इतिहास

संस्कृति का शाब्दिक अर्थ | संस्कृति की परिभाषा | संस्कृति के तत्व तथा उपकरण | संस्कृति की प्रकृति | संस्कृति की व्यापकता अथवा विस्तार क्षेत्र

संस्कृति का शाब्दिक अर्थ | संस्कृति की परिभाषा | संस्कृति के तत्व तथा उपकरण | संस्कृति की प्रकृति | संस्कृति की व्यापकता अथवा विस्तार क्षेत्र

आधुनिक समय में मानवजाति के समस्त क्रियाकलापों का अध्ययन संस्कृति के दृष्टिकोण से किया जाता है। प्रश्न उठता है कि यह संस्कृति क्या है? शब्दकोषों के पन्नों को उलटने पलटने तथा इतिहास के पृष्ठों का अध्ययन करने पर संस्कृति के अनेक अर्थों, परिभाषाओं, उपकरणों, तत्वों तथा विस्तार आदि का पता चलता है। संस्कृति के समस्त पहलुओं का वर्णन हम निम्नलिखितरूप से कर सकते हैं-

संस्कृति का शाब्दिक अर्थ

हिन्दी भाषा में प्रयुक्त किया जाने वाला ‘संस्कृति’ शब्द मूल रूप से संस्कृत भाषा का शब्द है। ‘संस्कृति’ में दो शब्द हैं—’सम’, ‘कृति’। इस शब्द का मूल ‘क’ धातु में है जिसका अर्थ है क्रिया। इस दृष्टि से संस्कृति का शाब्दिक अर्थ-सम प्रकार अथवा भली प्रकार ककिया जाने वाला व्यवहार अथवा क्रिया है। संस्कृति शब्द का एक अन्य अर्थ संस्कार से भी जोड़ा जाता है। अंग्रेजी भाषा में संस्कृति के लिये ‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द लैटिन भाषा के ‘कलचुरा’ तथा ‘कोलियर’ से निकला है। इन दोनों लैटिन शब्दों का अर्थ क्रमशः ‘उत्पादन’ तथा ‘परिष्कार’ है। उत्पादन तथा परिष्कार से जो अर्थ निकलता है उनके अनुसार संस्कृति को ‘परिष्कृत मानसिक उत्पादन’ माना जा सकता है। अंग्रेजी शब्द कल्चर में वही धातु है जो ‘एग्रीकल्चर’ में है। इस शब्द से भी उत्पन्न अथवा उत्पादन करने की ध्वनि निकलती है। अनेक भाषाओं में संस्कृति के लिये जो विभिन्न शब्द रूप मिलते हैं उन सभी से क्रिया, व्यवहार, उत्पादन, संस्कार तथा परिष्कार अर्थ मिलते हैं। इन शब्दों के विवेचन द्वारा हम यह अर्थ निकाल सकते है कि संस्कृति में व्यक्ति तथा समाज की वे क्रियायें, उत्पादन, व्यवहार, संस्कार तथा परिष्कार सम्मिलित हैं जिनके द्वारा व्यक्ति तथा समाज के लक्षणों को पहचाना तथा परखा जा सकता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि संस्कृति मानव के आदि काल से लेकर आज तक की वह संचित निधि है जो उत्पादन तथा परिष्कार द्वारा निरन्तर प्रगति करती हुई, इस पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को उत्तराधिकार स्वरूप प्राप्त होती चली आई है तथा भविष्य में भी उसकी यही दिशा रहेगी।

संस्कृति की परिभाषा

संस्कृति के उपरोकत अर्थ से यह स्पष्ट होता है कि संस्कृति का अर्थ बड़ा ही व्यापक है। इसकी व्यापकता के फलस्वरूप संस्कृति की परिभाषा भी अनेक दृष्टिकोणों से की गई है। इससे पूर्व कि हम संस्कृति की परिभाषा स्वयं अपने ही शब्दों में करें, कतिपय विद्वानों की संस्कृति के विषय में की गई परिभाषा को समझ लेना उचित होगा।

विभिन्न विद्वानों के अनुसार संस्कृति की परिभाषायें

डा० जी० सी० पाण्डेय के अनुसार-‘मूलतः संस्कृति जीवन की ओर एक विशिष्ट दृष्टिकोण है, अनुभव के मूल्यांकन और व्याख्या का एक विशिष्ट और मूलभूत प्रकार है। विचार, भावना तथा आचरण के विभिन्न प्रस्तरों में संस्कृति की सिद्धि है। इस दृष्टि स्वरूपा संस्कृति की सिद्धि के बाह्य विस्तार निरन्तर बदलते रहते हैं किन्तु उनकी प्रभावात्मक दृष्टि और प्रेरणा का अनुस्यूत, बृहत्तर और गम्भीरतर सत्ता के रूप में बना रहता है और किसी भी समाज के जीवन में चेतना का यह गहरा और अदृष्ट अनुबन्ध ही संस्कृति का सार है।”

श्री मैथ्यू ऑर्नाल्ड के संस्कृति की परिभाषा करते हुए लिखा है-

“Culture is the pursuit of our total perfection by means of getting to know all matters that most concern us, the best which has been thought and said in the world.”

पं० जवाहरलाल नेहरू के अनुसार- संस्कृति क्या है? शब्दकोष उलटने पर इसकी अनेक परिभाषायें मिलती हैं। एक बड़े लेखक का कहना है कि संसार में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गई हैं उनसे स्वयं को परिचित कराना संस्कृति है। एक अन्य परिभाषा में कहा गयाकि संस्कृति शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था है। यह मन, आचार अथवा रुचि की परिष्कृति अथवा शुद्धि है। यह सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना है। इन सभी अर्थों में संस्कृति किसी ऐसी चीज का नाम हो जाता है जो बुनियादी और अन्तर्राष्ट्रीय है।”

श्री ए० एन० ह्वाइटहेड महोदय के अनुसार- “Culture is the complex whole, which includes knowledge, beliefs, art, morals, laws, customs and any other capacities and habits acquired by man as a member of the society.”

डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार- संस्कृति अपने सदस्यों को विपरीत दिशाओं में क्रियाशील बलों को अत्यन्त सूक्ष्म संतुलन के फलस्वरूप उत्पन्न संतुलन और दृढ़ता प्रदान करती है।….. सभ्यता का कठोर हो जाना ही संस्कृति है।”

ह्वाइट महोदय ने संस्कृति की परिभाषा करते हुए लिखा है – “Culture is symbolic, continuous, comulativa and progressive process.

ओटावी महोदय का कथन है “सामाजिक संस्कृति का अर्थ सामाजिक जीवन का सम्पूर्ण ढंग।”

जोसफ पीपर महोदय के अनुसार- “Culture is the essence of all natural goods of the world and of those gifts and qualities which, while belonging to man, lie beyond the immediate sphere of his needs and wants.

डा० रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति की परिभाषा करते हुए लिखा है-‘असल में संस्कृति जीवन का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं।………… अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा करते हैं वह भी हमारी संस्कृति का अंग बन जाता है और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ-साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी भावी पीढ़ियों के लिये छोड़ जाते हैं। इसलिये संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए हैं तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नहीं, अपितु संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मान्तरों तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार होता है उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है।…… संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है।”

हमारे अनुसार संस्कृति की परिभाषा- संस्कृति के विषय में विभिन्न विद्वानों द्वारा की गई, परिभाषा के अनेक रूपों से परिचय पाकर हमारे मस्तिष्क में जो संस्कृति सम्बन्धी विचार उत्पन्न होते हैं, उनके अनुसार हम संस्कृति की परिभाषा करते हुए कह सकते हैं कि संस्कृति मानव की सम्पूर्ण चिर संचित ऐसी निधि है जो मानव की दशा तथा दिशा का बोध कराती है। संस्कृति को मानव की समस्त उपलब्धि माना जा सकता है। संस्कृति मानव जीवन की परम विशेषता है तथा इसमें मानव जीवन के मस्त गुण निहित हैं। संस्कृति के गुणों के वशीभूत होकर ही मनुष्य उन क्रियाओं को करता है जो उसे ज्ञान-विज्ञान, समाज, धर्म, साहित्य, कला, दर्शन और चिन्तन की ओर अग्रसर करती हैं। समस्त मानव सभ्यता के विकास की कहानी संस्कृति के रूपों का ही बखान करती है। मानव की समस्त क्रियाओं, व्यवहारों, उत्पादन, परिष्कार एवं उन्नति का मिला जुला रूप ही संस्कृति है।

संस्कृति के तत्व तथा उपकरण

संस्कृति का सम्बन्ध मानव की क्रियाओं तथा उसके वैचारिक जगत से है। क्षुधा, तृष्णा तथा यौन सम्बन्धों की पूर्ति तो समस्त प्राणी समान रूप से प्राकृतिक नियमानुसार कर लेते हैं परन्तु मनुष्य अन्य प्राणियों की अपेक्षा पर्याप्त रूप से भिन्न है। प्राणीजगत में मनुष्य की स्थिति को अलग करने का श्रेय केवल उसकी संस्कृति को ही प्राप्त प्राप्त है। पशुओं की कोई संस्कृति नहीं होती अतःवे क्षुधा, तृष्णा तथा वंशवृद्धि के क्रियाक्रम में ही बंधे हुये हैं। इसके विपरीत मानव संस्कृतियुक्त प्राणी है उसका अपना एक विशिष्ट ढंग है, उसमें विशिष्ट कल्पनागत एवं वैचारिक श्रेष्ठता है, फलतः वह प्राकृतिक क्षुधा, तृष्णा को शान्त करने के साथ-साथ अन्य अनेकानेक कार्य भी करता है। संस्कृति के तत्वों तथा उपकरणों का सम्बन्ध इन्हीं क्रियाओं से  है।

संस्कृति के तत्व निम्नलिखित हैं-

(1) आदर्श परम्पराएँ, रीतिरिवाज, विश्वास तथा दृष्टिकोण।

(2) सद्गुण, व्यक्ति की भावनाएँ, स्थायी भाव इत्यादि।

(3) विज्ञान, विचार, वैचारिक प्रणाली, क्रिया तथा कौशल आदि।

(4) आध्यात्मिक मूल्य, धर्म, धार्मिक क्रियायें तथा धर्म दर्शन।

(5) कलात्मक अभिव्यक्तियों, साहसिक अभिथियों तथा कलात्मक कल्पना आदि।

(6) सामाजिक कुशलता, नियन्त्रण, अनुशासन, नियम, विधि आदि ।

(7) शासन व्यवस्थायें, न्याय, दण्ड दया सम्मान आदि।

(8) पारिवारिक व्यवस्थायें, परिवार की कार्य प्रणाली तथा संगठन।

(9) मानव की भौतिक आवश्यकतायें तथा भौतिक जीवन को उन्नत करने वाले साधन।

(10) भाषा, संकेत, लिपि तथा भावों को अभिव्यक्त करने वाले साथन।

(11) आर्थिक संगठन तथा सम्पत्ति का विभाजन तथा व्यवस्था।

(12) सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न संस्थायें।

(13) मनोरंजन तथा अवकाश काल की क्रियायें आदि।

(14) वाणिज्य, व्यापार, उद्योग तथा सुविधाओं का आदान-प्रदान आदि।

(15) बैदेशिक सम्बन्ध तथा उनका नियमन एवं निर्धारण।

(16) यातायात के साधन, भ्रमण आदि।

(17) युद्ध तथा शान्तिकाल की व्यवस्था आदि।

(18) ज्ञानार्जन, अध्ययन तथा मानसिक स्तर को ऊँचा उठाने वाले साधन ।

संस्कृति के उपकरण-

संस्कृति मानव सभ्यता का सारतत्व है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते है कि मानव जीवन की समस्त आवश्यकताओं को संस्कृति के उपकरणों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक संस्थाओं, दर्शन, विज्ञान, साहित्य, नाटक, काव्य, चित्रकला, मूर्तिकला, गृह निर्माण, उपासना गृह, वस्त्राभूषण, बर्तन, जीवन, के उपयोगी यन्त्र-उपकरण आदि, विभिन्न पर्व, संस्कार, संगीत, मनोरंजन के साधन, क्लब, पुस्तकालय, नाट्य शालाएँ, संग्रहालय, उद्योगशालाएँ, विद्यालय, खेलकूद आदि संस्कृति के विभिन्न उपकरण हैं।

संस्कृति की प्रकृति

इतिहास पर व्यापक दृष्टि डालने से विदित होता है कि सम्पूर्ण विश्व में संस्कृतियों के अनेक रूप तथा गुण हैं जो तुलनात्मक दृष्टि से एक दूसरे से समानता रखते हैं। परन्तु यहाँ पर हम संस्कृति का विवेचन उसके मौलिक गुणों के आधार पर कर रहे हैं। हिन्दू संस्कृति, मुसलमान संस्कृति या पूर्व की संस्कृति और पश्चिम की संस्कृति अलग-अलग शब्द हैं परन्तु इन सब के कुछ मौलिक लक्षण हैं जो सभी संस्कृतियों में समान रूप से विद्यमान हैं। इन मौलिक लक्षणों में ही संस्कृति की प्रकृति निहित है। संस्कृति की प्रकृति की विशेषताएँ अथवा लक्षण निम्नलिखित हैं-

(1) संस्कृति एक सामाजिक प्रक्रिया है- संस्कृति का विकास सामाजिक वातावरण में होता है। यह किसी एक व्यक्ति के या व्यक्तिगत प्रयास का परिणाम नहीं होती है। संस्कृति में मानव जाति की सामाजिक अभिव्यक्ति होती है अतः यह कोई व्यक्तिगत प्रक्रिया नहीं, वरन् सामाजिक प्रक्रिया है।

(2) संस्कृति का प्रवाह निरन्तर तथा अनावरुध है- संस्कृति कोई जड़ या स्थिर वस्तु नहीं है। मानव के विकास के साथ-साथ संस्कृति भी विकासशील तथा निरन्तर है। यह एक पीढ़ी द्वारा दूसरी-पीढ़ी को उत्तराधिकार स्वरूप प्राप्त होती रहती है।

(3) संस्कृति का स्वरूप आदर्शात्मक होता है-संस्कृति द्वारा आदर्शों की प्राप्ति तथा निर्धारण किया जाता है। इस बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए हम कह सकते हैं कि संस्कृति द्वारा समाज के आदर्श निर्धारित किये जाते हैं तथा सांस्कृतिक विकास द्वारा उन आदर्शों की प्राप्ति की जाती है।

(4) संस्कृति में अनुकूलन की क्षमता होती है- संस्कृति कोई जड़ विचारधारा नहीं है वरन् वह परिवर्तनशील तथा अनुकूलनशील होती है। मानव की आवश्यकताओं तथा वैचारिक परिवर्तनों के अनुरूप संस्कृति अपना अनुकूलन कर लेती है। गणित अथवा विज्ञान की भाँति इसके नियम शाश्वत तथा जड़ नहीं हैं।

(5) संस्कृति व्यावहारिक होती है- यद्यपि संस्कृति के सैद्धान्तिक तत्व होते हैं तथापि ये सिद्धान्त पूर्णतः व्यावहारिक होते हैं। अपनी व्यावहारिकता के कारण ही संस्कृति में निरन्तरता तथा अनुकूलन की प्रवृत्ति पायी जाती है।

(6) संस्कृति में मानवकी भौतिक तथा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का समन्वय होता है- यद्यपि मनुष्य की शारीरिक स्थिति भौतिक जगत से सम्बन्धित है तथापि उसके मस्तिष्क का सम्बन्ध आध्यात्मिक जगत से होता है। संस्कृति द्वारा मनुष्य की भौतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।

(7) संस्कृति द्वारा अनेकता में एकता की स्थापना होती है- देश, काल अथवा जातियों की अनेकता के कारण संस्कृति का भी विभाजन किया जाता है परन्तु यह संस्कृति की प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है। संस्कृति का विभाजन केवल उसे समझने या अध्ययन के लिये ही किया जाता है। अपने सम्पूर्ण अर्थों तथा प्रवृत्ति में मानव जाति की संस्कृति एक है तथापि उसके रूप अनेक हैं।

संस्कृति की व्यापकता अथवा विस्तार क्षेत्र

संस्कृति का क्षेत्र उतना ही विस्तृत है जितना कि आदि काल से लेकर आज तक का मानव जीवन । यदि विवेचनात्मक दृष्टि से निरीक्षण किया जाये तो हमें इस परिणाम की प्राप्ति होगी कि जन्म से लेकर मृत्यु तक तथा उसके भी उपरान्त जन्म-जन्मान्तर तक संस्कृति समस्त मानव । चेतना को व्याप्त किये हुए हैं। व्यक्ति के आचरण, चिन्तन, क्रियाशीलता, ज्ञान आध्यात्म एवं कल्पना में संस्कृति का ही रूप स्थित है। वस्तुतः संस्कृति का क्षेत्र इतना व्यापक है कि इसकी कोई पूर्ण परिभाषा भी नहीं की जा सकती। संस्कृति मानव जीवन के आन्तरिक तथा बाह्य रूप को समान रूप से व्याप्त किये हुए हैं। यह मानव जीवन की एक परम तथा आवश्यक विशेषता है तथा इसमें सभ्य मानवता के सर्वश्रेष्ठ गुण विद्यमान हैं। जीवन का कोई भी अंग संस्कृति की परिधि के बाहर नहीं है। संस्कृति के वशीभूत होकर ही मानव उन क्रियाओं को करता है जिनके द्वारा उसका भविष्य निर्धारित होता है। डा० रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के अनुसार “संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए हैं तथा जिनकी रचना एवं विकास में अनेक पीढ़ियों के अनुभवों का हाथ है।” संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि संस्कृति मानव के भौतिक तथा पारलौकिक जगत को समान रूप से व्याप्त किये हुए है। अपने विस्तार के अनुरुल संस्कृति जीवन यापन की एक ऐसी निधि है जो कि जब से सभ्यता मानव अस्तित्व में आई तभी से वर्तमान है तथा जब तक मानव सभ्यता स्थित रहेगी तब तक फलती फूलती रहेगी।

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Pankaja Singh

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