निगमीय प्रबंधन

संगठन में परिवर्तनों के प्रकार | संगठन में परिवर्तन को प्रेरित करने वाली शक्तियाँ

संगठन में परिवर्तनों के प्रकार | संगठन में परिवर्तन को प्रेरित करने वाली शक्तियाँ | Types of changes in organization in Hindi | Forces that drive change in an organization in Hindi

संगठन में परिवर्तनों के प्रकार-

किसी भी संगठन में कभी एक ही प्रकार के परिवर्तन नहीं होते हैं। ये कई प्रकार के होते हैं। संगठन में परिवर्तन के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं-

(i) आकार में परिवर्तन- संगठन के आकार में परिवर्तन का अर्थ है या तो उसका विस्तार किया जाये या संकुचन। कभी-कभी संगठन में कई विभागों को एक में मिलाकर एक बड़ा विभाग बना दिया जाता है या किसी एक विभाग को नये छोटे-छोटे विभागों में बदल दिया जाता है। अतः विभागों के आकार में परिवर्तन कर इस प्रकार के बदलाव किये जाते हैं।

(ii) यांत्रिक परिवर्तन- संगठन में पुरानी मशीनों को हटाकर उनके स्थान पर नई मशीनों की स्थापना पर जो परिवर्तन होता है उसे यांत्रिक परिवर्तन कहा जाता है। जब पुरानी मशीनों के स्थान पर नयी मशीनों की स्थापना की जाती है तो उनके संचालन हेतु नवीन तकनीक वाले कर्मचारियों की नियुक्ति भी आवश्यक होती है, अतः प्रबन्ध तंत्र को संगठन में परिवर्तन करने पड़ते हैं।

(iii) औपचारिक एवं अनौपचारिक परिवर्तन- औपचारिक एवं अनौपचारिक संगठन ने परिवर्तन के अन्तर्गत प्रबन्धक लोक संगठन के अलग-अलग स्तरों में अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों में परिवर्तन कर औपचारिक संगठनात्मक परिवर्तन करते हैं। अनौपचारिक सम्बन्ध संगठन से बाहर तथा संगठन के अन्दर भी स्थापित हो सकते हैं।

(iv) कर्मचारियों में परिवर्तन- संगठनों में अक्सर कर्मचारियों में परिवर्तन होता रहता है। समय की माँग के अनुसार पुराने कर्मचारियों के स्थान पर नये कर्मचारियों की नियुक्ति इस परिवर्तन का आधार होती है।

(v) तकनीक परिवर्तन- प्रबन्धकों का नई तकनीक के अनुसार कर्मचारियों की नियुक्ति करनी पड़ती है अर्थात् जब भी उत्पादन के लिये किसी नयी तकनीक का प्रयोग किया जाता है। प्रबन्धकों को उस नयी तकनीक में प्रशिक्षित कर्मचारियों की नियुक्ति की आवश्यकता होती है।

तकनीकी जीवन चक्र- यह एक महत्वपूर्ण उपकरण है जो कि तकनीकी विकास के समय एवं लागत को वसूल करने के समय सीमा तथा निहित लागतों एवं जोखिमों के अनुपात में लाभों को एकत्र करने हेतु को उपयुक्त बनाने से सम्बंधित है तकनीकी जीवन चक्र को इसके चक्र के दौरान पेटेन्ट एवं व्यापार चिन्ह द्वारा चक्र को बढ़ाकर तथा लाभ को अधिकतम करते हुए संरक्षित किया जाता है। तकनीकी के जीवन विस्तार पर प्रतियोगी उत्पाद या प्रक्रिया विकास पर्याप्त प्रभाव डालते हैं। उत्पाद जीवन चक्र प्रबन्ध तकनीकी विकास का महत्वपूर्ण पक्ष होता है। तकनीक जीवन चक्र की निम्नलिखित चार अवस्थाएँ होती हैं-

  1. शोध एवं विकास की अवस्था- इस अवस्था को रक्त प्रवाह अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में आदानों से आय ऋणात्मक तथा असफलता की सम्भावनाएँ अधिक होती है।
  2. उत्थान अथवा चढ़ाव की अवस्था- जब लागतें वसूल हो चुकी होती हैं तथा तकनीकी अपनी प्रथम अवस्था से आगे बढ़ जाती है तो यह चढ़ान की अवस्था होती है। इसे वृद्धिकारी स्थिति भी कहते हैं।
  3. परिपक्वता अवस्था- इस अवस्था में प्राप्तियाँ उच्च तथा स्थायी होती हैं। इसमें संतुष्टि की स्थिति होती है।
  4. अवनयन की अवस्था- इस अवस्था में तकनीक की उपयोगिता घटने लगती है।

संगठन में परिवर्तन को प्रेरित करने वाली शक्तियाँ

किसी भी संगठन में परिवर्तन को प्रेरित करने वाली प्रमुख रूप से दो शक्तियाँ होती हैं-(1) आन्तरिक शक्तियाँ तथा (2) बाह्य शक्तियाँ। आन्तरिक परिवर्तनों में संस्था के परिचालन एवं आन्तरिक प्रवन्ध के कारण परिवर्तन होता है जबकि बाह्य शक्तियाँ जैसे बाजार की स्थिति, ग्राहकों की पसन्द आदि होती है जो कि संस्था में परिवर्तन को प्रेरित करती है।

(i) आन्तरिक शक्तियाँ- कभी-कभी प्रबन्धकों को संगठन में परिवर्तन के लिये संगठन से जुड़ी आन्तरिक शक्तियाँ भी बाध्य करती हैं। ये प्रमुख आन्तरिक शक्तियाँ निम्नलिखित हैं-

  1. संगठन को गतिशीलता प्रदान करना- संगठन को सदैव गतिशील बनाये रखना प्रबन्धकों की प्राथमिकता होती है। संगठन को गतिशील बनाये रखने के लिये प्रबन्धकों को नित्य नये तथा संगठनात्मक कार्य करने होते हैं। कुछ नवीन करने के लिये अक्सर संगठन में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की जाती है ताकि संगठन को नई ऊर्जा मिल सके।
  2. व्यूह रचना में परिवर्तन-कभी-कभी समय के अनुसार प्रबन्धकों को अपनी संगठनात्मक व्यूह रचना में परिवर्तन करना पड़ता है जिसके कारण सम्पूर्ण संगठन में परिवर्तन आवश्यक हो जाता है। नई प्रौद्योगिकी को अपनाने, विकेन्द्रीकरण करने, दीर्घकालीन पूर्वानुमान करने आदि के निर्णयों से कम्पनी की संरचना को भी परिवर्तित करना पड़ता है।
  3. नीतियों में परिवर्तन- जब संस्था अपनी नीतियों में परिवर्तन करती है तो उसका असर पूरे संगठन पर पड़ता है और संस्था में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। उत्पाद विविधीकरण, उत्पादन क्षमता का विस्तार या संकुचन आदि संगठन में परिवर्तन को प्रेरित करते हैं।
  4. परिचालन परिवर्तन- संस्था में उत्पादन क्रियाओं के परिचालन तथा कुशल निष्पादन की दृष्टि से भी प्रबन्धक कई परिवर्तन करते हैं। ये परिवर्तन संयंत्र अभिरचना, लाभदायकता, अनुपात, वेतन भुगतान की विधियाँ, विद्युत ऊर्जा लागत आदि के सन्दर्भ में ये परिवर्तन सम्भव हो सकते हैं।
  5. संगठन संरचना दोष- कभी-कभी कर्मचारियों और प्रबन्धकों के मध्य सम्बन्धों में कुछ कमियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। संगठन संरचना में दोष के प्रमुख कारण हैं—प्रबन्धकीय स्तरों में वृद्धि, अधिकारों एवं दायित्वों में असंतुलन आदि। इन्हें दूर करने के लिये संगठन ढाँचे में बदलाव अति आवश्यक होता है।
  6. आन्तरिक विकास- संस्था के आन्तरिक विकास के कारण भी प्रबन्धकों को कई परिवर्तन करने होते हैं। इन परिवर्तनों का सम्बन्ध वित्त-विनियोग, बाजार स्थायित्व, पूर्वानुमान तकनीकें, लाइसेन्सिंग क्षमता, विदेशी विनियम आदि से हो सकता है।

(ii) वाह्य शक्तियाँ- संगठन आन्तरिक संगठन को छोड़कर बाहरी शक्तियाँ भी संगठन में परिवर्तन को प्रेरणा देती हैं। ये बाह्य शक्तियाँ निम्नलिखित हैं—

  1. उपभोक्ता– संस्था के उत्पादों को उपभोक्ता काफी हद तक प्रभावित करता है। उत्पाद के निर्माण में उपभोक्ता की पसंद एवं नापसंद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। उपभोक्ता की प्रकृति, रुचियों, आयु, आदतों, आवश्यकताओं आदि को ध्यान में रखते हुए उसके अनुकूल संस्था को अपनी नीतियों तथा क्रियाकलापों में परिवर्तन करना होता है।
  2. आर्थिक दशायें- आर्थिक दशाएं भी संस्था को अपने संगठन में परिवर्तन के लिये वाध्य करती हैं। मुद्रा स्फीति, मुद्रा संकुचन, पूँजी निर्माण, बचत दर, कीमतें, ऋण सुविधाएँ आदि ऐसी बातें हैं जिसके कारण संस्था को संगठन में परिवर्तन की आवश्यकता हो जाती है।
  3. सामाजिक दशाएँ- सामाजिक मूल्यों, सांस्कृतिक प्रतिमानों, परम्पराओं, जीवन शैली, रुचियों, खान-पान आदि के कारण प्रवन्धकों को अपनी योजनाओं, कार्य-विधियों में समायोजन तथा कई परिवर्तन करने पर बाध्य करती है।
  4. प्रतिस्पर्द्धा- वर्तमान युग प्रतिस्पर्द्धा का युग है। लगभग सभी संगठन को अपने उत्पाद बेचने मे प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है। प्रतिस्पर्द्धा के लिये नित नये-नये विचार एवं खोजों की आवश्यकता होती है। अतः प्रतिस्पर्द्धा में बने रहने के लिये संस्थाएँ अपने संगठन में परिवर्तन कर संगठन को नयी ऊर्जा देने का प्रयास करती हैं।
  5. राजनैतिक कारणकभी-कभी राजनैतिक कारणों से भी संस्था को अपने संगठन में परिवर्तन के लिये बाध्य होना पड़ता है। सरकारी नीतियाँ संस्था के कार्य को अत्यधिक प्रभावित करती हैं और कभी-कभी ये परिवर्तन के लिये बाध्य भी करती हैं।
  6. वैधानिक शक्तियाँ- कभी-कभी कानून में परिवर्तन होने के कारण प्रबन्धकों को अपने संगठन में परिवर्तन करने होते हैं। विभिन्न अधिनियमों के प्रावधानों के अनुरूप संस्था को अपने क्रिया-कलापों में परिवर्तन करना पड़ता है।
  7. आकार वृद्धि- व्यावसायिक संस्थाओं के व्यापार में वृद्धि होने के साथ-साथ उनके आकार में भी वृद्धि होना स्वाभाविक होती हैं। जब भी संस्थाओं के आकार में वृद्धि होती है तो संगठन में भी परिवर्तन आवश्यक होते हैं।
  8. नियोजन- देश की विभिन्न योजनाओं से राष्ट्र के विकास की दिशा का निर्धारण होता है। प्रबन्धकों को सरकार की विकास योजनाओं, आर्थिक कार्यक्रमों को ध्यान में रखकर संगठन में परिवर्तन करने की आवश्यकता पड़ती है।
  9. औद्योगिकीकरण – औद्योगिकीकरण भी संगठन में परिवर्तन को प्रेरित करता है।
  10. पूँजी बाजार की पवृत्तियाँ-पूँजी बाजार की प्रवृत्तियाँ अर्थव्यवस्था की निर्धारक होती. हैं। पूँजी बाजार में मुद्रा की माँग और पूर्ति के अनुकूल प्रबन्धकों को अपनी वित्तीय नीति में परिवर्तन करने होते हैं।
  11. अन्य शक्तियाँ– संस्था की वाह्य और आन्तरिक शक्तियों के अतिरिक्त वह कुछ अन्य शक्तियाँ भी हैं जो संस्था के संगठन में परिवर्तन को प्रेरित करती हैं। ये निम्नलिखित हैं-

(i) संकटकाल- अप्रत्याशित एवं आकस्मिक संकटकाल की स्थिति में संस्थाओं को परिस्थितियों के अनुकूल अपने संगठन में परिवर्तन करने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए हड़ता किसी मशीन में अचानक आयी खराबी, उच्च प्रबन्धक की अचानक मृत्यु अथवा पद त्याग आदि के कारण प्रबन्धकों को परिवर्तन करना पड़ता है। संकट की दशाएँ अस्थायित्व पैदा कर संगठन को तुरंत कार्यवाही करने के लिए बाध्य करती हैं जिसके कारण परिवर्तन भी स्वाभाविक होता है।

(ii) शृंखला प्रभाव – कभी-कभी संगठन में अनेकों बार ऐसी घटनाएँ घटती हैं, जिसके कारण एक परिवर्तन करने से दूसरा परिवर्तन अपने आप हो जाता है। इन परिवर्तनों की धीरे-धीरे एक शृंखला बन जाती है और लगभग निरंतर काफी दिनों तक चलती रहती है।

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Pankaja Singh

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