सार्वजनिक व्यय के वर्गीकरण का अर्थ | अच्छे वर्गीकरण की विशेषताएँ | लोक-व्यय का वर्गीकरण
सार्वजनिक व्यय के वर्गीकरण का अर्थ
(Meaning of classification of Public Expenditure)-
लोक-व्यय के वर्गीकरण से तात्पर्य राजकीय कार्यों को क्रम से सूचीबद्ध करना है जिससे इन कार्यों के स्वभाव और इन पर होने वाले व्यय तथा इनके प्रभाव की जानकारी हो सके। निम्नलिखित तथ्य इस बात को स्पष्ट करते हैं कि सार्वजनक व्यय का वर्गीकरण आवश्यक है-
(i) सरकारी व्यय की प्रकृति तथा उनके प्रभाव जानने के लिये।
(ii) विभिन्न समयों पर सरकारी व्ययों की प्रत्येक मद का सापेक्षिक महत्व जानने के लिये।
(iii) उन मदों की क्षमता तथा मूल्यांकन करने के लिये जिन पर व्यय किया गया है।
अच्छे वर्गीकरण की विशेषताएँ-
एक अच्छे वर्गीकरण की दो विशेषतायें हैं- (i) व्ययों के विभिन्न वर्ग पृथक्-पृथक् होने चाहिये ताकि प्रत्येक वर्ग के आँकड़ों को इसी वर्ग से सम्बन्धित किया जा सके। इससे वर्गीकरण बिल्कुल यथार्थ होगा। (ii) वर्गीकरण का आधार अनिवार्य रूप से वर्गीकृत मद से सम्बन्धित होना चाहिये। इससे वर्गीकरण अधिक वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत होगा।
लोक-व्यय का वर्गीकरण
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लाभ के आधार पर वर्गीकरण-
जर्मन अर्थशास्त्री कोहन (Cohn) और अमरीकी अर्थशास्त्री प्लेहन (Plehn) ने लोक व्यय का वर्गीकरण लाभ के आधार पर किया है। उन्होंने लोक व्यय को चार भागों में बाँटा है-
(1) सामान्य लाभ के लिये व्यय- शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, नागरिक सुरक्षा आद ऐसे कार्य हैं जिनसे देश की सम्पूर्ण जनसंख्या लाभान्वित होती है।
(2) विशेष व्यक्तियों को लाभ पहुंचाने वाले व्यय-निर्धन और अच्छे विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति, सार्वजनिक उपक्रमों पर किया गया व्यय आदि से विशेष व्यक्तियों को ही लाभ पहुँचता है।
(3) कुछ लोगों को विशेष और समाज को सामान्य लाभ पहुंचाने वाला व्यय- उच्च शिक्षा, उच्च न्यायालय, पुलिस, नहरें आदि से सामान्यतः सभी वर्ग लाभ उठाते हैं परन्तु कुछ वर्गों को विशेष लाभ होता है।
(4) वर्ग विशेष को प्रत्यक्ष तथा समाज को अप्रत्यक्ष लाभ पहुँचाने वाला व्यय- सामाजिक सुरक्षा, बेकारी, बीमा, वृद्धावस्था पेंशन तथा भविष्य निधि आदि पर व्यय इस मद में आते हैं। इन मदों पर व्यय व्यक्ति विशेष को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचाता है तथा सम्पूर्ण समाज अप्रत्यक्ष रूप से लाभ उठाता है।
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आय के आधार पर वर्गीकरण-
निकलसन ने लोक व्यय का वर्गीकरण इस आधार पर किया है कि सरकार को अपनी सेवाओं के बदले आय प्राप्त होती है। इस दृष्टि से लोक व्यय को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) ऐसे व्यय जिनसे प्रत्यक्ष रूप में आय प्राप्त नहीं होती- अविकसित देशो में निःशुल्क शिक्षा पर किया गया व्यय इसी श्रेणी में आता है। कालान्तर में शिक्षा व्यक्तियों की करदान क्षमता बढ़ाकर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष आय प्रदान करने लगती है।
(2) ऐसा व्यय जो किसी प्रकार की आय प्रदान नहीं करता- युद्ध तथा असहाय व्यक्तियों पर किया गया व्यय इसी श्रेणी में आता है।
(3) ऐसा व्यय जिससे कुछ आय प्राप्त होती है- सिंचाई, सशुल्क शिक्षा, सड़कें तथा चिकित्सा आदि पर व्यय इसी श्रेणी में आता है।
(4) ऐसा व्यय जिससे पर्याप्त आय होती है- रेल, डाक व तार तथा कारखाने आदि पर व्यय इसी श्रेणी में आता है।
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कार्य के आधार पर वर्गीकरण-
यह वर्गीकरण एच.सी. एडम्स (H.C. Adams) द्वारा प्रस्तुत किया गया है, उसने सरकार द्वारा दिये गये कार्यों के आधार पर सार्वजनिक व्यय को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया है-
(1) संरक्षण व्यय- जो व्यय सेना, पुलिस तथा जेल आदि पर किया जाता है उसे संरक्षण अथवा सुरक्षात्मक व्यय कहते हैं। इन कार्यों से नागरिकों की जान व माल की सुरक्षा की जाती है।
- सार्वजनिक व्यय का अर्थ | सार्वजनिक व्यय या लोकव्यय के विभिन्न सिद्धान्त | भारत में लोक व्यय के सिद्धान्तों का पालन
- भारत में सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्त | Principles of Public Expenditure in India in Hindi
- सार्वजनिक व्यय के प्रभाव | सार्वजनिक व्यय के उत्पादन एवं वितरण पर पड़ने वाले आर्थिक प्रभाव
(2) व्यावसायिक व्यय- देश की व्यावसायिक उन्नति के लिये रेल, सड़क, बिजल आदि पर किया गया व्यय व्यावसायिक कहलाता है।
(3) विकासात्मक व्यय- समाज के विकास के लिये किया जाने वाला व्यय; जैसे- तकनीकी शिक्षा, अनुसन्धान, सार्वजनिक व्यय की व्यवस्था, सामाजिक बीमा आदि विकासात्मक व्यय कहलाता है।
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क्षेत्रीय या प्रशासनिक आधार पर वर्गीकरण-
संघात्मक शासन प्रणाली में इस वर्गीकरण को अपनाया जाता है। यह निम्न लिखित प्रकार का होता है-
(1) केन्द्रीय व्यय- जो व्यय केन्द्रीय सरकार द्वारा सम्पूर्ण समाज के लिये किये जाते हैं उन्हें केन्द्रीय व्यय कहते हैं, जैसे सुरक्षा पर व्यय।
(2) प्रान्तीय व्यय- राज्य, स्तर पर राज्य सरकार द्वारा किये जाते हैं। उन्हें प्रान्तीय व्यय कहते हैं; जैसे पुलिस, जेल न्याय तथा शिक्षा आदि पर व्यय।
(3) स्थानीय व्यय- स्थानीय संस्थाओं, जैसे नगर पालिका, जिला मण्डलों तथा पंचायतों द्वारा किये गये व्यय स्थानीय व्यय कहलाते हैं; जैसे पानी, बिजली आदि पर व्यय।
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महत्व के आधार पर वर्गीकरण-
फिण्डले शिराज (इग्र्हल ए) ने महत्व के आधार पर सार्वजनिक व्यय को दो भागों में बाँटा है जो निम्नलिखित हैं-
(i) प्राथमिक व्यय- यह व्यय नितान्त आवश्यक होता है। शिराज ने इस व्यय को चार भागों में बाँटा है-(i) सुरक्षा पर व्यय, (ii) शासन व्यवस्था पर व्यय, (iii) अनुशासन व्यवस्था पर व्यय, (iv) ऋण सम्बन्धी व्यय।
(2) गौण व्यय- जो व्यय प्राथमिक व्ययों की तुलना में कम महत्वपूर्ण होते हैं उन्हें इस श्रेणी में रखा जाता है; जैसे सामाजिक सुरक्षा पर व्यय, सार्वजनक उपक्रमों पर व्यय आदि।
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क्रय मूल्य तथा अनुदान के आधार पर वर्गीकरण-
डॉ. डॉल्टन ने लोक व्ययो का व्यय मूल्य और अनुदान के आधार पर वर्गीकरण किया है-
(1) क्रय-मूल्य- जिन सेवाओं के बदले सरकार को लाभ या प्रतिफल प्राप्त होता है वे क्रय-मूल्य कहलाते हैं; जैसे कर्मचारियों का वेतन, डाक-तार सेवा, रेलों पर व्यय का प्रतिफल आदि।
(2) अनुदान- जिन व्ययों के बदले सरकार को तत्काल कोई लाभ प्राप्त नहीं होता उन्हें अनुदान कहते हैं, जैसे पेंशन, अकाल, पीड़ितों को सहायता तथा सामाजिक सुरक्षा पर व्यय आदि।
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निश्चित तथा परिवर्तनशीलता के आधार पर वर्गीकरण-
प्रो. मेहता ने लागत के आधार लोक व्यय को दो भागों में बाँटा है-
- निश्चित अथवा अपरिवर्तनशील व्यय- वे व्यय निश्चित होते हैं तथा इनमें परिवर्तन नहीं होता; जैसे सुरक्षा व्यय। इस व्यय की लागत जनता द्वारा प्रयोग के बढ़ जाने से बढ़ती नहीं है।
- परिवर्तनशील व्यय- जो व्यय जनता के लाभार्थी किया जाता है और जिसमें जनता द्वारा जनहित के कार्यों के उपयोग में वृद्धि हो जाने से सरकारी व्यय भी बढ़ जाता है। इस प्रकार यह व्यय सेवाओं के साथ-साथ बढ़ता जाता है। उदाहरण के लिये; रेल, डाक व तार, शिक्षा, चिकित्सा तथा न्यायालयों पर व्यय आदि इस श्रेणी में आते हैं।
इस वर्गीकरण का आधार स्पष्ट करते हुए प्रो. मेहता ने कहा है कि “वर्गीकरण का आधार लोक-व की प्रकृति है। ह व्यक्तियों के वर्गों के लिये इस प्रकार का व्य है कि लोग इसकी ननियंत्रि कर भी सकते हैं या नहीं भी कर सकते। यह वित्त मन्त्री के दृष्टिकोण से भी उपयोगी है, क्योंकि वह जानना चाहता है कि वह कहाँ तक अपने अनुमान पर निर्भर रह सकता है और कहाँ तक व्यक्तियों को राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के उपयोग के निर्णय पर निर्भर करता है।”
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हस्तान्तरणशीलता के आधार पर वर्गीकरण-
प्रो. पीगू ने सार्वजनिक व्यय की दो भागों में बाँटा है-
- हस्तान्तरणशील- ऐसे व्यय जो प्रत्यक्ष रूप में जनता को हस्तान्तरित हो जाते हैं, हस्तान्तरणशील व्यय कहलाते हैं; जैसे ऋणों पर ब्याज, पेंशन, सामाजिक सुरक्षा तथा कर्मचारियों का वेतन आदि।
- अहस्तान्तरणशील व्यय-ऐसे व्यय जो जनता में प्रत्यक्ष रूप से हस्तान्तरित नहीं होते उन्हें हस्तान्तरणशील व्यय कहते हैं, जैसे नागरिक प्रशासन पर व्यय, सेवाओं पर व्यय तथा न्यायालय पर व्यय आदि।
- अनिवार्यता तथा ऐच्छिकता के आधार पर वर्गीकरण-
प्रो. मिल ने लोक व्यय को दो भागों में बाँटा है-
- अनिवार्य व्यय- जो व्यय राज्य को कानूनी प्रतिबन्धों के कारण करने पड़ते हैं वे अनिवार्य व्यय कहलाते हैं, जैसे सुरक्षा, शान्ति व्यवस्था तथा न्याय आदि पर व्यय।
- ऐच्छिक व्यय- जो व्य राज्य की इच्छा पर निर्भर करते हैं उन्हें ऐच्छिक व्यय कहते है। इन व्ययों को राज्य करना चाहे तो कर सकता है और न चाहे तो नहीं कर सकता है। इन व्ययों में परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, रेल, सड़क, उद्योग आदि पर व्यय।
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