शिक्षाशास्त्र

शैक्षिक तकनीकी के रूप | व्यवहार तकनीकी | अनुदेशन तकनीकी | शिक्षण तकनीकी | अनुदेशन की रूपरेखा | Types of Educational Technology in Hindi

शैक्षिक तकनीकी के रूप | व्यवहार तकनीकी | अनुदेशन तकनीकी | शिक्षण तकनीकी | अनुदेशन की रूपरेखा | Types of Educational Technology in Hindi

शैक्षिक तकनीकी के रूप

(Types of Educational Technology)

वैज्ञानिक आविष्कारों तथा तकनीकियों के ‘विकास ने मानव जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित किया है। उद्योग, वाणिज्य, सुरक्षा तथा प्रशासन आदि में यान्त्रीकरण बड़ी तेजी से हुआ है। शिक्षा प्रक्रिया भी इनसे अछूता नहीं रही है और शिक्षा के सभी पक्षों को प्रभावित किया है। फलस्वरूप शिक्षा के क्षेत्र में अनेकों तकनीकियों का विकास हुआ है। इन तकनीकियों के क्षेत्र में कोई कठोर सीमा नहीं है, इसलिये इनको समझने में अधिक भ्रम रहता है। प्रमुख तकनीकियों के अर्थ धारणाओं तथा क्षेत्र का विवेचन किया गः-

  1. व्यवहार तकनीकी (Behavioural Technology),
  2. अनुदेशन तकनीकी (Instructional Technology),
  3. शिक्षण तकनीकी (Teaching technology),
  4. अनुदेशन की रूपरेखा (Instructional Design)

1. व्यावहारिक तकनीकी (Behavioural Technology) :

मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन करता है तथा शिक्षा उस व्यवहार में वांछित संशोधन कर मनुष्य को समाज के आदर्शों तथा मानकों के अनुरूप बनाती है। इस प्रकार अधिगम अनुभव एवं प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में परिवर्तन है। बोरिंग, सँगफील्ड एवं वेल्ड के अनुसार, “जब अनुक्रिया जटिल होती है, उस समय वह व्यवहार कहलाती है। व्यवहार का परिस्थिति से वैसा ही सम्बन्ध होता है, जैसा कि अनुक्रिया का उद्दीपन से होता है।”

गतिशीलता हो व्यवहार का प्राण है और इसी विशेषता के कारण व्यवहार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अध्ययन का विषय बना है। व्यवहार जिस क्षेत्र में भी होता है, परिस्थितियों से प्रभावित होता है। इसमें वैयक्तिक विभिन्नता पाई जाती है। कक्षा में समान परिस्थितियों के होते हुए भी कुछ छात्र बहुत अच्छे अंक प्राप्त करते हैं. अन्य नहीं। इस प्रकार व्यवहार में संशोधन की प्रक्रिया को अधिगम की प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है। व्यवहार तकनीकी, शैक्षिक तकनीकी का एक महत्वपूर्ण भाग है। व्यवहार तकनीकी शिक्षण में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं उपायों के प्रयोग पर बल देती है जिससे छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सके। व्यवहार तकनीकी के क्षेत्र में बी०एफ० स्किनर जैसे सुप्रसिद्ध व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों का विशेष योगदान है। स्किनर ने अधिगम सम्बन्धी ‘सक्रिय अनुकूलन सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया और अपने द्वारा किये गये प्रयोगों से यह सिद्ध किया कि सक्रिय अनुकूलन सिद्धान्त द्वारा न केवल पशुओं को अपितु बालकों तथा युवकों को भी सफलतापूर्वक प्रशिक्षित किया जा सकता है। स्किनर ने अपनी पुस्तक में व्यावहारिक तकनीकी का उल्लेख भी किया है। स्किनर के अतिरिक्त नेड ए० फिलेण्डर्स, एमीडोन, डी० जी० रायन, ओवर तथा एण्डरसन ने व्यवहार तकनीकी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। व्यवहार तकनीकी के प्रणेताओं ने मनुष्य को विषयवस्तु बनाया है। इसका सम्बन्ध शिक्षक व्यवहार का अध्ययन करने से भी है। इसे प्रशिक्षण तकनीकी के नाम से भी जाना जाता है।

व्यवहार तकनीकी की अवधारणायें (Assumptions of Behavioural Technology) :

व्यवहार तकनीकी सम्प्रत्यय निम्नलिखित अवधारणाओं पर आधारित है :

(क) शिक्षक व्यवहार निरीक्षणीय है।

(ख) शिक्षक व्यवहार मापनीय है।

(ग) शिक्षक व्यवहार सापेक्षिक है।

(घ) शिक्षक व्यवहार सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक है।

(ङ) शिक्षक व्यवहार परिवर्तनीय है।

व्यवहार तकनीकी का कार्यक्षेत्र शिक्षक के कक्षा व्यवहार का अध्ययन, निरीक्षण, विश्लेषण एवं मूल्यांकन करना है तथा इसमें शिक्षक के व्यवहार को प्रभावशाली बनाने हेतु अनेक प्रकार की नवीन शिक्षण विधियों को अपनाया जाता है जैसे, अभिक्रमित अनुदेशन, सूक्ष्म शिक्षण, कक्षा शिक्षण अन्तःप्रक्रिया, टी० समूह शिक्षण, अनुकरणीय शिक्षण आदि।

व्यवहार तकनीकी की विशेषताएँ

Characteristics of Behavioural Technology):

(1) व्यवहार तकनीकी के माध्यम से छात्राध्यापकों का ध्यान छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की ओर केन्द्रित करवाया जाता है जिससे शिक्षण करते समय व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखा जाए।

(2) इसमें मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का अनुकरण किया जाता है।

(3) व्यवहार तकनीकी मोफ्टवेयर उपागम का अनुसरण करती है।

(4) इस तकनीकों के द्वारा शिक्षण के मध्य छात्रों तथा शिक्षण अभ्यास काल में छात्राध्यापकों को पुनर्बलित किया जाता है

(5) यह ज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक दोनों ही उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता प्रदान करती है।

(6) इसके द्वारा शिक्षक के कक्षा-व्यवहार स्वरूपों का अध्ययन किया जा सकता है और व्यवहार में सुधार हेतु सुझाव दिये जा सकते हैं।

(7) यह तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं द्वारा आदर्श तथा प्रभावशाली शिक्षक तैयार करने हेतु अत्यन्त उपयोगी है, क्योंकि इसमें छात्राध्यापकों के प्रशिक्षण के समय व्यक्तिगत क्षमताओं के अनुसार कौशल के विकास के लिए अवसर दिया जाता है।

(8) इस तकनीकी में शिक्षण क्रियाओं का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से किया जाता है तथा मूल्यांकन को वैज्ञानिकता प्रदान की जाती है।

(9) व्यवहार तकनीकी का उद्देश्य कक्षा व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाना है।

(10) इस तकनीकी के द्वारा कक्षा के शाब्दिक तथा अशाब्दिक दोनों प्रकार के व्यवहारों का अध्ययन किया जा सकता है।

(11) इसके द्वारा पाठ्य-वस्तु तथा विचारों के आदान-प्रदान की शैली जैसे शिक्षण के दोनों पक्षों में सुधार एवं परिवर्तन लाया जा सकता है।

व्यवहार तकनीकी का प्रयोग (Practice of Behaviour Technology) :

व्यवहार तकनीकी में निम्नलिखित मूल तत्व निहित हैं :

(1) अधिगम प्रक्रिया- अधिगम का मुख्य उद्देश्य छात्र में अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन करना है, अतः अधिगम प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व शिक्षक को कुछ ऐसे बिन्दुओं का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए, जो छात्र के अधिगम को प्रभावित करते हैं जैसे, मूल प्रवृत्तियाँ तथा सहज क्रियाएं, परिपक्वता तथा थकान आदि :

(अ) मूल प्रवृत्तियाँ तथा सहज क्रियाएँ प्रत्येक बालक जन्म से लेकर पैदा होता है, अतः उन्हें सीखा नहीं जाता। जिस प्रकार की मूल प्रवृत्ति तथा सहज क्रियाएं बालक जन्म से लेकर पैदा हुआ, वे उसके अधिगम को प्रभावित करती है,

(ब) परिपक्वता बालक के अधिगम को प्रभावित करती है, यदि किसी विषय को सीखने की दृष्टि से बालक शारीरिक अथवा मानसिक दृष्टि से परिपक्व ही नहीं है, तो अधिगम प्रक्रिया के द्वारा उसमें वांछित परिवर्तन नहीं लाया जा सकता एवं

(स) मानसिक अथवा शारीरिक थकान भी बालक के अधिगम को प्रभावित करती है।

(2) अधिगय तत्व- गैगने (1965) ने बताया कि अधिगम हेतु मुख्य रूप से तीन मुख्य तत्व आवश्यक हैं

(1) सीखने वाला या अधिगमकर्ता, (2) उद्दीपक, (3) अनुक्रिया।

सफल अधिगम हेतु यह आवश्यक है कि इस प्रकार के उद्दीपक छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किये जाएँ, जिनसे वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके।

(3) सामीप्यता- व्यवहार तकनीकों का प्रयोग करते समय समोपता एक अनिवार्य तत्व है। किन्हीं भी दो विषयों में जितनी अधिक समीपता होगी, अधिगम उतना हो सरल तथा स्थायी होगा।

(4) अभ्यास- अधिगम हेतु अभ्यास किया जाना आवश्यक है। अभ्यास के द्वारा सीखे गये विषय पर अधिकार प्राप्त होता है। अभ्यास से अभिप्राय है-उद्दीपन तथा अनुक्रिया की पुनरावृति। आजकल लाभप्रद ज्ञानात्मक उद्दीपक पर अधिक बल दिया जाता है। अतः सभी प्रकार की अधिगम प्रक्रियाओं में अभ्यास का विशेष महत्व है।

(5) पुनर्बलन- अधिगम को प्रक्रिया में पुरस्कार तथा दंड, प्रशंसा तथा निन्दा अपना विशेष महत्व रखते हैं। इसके माध्यम से व्यवहार परिवर्तन में सहायता मिलती है, इस प्रक्रिया को भी पुनर्बलन कहते हैं।

(6) सामान्यीकरण तथा विभेदीकरण- व्यवहार तकनीकी में विभेदीकरण तथा सामान्यीकरण व्यवहार परिवर्तन के द्योतक हैं। शिक्षाशास्त्री शैक्षिक परिस्थितियों में अर्जित व्यवहार में सामान्यीकरण के माध्यम से ही परिवर्तन देखते हैं। इसी प्रकार यदि किसी अनुक्रिया के अनेक उद्दीपक या एक उद्दीपक की अनेक अनुक्रियायें होती हैं, तो उनमें विभेद करना आवश्यक होता है। विभेदीकरण जितना सशक्त होगा, व्यवहार पर नियन्त्रण भी उतना ही अधिक होगा।

इस प्रकार शिक्षण अधिगम के क्षेत्र में व्यवहार तकनीकी का विशेष महत्व है, किन्तु व्यवहार तकनीकी के क्षेत्र में अनेक कठिनाइयाँ आ जाती है, जैसे, व्यवहार की प्रवृत्ति व्यवहार क्योंकि गतिशील होता है, अतः व्यवहार की स्थायी प्रवृत्ति को विकसित करने में कठिनाई होती है। व्यवहार तकनीकी की सफलता अभ्यास पर निर्भर करती है, यदि व्यवहार परिवर्तन के पश्चात अभ्यास छोड़ दिए जाए तो निश्चय ही व्यवहार तकनीकी अनुपयोगी हो जाएगी।

  1. अनुदेशात्मक तकनीकी (Instructional Technology) :

शैक्षिक तकनीकी में अनुदेशनात्मक तकनीकी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसमें शिक्षण सिद्धान्त, शिक्षण प्रारूप, शिक्षक के व्यवहार सिद्धान्त, अभिक्रमित अधिगम आदि को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार हम अनुदेशनात्मक तकनीकी को शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए व्यवस्थित सिद्धान्तों का समूह मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि ये सिद्धान्त अधिगम की परिस्थितियों पर लागू होते हैं और शैक्षिक सामग्री के प्रारूप द्वारा इनका प्रयोग किया जाता है। अनुदेशनात्मक तकनीकी में कक्षा अथवा कक्षा से बाहर पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत करने का वर्णन किया जाता है। मानव अधिगम में अनुदेशन का महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि मानव का अधिकांश अधिगम अनुदेशन द्वारा ही होता है। शिक्षण में अनुदेशन निहित होता है वैसे तो अनुदेशन और शिक्षण दोनों में विद्यार्थियों को सीखने की प्रेरणा दी जाती है तथापि अनुदेशन व शिक्षा में अन्तर है। अनुदेशन का अर्थ है- सूचना देना और यह कार्य शिक्षक के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों अथवा साधनों द्वारा भी पूरा किया जा सकता है, जबकि शिक्षण में शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

निर्देशात्मक तकनीकी का विकास करने वालों में बी०एफ० स्किनर, रॉबर्ट लिशर, नॉर्मन ए० क्राउडर, रॉबर्ट मेगर, गिलबर्ड एवं जे० रोम बूनर का नाम विशेष उल्लेखनीय है। आसुबेल ने अनुदेशानात्मक तकनीकी को सार्थक विद्यालयी अधिगम (Meaningful School Learning) के रूप में स्वीकार किया है। एम०एस० मैक मूरिन ने अनुदेशनात्मक तकनीकों के अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि, “अनुदेशात्मक तकनीकी शिक्षण और सीखने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को विशिष्ट उद्देश्य के अनुसार डिजाइन करने, चलाने तथा उसका मूल्यांकन करने की एक क्रमबद्ध रीति है। यह शोध कार्य तथा मानवीय सोखने एवं आदान-प्रदान पर आधारित है। इसमें शिक्षण को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए मानवीय तथा अमानवीय साधनों का प्रयोग किया जाता है।”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि यह तकनीकी हार्डवेयर उपागम पर आधारित है। इसमें अभिक्रमित अनुदेशन जैसी शिक्षण विधियों के साथ-साथ दूरस्थ शिक्षा प्रदान करने हेतु दूरदर्शन, आकाशवाणी, शिक्षण मशीनों, टेपरिकॉर्डर, कम्प्यूटर प्रोजक्टर तथा चलचित्र आदि। दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोग किया जाता है।

अनुदेशनात्मक तकनीकी शैक्षिक तकनीकी की कक्षागत या अधिगम परिस्थितियों में प्रयुक्त नवीन शिक्षण व्यवस्था है। शैक्षिक तकनीकी से इसका विकास हुआ है। आज शिक्षा तथा उद्योग परस्पर मिल गये हैं। दोनों में प्रभावपूर्ण उपयोगी सम्बन्ध बनाने हेतु अनुदेशनात्मक तकनीकी का अपना महत्व है। इसमें अभिक्रमित अभिगम जैसी नवीन विधियों द्वारा स्वाध्याय तथा स्वयं शिक्षण को बढ़ावा दिया जाता है।

अनुदेशनात्मक तकनीकी की अवधारणायें :

अनुदेशनात्मक तकनीकी में निम्नलिखित अवधारणायें सम्मिलित हैं :

(1) इसमें शिक्षक की अनुपस्थिति में भी छात्र स्वयं अध्यापन से सीखा सकते हैं।

(2) अनुदेशन के निरन्तर प्रयोग से छात्रों को अधिगम हेतु सभुचित पुनर्बलन प्रदान किया जा सकता है।

(3) इसमें विद्यार्थी की व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए सीखने के अवसर प्रदान  किये जाते हैं।

(4) पाठ्यवस्तु को खेटे-छोटे तत्वों में विभाजित किया जा सकता है तथा प्रत्येक का प्रस्तुतिकरण स्वतन्त्र रूप में किया जाता है।

(5) इस तकनीकी में विविध विधियों एवं प्रविधियों की सहायता से अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

(6) इसमें अधिगम तत्वों को तार्किक क्रम में व्यवस्थित करके सीखने का समुचित वातावरण उत्पन्न किया जा सकता है।

अनुदेशनात्मकतनीकी का स्वरूप (Forms of Instructional Technology) :

अनुदेशनात्मक तकनीकी में मुख्य रूप से दो बातों पर बल दिया गया है :

(1) कथागत अन्तःक्रिया विश्लेषणः एवं

(2) अभिक्रमित अधिगम (Programmed Learning) |

कथागत अन्तःक्रिया विश्लेषण में कक्षा में छात्र तथा अध्यापक के पारस्परिक व्यवहार का विश्लेषण किया जाता है, इसमें शिक्षक व्यवहार, छात्र व्यवहार, शिक्षक तथा छात्र व्यवहार इन तीनों दृष्टियों से कश्चागत अन्तक्रिया का विश्लेषण किया जाता है। वी०एफ० स्किनर व उसके साथियों द्वारा प्रतिपादित अभिक्रमित अधिगम द्वारा छात्रों के व्यवहार में संशोधन किया जाता है। यह अधिगम इस बात पर बल देता है कि शिक्षक समुदाय शैक्षिक उद्देश्यों पर पुनः विचार कर शिक्षण में सुधार करे।

अनुदेशनात्मक तकनीकी में प्रयुक्त किये जाने वाले उपर्युक्त दो तरीकों के अलावा अन्य तरीकों को भी अपनाया जाता है, जो निम्नलिखित है :

(अ) श्रृंखला अभिक्रमित अनुदेशन,

(ब) शाखायी अभिक्रमित अनुदेशन,

(स) मैथमेटिकल अभिक्रमित अनुदेशन; एवं

(द) कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन आदि।

अनुदेशनात्मक तकनीकी की विशेषताएँ :

(1) इस तकनीकी द्वारा व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

(2) इसमें छात्रों को सही अनुक्रिया करने पर पुनर्बलित किया जाता है। इस प्रकार इसमें सीखने के अनुबद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है।

(3) यह तकनीकी प्रभावी शिक्षकों की कमी को भी पूरा कर सकती है।

(4) इस तकनीकी के द्वारा ज्ञानात्मक उद्देश्यों की प्राप्त की जा सकती है।

(5) यह मनोवैज्ञानिक तथा सीखने के सिद्धान्तों पर आधारित है।

(6) इस तकनीकी में  पाठ्यवस्तु का गहराई से विश्लेषण किया जाता है; एवं जिससे पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतिकरण प्रभावशाली हो जाता है।

(7) इसमें छात्र अपनी आवश्यकतानुसार और अपनी गति के अनुसार सीख सकते हैं।

(8) इसमें नवीनतम प्रयोगों तथा अनुसन्यानों की सहायता से अनुदेशनात्मक सिद्धान्तों का विकास किया जा सकता है।

(9) यह तकनीकी पाठ्यवस्तु के स्वरूप तथा उसमें निहित तवों के क्रम में अधिगमकर्ता के अन्दर गहन अन्तर्दृष्टि उत्पन्न करती है।

(10) अधिगम प्रक्रिया में इस तकनीकी का प्रयोग करके अनुदेशनात्मक सिद्धान्तों का विकास किया जा सकता है।

  1. शिक्षण तकनीकी (Teaching Technology) :

शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है। इसका मुख्य उद्देश्य छात्र का सर्वांगीण विकास करना है, जो छात्र तथा शिक्षक की अन्तक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है। शिक्षण के प्रमुख दो तत्व होते है- पाठ्यवस्तु तथा सम्प्रेषण। शिक्षण तकनीकी के अन्तर्गत पाठ्यवस्तु तथा सम्प्रेषण दोनों तत्वों को ही सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार शिक्षण तकनीकी के अन्तर्गत उपर्युक्त वर्णित दोनों तकनीकी (व्यवहार व अनुदेशन) सम्मिलित हैं।

शिक्षण कला तथा विज्ञान दोनों हैं अतः शिक्षण का आधार कला के साथ-साथ वैज्ञानिक भी है। इसमें शिक्षण प्रक्रिया का विश्लेषण वस्तुनिष्ठ रूप में किया जाता है। शिक्षण तकनीकी शिक्षण में नवीन विधियों के प्रयोग पर बल देती हैं जिनका सम्बन्ध विशेष रूप से शिक्षण तथा अधिगम को प्रभावशाली बनाना है। इस तकनीकी को विकसित करने में आई० के० डेवीज, हरबर्ट, मोरीसन, गेज, बूनर, गेने तथा ग्लेशर आदि का महत्वपूर्ण योगदान है।

शिक्षण तकनीकी की पाठ्यवस्तु :

शिक्षण तकनीकी की पाठ्यवस्तु को डेवीज, रॉबर्ट तथा ग्लेसर ने सन् 1962 में चार सोपानों में विभाजित किया है।

(अ) शिक्षण नियोजन- शिक्षण अधिगम का महत्वपूर्ण सोपान नियोजन है। इस सोपान में शिक्षक पाठ्यवस्तु का विश्लेषण कर उद्देश्यों का निर्धारण करता है तत्पश्चात् उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने की क्रिया की जाती है।

(ब) शिक्षण व्यवस्था- इसमें शिक्षक शिक्षण विधियों, प्रविधियों, युक्तियों, दृश्य-श्रव्य उपकरणों का चयन कर ऐसा प्रभावकारी वातावरण बनाता है जिससे सीखने के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके।

(स) शिक्षण का मार्गदर्शन- इस सोपान में शिक्षक छात्रों को सीखने के लिए बार-बार अभिप्रेरित करता है व उनका समाधान करता है।

(द) शिक्षण का नियत्रण- इस अन्तिम सोपान में शिक्षक शिक्षण की सफलता हेतु छात्रों व स्वयं का मूल्यांकन करता है जिसके द्वारा छात्र भी अभिव्यक्ति तथा शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है; इसकी जाँत की जाती है।

इसके अतिरिक्त रॉबर्ट ग्लेसर ने भी शिक्षण के चार सोफन, मूलभूत शिक्षण प्रतिमान के में प्रस्तुत किये

(1) अनुदेशनात्मक उद्देश्य, (2) प्रारम्भिक व्यवहार, (3) अनुदेशनात्मक प्रक्रियायें, (4) उपलब्धियों का मूल्यांकन।

शिक्षण तकनीकी की अवधारणायें :

(1) शिक्षण की क्रियाओं में विकास एवं सुधार किया जा सकता है।

(2) शिक्षण एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसके मुख्य तत्वं पाठ्यवस्तु एवं सम्प्रेषण हैं।

(3) शिक्षण तथा अधिगम में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है।

(4) अधिगम के स्वरूपों के लिए शिक्षण द्वारा समुचित परिस्थितियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं।

(5) शिक्षण की क्रियाओं द्वारा अधिगम के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

(6) पृष्ठ-पोषण विधि द्वारा शिक्षण-कौशल का विकास किया जा सकता है।

शिक्षण तकनीकी की विशेषतायें :

(1) शिक्षण तकनीकी के अनुसार शिक्षण प्रक्रिया में छात्र को केन्द्रबिन्दु माना जाता है।

(2) इस तकनीकी से शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है।

(3) शिक्षण तकनीकी के माध्यम से ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक तीनों प्रकार के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

(4) इस तकनीकी के माध्यम से छात्राध्यापक तथा सेवारत शिक्षक दोनों ही अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सकते हैं।

(5) यह शिक्षण के तीनों स्तरो (स्मृति, बोध तथा चिन्तन) के संगठन में सहयोग देती है।

(6) इस तकनीकी में दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान की सहायता ली जाती है।

(7) शिक्षण तकनीकी में अदा (Input), प्रक्रिया (Process) तथा प्रदा (Output) तीनों ही सम्मिलित होते हैं।

(8) इसके माध्यम से शिक्षण के दोनों कारकों पाठ्यवस्तु तथा सम्प्रेषण में सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है।

(9) यह शिक्षा के नियोजन, व्यवस्था, मार्गदर्शन तथा नियन्त्रण जैसे चारों सोपानों में तारतम्य स्थापित करती है।

(10) शिक्षण तकनीकी की सहायता से शिक्षण प्रक्रिया के विभिन्न अंगों को प्रभावशाली एवं सुमाह्य बनाया जा सकता है।

(11) इसकी सहायता से ‘शिक्षण सिद्धान्तों’ तथा ‘शिक्षण प्रतिमानों का निर्माण किया जा सकता है।

(12) यह शिक्षा को अधिक व्यावहारिक तथा प्रायोगिक बनाने पर बल देती है।

(13) यह शिक्षकों को अपने तथा छात्रों के व्यवहार को नियन्त्रित करना सिखाती है, साथ ही उन्हें आवश्यकतानुसार परिमार्जित भी करती है।

(14) शिक्षण तकनीकी शिक्षक को उचित शिक्षण-विधियों एवं नीतियों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है।

  1. अनुदेशन की रूपरेखा (Instructional Design) :

आधुनिक धारणा के अनुसार शिक्षक जन्मजात ही नहीं होते, अपितु प्रशिक्षण संस्थाओं ‘द्वारा प्रभावशाली शिक्षक तैयार भी किये जाते हैं। इस शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में अनुदेशन  की रूपरेखा अपना विशेष महत्व रखती है। कुछ वर्षों पूर्व तक शिक्षण में केवल सीखने के सिद्धान्तों एवं उसके कक्षा में प्रयोग पर ही बल दिया जाता था, किन्तु उससे उपलय की प्राप्ति सम्भव नहीं हो रही थी, अतः मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षण की उपयुक्त परिस्थितियों का की निश्चित रूपरेखा एवं नवीन उपागमों पर बल देने की आवश्यकता अनुभव की । शैक्षिक तकनीकी की वह शाखा जो शिक्षण की परिस्थितियों, कार्यों की रूपरेखा एवं नवीन उपाग की ओर संकेत करती है, अनुदेशन के प्रारूप कहलाती है। ग्लेसर (1968) ने शैक्षिक तकनीकी की विशेषता बताते हुए कहा कि अनुदेशन के प्रारूप की सहायता से  व्यावसायिक क्षमता का विकास किया जा सकता है। कार्टर (1966) ने शोधकार्यों के अनुसार यह पाया कि अनुदशन के प्रारूप का प्रयोग एक व्यक्ति की अपेक्षा समूह की व्यावसायिक क्षमताओं के विकास के लिए अधिक प्रभावशाली होता है। अनविन (Unwin, 1968) ने अनुदेशन के प्रारूप की परिभाषा इस प्रकार दी है:

“अनुदेशन के प्रारूप से तात्पर्य आधुनिक कौशल तथा प्रविधियों का शिक्षा तथा प्रशिक्षण की आवश्यकताओं के लिए प्रयोग करना है। इसके अन्तर्गत वे सभी विधि, साधन, वातावरण सम्मिलित कब जाते हैं जो अधिगम को सुगमता तथा सरलता प्रदान करते हैं।”

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Pankaja Singh

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