वित्तीय प्रबंधन

सामान्य अंशों का विश्लेषण | सामान्य अंशों का विश्लेषण करते समय ध्यान रखने योग्य बाते

सामान्य अंशों का विश्लेषण | सामान्य अंशों का विश्लेषण करते समय ध्यान रखने योग्य बाते | Analysis of common fractions in Hindi | Things to keep in mind when analyzing common fractions in Hindi

इक्विटी या सामान्य अंशों का विश्लेषण

(Analysis of Ordinary or Equity Shares)

सामान्य अथवा इक्विटी अंशों का विश्लेषण करते समय जिन तीन बातों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। वे हैं- नियन्त्रण, जोखिम तथा आय। निम्न पंक्तियों में इनका विवेचन किया गया है:

  1. नियन्त्रण (Control)- कम्पनी का नियन्त्रण प्रायः कुछ विशेष व्यक्तियों या उनके समूहों में केन्द्रित होता है; अंश-पूँजी के अधिकांश भाग के स्वामी होते हैं तथा इसलिए कुल मतदान शक्ति (Voting Power) का अधिकांश भाग उन्हें प्राप्त होता है। दूसरी ओर अंश-पूँजी का अल्प भाग उनके अंश-धारियों में बँटा होता है। जो प्रायः असंगठित एवं बिखरे हुए होते हैं तथा उनके हाथ में मतदान शक्ति का कम भाग होता है अतः यदि वे चाहें तो कम्पनी की मूल नीतियों में परिवर्तन नहीं कर सकते; यद्यपि अल्पमत के रुप में अपनी बात को अवश्य कह सकते हैं। फिर भी नियन्त्रणकारी व्यक्तियों या उनके समूहों के प्रभाव को समाप्त नहीं कर सकते हैं। पूँजी का विनियोग करने वाले सामान्य निवेशकों की रुचि प्रायः कम्पनी के नियन्त्रण में उतनी नहीं होती जितनी कि विनियोग में निहित जोखिम तथा विनियोग से प्राप्त होने वाली सम्भावित आय में होती हैं प्रायः वे मतदान के लिए प्राप्त प्रतिपत्र (Proxy) के आधार का भी प्रयोग तब तक नहीं करते जब तक कि नियन्त्रणकर्ता समूह की ओर से उन्हें इसके लिए प्रेरित न किया जाय। इस प्रकार कम्पनी के नियन्त्रण में सबसे अधिक रुचि उन्हीं व्यक्तियों या समूहों द्वारा ली जाती है जिन्हें मतदान शक्ति का बहुमत प्राप्त होता है।
  2. जोखिम (Risk)- पूँजी के प्रत्येक विनियोग में न्यूनाधिक मात्रा में जोखिम होता है। प्रत्येक निवेशक यह अपेक्षा करता है कि उसे न केवल विनियोजित पूँजी पर उचित आय प्राप्त होती रहे; बल्कि मूल-पूँजी भी सुरक्षित बनी रहे। जब तक कम्पनी में विनियोजित प्रत्येक रुपये का प्रतिनिधित्व समान मूल्य की सम्पत्ति द्वारा बना रहता है, मूल-पूँजी सुरक्षित बनी रहती है और जोखिम कम होता है, किन्तु यदि निरन्तर हानि होती है। तो धीरे-धीरे संचित कोषों में कमी होने होने लगती है और फिर पूँजी घटने लगती है। ऐसी स्थिति भी आ सकती है, जब कम्पनी आवश्यक देनदारियों की पूर्ति समय पर न कर सके और अवसायन (Liquidation) अनिवार्य हो जाये। अवसायन की दशा में सम्पत्ति में से अधिमान्यता अथवा पूर्वाधिकार प्राप्त देनदारियों को पहले चुकाया जाता है, जैसे सरकारी कर एवं ऋण आदि। इसके बाद अधिमान्य अंशधारियों को भुगतान किया जाता है; और फिर यदि कुछ शेष रहता है तो साधारण अंशधारियों को प्राप्त होता है। इसीलिए यह कहा जाता है कि ऐसे अंशधारी अवशिष्ट दावेदार (Residual claimants) होते हैं और इस कारण उनके जोखिम की मात्रा ऋणपत्रधारियों (Debenture holders) तथा अधिमान्य अंशधारियों (Preference Shareholder) की तुलना में अधिक होती है। इसीलिये इस पूँजी को जोखिम पूँजी (Risk Capital) की संज्ञा प्रदान की जाती

यदि अवसायन की स्थिति न भी आये तो भी आय की न्यूनता अथवा हानि का प्रतिकूल प्रभाव अंशों के बाजार मूल्यों पर पड़ेगा और इस प्रकार अंशों में निवेशित पूँजी का मूल्य गिर जायेगा। दूसरी ओर यदि कम्पनी निरन्तर प्रगति करती हुई सम्पन्नता की ओर अग्रसर होती है तो साधारण अंशधारी ही सबसे लाभपूर्ण स्थिति में होते हैं, क्योंकि व्यवसाय में लाभ के पुनर्विनियोग की मात्रा में वृद्धि के कारण स्वामिहित (Equity) में वृद्धि हो जाती है। अंशों के लेख-मूल्य एवं बाजार मूल्य बढ़ जाते हैं और इस प्रकार पूँजी अधिमूल्यन (Capital Appreciation) का लाभ उन्हें प्राप्त हो जाता है। तेजी के चक्र (Boom Period) में प्रायः ऐसा ही होता है; जबकि मन्दी के काल में साधारण अंशधारियों का जोखिम बढ़ जाता है। तेजी के समय निवेशकों का साहस ऊँचा होता है। और वे साधारण अंशों में विनियोग के जोखिम को उठाने के लिए सहर्ष तत्पर हो जाते हैं। अतः तेजी का समय (Boom Period) प्रबन्धकों द्वारा अंशों के निर्गमन के लिए अत्यन्त उपयुक्त समय माना जाता है।

(3) आय (Income)- सुरक्षा के साथ-साथ सम्भावित आय की मात्रा भी पूँजी निवेश का एक महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व होती है। जहाँ तक साधारण अंशों का प्रश्न है जोखिम का अंश मूल पूँजी के साथ-साथ आय के विषय में भी अधिक होता है, क्योंकि ऋणपत्रधारियों तथा अधिमान्य अंशधारियों को लाभ में पूर्वाधिकार प्राप्त होता हैं। फिर जो शेष बचता है उसमें से संचालक-मण्डल यदि उचित समझे तो साधारण अंशों पर लाभांश दे सकता है। इस प्रकार साधारण अंशधारी में भी अवशिष्ट दावेदार (Residual claimant) होता है। पर्याप्त आय उपार्जन क्षमता वाली कम्पनियों में प्रबन्धक प्रायः ऋणों तथा अधिमान्य अंशों का पुट देकर साधारण अंशों पर होने वाली आय की दर में वृद्धि कर लेते हैं: जैसा कि पूँजी-ढाँचे के अन्तर्गत अध्याय में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि ‘ट्रेडिंग-ऑन-इक्विटी’ (Trading on Equity) अथवा वित्तीय लीवरेज (Financial Leverage) के आधार पर सामान्य अंशों पर आय की दर को बढ़ाया जा सकता है।

यहाँ विचारणीय है कि साधारण अंशधारी कम्पनी के स्वामी होते है। और स्वामित्व के साथ जोखिम की अधिकता प्रायः निहित होती है। पर्याप्त लाभ होने पर इनकी स्थिति बहुत उत्तम होती है, किन्तु लाभ की अपर्याप्तता अथवा हानि निवेशक के रूप में इनकी स्थिति को दयनीय बना देती है; जबकि स्थिर ब्याज या लाभांश वाली प्रतिभूतियों में धन लगाने वाले व्यक्तियों पर इन उतार- चढ़ावों का तत्काल विशेष प्रभाव नही पड़ता; यद्यपि प्रगतिशील एवं सफल प्रबन्धक समुचित कोषों का निर्माण तथा एक सुदृढ़ लाभांश नीति का पालन करके सामान्य अंशों पर आय की अनिश्चितता को बहुत कुछ कम कर सकते हैं।

सामान्य अंशों पर होने वाली आय के सन्दर्भ में अनेक पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जिनका विवेचन यहाँ आवश्यक है। इनमें प्रति अंश आयु, प्रति अंश लाभांश, भुगतान अनुपात (Pay Out ration), आय ईल्ड (Earning Yield ) तथा लाभांश ईल्ड (Dividend Yield) प्रमुख हैं। इन अनुपातों के अभिप्राय एवं महत्व को निम्न उदाहरण के द्वारा भली प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:

उदाहरण:

प्रकाश उद्योग लिमिटेड में पूँजी-ढाँचे की स्थिति निम्न प्रकार थी:

 

दिसम्बर 

1994 (रुपयों में)

दिसम्बर   1995   (रुपयों में)

1. सामान्य अंश-पूँजी (पूर्णतः प्रदत्त) दस-दस रूपये के एक लाख अंश में विभक्त

10,00,000

10,00,000

2. संचित कोष   

 

25,000

3. अधिमान्य या प्रीफरेन्स अंश (7.5 प्रतिशत) सौ -सौ रूपये के दस हजार अंशों में विभक्त

10,00,000

10,00,000

4. ऋणपत्र (6 प्रतिशत)

10,00,000

10,00,000

कुल दीर्घकालीन पूँजी

30,00,000

30,25,000

ब्याज एवं कर घटाने से पूर्व कम्पनी का वार्षिक लाभ (EBIT) 2016 में 4,60,000 रुपये और 2017 में 5,10,000 रूपये था। कम्पनी स्थिर लाभांश नीति (Stable Dividend Policy) के अन्तर्गत प्रति वर्ष सामान्य अंशों पर दस प्रतिशत की दर से लाभांश घोषित करती है। कम्पनी के सामान्य अंशों का औसत बाजार मूल्य (Average market Price) सन् 2016 के अन्त में 15 रुपये प्रति अंश तथा सन् 2017 के अन्त में 18 रुपये प्रति अंश था। सुविधा के लिए निगम-कर (Corporation Tax) की दर 50 प्रतिशत मानते हुए उक्त उदाहरण में प्रति अंश आय (Earnings Per Share). प्रति अंश लाभांश (Dividend Per Share), भुगतान अनुपात (Pay Out Ratio) आदि की गणना कीजिए।

Solution

आय विवरण (Income Statement)

2016

2017

1. ब्याज एवं कर घटाने से पूर्व आय (EBIT)

4,60,000

5,10,000

2. ऋणपत्रों पर बयाज (6 प्रतिशत)

60,000

60,000

‘कर-सहित लाभ’ (Profits before Tax)

4,00,000

4,50,000

3. निगम कर (50 प्रतिशत दर)

2,00,000

2,25,000

‘कर सहित लाभ’ (Profits after Tax)

2,00,000

2,25,000

4. अधिमान्य अंशों पर लाभांश 7.5 प्रतिशत

75,000

75,000

‘अवशिष्ट लाभ’ (Residual Profits)

1,25,000

1,50,000

5. सामान्य अंशों पर घोषित लाभांश (10 प्रतिशत)

1,00,000

1,00,000

व्यवसाय में ‘प्रतिशत आय’ (Retained Earnings)

25,000

50,000

(1) प्रति अंश लाभांश (Dividend Per share or D.P.S.)

कम्पनी की नीति सामान्य अंशों पर प्रति वर्ष दस प्रतिशत लाभांश घोषित करने की रही है ताकि विभिन्न वर्षों में अवशिष्ट लाभ की मात्रा में उतार-चढ़ाव का अंशधारियों की लाभांश आय पर प्रभाव न पड़े और उन्हें अपने विनियोग पर आय के रूप में एक निश्चित धनराशि प्राप्त होती रहे। उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार दोनों वर्षों में प्रति अंश लाभांश (D.P.S.) समान अर्थात एक रुपया रहा। प्रबन्धकों के लिए सामान्य अंशों पर लाभांश देना यद्यपि अनिवार्य नही होता है; फिर भी प्रगतिशील कम्पनियों में अंशधारियों के हित में यह व्यावहारिक माना जाता है कि प्रति वर्ष एक निश्चित लाभांश घोषित किया जाय कम से कम लाभांश की इतनी दर अवश्य घोषित की जाय जितनी कि अंशधारियों द्वारा अपेक्षित है अथवा जितनी कि अन्य समान कम्पनियों में प्रचलित है। लाभांश की घोषणा कम्पनी के लिए उतनी नकद राशि निर्गम (Cash Outflow) को अनिवार्य बना देती है। यह आवश्यक नहीं कि लाभ होने पर कम्पनी की तरल स्थिति उत्तम ही हो। यदि कम्पनी के पास तरल आस्तियों की कमी है, तो भी अल्पकालीन देनदारी उत्पन्न करके नकद राशि की व्यवस्था की जाती है और घोषित लाभांश की राशि चुकायी जाती है। घोषित लाभांश चालू देनदारी (Current Liability) का रूप ग्रहण कर लेता है। सामान्यतः कुशल वित्तीय प्रबन्धक पहले से ही यह ध्यान रखते हैं कि वर्ष के अन्त में लाभांश की अदायगी के लिए कम्पनी के पास पर्याप्त तरल सम्पत्ति (Liquid Assets) हो।

(2) प्रति अंश आय (Earnings Per Share or E.P.S.)

सामान्य अंशधारियों की रुचि केवल प्रति अंश लाभांश (D.P.S.) में निहित नहीं होती बल्कि प्रति अंश आय (E.P.S.) में भी होती है, क्योंकि अवशिष्ट लाभ से लाभांश निकालने के बाद जिस शेष राशि का पुनर्विनियोग व्यवसाय में ही किया जाता है उस पर भी उनका ही स्वत्व होता है, यद्यपि यह राशि उन्हें तत्काल प्राप्त नहीं होती। व्यवसाय में प्रतिधारित (Retained) अवशिष्ट लाभ का यह भाग संचित कोष में जमा होता रहता है जिसमें से प्रबन्धक आगे चलकर सामान्य अंशधारियों को बरेनस अंशों का वितरण (उनके द्वारा धारित सामान्य अंशों के अनुपात में) कर सकते हैं। इस प्रकार सामान्य अंशधारियों का सम्बन्ध लाभांश के रूप में प्राप्त होने वाली नकद आय से ही नहीं होता बल्कि आय की उस राशि से भी होता है जो व्यवसाय में ही प्रतिधारित (Retain) की जाती है अतः किसी कम्पनी के सामान्य अंशों का विश्लेषण करते समय प्रति अंश लाभांश (D.P.S.) के साथ प्रति अंश आय (E.P.S.) पर भी विचार करना होता है। प्रति अंश आय अवशिष्ट लाभ सामान्य अंशों की कुल संख्या का भाग देकर ज्ञात की जाती है। उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार दोनों वर्षों में यह इस प्रकार थीः

E.P.S.   2016 में : 1,25,000/1,00,000 = 1.25 रुपये प्रति अंश

E.P.S.   2017 में:  1,50,000/1,00,000 = 1.50 रुपये प्रति अंश

(3) भुगतान अनुपात (Pay Out Ratio)

यह प्रति अंश आय की तुलना में प्रति अंश लाभांश का अनुपात होता है। उपर्युक्त

उदाहरण के अनुसार :

Pay Out Ratio = D.P.S x 100/E.P.S

अतः 2016 में भुगतान अनुपात = 1.00 x 100/1.25 = 1.25 = 80%

2017 में भुगतान अनुपात = 1.00 x 100/1.50 = 66.66%

‘अर्थात 2016 में अवशिष्ट लाभ के 80 प्रतिशत भाग को लाभांश के रूप में वितरित किया गया तथा शेष 20 प्रतिशत भाग को व्यवसाय में ही प्रतिधारित किया गया जबकि 2017 में अवशिष्ट लाभ के दो -तिहाई भाग को लाभांश के रूप में वितरित किया गया और व्यवसाय में प्रतिधारित आय का भाग एक तिहाई गया है। उल्लेखनीय है कि अंशों पर दस प्रतिशत लाभांश की दर को बनाये रखने के लिए कम्पनी द्वारा भुगतान अनुपात (Pay Out Ration) में सन् 2017 में परिवर्तन किया गया। इसके विपरीत, यदि प्रबन्धक वही अनुपात बनाये रखते जो पिछले वर्ष में था तो प्रति अंश लाभांश की दर दस प्रतिशत के स्थान पर बारह प्रतिशत हो जाती। अधिक लाभांश पाने से अंशधारी सन्तुष्ट अवश्य होते हैं, किन्तु अगले वर्षों में आय कम होने पर यदि उन्हें कम लाभांश दिया जाता है तो फिर वे उतने ही असन्तुष्ट भी हो जाते हैं। इसलिए स्थिर लाभांश (Stable Dividend) की नीति उत्तम रहती है। हाँ, यदि अगले वर्षों में निरन्तर उत्तम आय उपार्जन की सम्भावनाएँ स्पष्ट हो तो लाभांश की दर से प्रति वर्ष क्रमशः वृद्धि की जा सकती है।

(4) आय ईल्ड (Earning Yield)

यह प्रति अंश आय और उसके बाजार मूल्य का परस्पर सम्बन्ध है। इसे प्रति अंश आय में अंशों के औसत बाजार मूल्य का भाग देकर ज्ञात किया जाता है। उपर्युक्त उदाहरण में :

Earnings Yield = E.P.S.x100/Market Price

अतः 2016 में आय ईल्ड

1.25 × 100/15 = 8.33%

2017 में आय ईल्ड = 1.50 x 100/18 = 8.33%

इस प्रकार दोनों वर्षों में आय-ईल्ड (Earning Yield) समान रही। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पूँजी बाजार में कम्पनी के शेयर प्रति अंश आय (E.P.S.) के बारह गुने मूल्य पर बिक रहे थे, अथवा यह भी कहा जा सकता है कि आय मूल्य अनुपात (Earnings Price Ration) 1: 12 था अथवा मूल्य या आय अनुपात (Price Earnings Ratio) 12:1 था।

(5) लाभांश ईल्ड (Dividend Yield)

यह पहले कहा जा चुका है कि कम्पनी द्वारा दिये जाने वाले लाभांश की दर 10 प्रतिशत है। यह दर अंशों के सम-मूल्य पर है। यदि कोई विनियोजक से अंश खरीदता है तो उसे सम-मूल्य नहीं, बल्कि प्रचलित बाजार मूल्य चुकाना होता है। इस उदाहरण में बाजार मूल्य (Market Price) सम-मूल्य (Par Value) से अधिक है। अतः अंशों के बाजार मूल्य पर लाभांश की दर दस प्रतिशत से कम होगी, अर्थात्

Dividend Yield = D.P.S. x 100/Market Price Per Share

जो 2016 में = 1.00 x 100/15 = 6.66%

2017 में = 1.00 x 100 /18 = 5.55%

स्पष्ट है कि दो वर्षों में कम्पनी के अंशों की आय ईल्ड (Earnings Yield) तो स्थिर रही, किन्तु उनकी लाभांश ईल्ड (Dividend Yield) में कमी हो गयी। इसका कारण यह था कि पिछले वर्ष की तुलना में बाजार मूल्य में 20 प्रतिशत वृद्धि हो गयी, जबकि प्रति अंश लाभांश (D.P.S.) की मात्रा वही एक रुपया रही। यदि इस कम्पनी के अंशों के बाजार मूल्य में और अधिक वृद्धि होती है तो भविष्य में निश्चय ही आय ईल्ड (Earnings Yield) समान रहते हुए भी लाभांश ईल्ड ( Dividend Yield ) में कमी आ जायेगी, जिसका प्रभाव कालान्तर में बाजार मूल्य पर पड़े बिना न रह सकेगा। अतः प्रबन्धकों को बाजार मूल्य को बनाये रखने के लिए लाभांश ईल्ड (Dividend Yield) में वृद्धि करनी होगी और ऐसा करने के लिए उन्हें प्रति अंश लाभांश (Dividend Per Share) की मात्रा को बढ़ाना होगा।

वित्तीय प्रबंधन – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!