राजनीति विज्ञान

संविधान संशोधन | भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया | संघीय व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन | संविधान में संशोधन करने के विभिन्न तरीके

संविधान संशोधन | भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया | संघीय व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन | संविधान में संशोधन करने के विभिन्न तरीके

संविधान संशोधन 

संविधान में प्रतिपादित प्रक्रिया के अनुसार समय-समय पर संविधान में जो संशोधन होते रहते हैं, वे भी उसके विकास में बहुत सहायता देते हैं। मानव-समाज के प्रगतिशील होने के कारण यह आवश्यक होता है कि उसका संविधान भी प्रगतिशील हो। नागरिकों के आधारभूत अधिकारों, शासन की नीति तथा मूलभूत सिद्धान्तों और शासन-विधि के विषय में मनुष्यों के विचारों में जैसे-जैसे परिवर्तन होता रहता है, वैसे-वैसे संविधान में भी परिवर्तन होते रहना चाहिए।

राजनीतिशास्त्र के अनेक विद्वानों में संविधान को पवित्र मानने की प्रवृत्ति रही है। उनके अनुसार जैसे धर्म के सिद्धान्त सत्य और सनातन होते हैं, मनुष्य उनमें सामान्यतया परिवर्तन नहीं करता, वैसे ही राज्य के संविधान को भी सत्य तथा सनातन मानना चाहिये और किसी असाधारण कारण के बिना उनमें परिवर्तन नहीं करना चाहिये। पर यह विचार भ्रममूलक है। राज्यसंस्था में सनातनता और पवित्रता की भावना रखना संगत नहीं कहा जा सकता । मनुष्यों के राजनीतिक विचारों में विकास की प्रक्रिया स्वाभाविक एवं आवश्यक है। अतः संविधान में भी विकास और परिवर्तन का होते रहना अनिवार्य है। पर राज्य में जो कुछ विहित हो, उसका पालन करना और विधि के अनुसार ही उसमें परिवर्तन करना मनुष्यों के हित तथा कल्याण के लिये उपयोगी है।

अमरीकी संविधान का संशोधन- 

संविधान में संशोधन का अर्थ है-वैधानिक ढंग से उसके किसी धारा में परिवर्तन करना। संयुक्त राज्य अमेरिका में संघात्मक शासन की स्थापना की गई है। वहाँ का संविधान लिखित और कठोर दोनों है। इसका प्रमुख कारण यह है कि राज्य संघीय सरकार को अधिक शक्तिशाली नहीं बनाना चाहते थे और वे अपनी स्वतन्त्रता को अधिक स्थायी रखना चाहते थे। संविधान में संशोधन के हेतु एक विशेष पद्धति अंगीकृत की गयी है  जिसका उल्लेख संविधान के पाँचवें अनुच्छेद में इस प्रकार किया गया है-

“कांग्रेस के दो-तिहाई सदस्य जिस समय आवश्यक समझे, संविधान में संशोधन का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं या यदि समस्त राज्यों के विधान मण्डलों के दो-तिहाई विधान मण्डल की प्रार्थना पर कांग्रेस एक विशेष सभा का आयोजन करेगी जो संशोधन का प्रस्ताव करेगी। यदि इन दोनों अवस्थाओं में संशोधन के प्रस्ताव को समस्त राज्यों के तीन-चौथाई राज्यों की आमन्त्रित विशेष सभा की स्वीकृति प्राप्त हो जायेगी या तीन-चौथाई राज्यों की स्वीकृति मिल जायेगी तो संविधान में संशोधन हो सकता है। इस प्रकार का संशोधन वैध समझा जायेगा और वह संविधान का अंग होगा।

संशोधन का प्रस्ताव-

संविधान की उपर्युक्त धारा से स्पष्ट है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान संशोधन करने के लिये संशोधन का प्रस्ताव दो प्रकार से रखा जा सकता है और दो ही प्रकार से संशोधन संविधान का अंग बन सकता है। ये रीतियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) कांग्रेस के दो-तिहाई सदस्य संविधान में संशोधन का प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं।

(2) दो-तिहाई राज्यों के विधानमण्डल संशोधनसम्बन्धी प्रस्ताव करने के उद्देश्य से कांग्रेस से संवर्ग में सम्मिलित राज्यों की विशेष सभा (Convention) बुलाने की प्रार्थना कर सकते हैं।

आज तक संविधान में संशोधन करने के सभी प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा ही प्रस्तावित किये गये हैं और प्रत्येक सदन के दो-तिहाई सदस्यों द्वारा स्वीकृत हुए हैं। यदि राज्यों ने संशोधन का प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिये विशेष सभा आमन्त्रित करने का प्रयत्न किया भी है तो उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली है। जब कांग्रेस द्वारा संशोधन प्रस्ताव आरम्भ होता है तो उसका रूप इस प्रकार का होता है-“संयुक्त राज्य अमेरिका के सीनेट तथा प्रतिनिधि सभा ने कांग्रेस में एकत्रित होकर दोनों सदनों के दो-तिहाई सदस्यों की अनुमति से यह संकल्प किया है कि निम्नलिखित अनुच्छेद विभिन्न राज्यों के समक्ष संयुक्त राज्य के संविधान के संशोधन के रूप में प्रस्तुत किया जाय और जब इन विधान-मण्डलों में से तीन-चौथाई विधान-मण्डलों की स्वीकृति प्राप्त हो जाय तो वह संविधान के अंग के रूप में वैध समझा जाय।

प्रस्ताव का अनुमोदन-

संशोधन का प्रस्ताव प्रस्तुत होने के बाद उसका दो प्रकार से अनुमोदन होता है-

(1) संविधान के संशोधन का प्रस्ताव तीन-चौथाई राज्यों के विधान-मण्डलों द्वारा स्वीकृत होना चाहिए , अथवा

(2) प्रस्ताव की स्वीकृति तीन-चौथाई राज्यों द्वारा बुलाये गये कन्वेंशन द्वारा होनी चाहिये ।

कांग्रेस को यह निर्णय करने का अधिकार है कि संशोधन का प्रस्ताव तीन-चौथाई राज्यों के विधान-मण्डलों द्वारा कराये अथवा इस उद्देश्य के लिए बुलाई गई विशेष सभा द्वारा अनुमोदित कराये। इस समय तक केवल एक अवसर के अतिरिक्त कांग्रेस ने संविधान के संशोधन की पुष्टि के लिये प्रथम साधन का ही उपयोग किया है जिसके द्वारा संशोधन राज्यों की तीन-चौथाई विधान मण्डलों द्वारा पुष्ट हुआ है। इसका कारण यह है कि इसमें व्यय तथा कठिनाई कम होती है, यद्यपि द्वितीय तरीके में समय कम लगता है। अब तक केवल 21वें संशोधन को ही विशेष सभा के सामने प्रस्तुत किया गया है।

यदि कोई संशोधन प्रस्ताव सात वर्ष में तीन-चौथाई राज्यों द्वारा पारित नहीं किया जाता है तो वह प्रस्ताव रद्द समझा जायेगा। इसका प्रचलन कुछ समय पूर्व ही हुआ है। 18वें संशोधन के पूर्व तक इस प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं था। राष्ट्रपति क्लिटन ने अमेरिकी संविधान प्रक्रिया को और अधिक सहज बनाने का आश्वासन कांग्रेस को दिया।

भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया

(Procedure for the Amendment of the Indian Constitution)

भारतीय संविधान में कठोरता तथा नमनशीलता का सम्मिश्रण है। संघात्मक संविधान होने के कारण इसमें कठोरता के तत्व का होना अनिवार्य था, किन्तु राष्ट्र के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक विकास के साथ-साथ संविधान के विकास की कल्पना भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। संविधान में परिवर्तन भी वांछनीय होता है और यदि संविधान में परिवर्तन की व्यवस्था न की जाये तो उसके नष्ट होने की अधिक सम्भावना रहती है।

भारत के नये संविधान में तीन प्रकार से संशोधन किया जा सकता है-(i) “साधारण विधायी प्रक्रिया के द्वारा संविधान में संशोधन किया जा सकता है। कुछ अनुच्छेदों में संसद् उसी विधि से संशोधन कर लेती है जिस विधि से वह कानून बनाती है। (ii) संसद् की विधायी प्रक्रिया के द्वारा अर्थात् संसद् के प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों का पूर्ण एवं मतदान करने वालों का दो-तिहाई बहुमत के द्वारा संविधान में संशोधन किया जा सकता है। संविधान के भाग 3 और 4 में वर्णित मौलिक अधिकार एवं निदेशक सिद्धान्तों में संशोधन करने की दिशा में यह व्यवस्था लागू होती है। संविधान संशोधन सम्बन्धी विधेयक (Bill) संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। जब ऐसा बिल प्रत्येक सदन में कुल सदस्यों की संख्या के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पास हो जाता है और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है तो संविधान में संशोधन हो जाता है। (iii) संघ और राज्यों के मध्य शक्तियों एवं अधिकारों के वितरण से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन करने के हेतु संसद में विशेष बहुमत द्वारा पारित संशोधन प्रस्ताव पर कम से कम आधे राज्यों के विधान-मण्डलों की स्वीकृति आवश्यक है।

संघीय व्यवस्था से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन-

यदि किसी ऐसी धारा में संशोधन करना होता है जिसका सम्बन्ध राज्यों में भी है तो इस धारा के सम्बन्ध में संशोधन की प्रक्रिया कुछ जटिल हो जाती है। ऐसी धारा में संशोधन करने हेतु उपवर्णित साधारण प्रक्रिया के अतिरिक्त कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं की स्वीकृति भी अनिवार्य होती है। उसके बाद विधेयक (Bill) को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये प्रेषित किया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाने के पश्चात् संशोधन विधेयक संविधान का अंग बन जाता है।

अतः स्पष्ट है कि संघ और राज्यों में वितरित शक्तियाँ और अधिकारों से सम्बन्धित धाराओं के विषय में संसद अकेली ही कोई संशोधन नहीं कर सकती। इसके लिए कम से कम आधे राज्यों के विधान-मण्डलों की स्वीकृति मिलनी आवश्यक है। इस भाँति संविधान में संशोधन की प्रक्रिया अन्य संघीय संविधानों की भाँति कुछ जटिल हो गई है लेकिन यदि ऐसी व्यवस्था न होती तो संघ सरकार राज्यों की शक्तियों और अधिकारों में कभी भी स्वेच्छापूर्ण परिवर्तन कर सकती थी। परन्तु राज्यों को अपने संविधान में संशोधन करने का अधिकार नहीं है। अर्थात् राज्य के शासन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण संशोधन केवल संसद द्वारा प्रारम्भ होने पर ही किये जा सकते हैं।

अमेरिका के संविधान से संशोधन की प्रक्रिया की तुलना

संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान विश्व का सबसे कठोर (Rigid) संविधान है। वस्तुतः अमेरिका के संविधान के पाँचवें अनुच्छेद में संशोधन की जो प्रक्रिया रखी गई है वह भारतीय संविधान के संशोधन की प्रक्रिया से अधिक जटिल है और यही कारण है कि सन् 1789 में  जब से अमेरिका का संविधान क्रियान्वित हुआ है, अब तक इसमें 24 संशोधन ही है कि भारतीय संविधान में जो कि 26 जनवरी, 1950 में लागू हुआ, अब तक 79 संशोधन हो चुके हैं।

अमेरिका की संशोधन-प्रणाली की समीक्षा- अमेरिका में संशोधन वहाँ की कांग्रेस के दोनों सदनों के 2/3 बहुमत से प्रस्तावित किया जा सकता है अथवा 2/3 राज्यों की अवस्थापिका सभाओं की प्रार्थना पर बुलाई गई कन्वेंशन (Convention) के द्वारा प्रस्तावित किया जा सकता है। यदि इस प्रस्तावित संशोधन को 3/4 राज्यों की व्यवस्थापिका सभाओं का समर्थन प्राप्त हो जाता है तथा 3/4 राज्यों की व्यवस्थापिका समाओं की प्रार्थना पर आहूत की गई कन्वेंशन का समर्थन प्राप्त हो जाता है तो इस संशोधन को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाने पर संशोधन संविधान का अंग बन जाता है। संविधान में संशोधन की यह प्रक्रिया बहुत जटिल है क्योकि एक तो कांग्रेस के दोनों सदनों के 2/3 सदस्यों का बहुमत प्राप्त करना कोई सरल कार्य नहीं है और इससे भी अधिक कठिनाई प्रस्तावित संशोधन का समर्थन कराने में होती है। क्योंकि यदि एक चौथाई राज्यों में से एक भी राज्य का विधान मण्डल इस प्रस्तावित संशोधन का समर्थन नहीं करता तो ऐसा प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता है।

इसके विपरीत भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया बहुत जटिल नहीं है। क्योंकि साधारण विषयों में तो संसद ही अपने विशेष बहुमत द्वारा संशोधन कर सकती है तथा केन्द्र और राज्यों की शक्ति वितरण से सम्बन्धित विषयों पर कम से कम आधे राज्यों के विधान मण्डलों की स्वीकृति की आवश्यकता होती है। परन्तु राज्य शासन के सम्बन्ध में सभी महत्वपूर्ण संशोधन केवल संसद ही प्रस्तावित कर सकती है अर्थात् राज्यों को अपने संविधान में संशोधन करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार अमेरिका के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया अधिक जटिल है, परन्तु भारतीय संविधान के संशोधन की प्रक्रिया अपेक्षाकृत बहुत लचकदार है।

स्विट्जरलैण्ड के संविधान में संशोधन

स्विट्जरलैण्ड का संविधान कठोर संविधानों की कोटि में आता है। फिर भी स्विट्जरलैण्ड का संघीय विधान अमेरिका के संविधान की भाँति अधिक कठोर नहीं है। संविधान की दुष्परिवर्तनीय प्रवृत्ति के कारण मतदाता तथा कैन्टनों के द्वारा बहुमत से इसमें संशोधन किया जाता है। स्विस संविधान में दो प्रकार से पूर्ण या आंशिक संशोधन किये जाते हैं-

(1) संशोधन प्रस्ताव 3 प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है- (1) संघीय परिषद् द्वारा, (2) संघीय संसद् द्वारा, तथा (3) 50,000 नागरिकों द्वारा; जिसको नागरिकों का संवैधानिक उपक्रम का अधिकार कहते हैं। प्रस्तुत होने के बाद संशोधन प्रस्ताव के ऊपर संसद के दोनों सदनों में साधारण कानून की भाँति विचार-विमर्श एवं वाद-विवाद होता है और यदि दोनों सदन इसे स्वीकार कर लेते हैं तो उसे जनमत संग्रह के लिये भेज दिया जाता है। जनमत संग्रह में यह आवश्यक है कि इसे जनता तथा कैन्टन दोनों का बहुमत प्राप्त हो । ऐसा न होने पर संशोधन- प्रस्ताव अमान्य हो जाता है। कैन्टनों का मत राज्यों की जनता के बहुमत का मत माना जाता है और एक अर्द्ध-कैन्टन का केवल आधा मत माना जाता है।

(2) सम्पूर्ण या आंशिक संशोधन के लिये यह आवश्यक है कि संघीय संसद के दोनों सदनों से उसे स्वीकृति मिले, तदनन्तर उसे आधे से अधिक कैन्टनों तथा स्विस नागरिकों के बहुमत का समर्थन मिले। परन्तु यदि एक संदन इस आशय का प्रस्ताव पास करे और दूसरा सदन उसे न माने तो इस बात का निर्णय कि ऐसा संशोधन हो या न हो, स्विस नागरिक करते हैं: यदि नागरिकों का बहुमत्त संशोधन के पक्ष में सम्मति देता है तो संघीय संसद विघटित कर दी जाती है और इसका नया चुनाव होता है। फिर प्रस्तावित संशोधन नव-निर्वाचित- संसद के विचार के लिए रखा जाता है। यदि संसद के दोनों सदन उसे स्वीकृत कर देते हैं तो वह जनता तथा कैन्टनों को स्वीकृति के लिए रखा जाता है। यदि कैन्टनों एवं मतदाताओं का बहुमत संशोधन को स्वीकृत कर देता है तो वह संविधान का अंग बन जाता है।

(3) स्विस संविधान में जनता को भी संशोधन प्रस्ताव प्रेषित करने का अधिकार दिया गया है। इसके लिये यह आवश्यक है कि 50,000 नागरिकों के द्वारा एक प्रार्थनापत्र संसद को प्रस्तुत किया जाये। यदि प्रस्ताव में संविधान का पुनरीक्षण करने की माँग की गई हो तो संसद इस प्रार्थनापत्र को अनिवार्य रूप से जनमत संग्रह के लिये भेज देती है। जनमत-संग्रह का परिणाम पक्ष में हुआ तो संसद भंग हो जाती है और नवीन संसद का निर्वाचन किया जाता है। नव- निर्वाचित संसद इस प्रस्ताव के अनुकूल एक नये संविधान की रचना करेगी। दोनों सदनों से स्वीकृत होने पर वह मतदाताओं की स्वीकृति के लिये रखा जायगा। जनमत संग्रह में उसे जनता तथा कैन्टनों का बहुमत प्राप्त होने पर वह लागू हो जायेगा।

(4) परन्तु यदि जनता संविधान के केवल किसी अंश के संशोधन की माँग करे तो संशोधन की प्रक्रिया उपर्युक्त से कुछ भिन्न है। जनता संविधान में जो संशोधन चाहती है प्रार्थनापत्र में उसका केवल सैद्धान्तिक वर्णन किया जा सकता है या इसमें एक विस्तृत विधेयक नत्थी किया जा सकता है। यदि प्रार्थनापत्र में संशोधन का केवल सैद्धान्तिक वर्णन किया गया है। और संसद उसके पक्ष में होती है तो संसद उसके अनुकूल एक विधेयक तैयार करती है और उसे जनमत संग्रह के लिये भेज देती है जिसमें जनता और कैन्टन दोनों के बहुमत की स्वीकृति आवश्यक है। यदि इसे यह बहुमत प्राप्त न हो सके तो संघीय परिषद इस प्रश्न पर जनमत- संग्रह कराती है कि संविधान में आंशिक संशोधन होना चाहिये अथवा नहीं। यदि बहुमत पक्ष में हुआ तो संघीय संसद पुनः एक विधेयक इसके अनुकूल तैयार करके जनमत संग्रह के लिये प्रेषित करती है। यदि जनमत-संग्रह में इसे मतदाताओं तथा कैन्टनों का बहुमत प्राप्त हो जाये तो वह संशोधन स्वीकृत हो जाता है।

यदि जनता द्वारा संशोधन प्रस्ताव एक पूर्ण विधेयक के रूप में प्रेरित किया गया है तो यह तुरन्त जनमत संग्रह के लिये प्रेषित कर दिया जाता है। यदि संसद को वह संशोधन स्वीकार न हो तो वह स्वयं भी एक विरोधी प्रस्ताव जनता के प्रस्ताव के साथ-साथ जनमत-संग्रह के लिये | रख सकती है। जनमत संग्रह में जिस प्रस्ताव को मतदाताओं तथा कैन्टनों का बहुमत प्राप्त हो जाता है, वही स्वीकृत हो जाता है।

(5) संविधान में छोटे-मोटे संशोधन तो संघीय संसद ही साधारण कानूनों द्वारा कर सकती है। संसद के द्वारा बनाये गये कानूनों को न्यायपालिका चुनौती नहीं दे सकती। परन्तु यदि 30,000 नागरिकों अथवा 8 कैन्टन चाहें तो उन पर जनमत संग्रह की माँग कर सकते हैं। इस पर मतदाताओं का बहुमत ही पर्याप्त होता है। कैन्टनों के बहुमत की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार स्पष्ट है कि स्विस-संविधान के अन्तर्गत संशोधन की प्रणाली दुष्परिवर्तनशील है। प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र होने के कारण संशोधन की प्रक्रिया में वहाँ के नागरिक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

ग्रेट ब्रिटेन में संविधान संशोधन

वहाँ पर संविधान में संशोधन की विधि अति सरल है। संशोधन-प्रक्रिया और साधारण कानून बनाने की प्रक्रिया में कोई अन्तर नहीं है। पार्लियामेंट किसी भी प्रकार का सांविधानिक कानून अन्य कानूनों की भाँति साधारण बहुमत से बना सकती है। पार्लियामेंट द्वारा पारित विधेयक पर ताज की अनुमति बिना किसी रुकावट के मिल जाती है। इसी प्रकार पार्लियामेंट ने अनेक महत्वपूर्ण संविधियों निर्मित की हैं, जो वहाँ के संविधान का अंग बन गयी हैं।

फ्रांस में संविधान संशोधन

अनुच्छेद 89 में कहा गया है कि “संविधान के संशोधन में पहल करने का अधिकार प्रधानमन्त्री के प्रस्ताव पर राष्ट्रपति और पार्लियामेंट के सदस्यों को है। संशोधन के लिए सरकारी अथवा संसदीय विधेयक दोनों सदनों द्वारा पूर्णतया एक रूप में पारित किया जानाक्षचाहिए। संशोधन तभी निश्चित (definite) होगा जबकि लोक-निर्णय (referendurn) द्वारा उसे स्वीकृत कर लिया जाय।  परन्तु संशोधन पर तब लोक-निर्णय न कराया जायेगा जब राष्ट्रपति उसे कांग्रेस के रूप में बुलायी गयी संसद के सामने रखने का निश्चय करे। ऐसी दशा में प्रस्तावित संशोधन तभी स्वीकृत माना जायेगा जबकि उसके पक्ष में कुल डाले गये मतों का कम से कम 2/3 बहुसत हो । कांग्रेस का सचिवालय नेशनल एसेम्बली का सचिवालय होगा। जब देश की अखण्डता को खतरा हो, ऐसे समय में किसी संशोधन प्रस्ताव पर विचार नहीं किया जायेगा। सरकार के गणतन्त्रीय रूप के विषय में कोई संशोधन न किया जा सकेगा।

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Pankaja Singh

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