संगठनात्मक व्यवहार

सीखने की विचारधाराये | सीखने के विभिन्न सिद्धान्त | Theories of Learning in Hindi | different theories of learning in Hindi

सीखने की विचारधाराये | सीखने के विभिन्न सिद्धान्त | Theories of Learning in Hindi | different theories of learning in Hindi

सीखने की विचारधाराये

(Theories of Learning)

सीखने की विचारधारा में तथा सिद्धान्तों का विकास मनोवैज्ञानिकों तथा शरीर वैज्ञानिकों के द्वारा समय-समय पर किया गया है। कुछ प्रमुख विचारधाराये निम्नलिखित हैं-

(1) सम्बन्ध प्रत्यावर्तन का सिद्धान्त (Theory of Conditioning)-

सीखने की यह सबसे प्राचीन विचारधारा है, जिसका प्रतिपादन 1904 में रूसी शरीर वैज्ञानिक पवलव (Pavlov) के द्वारा किया गया है। बर्नार्ड ने इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुये लिखा है कि, “सम्बन्ध प्रत्यावर्तन उत्तेजना की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है जिसमें उत्तेजना पहले किसी प्रत्युत्तर के साथ होती है, किन्तु अन्त में स्वयं उत्तेजना बन जाती है।” पवलव ने पालतू कुत्ते पर यह प्रयोग किया और यह महसूस किया कि सम्बन्ध प्रत्यावर्तन के इस प्रयोग के महत्वपूर्ण तत्व सुविज्ञान है। एक खास उद्दीपन के फलस्वरूप जो प्रतिक्रिया आम तौर पर होती है, उसे छाँट लिया जाता है। यह माना जाता है कि यह उद्दीपन प्रत्युत्तर प्राणो की मूल प्रवृत्ति का एक भाग है, यानी सीखना है। अब मूल उद्दीपन के साथ एक नया उद्दीपन दिया जाता है। कुछ समय बाद जब मूल उद्दीपन को हटा लिया जाता है, तब यह देखा जाता है कि नये उद्दीपन से भी वैसी ही प्रतिक्रिया होती है, जैसी मूल उद्दीपन से होती है। इस प्रकार प्रतिक्रिया नये उद्दीपन के साथ अनुकूलित हो जाती है।

सम्बन्ध प्रत्यावर्तन का आधार व्यवहार है। संगठनात्मक व्यवहार में यह सिद्धान्त सीखने की एक बुनियादी वैज्ञानिक व्यवस्था प्रदान करता है। प्रबन्धक इस सिद्धान्त का संगठन में सरलता से प्रयोग कर सकता है। उदाहरणार्थ, सम्बन्ध प्रत्यावर्तन धीरे-धीरे स्वभाव बन जाता है। स्वभाव का मानव जीवन में विशेष महत्व है। इस प्रत्युत्तर से समय की बचत होती है तथा कार्य में स्पष्टता आती है। बार-बार किया गया कार्य आदत बन जाता है।

इस सिद्धान्त के द्वारा व्यक्तियों में अच्छी अभिवृत्तियों का विकास किया जा सकता है। प्रबन्धक अधीनस्थों के समक्ष आदर्श उपस्थित कर उन्हें सम्बन्ध प्रत्यावर्तन ग्रहण करने की प्रेरणा दे सकता है। अच्छी अभिवृत्तियों द्वारा अनेक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। चूँकि इस सिद्धान्त में अभ्यास पर अधिक बल दिया जाता है, अतः व्यक्तियों में बहुगुणी विकास किया जा – सकता है। यह सिद्धान्त उन श्रमिकों के लिये भी उपचार प्रस्तुत करता है जो मानसिक रूप से अस्वस्थ होते हैं एवं संवेगात्मक रूप से अस्थिर होते हैं।

सम्बन्ध प्रत्यावर्तन में प्रबन्धक का योग वातावरण का निर्माण करने में अधिक रहता है। प्रबन्धक को चाहिये कि वह श्रमिकों के लिये पुरस्कार तथा दण्ड के निर्धारण का क्रियान्वयन तुरन्त करें। इससे सम्बन्ध प्रत्यावर्तन का सम्पादन शीघ्र होगा।

(2) सक्रिय अनुबन्धक का सिद्धान्त (Operant Conditioning Theory )-

सक्रिय अनुबन्ध मूलतः सीखने से सम्बन्धित है कि जो कि व्यवहार के प्रभाव के रूप में घटित होता है। समबन्ध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त की तरह यह व्यवहार के कारण को खोजने से सम्बन्धित नहीं है। बी0एफ0 स्किनर (B.F. Skinner) ने इस अवधारणा का विकास किया है। इस सिद्धान्त की मूल धारणा- सीखने वाले का व्यवहार पुनर्बलन उत्पन्न करने में माध्यम हो जाता है। यह स्थिति किसी वातावरण में कार्यशील होने पर उत्पन्न होती है। स्किनर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह अनुभव किया कि अभिप्ररेणा का आधार उद्दीपन होता है। उद्दीपन भावी क्रिया को नियन्त्रित करता है। प्रबन्धक संस्था ममें कु संकेतों से सम्पूर्ण क्रिया का संचालन करता है। उदाहरण के लिये, कर्मचारियों द्वारा आठ घण्टे कार्य, पाँच दिन का सप्ताह, एक घण्टे का विश्राम आदि संकेतों के द्वारा प्रबन्धक सम्पूर्ण किया का संचालन करता है।

स्किनर ने चूहों, कबूतरों आदि पर प्रयोगों के द्वारा व्यक्ति में किसी कार्य को करने या सीखने के प्रति सक्रियता को ज्ञात करने का प्रयास किया है जिसका आधार अभिप्रेरणा, प्रेरणा (Drive), पुनर्बलन एवं सक्रिय अनुबन्ध है। स्किनर के अनुसार, “सक्रिय अनुबंधन एक सीखने की प्रक्रिया है। जिसमें अनुक्रिया सतत् या सम्भावित होती है, उस समय सक्रियता की शक्ति बढ़ जाती है।” स्किनर का सिद्धान्त इन्जीनियरिंग पर आधारित है। इसका पत यह है कि मनोविज्ञान बाह्य व्यवहार का विज्ञान है। सीखना, अनुक्रिया की सम्भाव्यता में परिवर्तन है। अनेक स्थितियों में यह परिवर्तन सक्रिय अनुबन्धन के कारण होता है। समस्त व्यवहार सक्रिय पुनर्बलन के द्वारा होता  है। वास्तव में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुर्नवालन की अनुक्रिया की सम्भावना से ही व्यक्ति में परिवर्तन आता है। सक्रिय पुनर्बलन से व्यवहार की कुशलता में वृद्धि होती है। इसके द्वारा कार्य, उपकरणों के प्रयोगों आदि में सन्तुलन बनाये रखा जा सकता है।

सक्रिय अनुबन्धन का आधार पुनर्बलन है। “सक्रिय अनुबन्ध में कोई भी घटना या उद्दीपन, जो किसी प्रकार की अनुक्रिया उत्पन्न करता है, पुनर्बलन कहलाता है।” जो पुनर्बलन बार- बार दिया जाता है, वह भावी व्यवहार का निर्णायक हो जाता है। लूथांस का मत है कि सम्बन्ध प्रत्यावर्तन की बजाय सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त का मनुष्य के सीखने की प्रक्रिया पर अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभाव होता है। सक्रिय अनुबन्धन संगठनात्मक व्यवहार के प्रत्येक पहलू को साधारण रूप में भी स्पष्ट करती है। उदाहरण के लिये, यह कहा जा सकता है कि कर्मचारी, भोजन, कपड़ा, मकान तथा आश्रय के लिये आठ घण्टे प्रतिदिन तथा सप्ताह में पाँच दिन कार्य करते हैं। कार्य (सक्रिय अनुबन्धन) भोजन, कपड़े तथा आश्रय को प्राप्त करने का उपकरण मात्र है। इस प्रकार के विश्लेषण इति झूठ महत्वपूर्ण अन्तदृष्टियों को अत्सततः ज्ञात किया जा सकता है। संगठनात्मक व्यवस्था का प्रभाव वातावरणीय स्थितियों को परिवर्तित कर सकता है तथा कर्मचारियों के व्यवहार को काफी सीमा तक प्रभावित करता है।

(3) उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त (Stimulus Response Theory) –

इस सिद्धान्त का प्रवर्तन थार्नडाइक है जिसने सीखने के सिद्धान्त के निर्माण तथा उनके व्यवहार निरूपण पर अत्यधिक कार्य किया है। इसके अनुसार, “सीखने का अर्थ है- संयोजन। मन मनुष्य का संयोजन मात्र है।” यह संयोजन कब और किस प्रकार होता है इसका वर्णन तीन नियमों के रूप में किय गया है- (i) तैयारी का नियम, (ii) अभ्यास का नियम, (iii) प्रभाव का नियम। इसके सिद्धान्त का आधार यह था कि तन्त्रिका तन्त्र में उद्दीपनों तथा अनुक्रियाओं में संयोग बन जाते हैं। वे संयोग उत्प्रेरणा प्रत्युत्तर (Stimulus-response) संकेतों में स्पष्ट किये जाते हैं। थार्नडाइक ने इन सयोगों को बन्ध या संयोग प्रतीक से भी सम्बोधित किया है। अतः सीखना सम्बन्ध स्थापित करना है और सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य मस्तिष्क करता है। इसने मछली, चूहों तथा बिल्लियों पर प्रयोग के द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि सीखने की क्रिया का आधार स्नायु मण्डल है। स्नायु मण्डल में एक स्नायु से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। जो व्यक्ति अपने जीवन में जितने अधिक संयोग स्थापित कर लेता है, उसे उतना ही अधिक बुद्धिमान माना जाता है। संगनात्मक व्यवहार में भी इस सिद्धान्त का प्रयोग किया जा सकता है। जब व्यक्ति प्रारम्भ में किसी जटिल कार्य को करता है तो बार-बार उससे गलती होती है एवं किसी विशेष प्रयास के उस जटिल कार्य को सहज रूप में कर लेता है। सीखने की इस प्रक्रिया को ‘भूल एवं सुधार’ द्वारा सीखना भी कहा जा सकता है।

(4) सीखने का संज्ञान सिद्धान्त (Cognitive Theory of Learning ) –

एडवर्ड टूमन (Edward Toman) ने उपर्युक्त सिद्धान्तों से पृथक् सीखने का संज्ञान सिद्धान्त (Congnitive Theory of Learning) विकसित किया है। इसका मत है कि सीखने में ज्ञानात्मक वातावरणीय तथ्यों तथा प्रत्याशाओं (Cognitive Environmental and Expectations) के मध्य सम्बन्ध सम्मिलित है। नियन्त्रित प्रयोगों के द्वारा इसने अपने सिद्धान्त को विकसित किया है। भूखे चूहे और भोजन के प्रयोग द्वारा इसने यह अवलोकित किया कि जब चूहा वास्तव में भोजन प्राप्त कर लेता है तो प्रत्याशा तथा लक्ष्य के मध्य सम्बन्ध मजबूत होता है और सीखने की प्रक्रिया घटित होती है। दूमन के सिद्धान्त को उत्प्रेरणा-उत्प्रेरणा (Stimulus stimulus Appraoch) कहा जाता है।

लूथांस ने ‘सामाजिक सीखना सिद्धान्त’ (Social Learning Theory) का प्रतिपादन किया है जिसमें व्यवहारवादी तथा ज्ञानात्मक अवधारणाओं का संयोग एवं एकीकरण सम्मिलित है तथा जो संज्ञान की एकीकृत प्रकृति पर बल देता है।

सामाजिक सीखना सिद्धान्त मूलतः व्यवहारवादी सिद्धान्त है जिसमें परम्परागत एवं सक्रिय अनुबन्धन के सिद्धान्तों का भी काफी सीमा तथा समावेश है। लेकिन यह सिद्धान्त उपयुक्त वर्णित तीनों सिद्धान्तों से भी व्यापक है। यह सिद्धान्त इस तथ्य को मानता है कि प्रत्यक्ष सीखने के अलावा भी प्रतिरूपण, स्व-नियन्त्रण प्रक्रिया या प्रतिनिधि के द्वारा भी काफी कुछ सीखा जा सकता है।

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Pankaja Singh

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