अर्थशास्त्र

सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त | सिद्धान्त की मान्यताएँ | सीमान्त उत्पादकता का अर्थ

सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त | सिद्धान्त की मान्यताएँ | सीमान्त उत्पादकता का अर्थ

सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त-

सीमान्त उत्पादकता का सिद्धान्त इस बात की सामान्य व्याख्या करता है कि उत्पत्ति के साधनों के पुरस्कार अर्थात उनकी कीमत किस प्रकार निर्धारित होती है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन 19 वीं शताब्दी के अन्त में जे. बी. क्लार्क, विकस्टडी, वालरस आदि अर्थशास्त्रियों ने किया। इसके बाद श्रीमती जॉन रॉबिन्सन तथा हिक्स आदि अर्थशास्त्रियों द्वारा इसका विकास हुआ।

परिभाषाएँ-

इस सिद्धान्त की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

स्टोनियर एवं हेग के शब्दों में, “उत्पादन के साधनों की कीमत निर्धारण की कुंजी सीमान्त उत्पादकता के पास है तथा उत्पादन के किसी भी साधन का पुरस्कार अन्ततः उसकी सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करता है।”

प्रो. क्लार्क के अनुसार, “स्थैतिक अवस्था में उत्पादन के प्रत्येक साधन को जिसमें उद्यमी भी शामिल हैं, सीमान्त उत्पादकता के बराबर आय प्राप्त होती है।

सिद्धान्त की मान्यताएँ-

यह सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-

(1) विभिन्न साधनों की सभी इकाइयाँ गुण व कार्यकुशलता की दृष्टि से समान हैं।

(2) साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति पड़ती है।

(3) पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है।

(4) यह सिद्धान्त ह्रासमान प्रतिफल के नियम पर आधारित है।

(5) प्रत्येक फर्म का उद्देश्य लाभ को अधिकतम करना होना चाहिए।

(6) यह सिद्धान्त दीर्घकाल में उत्पत्ति के साधनों का पारिश्रमिक निर्धारित करता है।

सीमान्त उत्पादकता का अर्थ-

अन्य साधनों को स्थिर रखते हुए परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई का प्रयोग करने से कुल उत्पादन में जो वृद्धि हो उसे उस साधन की सीमान्त उत्पादकता कहते हैं। यह निम्न तीन प्रकार से व्यक्त की गयी है।

(1) सीमान्त भौतिक उत्पादकता- जब सीमान्त उत्पादकता को वस्तु की भौतिक मात्रा में व्यक्त किया जाता है तो उसे सीमान्त भौतिक उत्पादकता कहते हैं। माना कि एक श्रमिक लगाने से उत्पादन 10 इकाइयाँ होता है और दूसरा श्रमिक लगाने से उत्पादन 18 इकाइयाँ होता है तो दूसरे श्रमिक की सीमान्त भौतिक उत्पादकता 18-10 =8 इकाइयाँ होगी। उत्पत्ति ह्रास नियम के कारण प्रारम्भ में परिवर्तनशील साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता बढ़ती है, एक बिन्दु पर अधिकतम हो जाती है और फिर गिरने लगती है। इस प्रकार MPP वक्र उल्टे U आकार का बनता है। जैसा कि रेखाचित्र में दिखाया गया है।

(2) सीमान्त आगम उत्पादकता- फर्म के लिए MPP की अपेक्षा MRP अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उसे भौतिक उत्पादन में नहीं वरन भौतिक उत्पादन को बेचने से प्राप्त आगम या द्रव्य में अधिक रुचि रहती है। अतः अन्य साधनों के स्थिर रहने पर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के बढ़ाने से कुल आगम में जितनी अतिरिक्त वृद्धि होती है उसे उस साधन की सीमान्त आगम उत्पादकता कहते हैं। MPP को MR से गुणा कर दें तो MRP ज्ञात हो जाती है। अत: MRP = MPP X MRP इसलिए MRP वक्र का आधार भी उल्टे U जैसा होता है।

(3) सीमान्त उत्पादकता का द्रव्य मूल्य- इसे सीमान्त उत्पाद का मूल्य या सीमान्त मूल्य उत्पाद भी कहा जाता है। यह MPP को उत्पाद (या वस्तु) की कीमत से गुणा करके जाना जाता है अर्थात् VMP = MPP X Price (or AR)। चूँकि पूर्ण प्रतियोगिता Price (AR) = MP में होता है इसलिए VMP = MPP X MR = MRP । इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में VMP और MRP एक ही चीज हैं। अपूर्ण प्रतियोगिता में MRP और NMP एक ही नहीं होगें, क्योंकि विभिन्न इकाइयाँ एक ही कीमत पर नहीं बेची जा सकती। फर्म को अतिरिक्त इकाइयाँ बेचने के लिए कीमत घटानी पड़ती है।

सिद्धान्त की आलोचनाएँ-

वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की कीमत निर्धारण के लिए सभी जगह प्रयोग किया जाता था लेकिन इनमें निम्न दोष पाये जाते हैं-

(1) धन के असमान वितरण का समर्थन- इस सिद्धान्त के अनुसार, धनिकों की आय अधिक होने का कारण यह है कि वे अधिक उत्पादन करते हैं जबकि निर्धन की आयु न्यून होने का कारण उनकी कम उत्पादकता है। इस प्रकार, यह सिद्धान्त धन के असमान वितरण का समर्थन करता है।

(2) अवास्तविक एवं गलत मान्यताओं पर आधारित- पूर्ण प्रतियोगिता, साधनों की पूर्ण गतिशीलता, प्रत्येक फर्म द्वारा लाभ को अधिकतम करने की इच्छा, पूर्ण रोजगार साधनों की सभी इकाइयों का एकरूप होना ये सब अवास्तविक, काल्पनिक एवं गलत मान्यताएँ हैं जो कि एक व्यावहारिक एवं यथार्थ जीवन से असंगत है।

(3) सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना कठिन है- टॉजिंग, डेवनपोर्ट तथा कार्बर इत्यादि अर्थशास्त्रियों का कहना है कि किसी वस्तु का उत्पादन किसी एक उत्पादन के साधन द्वारा नहीं होता, बल्कि सभी साधनों के सम्मिलित प्रयास द्वारा होता है।

(4) अपूर्ण एवं एकपक्षीय सिद्धान्त- यह सिद्धान्त साधन की पूर्ति पर उचित ध्यान नहीं देता और उसे स्थिर मान लेता है। स्थिर पूर्ति की मान्यता करते हुये वह बतलाता है कि एक साधन की कीमत उसकी सीमान्त उत्पादकता के द्वारा निर्धारित होती है।

(5) उत्पादन के साधनों की गतिशीलता- यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि उत्पादन के साधनों में पूर्ण गतिशीलता पायी जाती है परन्तु आलोचकों का कहना है कि व्यावहारिक जीवन में साधनों की गतिशीलता में कई प्रकार की बाधाएँ आती हैं। इससे इस सिद्धान्त में कठिनाई आती है।

(6) पूर्ण रोजगार की मान्यता का दोषपूर्ण होना- यह सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की मान्यता पर आधारित है। पूर्ण रोजगार किसी अर्थव्यवस्था की सामान्य स्थिति न होकर असामान्य दशा में होती है। उत्पत्ति के साधनों में कुछ न कुछ बेरोजगारी तो प्रत्येक समय बनी ही रहती है और ऐसी दशा में साधनों का प्रतिफल उसकी सीमान्त उत्पादकता से कम हो सकता है। वास्तव में यह तथ्य सिद्धान्त को अवास्तविक बना देता है।

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Pankaja Singh

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