
संयोग प्रतिदर्श पद्धति | दैव प्रतिदर्श पद्धति | दैव प्रतिदर्श चयन विधियाँ | दैव-प्रतिदर्श प्रणाली के गुण | दैव-प्रतिदर्श प्रणाली के दोष | Coincidence sampling method in Hindi | Divine sampling method in Hindi | Orbital Sample Selection Methods in Hindi | Properties of Divya-Sample System in Hindi | Defects of the incantation system in Hindi
दैव या संयोग प्रतिदर्श पद्धति
(Random Sampling Method)
इस पद्धति में समग्र की प्रत्येक इकाई को चयनित होने का एक समान अवसर प्राप्त होने की सम्भावना रहती है। वह प्रणाली अनुसंधानकर्ता के दृष्टिकोण से प्रभावित नहीं होती। थॉमस कारसन ने भी कहा है कि, “दैव निदर्शन में चयनित होने या न होने का अवसर घटना के लक्षण से स्वतन्त्र होता है।
पार्टन (Parton) के शब्दों में, “देव प्रतिदर्श पद्धति चयन की उस पद्धति को कहते हैं जब समग्र में से प्रत्येक व्यक्ति को चयनित होने के समान अवसर हों, चयन दैवयोग से हुआ माना जाता है।”
हॉपर के शब्दों में, “दैव प्रतिदर्श वह प्रतिदर्श है जिसका चयन ऐसा हुआ हो कि समग्र की प्रत्येक इकाई सम्मिलित होने का एक समान अक्सर प्राप्त हुआ हो।”
दैव प्रतिदर्श चयन विधियाँ
दैव प्रतिदर्श विधि के अन्तर्गत प्रतिदर्श का चयन करने के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) अनियमित अंकन प्रणाली (Irregular Marketing Method) – अनियमित अंकन प्रणाली सबसे पहले सभी इकाइयों की सूची बनाते हैं। इसके बाद उसमें से प्रथम और अन्तिम अंक छोड़कर शेष इकाइयों की सूची में से अनियमित ढंग से प्रतिदर्श की आवश्यकतानुसा इकाइयों पर अंकन पर प्रतिदर्श का चयन किया जाता है। इसमें, पूर्वाग्रह के कारण त्रुटि की पूरी संभावना होती है।
(2) नियमित अंकन प्रणाली (Regular Marketing Method)- इस प्रणाली में पूरे समूह की सूची बनाई जाती है और उसमें इकाइयों की क्रम संख्या अंकित की जाती है। इसके बाद यह तय किया जाता है कि प्रतिदर्श की कितनी इकाइयों का चयन करना है। अब सूची को सामान रखकर एक संख्या से प्रारम्भ कर पाँच, दस, पन्द्रह या अन्य किसी अंक को नियमित कर अगली संख्यायें चुनी जाती हैं। यदि सौ बालकों की सूची में से दस बालकों को प्रतिदर्श या निदर्शन के लिये चयनित करना है तो हर दसवाँ बालक चयन में आयेगा।
(3) लॉटरी पद्धति (Lottery Method)- इस पद्धति में समस्त समूह की सभी इकाइयों के नाम या नम्बर कागज की पर्चियों (Chits) पर लिख लेते हैं। किसी बर्तन में इन पर्चियों को डालकर हिला देते है जिससे वे अव्यवस्थित हो जाते हैं इसके पश्चात् उतनी पर्चियाँ निकाल ली जाती है जितनी प्रतिदर्श के लिये आवश्यक मानी जाती हैं।
(4) कार्ड या टिकट विधि (Card or Ticket Method)- यह लॉटरी विधि का ही एक विकसित रूप है। इसमें एक ही रंग और आकार, के समान कार्डो पर सम्पूर्ण समूह की समस्त इकाइयों के नाम या नम्बर या कोई चिन्ह अंकित कर दिये जाते हैं और ड्रम में भरकर उन्हें हिला-डुलाकर परस्पर मिला लिया जाता है। अब जितनी इकाइयों का चयन करना होता है उतनी बार एक-एक कार्ड निकाले जाते हैं। इसमें लाटरी पद्धति के विपरीत आँखें खुली रखकर कार्ड निकाले जाते हैं।
(5) टिप्पेट प्रणाली (Tippett’s Method)- टिप्पेट (L.H.C. Tippett) ने दैव प्रतिदर्श प्रणाली के लिये चार अंकों वाली 10400 संख्याओं की एक सूची बनायी जाती थी। इन संख्याओं को बिना किसी क्रम के कई पृष्ठों पर लिखा गया है। अनुसंधानकर्ता निदर्शन के लिये चयन करने हेतु प्रो० टिप्पेट द्वारा बनाई गई सूची के किसी पृष्ठ से लगातार उतनी ही संख्याओं को लेगा जितनी उसे अपने निदर्शन के लिये चुननी है। प्रथम 40 अंकों की सूची यह है-
2952 |
6641 |
3992 |
9792 |
7979 |
5911 |
3170 |
5624 |
4167 |
9524 |
1545 |
1396 |
7203 |
5356 |
1300 |
2693 |
2370 |
7483 |
3408 |
2762 |
3563 |
1089 |
6913 |
7691 |
0560 |
5246 |
1112 |
6107 |
6008 |
8126 |
4433 |
8776 |
2754 |
9143 |
1405 |
9025 |
7002 |
6111 |
8816 |
6446 |
इसमें से प्रतिदर्श के चयन की विधि अत्यन्त सरल है। मान लो 6000 व्यक्तियों की सूची में 20 का प्रतिदर्श चुना जाना है। इसके लिये सबसे पहले प्रत्येक इकाई को 0 से 6000 तक अंकित करते हैं तत्पश्चात् इस लिस्ट के किसी पृष्ठ पर अंकित किन्हीं 20 संख्याओं (इकाइयों) का चयन कर लेते हैं। टिप्पेट की संख्याओं का सभी प्रकार की प्रतिदर्श तकनीकों में व्यापक प्रयोग होता है। ये शुद्धता और प्रतिनिधित्व की दृष्टि से पूर्ण विश्वसनीय हैं।
(6) ग्रिड प्रणाली (Grid Method)- इस प्रणाली में अध्ययन के क्षेत्र में एक भौगोलिक मानचित्र बनाया जाता है। प्रतिदर्श के चयन के लिये सेल्युलॉयड या पारदर्शी पदार्थ की मानचित्र के समान आकार की पट्टिका काट ली जाती है इस पर वर्गाकर खाने बने होते हैं जिन पर अलग-अलग संख्यायें अंकित होती हैं। मान लो अध्ययन हेतु चुने गये भौगोलिक क्षेत्र से 40 ब्लाकों का चयन करना है। इसके लिये पहले किन्हीं 40 संख्याओं को पारदर्शी पट्टिका पर सुनिश्चित कर लेते हैं। अब ग्रिड या पट्टिका) को मानचित्र पर रख देते हैं। मानचित्र के जिन भागों पर निर्धारित संख्याओं के अंकित भाग पड़ते हैं उन पर अंकन करते है। ये अंकित भाग ही प्रतिदर्श की इकाइयाँ मानी जाती हैं।
दैव-प्रतिदर्श प्रणाली के गुण (Merits)
दैव-प्रतिदर्श प्रणाली के मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं-
(i) मितव्ययिता- धन, समय और श्रम की बचत।
(ii) सरलता एवं सुगमता- यह प्रणाली सरल और सुगम हैं जिससे त्रुटियों की कम संभावना रहती है।
(iii) अशुद्धि-ज्ञान- अशुद्धि का पता आसानी से लग जाता है।
(iv) प्रतिनिधित्वपूर्ण- यह प्रणाली अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण है।
(v) निष्पक्षता- यदच्छया चयन के कारण निष्पक्षता पर आँच नहीं आती।
दैव-प्रतिदर्श प्रणाली के दोष (Demerits)
(i) इसमें विकल्प (Alternative) के लिये व्यवस्था नहीं है।
(ii) जब अध्ययन-क्षेत्र विशाल होता है तो अध्ययन में समस्या पैदा होती है।
(iii) इकाइयों में सजातीयता के अभाव में पद्धति अनुपयोगी है।
(iv) इकाइयों के चयन में कोई नियन्त्रण नहीं होता। अध्ययनकर्त्ता दूरस्थ इकाइयों से सम्पर्क नहीं साध पाता।
अनुसंधान क्रियाविधि – महत्वपूर्ण लिंक
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