शिक्षाशास्त्र

अधिगम या सीखना का अर्थ | सीखने की प्रकृति | सीखने की परिभाषा | सीखने सम्बन्धी विचार | सीखने की विशेषताएँ | सीखने को प्रभावित करने वाले कारक

अधिगम या सीखना का अर्थ | सीखने की प्रकृति | सीखने की परिभाषा | सीखने सम्बन्धी विचार | सीखने की विशेषताएँ | सीखने को प्रभावित करने वाले कारक

अधिगम या सीखना का अर्थ

अधि + गम इन दो शब्दों के मेल का अर्थ है “ऊपर जाना” अर्थात् परिस्थितियों, घटनाओं या वस्तुओं के ऊपर या आगे जाना । ऊपर जाने का तात्पर्य है उसका परिचय प्राप्त करना, उसकी जानकारी करना, उसका अनुभव करना और ज्ञान प्राप्त करना । सूक्ष्म रूप से सीखना का अर्थ हुआ अनुभव और ज्ञान अर्जित करना। मनुष्य अनुभव और ज्ञान इसलिए अर्जित करता है कि वह ऐसे ढंग से व्यवहार करने में समर्थ हो सके कि दूसरे उसे सभ्य, संस्कृत कहें। उसे अपने आगामी व्यवहारों को करने में दक्षता, सरलता भी होती है। ऐसी दशा में सीखना मनुष्य की मनोशरीरी, प्रयोजनपूर्ण एवं उपयोगी क्रिया है।

इसे सीखना भी कहा गया है। ‘सीखना’ संस्कृत के शिह धातु से बना हुआ है। शिक्ष् का अर्थ ज्ञान प्राप्त करना होता है। ज्ञान  का अर्थ है जो कुछ जाना जायें, इससे सीखना और अधिगम दोनों ‘जानने के अर्थ में प्रयोग किए जाते हैं। सीखना शब्द क्रिया बोधक होता है। अतएव जानने की क्रिया सीखना’ कहलाती है। जानना परिचय करना है जैसे कहा जाचे कि “अपने पर विधालय का मार्ग में जानता हूँ।” इसमें जानना परिचय अथवा तादात्यता को संकेत करता है। अतः सीखने का अर्थ हुआ परिस्थिति, घटना, वस्तु, व्यक्ति और अन्य सभी के बारे में परिचय प्राप्त करना। यह परिचय मनुष्य स्वयं करता है अथवा किसी दूसरे की सहायता से करता है। ऐसी दशा में एक सीखना अपने प्रयत्न से सक्रिय रूप में होता है और दूसरा सीखना दूसरों की सहायता से होता या निष्क्रिय रूप में होता है चाहे जिस तरह यह परिचय अर्जित किया जावे यह सीखना ही कहा जाता है।

अंग्रेजी शब्द ‘लर्निग का अर्थ होता है किसी के बारे में ज्ञान प्राप्त करना, जानने में सहायता लेना, निष्पादन की शक्ति प्राप्त करना । शिक्षु धातु और ‘लन’ दोनों के अर्थ समान है। सीखना मनुष्य की सक्रिय एवं निष्क्रिय रूप में ज्ञान और अर्जित करने की क्रिया है जिसके फलस्वरूप कार्यों का सफलतापूर्वक एवं कुशलतापूर्वक निष्पादन होता है। इससे हमें यह भी संकेत मिलता है कि सीखना एक मनोशारीरिक क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त होता है क्योंकि कार्य-निष्पादन में मन और शरीर दोनों निहित हैं।

सीखने की प्रकृति

ऊपर सीखना का अर्थ दिया गया है। इस आधार पर हम सीखने की प्रकृति को समझ सकते हैं। सीखना अनुभव और शान की प्राप्ति की प्रक्रिया है। अनुभव और ज्ञान की प्राप्ति चारों ओर की परिस्थितियों के प्रभाव से होती है। इस दृष्टि से सीखना पर्यावरण के कारण उत्तेजना मिलने और तदुपरान्त उसके प्रभाव को ग्रहण करने में होता है। ऐसी स्थिति को ‘व्यवहार’ से भी सम्बोधित करते हैं। अतः सीखने की प्रक्रिया व्यवहार से सम्बन्धित होती है। सीखने के परिणामस्वरूप व्यवहार में वृद्धि होती है। व्यवहार की वृद्धि के साथ व्यवहार में परिवर्तन भी सीखने के कारण होता है। इसका कारण यह है कि पिछले व्यवहार के फल आगामी व्यवहार में सुधार के लिए सहायता देते हैं जिससे उत्तेजना देने वाली परिस्थितियों के अनुकूल व्यक्ति अपने को समायोजित करता है। इस प्रकार सीखने में व्यवहार परिवर्तन होता है और यह परिवर्तन क्रमिक होता है।

सीखने की परिभाषा

(i) प्रो० गिलबर्ग- सीखना व्यवहार के परिणामस्वरूप होने वाला व्यवहार में परिवर्तन है।

(ii) प्रो० पारीक- सीखना वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्राणी किसी परिस्थिति में प्रतिक्रिया के कारण नए प्रकार के संपरिवर्तन को अर्जित करता है जो किसी सीमा तक प्राणी के सामान्य व्यवहार प्रतिदर्श को स्थायी एवं प्रभावित करता है।

(iii) प्रो० रुस- सीखना एक प्रक्रिया है जो अभ्यास अथवा अन्य अनुभवों के परिणामस्वरूप व्यक्ति के कार्य करने के तरीके में परिवर्तन लाती है।

(iv) प्रो० बर्नहार्ट- सीखना किसी उद्देश्य की प्राप्ति अथवा किसी समस्या के समाधान के प्रयास में अभ्यास के कारण एक निश्चित परिस्थिति में व्यक्ति के कार्यों में एक स्थायी संपरिवर्तन के रूप में परिभाषित होता है।

(v) प्रो० क्रो और क्रो- ज्ञान और अभिवृत्ति का अर्जन अधिगम है।

(vi) प्रो० झा- सीखना उपयुक्त अनुक्रिया को अर्जन करने की प्रक्रिया है।

(vii) प्रो० बोआज- सीखना वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति विभिन्न आदतों, ज्ञान, और अभिवृत्तियों को अर्जित करता है जो सामान्य रूप से जीवन की माँग को पूरा करने के लिए जरूरी होते हैं।

(viii) प्रो० गुथरी- सीखने की योग्यता किसी परिस्थिति में बीते हुए अनुभव के कारण परिस्थिति के अनुसार भिन्न तौर पर अनुक्रिया करना है।

(xi) प्रो० पील- सीखना व्यक्ति के पर्यावरण में परिवर्तनों का अनुसरण करते हुए परिवर्तन है।

निष्कर्ष- ऊपर के विचारों के आधार पर निम्न निष्कर्ष हैं-

सीखना मनुष्य की मनोशारीरिक क्रिया है जिसके द्वारा वह सक्रिय एवं निष्क्रिय दोनों तरीकों से विभिन्न अनुभव, ज्ञान, कौशल, शिल्प-योग्यता, आदत, अभिवृद्धि, स्थायी भाव आदि जीवन के अंगों को पूरा करने के लिए अर्जित करता है और इस प्रकार बाद में ज्ञान की आशावाली परिस्थितियों में अपने व्यवहार के तरीकों को सम्परिवर्तित करता है।

सीखने सम्बन्धी विचार

(i) सामान्य परम्परावादी विचार- इसके अनुसार सीखना अनुभव, ज्ञान, अभिवृत्ति, कौशल आदि को अर्जित करता है। यह अर्जन जीवन में पूर्व अनुभवों से लाभ उठाने की दृष्टि से होता है जैसे कि प्राचीन मनोविज्ञानियों ने बताया है।

(ii) व्यवहारवादी विचार- व्यवहारवादी मनोविज्ञानियों के अनुसार सीखना प्राणी के मूल व्यवहारों में संपरिवर्तन लाता है। “अनुभव और शिक्षा के द्वारा व्यवहार में परिवर्तन लाने को सीखना कहते हैं।” -प्रो० गेट्स तथा अन्य।

(iii) प्रयोजनवादी विचार- प्रयोजनवादी मनोविज्ञानी मनुष्य के अभिप्रेरणा पर बल देते हैं। इस दृष्टि से पर्यावरण की कोई आवश्यकता नहीं होती। इसलिए सीखना जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति के प्रयोजन से होने वाली प्रक्रिया है।

(iv) गेस्टाल्ट विचार- गेस्टाल्ट मनोविज्ञान के समर्थकों के अनुसार सीखना समस्या के समाधान हेतु व्यक्ति द्वारा विभिन्न क्रियाओं का संगठन एवं समग्राकृति है। इस प्रकार सीखना की क्रिया एवं सामग्री में परस्पर सम्बन्ध होता है। सम्बन्ध के साथ स्थिति का अर्थ भी जुड़ा रहता है।

(v) साधनवादी विचार- साधनवादी मनोविज्ञानी सीखना को वह प्रक्रिया मानते हैं जिसमें वाह्य एवं आन्तरिक कारणों से समायोजन एवं अनुकूलीकरण होता है। प्रो० स्लीडर ने लिखा है कि “यह आन्तरिक तथा बाह्य कारणों द्वारा निर्धारित होता है और वह समायोजन तथा अनुकूलन की ओर संकेत करता है।”

(vi) अन्य विचार- (क) सीखना कोई नया कार्य करने, कोई नया कौशल जानने, कोई शिल्प योग्यता अर्जित करने में होता है।

(ख) सीखना मानव इच्छाओं, आवश्यकताओं, अभिलाषाओं की सन्तुष्टि के लिए प्रयत्न रूप में होता है। यह एक प्रकार से मनोविश्लेषणवादी विचार है।

(ग) “सीखना एक अनुभव है जिसके द्वारा कार्य में परिवर्तन या समायोजन होता है, तथा व्यवहार की एक नई विधि प्राप्त होती है।” -प्रो०प्रेसी।

(घ) शरीर मनोविज्ञानी तथा उत्तेजना-अनुक्रियावादी सीखने को मनोशारीरिक प्रक्रिया कहते हैं। इसके अनुसार सीखना परिस्थिति से प्राप्त उत्तेजना के कारण होने वाली वह अनुक्रिया है जिसमें शरीर और मस्तिष्क, तन्त्रिकातंत्र कार्य करते हैं ।

सीखने की विशेषताएँ

(क) सर्वव्यापी होना- इसका तात्पर्य यह है कि यह पशु और मनुष्य सभी में पाया जाता है, पशु में कम, केवल कुछ ही विशेष जाति में, मनुष्य में सबसे अधिक ।

(ख) मनोशरीरी क्रिया होना- सीखने में मन और शरीर दोनों कार्य करते हैं।

(ग) जटिल क्रिया होना- सीखने की क्रिया में कई क्रियाएँ एक साथ होती हैं। इससे इसमें जटिलता पाई जाती है।

(घ) समायोजनशीलता होना- विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य कैसे समायोजन करे, समस्या का समाधान कैसे करे यह सब उसे सीखना से प्राप्त होता है।

(ङ) अर्जित होना- सीखना जन्मजात न होकर अर्जित होता है जो जन्म के बाद से मृत्यु तक चलता है। जीवन के अनुभव के साथ सीखनाचलता है।

(च) प्रगति सूचक होना- सीखने के फलस्वरूप हम आगे बढ़ते हैं और प्रगति करते हैं अतएव यह प्रगति सूचक होता है।

(छ) सोद्देश्य होना- सीखना जीवन के किसी लक्ष्य की अभिपूर्ति हेतु होता है। विद्यालय में छात्र विद्या प्राप्त करने का उद्देश्य रखता है। उद्योगशाला में कार्य करने वाला कौशल प्राप्त करने और आर्थिक लाभ उठाने का उद्देश्य रखता है। जीवन में सीखना समस्याओं के समाधान हेतु होता है।

(ज) अधिगम में परिपक्वन का योग होना- ज्यों-ज्यों व्यक्ति बढ़ता है उसमें शारीरिक और मानसिक परिपक्वन स्वयमेव आता है। इससे वह जल्दी सीखता है। यही कारण है कि प्रौढ़ परिपक्व व्यक्ति, बालक या अपरिपक्व व्यक्ति से- शीघ्र और अधिक सीखता है।

(झ) अधिगम में अवबोधक का योग होना- अवबोधन सीखने का पूर्व रूप कहा जाता है क्योंकि इसमें सीखने की आरम्भिक स्थिति होती है। सीखना वस्तुतः परिचय या बोध है और जब बोध हो जाता है तो व्यक्ति वस्तु या क्रिया विशेष के बारे में और अधिक जानकारी करता है। जब जानकारी पूरी होती है तब सीखना होता है।

सीखने को प्रभावित करने वाले कारक

सीखना मनुष्य की अनुभव-ज्ञान-ग्राही प्रक्रिया है जिस पर विभिन्न कारक अपना प्रभाव डालता है। मनुष्य के चारों ओर पाया जाने वाला पर्यावरण अपने विभिन्न साधनों के द्वारा प्रभाव डालता है। सीखने को प्रभावित करने वाले चार प्रकार के कारक हैं- (1) शारीरिक, (2) मानसिक, (3) पर्यावरण सम्बन्धी, (4) निर्देशन सम्बन्धी ।

(1) शारीरिक कारक- शरीर और उसके अवयव सीखने को प्रभावित करते हैं और ये कारण काफी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बिना शारीरिक अवयवों के सीखने की कल्पना नहीं की जा सकती है। ऐसी दशा में हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और हाथ, पाँव, धड़, शरीर का पूरा ढाँचा, आन्तरिक अंग सभी सीखने को प्रभावित करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों से संवेदन और प्रत्यक्षण होता है, यदि इनमें कोई कमी और दोष हुआ तो सीखना भी दोषपूर्ण होता है या नहीं होता है। कान से बहिरे, मुख से गूंगे, हाथ-पाँव से अपंग या विकल व्यक्ति को या आन्तरिक पीड़ा, आन्तरिक दोष रोग के कारण सीखना संभव नहीं होता।

शारीरिक अंगों के अलावा स्वास्थ्य भी अधिगम को प्रभावित करता है स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क मन होता है। अतः शारीरिक स्वास्थ, अचछी दशा, शारीरिक अवस्था (शैशवावस्था, बाल्यावस्था आदि), जायु, शारीरिक, परिपक्वता, शारीरिक श्रम और थकान, सीखने को प्रभावित करते है।

(2) मानसिक कारक (क) आवश्यकता- व्यक्ति की आवश्यकता उरी विभिन्न प्रकार के ज्ञान अनुभव कौशल के अर्जन में प्रयलवान बनाती है। उदाहरण के लिए भूख लगने पर मानव यह जानने की चेष्टा करता है कि भोजन कहाँ मिल सकता है। परीक्षा पास करने की आवश्यकता उसे पुस्तकों के अध्ययन में लगाती है।

(ख) अभिप्रेरण- कुछ मनोविज्ञानियों ने अभिप्रेरण को सबसे प्रमुख कारक माना है। इसे ‘सीखने का प्राण’ कहा है। विभिन्न ढंग से अभिप्रेरित होने पर मनुष्य सीखने पूरा करता है। ऐसे साधन कई है—(i) अन्तर्नाद जैसे भूख, प्यास आदि। (ii) सीखने की अभिलाषा और जिज्ञासा । (iii) आकांक्षा का स्तर । (iv) अहं का अन्तरावेष्टन जब व्यक्ति अपने आत्म को सीखने में निहित कर देता है। (v) प्रशंसा और निन्दा अर्थात् सीखने का मूल्यांकन करना। (vi) प्रतियोगिता, स्पर्धा, सम्मान । (vii) पुरस्कार और दण्ड । (viii) परिणाम का ज्ञान । (ix) जीवन का लक्ष्य।

(ग) बुद्धि- मनुष्य की बुद्धि भी एक मानसिक कारक है जो सीखने को प्रभावित करती है। मंद बुद्धि की अपेक्षा तीव्र बुद्धि शीघ्र अधिगम करता है। उसे अनुभव एवं ज्ञान भी अधिक होता है। अभिक्षमता भी इसमें शामिल है।

(घ) अभिवृत्ति- अधिगम के लिए यह कारक भी अति उत्तरदायी माना जाता है। जब मनुष्य की अभिवृत्ति ज्ञान धारण करने में मदद देती है।

(ड.) अवधान और रुचि- मनुष्य के द्वारा सीखने की क्रिया में अवधान और रुचि रखने से ही सीखने की क्रिया सफल होती है।

(च) अध्यवसाय और अभ्यास- सीखने के लिए लगातार परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है इसके लिए मनुष्य को अध्यवसायी होना जरूरी है।

(छ) संकल्प- मनुष्य की दृढ़ता एवं विश्वास होने से संकल्प पूरा होता है। सीखने में संकल्प का योगदान पाया जाता है।

(ज) मानसिक स्वास्थ्य- मानसिक स्वस्थता भी सीखने को प्रभावित करता है।

(3) पर्यावरण सम्बन्धी कारक- सीखने को प्रभावित करने वाले विभिन्न पर्यावरण सम्बन्धी कारक निम्न हैं-

(क) गृह से सम्बन्धित- (i) स्वास्थ्यदायक भोजन, (ii) सुविधा तथा आराम, (iii) शान्त एवं एकान्त आवास, (iv) माता-पिता का अच्छा व्यवहार।

(ख) विद्यालय से सम्बन्धित- (i) सीखने के लिए स्वस्थ्य, शान्त और अच्छा स्थान और वातावरण (ii) शिक्षण के साधन की सुलभता (iii) विषय-सामग्री का सार्थक होना (iv) शिक्षण विधि का उपयुक्त होना, (v) अध्यापक एवं प्रशासक का व्यवहार अच्छा होना (vi) अध्यापक एवं विद्यार्थी का सम्बन्ध (vii) सीखने का समय (viii) अधिगम प्रेरक विद्यालय का कार्यक्रम (ix) अतिरिक्त पाठ्यक्रम की व्यवस्था ।

(ग) समाज से सम्बन्धित- (i) देश व समाण में शान्ति होना (ii) प्रशासन सुरक्षा प्राप्त होना, (iii) समाज में पढ़े-लिखे विद्वान अधिक होना (iv) समाज के द्वारा शिक्षा एवं शिक्षित को सम्मान; पुरस्कार, प्रशंसा देना (v) समाज के द्वारा शिक्षितों को काम में लगाना । (vi) समाज में उद्योग-प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किया जाना ।

(4) निर्देशन सम्बन्धी कारक- आधुनिक युग में सीखने को निर्देशन भी प्रभावित करता है। निर्देशन एक प्रकार की सहायता है। (i) शैक्षिक, (ii) व्यावसायिक (iii) व्यक्तिगत होता है। उचित दिशा में ले जाने के लिए ही निर्देशन की व्यवस्था की जाती है।

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Pankaja Singh

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