अर्थशास्त्र

सार्वजनिक वित्त का प्रमुख उद्देश्य (सिद्धान्त) | लोक वित्त के परम्परागत उद्देश्य | आधुनिक विचारधारा-राज्य का आधुनिक उद्देश्य या सिद्धान्त

सार्वजनिक वित्त का प्रमुख उद्देश्य (सिद्धान्त) | लोक वित्त के परम्परागत उद्देश्य | आधुनिक विचारधारा-राज्य का आधुनिक उद्देश्य या सिद्धान्त

सार्वजनिक वित्त का प्रमुख उद्देश्य (सिद्धान्त)

लोकवित्त के उद्देश्य में समय-समय पर परिवर्तन हुये हैं। इस सम्बन्ध में दो विचारधारायें हैं-(1) प्राचीन विचारधारा, (2) आधुनिक विचारधारा।

लोक वित्त के परम्परागत उद्देश्य (प्राचीन विचारधारा)

प्राचीन अर्थशास्त्री यह मानते थे कि राज्य का कार्य-क्षेत्र सीमित होना चाहिये। उनका कहना था कि कर लेना एक बुराई है तथा प्रत्येक राजकीय व्यय अनुत्पादक होता है। रिकार्डों का मत था कि “यदि तुम शान्तिमय सरकार चाहते हो तो तुम्हें बजट को कम करना होगा।” जे0बी0से के अनुसार, “अर्थ-प्रबन्ध की वही योजना सबसे उपयुक्त है जिसमें न्यूनतम व्यय किया जाता है और सब करों में वही कर सबसे अच्चा है जिसकी मात्रा सबसे कम हो।” इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये प्राचीन अर्थशास्त्रियों ने तीन सिद्धान्त प्रतिपादित किये-(1) न्यूनतम कर का सिद्धान्त, (2) न्यूनतम सामूहिक त्याग का सिद्धान्त (3) मितव्ययिता का सिद्धान्त । परन्तु वर्तमान युग में इन सिद्धान्तों को निम्नलिखित कारणों से स्वीकार नहीं किया जा सकता-

(i) सरकार द्वारा लगाये गये सभी कर बुरे नहीं होते जैसे मादक वस्तुओं पर लगाया गया कर समाज के लिये कल्याणकारी होता (ii) राज्य द्वारा किया गया सभी व्यय अनुत्पादक नहीं होता, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी तथा पेन्शन आदि पर किया गया व्यय जनता के लिये कल्याणकारी होता है। (iii) कल्याणकारी राज्य की स्थापना में मितव्ययिता सम्भव नहीं।

आधुनिक विचारधारा-राज्य का आधुनिक उद्देश्य या सिद्धान्त

अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त (Principle of Maximuin social advantage)- आज लोकवित्त का उद्देश्य समाज को अधिक से अधिक सुख-सुविधायें पहुँचाना है। इस सम्बन्ध में डाल्टन में अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। डाल्टन के अनुसार, “राजस्व की सर्वोत्तम प्रणाली वह है जिसमें राजकीय आय-व्यय सम्बन्धी कार्यो के फलस्वरूप अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त होता है।” प्रो0 पीगू ने इसे अधिकत कुल कल्याण का सिद्धान्त तथा कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों ने इसे ‘सार्वजनिक वित्त का सिद्धान्त’ का नाम दिया है।

सिद्धान्त की व्याख्या

अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त की व्याख्या करने के लिये लोकवित्त की क्रियाओं को निम्न लिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

(अ) कर और सार्वजनिक व्यय की सीमा-

(ब) प्रसाधनों का वितरण

(स) कर-भार का विवतरण

(अ) कर सार्वजनिक व्यय की सीमा-

करों और सार्वजनिक व्यय की क्या सीमा होनी चाहिये इस विषय में डाल्टन का मत है, “लोकवित्त प्रत्येक दिशा में उस सीमा तक बढ़ाना चाहिये जब तक कि व्यय से उत्पन्न होने वाला सन्तोष राज्य द्वारा लगाये गये करों से उत्पन्न होने वाले असन्तोष के बराबर न हो जाये। यही सार्वजनिक व्यय एवं सार्वजनिक आय दोनों की आदर्श सीमा है।”

यह सिद्धान्त सम सीमान्त उपयोगिता नियम तथा उपयोगिता ह्रास नियम पर आधारित है। सरकार के द्वारा आय प्राप्त करने तथा व्यय करने का परिणाम सदा ही क्रय-शक्ति का हस्तान्तरण होता है। सरकार एक पक्ष से कर तथा ऋणों के रूप में आय प्राप्त करती है और दूसरे पक्ष को (शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, पेन्शन आदि पर) धन व्यय करके हस्तान्तरित कर देती है। इस प्रकार वह समाज में धन के वितरण की असमानता को दूर करने का प्रयास करती है। अतः राज्य की नीति इस प्रकार निर्धारित होनी चाहिये कि कर के द्वारा सीमान्त सामाजिक त्याग राजकीय आय के व्यय द्वारा सीमान्त सामाजिक सन्तोष के बराबर हो तभी अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त हो सकता है। परन्तु ज्यों-ज्यों कर की मात्रा बढ़ाई जाती है, लोगों के पास द्रव्य की मात्रा घटती जाती है और कर देने वालों में असन्तोष की मात्रा बढ़ती जाती है। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों राजकीय व्यय में वृद्धि की जाती है, लोगों की द्रव्यिक आय में वृद्धि हो जाती है और लोगों के सीमान्त सन्तोष में कमी होती जाती है। अतः अधिकतम सामाजिक लाभ के अनुसार कर-मात्रा उस बिन्दु तक ही बढ़ाई जानी चाहिये जहाँ पर कर देने वालों का सीमान्त असन्तोष व्यय से प्राप्त सीमान्त सन्तोष के बराबर हो जाये। करों की मात्रा को उस सीमा से आगे बढ़ाना उचित नहीं होगा क्योंकि समाज को लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होगी।

इसे निम्नलिखित तात्रिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:-

इकाई

कर की प्रत्येक इकाई से उत्पन्न न त्याग

सार्वजनिक व्यय की प्रत्येक

इकाई से प्राप्त प्रतियोगिता

1

20

60

2

25

50

3

30

40

4

35

35

5

40

30

6

50

20

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि जैसे-जैसे कर की इकाई बढ़ाई जाती है वैसे-वैसे कर की प्रत्येक इकाई का समाज पर बोझ अधिक पड़ता है अर्थात् सीमान्त त्याग क्रमशः बढ़ता जाता है। दूसरी ओर सार्वजनिक व्यय की प्रत्येक अगली इकाई से समाज के लिये इसकी उपयोगिता पहले की अपेक्षा घटती जाती है। चौथी इकाई पर सीमान्त सामाजिक त्याग और सीमान्त सामाजिक सन्तोष समान हो जाते हैं। अर्थात् सरकार चौथी इकाई के बाद कर नहीं लगायेगी क्योंकि अगली कर की इकाई लगाने से सीमान्त त्याग की मात्रा सार्वजनिक व्यय से प्राप्त सीमान्त सन्तोष से अधिक हो जायेगी।

(ब) संसाधनों का वितरण (आय का वितरण)-

सार्वजनिक आय-व्यय की आदर्श सीमा जान लेने के बाद यह प्रश्न उठता है कि प्रसाधनों का वितरण किस प्रकार किया जाये। जिस प्रकार एक व्यक्ति अपनी आय से अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहता है उसी प्रकार राज्य भी अपने व्यय से अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करना चाहता है। व्यक्ति की भाँति राज्य भी इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये सम सीमान्त तुष्टिगुण नियम का पालन करता है। इस नियम के अनुसार राज्य की व्यय की राशि को विभिन्न मदों पर इस प्रकार व व्यय करना चाहिये कि प्रत्येक मद पर व्यय की हुई सीमान्त इकाई से समाज को मिलने वाली उपयोगिता लगभग बराबर हो।

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण-मान लो सरकार के पास व्यय करने के लिये 7 इकाइयाँ हैं और वह इन्हें शिक्षा और सुरक्षा इन दो मदों पर व्यय करना चाहती है। इन मदों पर व्यय से प्राप्त उपयोगिता निम्नांकित तालिका के अनुसार है-

सार्वजनिक व्यय की उपयोगिता

व्यय की सीमान्त उपयोगिता

इकाई

सुरक्षा

शिक्षा

1

20(1)

17 (3)

2

18(2)

14(5)

3

16(4)

12(7)

4

12(6)

8

5

8

5

6

4

2

इस तालिका से स्पष्ट है कि सरकार 7 इकाइयों में से 4 सुरक्षा पर तथा 3 शिक्षा पर व्यय करेगी क्योंकि ऐसा करने से ही प्रत्येक मद पर व्यय होने वाली सीमान्त (अन्तिम) इकाई की उपयोगिता बराबर अर्थात् 12 रहती है और कुल उपयोगिता (20 + 18+16+ 12) + (17+14 +12) = 109 के बराबर रहती है जो अधिकतम है।

(स) कर-भार का वितरण-

व्यय की विभिन्न मदों पर साधनों के वितरण का निश्चय करने के बाद यह जानना आवश्यक होता है कि करों की कुल राशि को विभिन्न करों से कैसे प्राप्त किया जाये। इस सम्बन्ध में हमें सम सीमान्त त्याग के नियम का सहारा लेना होगा। करों का भार विभिन्न स्रोतों पर इस प्रकार वितरित करना चाहिये कि प्रत्येक स्रोत का सीमान्त त्याग समान हो जाये। ऐसा करने से ही समाज द्वारा किये गये कुल त्याग की मात्रा न्यूनतम रह सकती है। प्रो० पीगू के अनुसार “न्यूतम सामूहिक त्याग के लिये करों को इस प्रकार से वितरित करना चाहिये कि द्रव्य के रूप में दिये गये द्रव्य की सीमान्त उपयोगिता सभी करदाताओं के लिये समान रहे।”

कर की सीमान्त त्याग तालिका

कर की इकाई   – सीमान्त त्याग इकाइयों में

(रु०)

1

4

9

2

6

10

3

8

11

4

10

12

5

12

13

उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण- इस तालिका से स्पष्ट है कि सरकार 6 रु0 की राशि मे से 4 रु. अ से और 2 रु० ब से वसूल करेगी क्योंकि ऐसा करने से प्रत्येक करदाता का सीमान्त त्याग बराबर रहता है और सामूहिक त्याग न्यूनतम होता है।

निष्कर्ष-

अतः हम कह सकते हैं कि “सार्वजनिक व्यय और सार्वजनिक आय का आधार भूत सिद्धान्त अधिकतम सामाजिक लाभ हैं।”

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Pankaja Singh

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