अर्थशास्त्र

सार्वजनिक व्यय का अर्थ | सार्वजनिक व्यय या लोकव्यय के विभिन्न सिद्धान्त | भारत में लोक व्यय के सिद्धान्तों का पालन

सार्वजनिक व्यय का अर्थ | सार्वजनिक व्यय या लोकव्यय के विभिन्न सिद्धान्त | भारत में लोक व्यय के सिद्धान्तों का पालन

सार्वजनिक व्यय (लोक व्यय) का अर्थ

लोक-व्यय से आशय उस व्यय से है जो सरकार द्वारा आर्थिक, सामाजिक तथा सुरक्षा कार्यों पर किया जाता है। इसके विपरीत निजी व्यय एक व्यक्ति द्वारा अपनी और अपने परिवार की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये किया जाता है।

सार्वजनिक व्यय या लोकव्यय के विभिन्न सिद्धान्त

(1) लाभ का सिद्धान्त (Canon of benefit)- इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय की व्यवस्था इस प्रकार होनी चाहिये कि अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त हो सके। लोक व्यय का मन उद्देश्य प्रजातन्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार- “पूरे समाज के हित में होना चाहिये, इसका लाभ किसी एक या कुछ वर्गों, क्षेत्रों या व्यक्तियों तक सीमित नहीं होना चाहिये। यदि लोक व्यय निहित स्वार्थों का पोषण करता है तो वह लाभ के सिद्धान्त के अनुकूल नहीं होता।

इस सिद्धान्त की मान्यता यह है कि (i) उत्पादन में वृद्धि होनी चाहिए। (ii) उत्पादित वस्तुओं का वितरण उचित ढंग से होना चाहिये, (iii) आर्थिक विषमता और बेरोजगारी दूर होनी चाहिये, (iv) समाज को अधिकतम लाभ व सुविधा प्राप्त होनी चाहिये, (v) आन्तरिक शान्ति व व्यवस्था होनी। चाहिये, (vi) देश की बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा होनी चाहिये।

(2) मितव्ययिता का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त का मुख्य आधार यह है कि जनता द्वारा किये गये अंशदान का दुरुपयोग न हो। लोक व्यय इस प्रकार किया जाना चाहिये कि अनिवार्य राशि ही व्यय हो। यह सिद्धान्त इसलिए आवश्यक है कि प्रशासन के व्यक्ति सरकारी धन को किसी का धन नहीं समझकर लापरवाही से व्यय करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार करदाताओं से प्राप्त आय को मितव्ययितापूर्वक व्यय करना चाहिये। मितव्ययिता से आशय कृपणता से नहीं है। राज्य को न तो रुपये को खजाने में बन्द किये रहना चाहिये और न ही बिना सोचे-समझे पानी की तरह व्यर्थ में बहाना चाहिये। मितव्ययिता की नीति अपनाने से ही अधिकतम सामाजिक लाभ सम्भव हो सकता है। लोक व्यय करते समय निम्न बातों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिये-

(i) किसी मद पर आवश्यकता से अधिक व्यय नहीं करना चाहिये।

(ii) व्यय द्वारा उत्पादन शक्ति का विकास हो।

(ii) व्यय में अपव्ययिता, लापरवाही तथा अनियमितता नहीं होनी चाहिये।

(3) स्वीकृति का सिद्धांत- इस सिद्धान्त से अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक व्यय की स्वीकृति उचित अधिकारियों से प्राप्त कर ली जाये ताकि उस व्यय पर उचित नियन्त्रण बना रहे। विभिन्न विभागों के अधिकारोयं की सामान्य प्रवृत्ति आवश्यकता से अधिक व्यय करने की होती है जिसे रोकने के लिये इस सिद्धान्त को अपनाया जाता है। स्वीकृति सिद्धान्त के अनुसार यह आवश्यक है कि-(i) स्वीकृत धनराशि से अधिक व्यय न किया जाये। (ii) व्यय स्वीकृति के बाद ही उपयुक्त अधिकारी द्वारा किया जाये, (iii) व्यय का उचित रीति से हिसाब रखा जाये, (iv) व्यय की गई राशि का उचित लेखा परीक्षण किया जाये।

(4) आधिक्य का सिद्धान्त-इस सिद्धान्त से यह तात्पर्य है कि सरकार का व्यय उसकी आय से अधिक नहीं होना चाहिये अर्थात् राज्य को अपनी आय के भीतर ही व्यय करना चाहिये। फिण्डले शिराज के अनुसार, “व्यक्तिगत बजट की भाँति राज्य को भी सन्तुलित बजट की सामान्य नीति का ही पालन करना चाहिये।” परन्तु अधिकांश आधुनिक अर्थशास्त्री सामान्य परिस्थितियों में ही सन्तुलित बजट को अच्छा मानते हैं। वे मुद्रा प्रसार के समय आधिक्य के बजट का समर्थन करते हैं परन्तु मन्दी काल नियोजन काल तथा युद्ध काल में घाटे के बजट को और सामान्य परिस्थितियों में सन्तुलित बजट को उचित मानते हैं।

अन्य सिद्धान्त-

उपर्युक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त कुछ अर्थशास्त्रियों ने सार्वजनिक व्यय के निम्नलिखित सिद्धान्तों का भी उल्लेख किया है-

(1) लोच का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार लोक व्यय में पर्याप्त लोच होनी चाहिए अर्थात् लोक व्यय को घटाने बढ़ाने की क्षमता होनी चाहिये। उदाहरण के लिये, संकट या मन्दी काल में लोक-व्यय में वृद्धि करनी पड़ती है किन्तु मुद्रा-स्फीति काल में लोक व्यय करना पड़ता है। व्यय में वृद्धि करना तो आसान होता है परन्तु व्यय में कमी करना अत्यन्त कठिन होता है। अतः लोक व्यय का ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिये कि बिना कठिनाई के व्यय के कुछ भाग को कम किया जा सके। स्थायी प्रकृति के व्यय को धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये क्योंकि अस्थायी रूप से बढ़ाये गये व्यय को कम किया जा सकता है किन्तु स्थायी व्यय में कमी करने में कठिनाई होती है।

(2) उत्पादकता का सिद्धान्त (Canon of Productivity)- इस सिद्धान्त से तात्पर्य यह है कि सार्वजनिक व्यय उत्पादन में वृद्धि करने वाला हो। जिस सार्वजनिक व्यय से उत्पादन में वृद्धि होती है उसे ही उत्तम कहा जाता है। सार्वजनिक व्यय इस प्रकार किया जाना चाहिये जिससे पूँजी निर्माण में वृद्धि हो, नये-नये उद्योगों की स्थापना हो, बेरोजगारी दूर हो, उपभोग सम्बन्धी वस्तुओं का उत्पादन बढ़े तथा सामाजिक हित में वृद्धि हो। उत्पादन व्यय से अर्थ-व्यवस्था सुदृढ़ बनती है तथा जनता का रहन-सहन का स्तर ऊँचा हो जाता है।

(3) समान वितरण का सिद्धान्त (Cannon of Equitable Distribution)- इस सिद्धान्त से तात्पर्य यह है कि पिछड़े हुये वर्गों तथा अवकसित क्षेत्रों को व्यय का कुछ अधिक भाग मिलना चाहिये ताकि वे कम समय में ही विकसित क्षेत्रों के समान हो सकें। दूसरे, सार्वजनिक व्यय इस प्रकार किया जाये कि देश में धन के वितरण को असमानता दूर हो जाये। अन्य शब्दों में, सार्वजनिक व्यय गरीबों पर अधिक और धनिकों को कम होना चाहिये। इससे गरीबों की आय बढ़ेगी और धन के वितरण की असमानता दूर होगी। यह सिद्धान्त केवल उन्हीं देशों के लिये उपयुक्त है जहाँ धन के वितरण में भारी विषमता पाई जाती है।

(4) समन्वय का सिद्धान्त (Canon of Co-ordination)– इस सिद्धान्त के अनुसार सार्वजनिक व्यय का विभिन्न लोक-सत्ताओं द्वारा इस प्रकार संचालन किया जाये कि धन का दुरुपयोग न हो। संघात्मक शासन प्रणाली में केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय तीनों ही लोक सत्तायें अलग- अलग व्यय करती हैं। उनके द्वारा किये गये व्यय इस प्रकार समन्वित किये जायें कि अनावश्यक दोहराव न हो।

भारत में लोक व्यय के सिद्धान्तों का पालन

(1) लाभ (Benefit)- भारतीय व्यय प्रणाली ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ के आदर्श की पूर्ति करती है। भारतीय अर्थव्यवस्था योजना प्रधान है और पिछले 45 वर्षों में भारतीय सरकार द्वारा कृषि, उद्योग, विद्युत, परिवहन आदि के विकास पर पर्याप्त धनराशि व्यय की गई है जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्तिय आय दोनों बढ़ी है।

(2) मितव्ययिता (Economy)- भारत के लोक-व्यय में इस सिद्धान्त का पूर्णरूप  पालन नहीं होता। भारत से विदेशों में जाने वाले प्रतिनधि मण्डलों, दूतावासों तथा मन्त्रियों के यात्रा-भत्तों पर अत्यधिक व्यय किया जाता है जो मितव्ययिता के सिद्धान्त के प्रतिकूल है।

(3) स्वीकृति (Sanction)- यद्यपि देश में यह व्यवस्था है कि बिना स्वीकृति के कोई भी धनराशि व्यय नहीं की जा सकती फिर भी समय-समय पर इस नियम का उल्लंघन होता रहता है। केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार बिना स्वीकृति के ही खर्च कर देती है।

(4) घाटे के बजट (Deficit Budgets)- भारत में घाटे के बजट बनाने की प्रवृत्ति पाई जाती है जिससे देश में मुद्रा-स्फीति को प्रोत्साहन मिला है और मूल्य निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं।

(5) लोच (Elasticity)- भारतीय व्यय में इस दृष्टि से लोच है कि लोक व्यय निरन्तर बढ़ता जा रहा है। परन्तु अधिकांश व्यय इस प्रकार के हैं जिन्हें घटाना सम्भव नहीं है।

निष्कर्ष

भारतीय लोक-व्यय उत्पादक है तथा न्यायपूर्ण वितरण में भी सहायक रहा है। अधिकांश व्यय ग्रामीण तथा पिछड़े क्षेत्रों पर ही किया जा रहा है। भारत के लोक व्यय में समन्वय के सिद्धान्त का भी पालन होता है क्योंकि यहाँ केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकारों तथा स्थानीय सरकारों के व्यय के मद अलग-अलग हैं।

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Pankaja Singh

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