सीखने की परिभाषा | सीखने के संघटक | सीखने के निर्धारक | Definition of Learning in Hindi | Components of Learning in Hindi | determinants of learning in Hindi
सीखने की परिभाषा (Definition of Learning)-
सीखने की परिभाषा के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों तथा व्यवहारवादी वैज्ञानिकों ने सीखने की अलग- अलग परिभाषाएँ दी हैं। उनमें से कुछ प्रमुख विद्वानों दी गई परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) स्टीफेन पी. रॉबिन्स (Stephen P. Robbins) के अनुसार, “सीखना ऐसा सापेक्षित रूप में व्यवहार में स्थायी परिवर्तन है जो अनुभव के परिणामस्वरूप होता है।”
(2) एफ. एच. सेनफोर्ड (F.H. Sanford) के अनुसार, “सीखना सापेक्षित दृष्टि से व्यवहारर में सहनीय परिवर्तन है जोकि अनुभव के फलस्वरूप होता है।”
(3) टी.आर. मिटचैल (T.R. Mitchell) के अनुसार, “सीखना एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा नवीन व्यवहारों को अर्जित किया जाता है। सामान्यतः इस बात पर आम सहमति है कि सीखने में व्यवहारों में परिवर्तनों, नवीन व्यवहारों का अभ्यास तथा परिवर्तन में स्थायित्व की स्थापना सम्मिलित है।”
(4) हिलगार्ड (Hilgard) के अनुसार, “पूर्व अनुभवों के फलस्वरूप व्यवहार में तुलनात्मक रूप से जो परिवर्तन घटित होता है, उसे ‘सीखना’ कहते हैं।”
(5) एन.एल.मन (N.L.Munn) के अनुसार, “सीखने से तात्पर्य किसी व्यक्ति के व्यवहार को लगभग स्थायी रूप से रूपान्तरित करने की प्रक्रिया से है। यह रूपान्तरण उस व्यक्ति के कार्य करने एवं उसके कार्यों का परिणाम अथवा उसके अवलोकन का फल होता है।”
(6) स्टियर्स एवं पोर्टर (Streers and Porter) के अनुसार, “‘सीखना’ व्यवहार सम्भाव्यता में तुलनात्मक रूप से एक स्थायी परिवर्तन है जो सम्बलित व्यवहार अथवा अनुभव के फलस्वरूप घटित होता है।”
(7) जी.डी. बॉज (G.D. Boaz) का मत है कि “सीखना एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति विभिन्न आदतें, ज्ञान व दृष्टिकोण, सामान्य जीवन की माँगों की पूर्ति के लिए अर्जित करता है।”
(8) मैक गोयक (Me Goech) के अनुसार, “सीखना व्यवहार में सापेक्षिक स्थायी परिवर्तन है जो अभ्यास के फलस्वरूप घटित होता है। यह परिवर्तन दिशा-विशेष में होता है जिससे व्यक्ति की विद्यमान प्रेरक अवस्थाओं की सन्तुष्टि होती है।”
निष्कर्ष (Conclusion)- उपरोक्त परिभाषाओं तथा अन्य विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं का अध्ययन करने के पश्चात् सीखने की उपयुक्त एवं संक्षिप्त परिभाषा निम्न शब्दों में दी जा सकती है- “सीखना व्यवहार में सापेक्षित स्थायी परिवर्तन है जोकि अनुभव का परिणाम है।”
सीखने के संघटक
(Components of Learning)
अथवा
सीखने के निर्धारक
(Determinants of Learning)
प्रश्न उठता है कि ऐसे कौन से संघटक अथवा निर्धारक हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि व्यक्ति के व्यवहार में अन्तर आया है या नहीं अथवा व्यक्ति कुछ सीखा है या नहीं। सीखने के प्रमुख संघटक अथवा निर्धारक निम्नलिखित हैं-
(1) प्रयोजन (Motive)- प्रयोजन को प्रेरणा (Drive) भी कहते हैं जोकि किसी व्यक्ति को तुरन्त कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। यह मूल रूप में ऊर्जा है जोकि व्यक्ति के व्यवहार को प्रेरित करती है और तत्पश्चात् व्यक्ति क्रिया सम्पन्न करने के लिए प्रेरित होता है। बिना समुचित प्रयोजन अथवा प्रेरणा के व्यक्ति नहीं सीखता है। इसके द्वारा व्यक्ति की मानसिक भावनाएँ प्रदर्शित होती हैं। यह सीखने की प्रथम सीढ़ी है।
(2) उद्दीपन (Stimuli)- उद्दीपन लक्ष्य अथवा उद्देश्य उस पर्यावरण में निवास करते हैं। जिसमें कोई व्यक्ति रहता है। उद्दीपन से व्यक्ति से विशिष्ट प्रत्युत्तर पाने की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं। इस दृष्टि से उद्दीपन निम्न दो प्रकार का होता है-
(अ) सामान्यीकरण (Generalisation)- सामान्यीकरण मनुष्य की सीखने मंशा (इच्छा) को प्रभावी ढंग से प्रभावित करता है। सामान्यीकरण उस समय घटित होता है जबकि पर्यावरण में उसी प्रकार के नये उद्दीपन की पुनारावृत्ति होती हो जब दो उद्दीपन समान प्रकार के होते हैं तो विशिष्ट प्रत्युत्तर प्राप्त होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। जब उद्दीपन समान होते हैं तो प्रबन्धक के लिए विशिष्ट प्रकार के मानवीय व्यवहार की घोषणा अथवा आशा लगाना सम्भव हो जाता है । इसी के आधार पर प्रबन्धन मानवीय क्रियाओं का निर्देशन करता है।
(ब) विभेदीकरण (Discrimination) – विभेदीकरण सामान्यीकरण का ठीक प्रतिकूल है। विभेदीकरण की स्थिति में प्रत्युत्तरं विभिन्न उद्दीपन के अनुरूप विभिन्न होते हैं। उदाहरण के लिए, एम.बी.ए. का छात्र प्रोफेसर के मौखिक लेक्चर की तुलना में वीडियों से शीघ्र सीख सकता है। संगठनात्मक व्यवहार में विभेदीकरण को व्यक्तियों में विभिन्नताओं के कारण व्यापक रूप में लागू किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में एक ग्रामीण कहावत है कि “सभी व्यक्तियों को एक लकड़ी से हाँका नहीं जा सकता है।”
(3) प्रत्युत्तर (Response)- प्रत्युत्तर भी सीखने का एक महत्वपूर्ण संघटक है। उद्दीपन का परिणाम प्रत्युत्तर होता है। प्रत्युत्तर भौतिक रूप में अथवा मनोवृत्ति के रूप में अथवा अन्य किसी रूप में हो सकता है। सामान्यतः मनौवैज्ञानिक सीखने का माप व्यक्ति के व्यवहार से करते हैं। यदि सिखाने के परिणामस्वरूप मानवीय व्यवहार में परिवर्तन आया है तो कहा जायेगा कि व्यक्ति सीख गया है।
(4) प्रबलीकरण अथवा पुनर्बलन (Reinforcement)- प्रबलीकरण सीखने की प्राथमिक शर्त है। बिना प्रबलीकरण के यह ज्ञात करना कठिन है कि व्यक्ति कुछ सीखा है या नहीं। प्रबलीकरण का अभिप्रेरण की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से निकटतम सम्बन्ध है। प्रबलीकरण की व्याख्या ऐसी किसी भी वस्तु अथवा पर्यावरणीय घटना के रूप में की जा सकती है जिसके द्वारा प्रत्युत्तर की शक्ति में वृद्धि होती है और व्यवहार की पुनरावृत्ति होती है। बिना प्रबलीकरण के व्यवहार में हुए संशोधन का माप करना सम्भव नहीं है।
(5) अवरोधन (Retention)- अवरोधन से आशय है सीखे हुए व्यवहार को मस्तिष्क में बनाये रखना। कुछ बातें अथवा घटनाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें व्यक्ति जीवनोपर्यन्त याद रखता है अर्थात् जब तक जीवित रहता है, तब तक याद रखता है, जैसे- प्राणघतक बीमारी अथवा घटना, पदोन्नति, निकटतम मित्र की मृत्यु आदि। अवरोधन भी सीखने का महत्वपूर्ण संघटक है। जिन व्यक्तियों में अवरोधन का अभाव होता है, वे समाज में ‘मुँहफट’ कहलाते हैं।
(6) विलोप (Extinction) – विलोप से आशय भूल जाना या याददाश्त जाना है। सामान्यतः एक बार एक व्यक्ति किसी क्रिया को अच्छी तरह से सीख लेता है तो वह उसे आसानी से नहीं भूलता है। पुनर्बलन के अभाव में मनुष्य सामान्यतः भूल जाता है।
(7) स्वतः समुत्थान (Spontaneous Recovery)- भूल जाने या विलोप के पश्चात् बिना पुनर्बलन वे याददाश्त पुनः जाग्रत हो जाना ही स्वतः समूत्थान कहलाता है। स्वतः समुत्थान सीखने का महत्वपूर्ण संघटक है। जब कोई आदमी एक बार रास्ते से भटक जाता है किन्तु पुनः उक्त रास्ते पर स्वतः आ जाता है तो ऐसी स्थिति को स्वतः समुत्थान कहते हैं। स्वतः समुत्थान प्रायः पुरस्कार देने, दण्ड देने अथवा कार्य की आवृत्ति होने पर होता है। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी है कि यदि एक बार कोई व्यक्ति अपने रास्ते से भटक जाता है और पुनः उक्त रास्ते पर आ जाता है तो वह भटका हुआ व्यक्ति नहीं कहलाता हैं।
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