अर्थशास्त्र

सरकार की कृषि मूल्य नीति का मूल्यांकन | Evaluation of Government’s Agricultural Price Policy in Hindi

सरकार की कृषि मूल्य नीति का मूल्यांकन | Evaluation of Government’s Agricultural Price Policy in Hindi

सरकार की कृषि मूल्य नीति का मूल्यांकन

जैसा कि पहले कहा गया है, कृषि कीमत नीति का उद्देश्य किसानों को उपयुक्त प्रतिफल प्रदान करना है तथा उनमें निश्चितता व विश्वास जगाना है। यद्यपि भारत में कृषि कीमत नीति इस उद्देश्य को प्राप्त करने में कुछ हद तक सफल रही तथापि उसने अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दिया है और उसके कुछ अन्य दुष्परिणाम भी रहे हैं जिनकी हम यहाँ चर्चा करेंगे:

(i) निश्चितता व विश्वास जागरण-

कृषि कीमत आयोग की स्थापना से पूर्व कृषि कीमतों में तेज उतार-चढ़ाव होते रहे थे। परन्तु इस आयोग की स्थापना के बाद से स्थिति में काफी सुधार हुआ है। यह आयोग (जिसे अब कृषि लागत व कीमत आयोग कहा जाता है) उत्पादन लागतों, पिछले वर्ष की कीमतों तथा अन्य प्रासंगिक जानकारी के अध्ययन के बाद दो कीमतों की घोषणा करता है-न्यूनतम समर्थन कीमत तथा वसूली कीमत। वसूली कीमतें वे कीमतें हैं जिन पर सरकार खाद्यान्न खरीदती है ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जरूरत पूरी कर सके। न्यूनतम समर्थन कीमतें वे कीमतें हैं जिन पर सरकार किसानों के माल को खरीदने के लिए वचनबद्ध हैं। स्वाभाविक है कि न्यूनतम समर्थन कीमतें किसानों को इस बात का आश्वासन देती हैं कि वास्तविक कीमतों को इनसे नीचे नहीं गिरने दिया जाएगा। अब सरकारी नीति में न्यूनतम समर्थन कीमतों की घोषणा नहीं की जाती और सारा माल वसूली कीमतों पर ही खरीद लिया जाता है जो न्यूनतम समर्थन कीमतों की तुलना में अधिक हो जाता है। कभी-कभी सरकार द्वारा घोषित कीमतें और कृषि कीमत आयोग द्वरा प्रस्तावित कीमतों में अन्तर होता है। परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कृषि कीमत आयोग द्वारा घोषित कीमतें सरकार को कीमत नीति निर्धारित करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुई है।

(ii) स्थायित्व का प्रश्न-

यद्यपि न्यूनतम समर्थन कीमतों और वसूली कीमतों की घोषणा ने किसानों के लिए निश्चितता व विश्वास का वातावरण पैदा किया फिर भी विभिन्न वर्षों में वसूली की अलग-अलग मात्रा के कारण तथा आयातों की अनिश्चितता के कारण प्रभावी कीमतों में उतार-चढ़ाव होते रहे हैं। इन उतार-चढ़ावों से किसानों के बीच इस बारे में अनिश्चितता रह है कि उन्हें स्थिर कीमतों पर और बाजार कीमतों पर कितना उत्पादन बेचना है। इसलिए, उमा लेले के अनुसार, सरकार को बेचे जाने वाले विपण्य अवशेष पर आधारित अनुमानित कीमतों और खुले बाजार पर आधारित वास्तविक भारित औसत कीमत में कम अन्तर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप उन वर्षों में बाजार में खाद्यान्नों की आपूर्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है जिन वर्षों में वास्तविक कीमतें अनुमानित कीमतों से कम रही हैं। नियमन नीतियों के निष्प्रभावी होने के कारण कीमतों में काफी उतार-चढ़ाव अब भी होते रहते हैं।

(iii) उत्पादकों पर प्रभाव-

न्यूनतम समर्थन कीमतों और वसूली कीमतों में होने वाली वृद्धि ने उत्पादकों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित किया है। परन्तु अधिकतर लाभ बड़े किसानों को हुए हैं क्योंकि यही लोग आसानी से आगत खरीदकर, नई कृषि युक्ति को अपनाने में सफल हुए हैं। उमा लेले के अनुसार, सरकार की खुली बाजार खरीद नीति छोटे किसानों की मदद कर सकती थी, यदि वैकल्पिक बाजार व्यवस्था का निर्माण कर पाती। परन्तु ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि सरकारी एजेंसियाँ भी खरीद के लिए निजी कमीशन एजेंटों पर निर्भर बनी रहीं और ये कमीशन एजेन्ट गाँव के बाजारों से (जहाँ ज्यादातर छोटे किसान अपनी फसल बेचते हैं) उगाही नहीं करते। जहाँ तक अनिवार्य वसूली का सवाल है जिन क्षेत्रों में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है उन क्षेत्रों में इसके अधीन नियमित रूप से छोटे किसान ही अपना उत्पादन बेचते रहे हैं (क्योंकि वे इस व्यवस्था से बच सकने में असमर्थ हैं। जबकि बड़े किसान (जिनके पास अधिक विपणन अधिशेष है) खाद्यान्नों की जमाखोरी करके और अनिवार्य वसूली व्यवस्था की अवहेलना करके, ज्यादा ऊंची कीमत पर उत्पादन बेचने में कामयाब हुए हैं। इस प्रकार छोटे किसानों को अपने उत्पादन के बदले में बड़े किसानों की अपेक्षा कम कीमतें मिल पाई हैं।

(iv) सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दोष-

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के प्रस्तुत  दोष हैं- (i) यह प्रणाली गेहूँ व चावल तक ही सीमित रही है जबकि गरीब लोगों के उपभोग में काम आने वाले मोटे अनाजों पर बहुत कम ध्यान दिया गया है, (ii) काफी लम्बे समय तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली शहरी क्षेत्रों तक सीमित रही और ग्रामीण क्षेत्रों की आवश्यकताओं की उपेक्षा की गई, (iii) जिन राज्यों में गरीबी रेखा के नीचे जनसंख्या का एक बहुत बड़ा अंश है, उन राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ ‘अपर्याप्त’ सिद्ध हुई है (अर्थात् इसके माध्यम से वितरित खाद्यान्नों की मात्रा जरूरतों से कम रही है), तथा (iv) अभी तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली ‘महंगी’ रही है क्योंकि इसे केवल उन लोगों तक सीमित रखने की कोशिश नहीं की गईक्षहै जिन्हें वास्तव में सस्ते अनाज की जरूरत है। इन सब बातों के अलावा, सार्वजनिक वितरण परप्रणाली की प्रशासकीय लागतें लगातार बढ़ती जा रही हैं जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बनाये रखना दिन-प्रतिदिन महंगा होता जा रहा है।

(v) स्फीतिकारी प्रवृत्तियों में योगदान-

कृषि लागत व कीमत आयोग प्रति वर्ष वसूली कीमतों को बढ़ाने का सुझाव देता रहता है। इस प्रकार वसूली कीमतों तथा न्यूनतम समर्थन कीमतों में साल में दो बार वृद्धि की घोषणा एक आम घटना सी हो गयी है। हाल में प्रकाशित अपने एक लेख में, वसूली कीमतों की बढ़ती हुई प्रवृत्ति का अध्ययन करने के लिए एस. गंगाधरन ने उन सब कृषि वस्तुओं की वसूली कीमतों का संयुक्त सूचकांक (composite index) तैयार किया है जिनकी वसूली कीमतों का निर्धारण सरकार करती है। 1984-85 से 1992-93 के बीच यह संयुक्त सूचकांक दुगुने से भी अधिक हो गया है (1984-85 में 100 से बढ़कर 1992-93 में 190.9 तक ही पहुँचा है (तुलना के उद्देश्य से थोक कीमत सूचकांक का आधार वर्ष भी 1984-85 लिया गया है)। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि वसूली कीमतों के संयुक्त सूचकांक में, थोक कीमतों के सूचकांक की तुलना में, अधिक वृद्धि हुई है। पिछले कुछ वर्षों में वसूली कीमतों में होने वाली वृद्धि का सामान्य बाजार कीमतों पर प्रत्यक्ष व स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। इससे स्फीतकारी प्रवृत्तियाँ और मजबूत हुई हैं। बड़े किसान सरकार की मजबूरी का फायदा उठाकर, उसे फसल नहीं बेचते, जिससे सरकार को वसूली कीमतों में हर साल बढ़ोत्तरी करनी पड़ती है।

(vi) ग्रामीण गरीबों पर प्रभाव –

अशोक मित्रा के अनुसार बढ़ती हुई वसूली कीमतों से खाद्यान्नों की कीमतों में लगतार वृद्धि हुई है और इससे खेतिहर मजदूरों, छोटे किसानों तथा सीमांत किसानों पर (जो ग्रामीण जनसंख्या का एक काफी बड़ा हिस्सा है) बुरा प्रभाव पड़ा है। ऊंची कीमतों से इन लोगों को कोई लाभ नहीं होता क्योंकि इनके पास विपणन अधिशेष नही होता और ये लोग अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बाजार पर निर्भर रहते हैं। राष्ट्रीय सैपिल सर्वेक्षण के 18वें दौर का हवाला देते हुए मित्रा यह कहते हैं कि जिन खेतिहर मजदूर परिवारों के पास कोई भूमि नहीं है, उनकी अनाज के लिए बाजार पर निर्भरता, आंध्र केप्रदेश में 99 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 98 प्रतिशत तथा राजस्थान में 78 प्रतिशत है। ऐसे खेतिहर मजदूर परिवार जिनके पास 2.5 एकड़ से कम भूमि है, उनकी अनाज के लिए बाजार पर केनिर्भरता आंध्र प्रदेश में 81 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 82 प्रतिशत तथा राजस्थान में 87 प्रतिशत है। इससे यह सिद्ध होता है कि ऊँची और बढ़ती हुई खाद्य कीमतों के कारण शहरी उपभोक्ताओं के साथ ग्रामीण जनता के बड़े अंश को भी परेशानियाँ उठानी पड़ रही हैं।

(vii) समृद्ध राज्यों की ओर झुकाव-

कृषि लागत व कीमत आयोग किसी उच्च लागत वाले राज्य की उत्पादन लागतों को आधार बनाकर पूरे देश के लिए एक वसूली कीमत निर्धारित करता है। इस नीति के परिणामस्वरूप उच्च उत्पादकता और कम लागत वाले राज्यों (या क्षेत्रों) को अधिक मुनाफा होता है। उदाहरण के लिए अलेन डी. जैनवी तथा के.सुब्बाराव ने अपने अध्ययन में यह अनुमान लगाया है कि चावल और गेहूँ दोनों के लिए ही पंजाब में औसत उत्पादन लागत कम विकसित राज्यों की तुलना में कम थी। जहाँ 1978-79 में धान की औसत उत्पादन लागत पंजाब में 67.49 रुपये प्रति क्विंटल थी वहाँ आंध्र प्रदेश में यह 88.36 रुपये प्रति क्विंटल थी (इस प्रकार आंध्र प्रदेश की तुलना में पंजाब मधान की उत्पादन लागत 22.3 प्रतिशत कम थी)। इसी प्रकार जहाँ 1975-76 में गेहूं की औसत उत्पादन लागत पंजाब में 99.48 रुपये प्रति क्विंटल थी वहाँ पश्चिमी बंगाल में यह 114 रुपये प्रति क्विंटल थी (इस प्रकार पश्चिमी बंगाल की तुलना में पंजाब में गेहूँ की उत्पादन लागत 12.7 प्रतिशत कम थी)। क्योंकि कीमतों का निर्धारण उच्च लागत वाले राज्य को आधार मानकर किया जाता है और क्योंकि निर्धारित कीमत पूरे देश में एक ही होती है इसलिए पंजाब के किसानों को काफी अधिक, मुनाफा हुआ है।

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