समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम | समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम की उपलब्धि | Integrated Rural Development Programme in Hindi
समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम
(Integrated Rural Development Programme)
समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम (IRDP) मुख्य रूप से ग्रामीण निर्धनता निवारण के उद्देश्य से 1978-79 में प्रारम्भ किया गया। जिसका यह लक्ष्य रखा गया था कि सन् 2000 तक ग्रामीण क्षेत्र के सभी लोग, जो निर्धनता रेखा से नीचे रह रहे हैं, उन्हें ऊपर उठाया जायेगा। प्रारम्भ में यह कुछ चुने हुए खण्डों में सीमित आधार पर लागू की गयी, परन्तु बाद में अक्टूबर 1980 से देश के सभी 5011 विकास-खण्डों में लागू कर दिया गया। यह योजना एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में अपनाई गयी है, जिसका लक्ष्य ग्रामीण निर्धनों का विकास करना है। इसमें कृषि विकास के साथ-साथ गैर-कृषि विकास कार्यक्रम भी सम्मिलित हैं, अर्थात् इसके अन्तर्गत गाँव के सर्वांगीण विकास पर जोर दिया जाता है, न कि किसी एक उत्पादक क्षेत्र के विकास पर। यह कहा जा सकता है कि गाँवों में प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र की गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जाता है; जैसे- पशुपालन, रेशम-कीटपालन एवं कृषि पर आधारित अन्य क्रियाएँ, बुनाई, हस्तशिल्प तथा सेवा एवं व्यावसायिक कार्य आदि।
इस योजना में लघु सीमान्त कृषकों को कृषि कार्य के साथ-साथ अन्य सहायक व्यवसाय करना चाहे तो उन्हें अनुदानित दरों पर सहायता दी जाती है। इसमें यह भी निश्चय किया गया था कि सहायता दिये जाने वाले परिवारों में कम से कम 30 प्रतिशत अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के परिवार होने चाहिए तथा कुल लाभार्थियों में कम से कम 30 प्रतिशत महिलाएं हों। सहायता देते समय कुछ परिवारों को प्राथमिकता दी जाती है। जैसे-जिन्हें अतिरिक्त भूमि आबंटित की गयी हो, या मुक्त किये गये बंधुआ मजदूरों हों या विकलांग हों। इस योजना के तहत लघु किसानों को 25 प्रतिशत, सीमान्त किसानों एवं खेतिहर मजदूरों तथा ग्रामीण कारीगरों को 33.33 प्रतिशत एवं जनजातीय परिवारों को 50 प्रतिशत तक सहायिकी (Subsidy) दी जाती है। IRDP के कार्यान्वयन में बहुत-सी कमियाँ एवं अक्षमताएँ देखने को मिली हैं, जैसे- लाभार्थियों का गलत चयन, भ्रष्टाचार, कुरीतियों के द्वारा रिसाव, परियोजना-पहचान में तालमेल न होना, लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर ध्यान न देना, बैंकिंग ढाँचे की अपर्याप्तता, प्राथमिक क्षेत्र की क्रियाओं की ओर जरूरत से ज्यादा ध्यान देना आदि। ये कमियाँ कार्यक्रम के कार्यान्वयन के प्रत्येक स्तर पर पायी जाती हैं।
इस कार्यक्रम में ब्लाक एवं जिला-स्तर पर अर्थपूर्ण नियोजन इस प्रकार किया जाय जिससे कि इस बात का पता लगाया जा सके कि कौन-सा कार्य से किस पैमाने पर, कितनी अतिरिक्त सेवा के साथ, लाभार्थियों को लाभ पहुँचाया जा सकता है। इसमें संसाधनों एवं अवसरों की उपलब्धता के सन्दर्भ में लक्ष्यों को वास्तविक बनाया जाना चाहिए। आठवीं योजना के दौरान 20 मिलियन परिवारों से अधिका लक्ष्य नहीं रखा जाना चाहिए। निर्धनता रेखा के नीचे रहने वाले एक विकास खण्ड के सभी गाँवों के समस्त परिवारों की ‘मास्टर सूची’ तैयार की जानी चाहिए जिससे कि बैंकर परिवारों की पहचान एवं IRDP के अन्तर्गत वित्तीयन के लिए उचित प्रोजेक्ट तैयार किये जा सकें। बैंकिंग कर्मचारियों का भी यह दायित्व है कि वे लाभार्थियों के चयन एवं निरीक्षण में सामान्य बैंकिंग अनुशासन एवं विश्वसनीयता को बनाये रखें। सरकारी अभिकरणों के लगातार दबाव के कारण IRDP के अन्तर्गत ऋण के सम्बन्ध में पूर्णतया ह्रास हुआ है। यदि इस पर रोक न लगायी गयी तो यह सम्पूर्ण बैंकिंग व्यवस्था को प्रतिकूल दिशा में प्रभावित करेगा।
IRDP के अन्तर्गत ऋण व्यवस्था मे बहुत से प्रक्रियात्मक परिवर्तनों की आवश्यकता है। कार्यक्रम की प्रभावशीलता के लिए कार्यशील पूँजी तथा पुनः भुगतान के लिए उचित समय निर्धारण के प्रावधान पर अत्यधिक जोर दिया जाना चाहिए। इसके अन्तर्गत सबसे बड़ी शिकायत यह है कि लाभार्थियों को सहायिकी (Subsidy) की सम्पूर्ण राशि नहीं मिल पा रही है, इस प्रकार का रिसाव 20 प्रतिशत या उससे अधिक अनुमानित किया गया है। यह कारक लाभार्थियों में शेष पैदावार कार्यक्रम को बदनाम कर रहा है। यह अनुभव किया जा रहा है कि सहायिकी प्रशासन की विधि का संशोधन एवं परिमार्जन किया जाय। पूँजी सहायिकी को प्रारम्भ में इकाई लागत में समायोजित करने के बजाय इसे स्थायी जमा के रूप में बैंक के पास रोक ली जाय और अन्त में बकाया एक या दो किस्तों के पुनः भुगतान (Repayment) में समायोजित कर लिया जाय।
छठी योजना में 1 करोड़ 50 लाख परिवारों को लाभ पहुंचाने का लक्ष्य था। जिसके लिए 1,500 करोड़ रु० की व्यवस्था की गई बैंकों से कहा गया कि वे चुने हुए परिवारों को ऋण के माध्यम से 3,000 करोड़ रु० उपलब्ध कराये।
सातवी योजना में 2 करोड़ परिवारों को सहायता देने का लक्ष्य रखा गया था किन्तु 1 करोड़ 82 लाख परिवारों को सहायता प्राप्त हुई जिनमें से 45 प्रतिशत अनुसूचित जाति तथा जनजाति के परिवार थे तथा 18.9 प्रतिशत स्त्रियां थीं। 1990-91 से 1993-94 तक चार वर्षों में 1 करोड़ 40 हजार परिवारों की सहायता दी गई। आठवीं योजना में इस कार्यक्रम को साख पर आधारित स्वरोजगार कार्यक्रम के रूप में देखा गया है।
NABARD, RBI तथा योजना आयोग आदि संस्थाओं ने इस योजना के मूल्यांकन किये हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि यह उचित मात्रा में स्वरोजगार अवसरों को सृजित करने में असफल रहा है।
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