध्यात्मिकता दूर हो गई। उसने दर्शन को ईश्वर के ज्ञान तक ही रखा, पूर्ण आध्यात्मिक अनुभूति उसमें नहीं रही जैसा कि विवेकानन्द या अरबिन्द के प्रयासों एवं विचारों में स्पष्ट मिलता है।

  1. शिक्षा-दर्शन का तात्पर्य

शिक्षा तथा दर्शन के तात्पर्य को जान लेने के बाद हमें शिक्षा दर्शन के बारे में भी जानना जरूरी होता है। शिक्षा-दर्शन (Philosophy of Education) शिक्षा और दर्शन का मिश्रण है। शिक्षा मनुष्य के अनुभव, ज्ञान और इन्हें प्राप्त करने की क्रिया है, दूसरे लोग इसे सीखना-सिखाना भी मानते हैं जिससे अनुभव ज्ञान मिलता है। इस प्रकार शिक्षा-दर्शन मनुष्य का वह दृष्टिकोण है जो सीखने-सिखाने अथवा अनुभव-ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया से सम्बन्धित प्रसंगों की विवेचना करता है और इनकी सभी समस्याओं का समाधान करता है। यह शिक्षा के क्षेत्र में दर्शन का प्रयोग कहा जाता है। प्रो० कनिंघम ने शिक्षा दर्शन के बारे में निम्नलिखित विचार दिया है-

“शिक्षा-दर्शन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रयोग रूप में इन विचारधाराओं से बहुत सी समस्याओं के खोज-बीन के लिए निर्देशन लेता है।” (The philosophy of Education as an application of principles formulated within the various philosophical disciplines, seeks guidance in the investigation of several problems from these disciplines.)

-Prof. Cunningham.

शिक्षा-दर्शन एवं शिक्षाशास्त्र का भी एक अंग हो गया है। शिक्षाशास्त्र एक ऐसा विषय है मनुष्य को सीखने-सिखाने की किया का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करता है।

(1)ducation is a subject which studies systematically man’s learning-teaching process)। इस व्यवस्थित अध्ययन में मनुष्य सीखने- सिखाने के सम्बन्ध में निर्णयात्मक चिन्तन (decisive thinking) करता है और ऐसा चिन्तन वह जीवन के सन्दर्भ में करता है। अतएव शिक्षा दर्शन शिक्षाशास्त्र का चिन्तनात्मक एवं निर्णयात्मक अंश. है। (Philosophy of education is therefore the reflective and decision-making part of education)। इसी रूप में इसका विकास आज हो रहा है। परन्तु जैसा प्रो० कनिंघम ने लिखा है कि वह दृष्टिकोण भी सामने रहता है अर्थात् विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के सिद्धान्तों को ध्यान में रखा जाता है और उन्हीं की सहायता से सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के प्रसंगों पर गूढ चिन्तन-मनन होता है और अन्ततोगत्या एक निश्चित अभिवृत्ति बनाई जाती है जैसे शिक्षा के उद्देश्य या पाठ्यक्रम का निर्धारण शिक्षा-दर्शन ही करता है।

दर्शन और शिक्षा-दर्शन में अन्तर- दर्शन और शिक्षा दर्शन दोनों अलग-अलग अध्ययन हैं। प्रो० रसेल के अनुसार “दर्शन अन्तिम प्रश्नों का आलोचनात्मक उत्तर देने का प्रयास है।” इससे स्पष्ट है कि दर्शन जीवन की जटिलताओं को स्पष्ट करता है, उनका समाधान करता है और मार्ग प्रशस्त करता है। दर्शन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों में मानवीय समस्याओं एवं रहस्यों की निर्णयात्मक खोज एवं निर्देशन है। दर्शन मनुष्य को सर्वोत्तम चिन्तन के लिए तैयार करता है ताकि वह अन्तिम सत्य तक पहुँच जावे।

शिक्षा-दर्शन से भिन्न है। चिन्तन दर्शन का मुख्य साधन है और शिक्षा के क्षेत्र में चिन्तन करके कुछ सत्यों की स्थापना करना ही शिक्षा-दर्शन है। प्रो० कनिंघम ने लिखा है कि “शिक्षा-दर्शन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रयोग है, ‘ प्रो० रॉस ने लिखा है कि “दर्शन और शिक्षा एक सिक्के के दो पहलू के समान हैं।” वास्तव में शिक्षा-दर्शन एक सिक्के के दोनों पहलू हैं। शिक्षा क्रियाशील और दर्शन चिन्तनशील पहलू है। इस आधार पर शिक्षा-दर्शन ज्ञान-अनुभव का क्रियाशील एवं हैचिन्तनशील रूप है। ज्ञान-अनुभव क्यों, कैसे, किस प्रकार का, कहाँ, किसके द्वारा प्राप्त हो यह निर्णय करना शिक्षा-दर्शन ही है। अब स्पष्ट है कि दर्शन और शिक्षा-दर्शन में कितना अन्तर है।

दर्शन और शिक्षा दर्शन दो अलग-अलग विषय हैं। दर्शन का क्षेत्र सामान्य जीवन के क्षेत्र में चिन्तन होता है। शिक्षा-दर्शन शैक्षिक जीवन के क्षेत्र में व्यावहारिक चिन्तन कहा जा सकता है। प्रो० फिश्टे ने लिखा है कि “दर्शन के बिना शिक्षा की कला स्वतः पूर्ण स्पष्टता को कदापि प्राप्त नहीं कर सकेगा।” इस आधार पर दर्शन आधार है और शिक्षा- दर्शन उस आधार पर बनाया जाने वाला भवन है। दर्शन केवल खाका बना सकता है, निर्देशन करता है, शिक्षा-दर्शन उसे स्पष्ट रूप प्रदान करता है। वास्तव में दर्शन और शिक्षा-दर्शन सामान्य एवं विशिष्ट चिन्तन है जो मानव-जीवन को अपने सद्-पथ पर ले जाते हैं, विकासोन्मुख करते हैं तथा अन्तिम सत्य की प्राप्ति एवं अनुभूति कराते हैं।

भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोण से ‘शिक्षा-दर्शन’ और ‘एजुकेशनल फिलॉसफी’ में अन्तर- दर्शन और फिलॉसफी के बीच कुछ अन्तर है। जो दृष्टिकोण भारतीय शब्द ‘दर्शन’ का है वह अंग्रेजी शब्द ‘फिलॉसफी’ का नहीं है। इसी आधार पर शिक्षा-दर्शन व एजूकेशनल फिलॉसफी के दृष्टिकोण में भी अन्तर दिखाई देता है जो निम्नलिखित है-

भारतीय दृष्टिकोण

  1. शिक्षा दर्शन का अभिप्राय दो प्रकार है:

(अ) प्राचीन और (ब) अर्वाचीन।

इसका प्राचीन अभिप्राय है आत्मा के ज्ञान की शैक्षिक प्रणाती और अर्वाचीन अभिप्राय है शैक्षिक प्रक्रिया का सम्यक् ज्ञान ।

  1. शिक्षा-दर्शन भारतीय दृष्टिकोण से सीमित पाया जाता है। शिक्षा का उद्देश्य ब्रम्हा की प्राप्ति या जालानुभूति रखा गया था। ब्रम्हा को ही सर्वोच्च सत्ता स्वीकार किया गया था। आज भी भारतीय शिक्षा दर्शन एवं दार्शनिक का झुकाव इसी ओर है।
  2. भारतीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा-दर्शन का विकास अत्यन्त कम हुआ है। भारतीय दर्शन का अपना कोई शिक्षा-दर्शन अंग नहीं है। जो कुछ चिन्तन हुआ है या हो रहा है वह पाश्चात्य दृष्टिकोण को सामने रख कर हुआ है।
  3. भारतीय विचारको ने शिक्षाशास्त्र के संदर्भ में शिक्षा-दर्शन पर उचित ध्यान नहीं दिया है। शिक्षाशास्त्र स्वयं एक अछूता और अर्द्ध विकसित अनुशासन या शास्त्र है। इसलिए शिक्षा-दर्शन की भी कमी है।

पाश्चात्य दृष्टिकोण

  1. एजुकेशनल फिलांसफी का भी दो अभिप्राय है:

(अ) शैक्षिक प्रक्रिया का अन्तिम ज्ञान।

(ब) शिक्षा का सिद्धान्तवाद। ये दोनों अभिप्राय आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ही मिलते हैं।

  1. एजुकेशनल फिलॉसफी शिक्षा दर्शन की अपेक्षा अधिक व्यापक दृष्टिकोण रखता है। इसमें केवल शैक्षिक उद्देश्य पर ही बल नहीं बल्कि शैक्षिक प्रक्रिया एवं उसके उत्पाद्य पर भी ध्यान दिया जाता है।
  2. एजुकेशनल फिलॉसफी का विकास काफी हो चुका है। शिक्षाशास्त्र के एक अंग के रूप में या दर्शन-शास्त्र एक अंग के रूप में यह काफी आगे आ गया है।
  3. पाश्चात्त्य विचारकों ने शिक्षा-शास्त्र पर अधिक विचार प्रकाशन किया है, तभी तो एजुकेशनल फिलॉसफी आगे-आगे बढ़ती जा रही है।

4. शिक्षा-वर्शन का कार्य

शिक्षा-दर्शन का तात्पर्य स्पष्ट करने में हमें इसके कार्य की ओर भी अपनी दृष्टि डालनी चाहिए। इस सम्बन्ध में प्रो० शील्ड्स ने जो कुछ लिखा है वह विचारणीय है-

“शिक्षा-दर्शन का कार्य शुद्ध दर्शन के द्वारा प्रतिपादित सत्यों एवं सिद्धान्तों की शैक्षिक प्रक्रिया के व्यावहारिक संचालन में प्रयोग करना है। यह दार्शनिक सत्य तथा छात्र के जीवन व आचरण के बीच सम्बन्ध को चेतना के क्षेत्र में लाने का प्रयत्न करता है तथा तर्कयुक्त सप्रयोजन और अधिक तात्कालिक और प्रभावकारी बनाता है, तथा शिक्षक को बहुमुखी सम्बन्धों के स्थापन में निर्देशन देने के लिए प्रयास करता है जो सम्बन्ध वह छात्रों को ज्ञान देने में, आदि के बनाने में और जीवन के प्रयोजनों तथा अर्थों के विषय में शक्ति तथा अंत: दृष्टि प्राप्त करने में निश्चित करता है।” (The business of philosophy of education is to apply the truths and principles established by pure philosophy to the practical conduct of the educative process. It seeks to lift into consciousness and to make rational and deliberate as well as more immediate and effective the relation between the philosophical truth and the life and conduct of the pupil and endeavours to guide the teachers in the manifold relations which he sustains towards his pupils in the gaining of power and insight in the purposes and meaning of life.)

-Prof. T. E. Shields.

उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि शिक्षा-दर्शन का मुख्य कार्य छात्र और अध्यापक दोनों को अपने जीवन और आचरण को अच्छा, प्रभावकारी, अन्तर्दृष्टिपूर्ण बनाने के लिए दार्शनिक सत्य प्रदान करना है, निर्देशन देना है, सचेतन एवं तर्कयुक्त ढंग से कार्य करने की क्षमता प्रदान करना है, तभी शिक्षा की सार्थकता पाई जाती है। शिक्षा-दर्शन का कार्य इस प्रकार शिक्षा सम्बन्धी सभी समस्याओं पर छात्र एवं अध्यापक को विचार करने, निर्णय लेने, मार्ग-दर्शन प्राप्त करने तथा लक्ष्य सिद्ध करने में समर्थ बनाना होता है। (The function of philosophy of education is thus to make student and teacher capable to think about all problems of education, to take decision, to get guidance and attain the objectives.)

शिक्षाविदों ने शिक्षा दर्शन के तीन कार्य बताये हैं-(1) प्राक्कल्पनात्मक कार्य (Hypothical Function) जिसमें विभिन्न परिभाषाएँ दी जाती हैं और किसी प्रसंग में क्या होना चाहिए यह बताया जाता है। (2) नियामक कार्य (Constructive Function) जिसमें शिक्षा का पाठ्यक्रम, कार्यक्रम आदि तैयार किया जाता है। (3) समीक्षात्मक कार्य (Critical Function) जिसमें विभिन्न चीजों की विभिन्न दृष्टियों से आलोचना की जाती है और जो सही, उपयुक्त एवं शुद्ध होता है उसे ग्रहण किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि शिक्षा-दर्शन शैक्षिक प्रसंगों की विवेचना, समीक्षा, यदि करता है और फलस्वरूप उसके बारे में निर्णय भी देता है कि वास्तव में क्या होना चाहिए। उदाहरण के लिए शिक्षा के कई उद्देश्य होते हैं और उनमें से किसे आज की परिस्थिति में निश्चित किया जाय यह बताना शिक्षा दर्शन का ही कार्य है।

  1. शिक्षा-दर्शन के उद्देश्य

शिक्षा-दर्शन आधुनिक समय में शिक्षा-शास्त्र का एक अंग है और दर्शन से सम्बन्धित भी है। ऐसी स्थिति में शिक्षा दर्शन के उद्देश्य दोनों विषयों, शिक्षा-शास्त्र एवं दर्शन-शास्त्र को छूते हैं। इसके उद्देश्य नीचे दिये जा रहे हैं-

(i) प्रमुख उद्देश्य- शिक्षक, शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम, शिक्षालय शिक्षालय-व्यवस्था पाठ्य-पुस्तक आदि के बारे में समीक्षात्मक एवं निर्णयात्मक रूप से चिन्तन करना है।

(ii) शिक्षा की क्रिया सफल बनाने के विचार से शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करना शिक्षा-दर्शन का एक अन्य उद्देश्य है।

(iii) शिक्षा दर्शन का तीसरा उद्देश्य छात्रों और अध्यापकों को सही मार्ग पर ले जाने का संकेत देना है जिससे वे बहक न जायें।

(iv) शिक्षा दर्शन का चौथा उद्देश्य छात्रों एवं अध्यापकों को वह सामर्थ्य प्रदान करना है जिससे कि वे कठिन एवं अनिर्णीत स्थितियों में समस्याओं का समाधान कर सकें।

(v) शिक्षा-दर्शन का पाँचवाँ उद्देश्य शिक्षा का उत्पाद्य संस्कृति निर्धारित करना, सुरक्षित करना और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण करने का आदेश देना भी है।

(vi) शिक्षा-दर्शन का छठां उद्देश्य समन्वयात्मक एवं संश्लिष्टात्मक दृष्टिकोण (Inicgrating and Synthetic view point) प्रदान करना होता है तभी एक निर्णय लेना सम्भव होता है, प्राचीन एवं नवीन विचारधाराओं को जोड़ना सरल होता है।

(vii) शिक्षा दर्शन का सातवाँ उद्देश्य छात्रों एवं अध्यापकों को उचित आदर्श, मूल्य, प्रतिमान आदि प्रदान करना तथा जीवन-दर्शन को निर्माण करने की ओर इन्हें उन्मुख करना है ताकि एक सशक्त व्यक्तित्व का निर्माण किया जाना सम्भव हो सके।

(viii) शिक्षा दर्शन का आठवाँ उद्देश्य समाज, राष्ट्र एवं विश्व की सहायता करने वाले लोगों को तैयार करना है जिससे समाज, राष्ट्र और विश्व की बुराइयाँ दूर की जा सकें।

(ix) शिक्षा दर्शन का नबाँ उद्देश्य विश्व को समझने का कहा जा सकता है। प्रो० राधाकृष्णन ने कहा है कि “दर्शन विश्व की समस्याओं को समझने का एक मानवीय प्रयास है।” (Philosophy is a human effort to comprehend the problems of universe.) और चूँकि शिक्षा-दर्शन शिक्षा के क्षेत्र में दर्शन के सिद्धान्तों का प्रयोग है अतएव शिक्षा-दर्शन शिक्षा की क्रिया द्वारा विश्व को समझने का एक मानवीय प्रयास का उद्देश्य रखता है। (Philosophy of education aims at a human effort to comprehend the universe through educational activity)

(x) शिक्षा-दर्शन का अन्तिम उद्देश्य राष्ट्र और विश्व की शिक्षा नीति निर्धारित करना तथा शिक्षा की योजना बनाना होता है। (Determination of educational policy and making educational plans)।

  1. शिक्षा-दर्शन की आवश्यकता

शिक्षाशास्त्र का अध्ययन दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है अतएव उसके सभी अंगों का अध्ययन भी आगे बढ़ा शिक्षा की प्रक्रिया के लिए बहुत सी चीजों की जरूरत पड़ती है इस विचार से भी शिक्षाशास्त्र में शिक्षा-दर्शन आदि की ओर ध्यान देना पड़ता है। यहाँ हम शिक्षा दर्शन की आवश्यकता के लिए कुछ कारणों की ओर ध्यान देंगे।

(i) शिक्षा की क्रिया का एक आधार दर्शन होने के कारण आवश्यकता- शिक्षा की क्रिया में दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र तथा इतिहास का आधार होना बताया गया है। अतएव दर्शन का आधार होने से शिक्षा-दर्शन के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है। इस सम्बन्ध में फिश्टे ने लिखा है कि “शिक्षादर्शन के बिना पूर्ण स्पष्टता को प्राप्त नहीं कर सकेगी।”

(ii) व्यापक दृष्टिकोण बनाने के कारण की आवश्यकता- दर्शन जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रवेश किए हुये है और शिक्षा भी उन क्षेत्रों से किसी न किसी प्रकार जुड़ी हुई है। इसलिए आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, नैतिक आदि सभी क्षेत्रों के साथ शिक्षा एवं दर्शन का लगाव होता है, अतएव इन सबके प्रति व्यापक दृष्टिकोण रखना तभी सम्भव है जब हम शिक्षा-दर्शन समझें । अस्तु इस कारण इसके अध्ययन की आवश्यकता होती है।

(iii) शिक्षार्थी की दृष्टि से आवश्यकता- किस राष्ट्र का जीवन-दर्शन कैसा है इसका प्रभाव शिक्षार्थी पर अवश्य पड़ता है। उदाहरण के लिये आज भारत में ‘इमरजेंसी ने शिक्षार्थी की क्रियाओं को दबा दिया है। प्रतएव आज शिक्षाधी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर अन्य क्रियाओं की ओर नहीं ध्यान देता है। यहाँ भी शिक्षा-दर्शन की आवश्यकता परिस्थिति को समझने के लिए पड़ती है।

(iv) शिक्षक की दृष्टि से आवश्यकता- शिक्षा दर्शन शिक्षक की दृष्टि से इसलिए आवश्यक है कि इसकी सहायता से शिक्षक को शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, विधि, अनुशासन आदि सभी कुछ निर्धारित करने में सरलता होती है। शिक्षक भी अपने जीवन- दर्शन का भी निर्माण इसी के आधार पर करता है।

(v) जीवन के लक्ष्य-निर्धारण की दृष्टि से आवश्यकता- मनुष्य अपने जीवन में क्या होना चाहता है यह निश्चय शिक्षा-दर्शन ही करता है। इस जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए मनुष्य को तदनुकूल शिक्षा के पाठ्यक्रम, योजना, व्यवस्था सब कुछ निश्चित करना पड़ता है। इन सब में शिक्षा-दर्शन की आवश्यकता पड़ती है।

(vi) जीवन की समस्याओं के समाधान की दृष्टि से आवश्यकता- शिक्षा-दर्शन जीवन की सभी प्रकार की समस्याओं को हल करने में हाथ बँटाता है। अतएव इस दृष्टि से भी इसकी आवश्यकता पड़ती है। हरेक समस्या के लिए जिस चिन्तन-मनन की जरूरत होती है वह शिक्षा-दर्शन से मिलता है।

(vii) समाज, राष्ट्र व विश्व के आदर्श मूल्यों के विचार से आवश्यकता- शिक्षा का कार्य विश्व के लोगों को अपने समाज एवं राष्ट्र के अनुकूल आदर्श, मूल्य, मान्यता एवं प्रतिमान प्रदान करना होता है। इन सबका निर्धारण शिक्षा दर्शन की सहायता से होता है, अतएव इस विचार से भी शिक्षा-दर्शन की आवश्यकता बताई गई है।

(viii) लोगों में परस्पर अनुकूलन, समायोजन एवं अनुशासन स्थापित करने के कारण आवश्यकता- दर्शन मानवों में परस्पर अनुशासन लाने का प्रयास करता है और शिक्षा उसके वातावरण साथ समायोजन एवं अनुकूलन में सहायता देती है। अस्तु, शिक्षा-दर्शन लोगों को यह बताता है कि वे परस्पर एक दूसरे के साथ कैसा सम्बन्ध रखें, कैसे जीवन-यापन करें और एक-दूसरे के साथ कार्य करने में अपने आप पर नियन्त्रण रखें। एतदर्थ शिक्षा-दर्शन की कैले आवश्यकता कही जाती है।

  1. शिक्षा-दर्शन का स्वरूप

शिक्षा-दर्शन का स्वरूप हमें कई दृष्टिकोणों से दिखाई देता है। इन्हें हम नीचे दे रहे हैं-

(i) शिक्षा-दर्शन का नियामक स्वरूप (Normative Nature)-शिक्षा-दर्शन शैक्षिक प्रक्रिया से सम्बन्धित विभिन्न नियम, सिद्धान्त, आदर्श, मूल्य, मानक आदि निश्चित करता है। ऐसी स्थिति में हमें इसका नियामक स्वरूप मिलता है।

(ii) दर्शन के एक अंग स्वरूप (As a part of Philosophy)- आज बहुत से विश्वविद्यालयों में शिक्षा दर्शन में दर्शन के विभिन्न तत्वों का अध्ययन-अध्यापन होता है। इस दृष्टि से शिक्षा-दर्शन का स्वरूप केवल दर्शन के एक अंग के समान होता है।

(iii) शिक्षाशास्त्र एक अंग स्वरूप (As a part of Education)- नये दृष्टिकोण के अनुसार अब शिक्षा-दर्शन को शिक्षाशास्त्र के अन्तर्गत रखा गया है और इसके अन्तर्गत शिक्षा की क्रिया से सम्बन्धित विभिन्न प्रसंगों का अध्ययन करने लगे हैं।

(iv) शिक्षा में दर्शन के सिद्धान्तों के प्रयोग स्वरूप (As an application of philosophical principles in education)- इस स्थिति में शिक्षा-दर्शन शिक्षा को समझने- समझाने का एक साधन मात्र होता है जिसमें चिन्तन-मनन खूब होता है और इसके बिना शिक्षा की प्रक्रिया पूरी नहीं समझी जाती है। कुछ लोगों ने इसी दशा में शिक्षा के दार्शनिक आधार की परिकल्पना की है और उसे शिक्षा-दर्शन से जोड़ दिया है।

(v) एक स्यतन्त्र विषय का स्वरूप- आधुनिक समय में शिक्षा-दर्शन वह विषय बनता चला जा रहा है जिसमें शिक्षा को दार्शनिक दृष्टिकोणों से देखा-समझा जाता है। इसकी सहायता से शिक्षा सम्बन्धी परिभाषाएँ, संप्रत्यय एवं मानक तैयार किये जा रहे हैं। उदाहरण के लिए ज्ञान-दर्शन, तर्क-दर्शन, मूल्य-दर्शन, नीति-दर्शन, सींदर्य-दर्शन हैं। ये सब शिक्षा के सन्दर्भ में स्पष्ट एवं विश्लेषित किये जाते हैं। अतएव शिक्षा-दर्शन अब एक स्वतन्त्र विषय का रूप धारण कर रहा है।

(vi) समीक्षात्मक स्वरूप- दर्शन की एक परिभाषा जीवन की समीक्षा (Criticism of life) के रूप में दी जाती है। अतएव यह स्पष्ट है कि शिक्षा और जीवन एक ही हैं तो शिक्षा-दर्शन जीवन की समीक्षा करेगा और हमें उसका समीक्षात्मक स्वरूप दिखाई देता। अब स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा-दर्शन का स्वरूप (Nature of Philosophy of Education) कैसा है।

  1. शिक्षा-दर्शन का अध्ययन-क्षेत्र

शिक्षा-दर्शन यद्यपि एक नया विषय बन रहा है परन्तु इसे शिक्षा-शास्त्र के सन्दर्भ में ही अध्ययन करते हैं। शिक्षा के सभी गूढ़ तत्वों का समीक्षात्मक, नियामक एवं निर्णयात्मक अध्ययन शिक्षा दर्शन का प्रमुख लक्ष्य कहा जाता है। इसी के आधार पर हम शिक्षा-दर्शन के अध्ययन-क्षेत्र (Scope) को समझाने का प्रयल करेंगे। इसके अध्ययन-क्षेत्र में नीचे लिखी बातें होती हैं :

(i) शिक्षा की प्रकृति, स्वरूप, परिभाषा- सर्वप्रथम शिक्षा-दर्शन इस तत्व की जानकारी करता है कि शिक्षा क्या है, उसकी परिभाषा कैसे दी जावे और उसके अन्तर्गत किन बातों को रखा जावे।

(ii) दार्शनिक सम्प्रदाय और सिद्धान्तवाद- शिक्षा-दर्शन पुनः उन विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों एवं सिद्धान्तवादों (Philosophical Schools and Theories) का अध्ययन करता है जिनसे शिक्षा की क्रिया प्रभावित हुई है और उसे विशिष्ट दिशाएँ मिली हैं।

(iii) शिक्षा की समस्यायें- जीवन में जो कुछ मनुष्य सीखता-सिखाता है वे सब सीधे-सीधे पूरी नहीं होती हैं अतएव बहुत सी समस्याएँ आती हैं और इन सबका विश्लेषण, विवेचन एवं समापन शिक्षा-दर्शन से होता है, अतः ये समस्यायें इसके अध्ययन क्षेत्र में आती हैं।

(iv) शिक्षकों एवं शिक्षाशास्त्रियों के विचार- शिक्षा दर्शन उन लोगों के विचारों के परिणामास्वरूम बना है जिन्होंने समय-समय पर शिक्षा के सम्बन्ध में अपने अनुभव, दृष्टिकोण एवं चिन्तन को प्रकट किया है। इन्हें शिक्षक एवं शिक्षाशास्त्री (Educator and Educationist) कहा जाता है।

(v) राष्ट्रीय शिक्षा नीति तथा योजना सम्बन्धी विचार- व्यक्तिगत रूप से शिक्षा- दर्शन प्रकट किया जाता है परन्तु उसका प्रभाव पूरे राष्ट्र की शिक्षा नीति तथा योजना पर होता है। अतएव शिक्षा-दर्शन के अध्ययन विस्तार में इसे भी शामिल किया जाता है।

(vi) शिक्षा-क्रिया के अंगों पर विचार- शिक्षाविदों ने शिक्षा की क्रिया के कई अंग बताये हैं-

(अ) शिक्षा के उद्देश्य, आदर्श, मूल्य ।

(ब) शिक्षा का पाठ्यक्रम, शिक्षा को सामग्री ।

(स) शिक्षा की विधियों, समय-सारिणी।

(द) शिक्षा की वस्तुएं, क्षब्य-दृश्य उपकरण।

(य) शिक्षा की संस्थाएँ और उनका संगठन ।

(र) शिक्षा का मूल्यकरण एवं परीक्षा ।

(ल) शिक्षा के परिणामों का अभिलेखन ।

ये सभी शिक्षा दर्शन के अध्ययन-क्षेत्र में समाविष्ट किये जाते हैं क्योंकि इनके बारे में शिक्षाशास्त्रियों अन्तिम विचार निर्णय करने पड़ते हैं, तभी तो इन्हें एक निश्चित रूप-आकार प्रदान किया जाता है और काम में लाया जाता है।

(vii) एतत्सम्बन्धी शोघ-अन्वेषण-शिक्षाशास्त्र में जो शोध हो रहे हैं उनका सम्बन्ध शिक्षा-दर्शन से भी होता है। अतएव जो भी शोध तथा अन्वेषण कार्य होता है वह भी शिक्षा दर्शन के अध्ययन-क्षेत्र में रखा गया है।

अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शिक्षा दर्शन का अध्ययन बहुत व्यापक है। यह शिक्षा के समस्त प्रसंगों का विवेचन, विश्लेषण एवं सम्पूर्ण अध्यवन करता है। विवादग्रस्त स्थिति में समस्याएँ खड़ी होती हैं और इनका समाधान भी शिक्षा दर्शन के द्वारा होता है। इसके अध्ययन क्षेत्र की ओर प्रो० कनिंघम के शब्द संकेत करते हैं:-

“प्रथम, दर्शन सभी चीजों का विज्ञान है, इसलिए शिक्षा दर्शन शिक्षा की समस्या के सभी मुख्य पहलुओं से देखता है…। दूसरे स्थान मैं, दर्शन सभी चीजों को उनके अन्तिम तर्कों एवं कारणों के द्वारा जानने का विज्ञान है।” (First, philosophy is the science of all things. So philosophy education look at the problem of education in all its main aspects…..In the second place, philosophy is the science of all things through their ultimate reasons and causes.) -Prof. Cunningham.

  1. भारतीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा-दर्शन

भारत में शिक्षा-दर्शन का अध्ययन अवश्य होता रहा है क्योंकि शिक्षा और दर्शन के अध्ययन की परम्परा यहाँ बहुत पहले से चली आ रही है। आज भी हम अपने भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक अपनी ही शिक्षा-दर्शन पाते हैं। प्राचीन, मध्य एवं आधुनिक काल के इतिहास में हमें जो शिक्षा दर्शन मिलता। वह पाश्चात्य जगत के शिक्षा-दर्शन से भिन्न है। प्राचीन भारतीय शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ था जो ब्रह्म की प्राप्ति से संभव होता था। मध्यकाल की शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य ‘आत्मा की शुद्धि एवं शान्ति’ था और अब आधुनिक शिक्षा का लक्ष्य एकदम भौतिक हो गया है, ‘सेवा या जीविका प्राप्ति’ । इन उद्देश्यों के अनुकूल, पाठ्यक्रम, विधि, शिक्षा संस्था, शिक्षा नीति आदि विभिन्न कालों में बनायी गई। विश्व की एकता को सामने रखकर आधुनिकतम शिक्षा लोगों को अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना विकसित करने में लगाना चाहती है परन्तु सुखवादी जीवन-दर्शन इस लक्ष्य में बाधक बन रहा है और भारत में वर्तमान काल में शिक्षा का लक्ष्य एक कोरा सामाजिक कल्याण या समाजवाद हो गया है। इसी सन्दर्भ में आज हम अपने देश के शिक्षा-दर्शन को पाते है।

कोठारी कमीशन की रिपोर्ट से हमें ज्ञात होता है कि इस आयोग ने भौतिक एवं अभौतिक सफलता के लिए कुछ लक्ष्य सामने रखा और उस पर जोर दिया-

(अ) खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भरता हो,

(ब) आर्थिक विकास और रोजगारी की समस्या हल हो,

(स) सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकीकरण स्थापित हो,

(द) राजनीतिक जागृति और नागरिकता के लक्षण उत्पन्न हों,

(य) आध्यात्मिक और नैतिक विकास हो, तथा

(र) अन्तर्राष्ट्रीयता का विकास हो।

ये लक्ष्य भारतीय आदर्श ‘धर्मार्थकाममोक्ष’ में पहले से ही सन्निहित थे। पहले ‘सा विद्या या विमुक्तये’ या जो आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ाता था। आज भी वही आदर्श है केवल क्रम उल्टा हो गया है और एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में आध्यात्मिक-धार्मिक- नैतिक विकास उपेक्षा की चीज है केवल ग्रहणीय चीज है तो आर्थिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विकास जो पूर्णतया भौतिक है। तो आज ‘सा विद्या या सर्वेलभते’ की कहानी कहते हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा-दर्शन आधुनिक युग के पाश्चात्य चिन्तन से प्रभावित है। इसी दृष्टि से जैसे पाश्चात्य विचारक शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, विधि आदि पर ध्यान दिये हैं उन्हें हम भी अपनाये हैं। विश्वविद्यालय के शिक्षा-शास्त्र पाठ्यक्रम में भी पूर्णतया शुद्ध भारतीय शिक्षा-दर्शन अभी तक नहीं रखा गया है। कुरुक्षेत्र  विश्वविद्यालय इस दिशा में प्रयलशील अवश्य है। यदि भारतीय दर्शन-प्रणाली पर आधारित शिक्षा-दर्शन बन जावे तो निश्चय ही भारतीय शिक्षा दर्शन का विकास होगा।

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Pankaja Singh

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