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सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त | रेखीय सिद्धान्त के प्रकार | सामाजिक परिवर्तन के चक्रिय सिद्धान्त

सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त | रेखीय सिद्धान्त के प्रकार | सामाजिक परिवर्तन के चक्रिय सिद्धान्त

सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त

समाज में होने वाले परिवर्तन जब निरन्तर एक ही दिशा की ओर चलते हैं तो हम उसे रेखीय परिवर्तन की संज्ञा देते हैं। ऐसे परिवर्तन से समाज जिस स्थिति में आगे बढ़ता जाता है उस स्थिति में पुनः कभी नहीं आता है। प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप घटित होने वाले समस्त परिवर्तन इसी श्रेणी में आते हैं। जैसे-जैसे उत्पादन के साधनों में परिवर्तन होता है। समाज का सम्पूर्ण ढाँचा, सामाजिक सम्बन्धों का एक नया प्रतिमान पैदा हो जाता है एवं एक नवीन सामाजिक व्यवस्था का जन्म हो जाता है। यातायात एवं संदेशवाहन के साधनों में परिवर्तन के कारण भौतिक संस्कृति में होने वाले समस्त परिवर्तन इसी श्रेणी में आते हैं। यह परिवर्तन सदा विकास की ओर होते हैं अर्थात इनमें उपयोगिता की मात्रा छिपी होती है। डार्विन एवं मेण्डल के द्वारा प्रतिपादित जीव विज्ञान के क्रमिक विकास को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। उद्विकास एवं प्रगति सम्बन्धी सिद्धान्त इसी रेखीय समाजिक परिवर्तन की कोटि में सम्मिलित किये जाते हैं।

रेखीय सिद्धान्त के प्रकार

रेखीय सिद्धान्त को विद्वानों ने दो प्रकार में बाँटा है-

(1) समरेखीय सिद्धान्त (Unilinhear Theory)-  इस सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि समाज का लक्ष्य निश्चित है और यह उसी लक्ष्य की ओर ऊर्ध्वगामी विकास करता है। यह परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है। मार्गन, टोकोफन, हैडुन, कॉम्टे ने इसी प्रकार के सिद्धान्त दिये हैं। कभी-कभी भले ही ऐसा दिखाई देता हो कि परिवर्तन को लक्ष्य से अलग करने के लिये उसके मार्ग में कुछ बाधायें आती रहती हैं, किन्तु अन्ततोगत्वा समाज को एक निश्चित लक्ष्य पर जाना है। समाज का विकास कुछ निश्चित स्तरों से गुजरता है और ये स्तर भी समाजों में एक ही क्रम में आते हैं। जैसा कि काप्टे कहते हैं। विश्व के सभी समाज पहले धार्मिक, फिर दार्शनिक, फिर वैज्ञानिक स्तरों से गुजरते हैं। आर्थिक व्यवस्था सभी समाजों में भोजन संकलित करने एवं शिकार करने, पशु-पालन एवं चारागाह तथा कृषि एवं औद्योगिक स्तरों से गुजरेगी। कला सभी समाजों में पहले प्राकृतिक (Realistic), फिर प्रतीकात्मक (Symbolic) और फिर ज्यामितीय (Geometrical) होगी। विवाह के स्तर पहले लिंग साम्यवाद, समूह विवाह, बहु-पत्नी विवाह तथा फिर एक विवाह सभी समाजों में इसी क्रम में आयेंगे। सभी संस्थाओं एवं समितियों के सम्बन्ध में उद्विकास के चरण विश्व के सभी समाजों में एक ही क्रम में पदार्पण करेंगे और प्रगति एवं सभ्यता भी इसी से मापी जा सकेगी। आज जो समाज भोजन संकलन एवं शिकार के स्तर पर है वह उन समाजों से पिछड़ा हुआ है जो कि औद्योगिक युग में है क्योंकि उसे अभी औद्योगिक युग तक जाने में दो स्तर और पार करने हैं। इस आधार पर न केवल जनजातीय समाज को पिछड़ा हुआ मानते हैं, बल्कि औद्योगीकरण में इस से कहीं आगे यूरोप अमेरिका के लोग, हमें पिछड़ा हुआ मानते हैं क्योंकि हम आज भी औद्योगीकरण का उतना विकास नहीं कर पाये हैं, और कृषि पर ही आधारित रहे हैं। सांस्कृतिक ऊँच-नीच के भाव की दृष्टि से जनजातीय संस्कृति को हम अपने से बहुत नीचा मानते हैं। विकास के चरणों के आधार पर हम यह मानते हैं कि हम तक आने के लिये इसे अभी के कई चरण पार करने हैं। इस प्रकार ये लोग यह मानते हैं कि समाज का उद्विकास निरन्तर प्रगति की ओर बढ़ रहा है।

(2) विविध रेखीय सिद्धान्त (Multilinear Theory)-  इस सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि समाज का विकास कुछ निश्चित स्तरों से होकर गुजरता है किन्तु यह निश्चित स्तर सभी समाजों में एक ही क्रम में आते-जाते हों यह आवश्यक नहीं है। कि कृषि युग में आने से पूर्व किसी समाज को पशुपालन के स्तर से गुजरना ही पड़ेगा या एक विवाही होने से पूर्व हर समाज बहुविवाही रहा होगा या एकेश्वरवाद तक आने के लिये बहुदेववाद से गुजरा ही होगा। इस प्रकार विविध रेखीय सिद्धान्त एक प्रकार से समरेखीय उद्विकास के सिद्धान्त की आलोचना के रूप में उपस्थित होता है।

रैखिक सिद्धान्त के कुछ प्रमुख समर्थकों के सिद्धान्तों की संक्षिप्त विवेचना निम्नलिखित है-

(i) ऑगस्ट कॉम्टे (Auguste Comte) – इन्होंने बौद्धिक विकास के तीन स्तर बताये हैं, जिनमें से प्रत्येक समाज गुजरता है और ये स्तर सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं-

(अ) धार्मिक अवस्था (Theological Data)

(ब) तात्विक अवस्था (Metaphysical State)

(स) वैज्ञानिक अवस्था (Positive State)

धार्मिक अवस्था जिसमें व्यक्ति सभी वस्तुओं की व्याख्या धार्मिक आधार पर ही देते हैं। दूसरी अवस्था में व्यक्ति वस्तुओं के गुणों तथा अपने अस्तित्व के बारे में थोड़ा-बहुत विचार करना आरम्भ कर देते हैं। तीसरी अवस्था में प्रघटना की व्याख्या वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर की जाती है। यद्यपि कॉम्टे द्वारा सामाजिक उद्विकासवादी नियमों की खोज के दावे, नैतिक एवं बौद्धिक विकास में सम्बन्ध तथा ज्ञान के स्तर एवं सामाजिक संरचना के सम्बन्धों को अनेक विद्वानों ने चुनौती दी है। फिर भी इनका विश्लेषण महत्वपूर्ण माना गया है। इसे सामाजिक परिवर्तन का उद्विकासवादी सिद्धान्त भी कहते हैं।

(ii) हरबर्ट स्पेंसर (Herbert Spencer)-  इन्होंने सामाजिक परिवर्तन के समरेखिक उद्विकासवादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। स्पेंसर, हैडुन तथा एपिल इत्यादि विद्वानों का यह मत है कि सामाजिक परिवर्तन एक सरल रेखा में निरन्तर आगे की ओर होता है। आज मानव तीन अवस्थाओं में से गुजर कर बना है – वन्यावस्था,बर्बर अवस्था तथा सभ्य अवस्था। परिवार के विकास को क्रमशः यौन स्वच्छन्दता, सामूहिक विवाह, मातृ-सत्तात्मक,पितृ-सत्तात्मक तथा अन्त में विवाह प्रथा से समझने का प्रयास किया गया है। आंकड़ों पर आधारित होने के कारण स्पेंसर का सिद्धान्त कॉम्टे से अधिक व्यापक माना गया है। इन्होंने प्रत्येक विशिष्ट समाज के विकास में आने वाली कठिनाइयों, विकास के लिये आकार एवं प्रकारों में भेद इत्यादि महत्वपूर्ण बातों का भी उल्लेख किया है।

(iii) एल.टी.हॉबहाउस (L.T. Hobbhouse)-  यद्यपि हॉबहाउस आगस्ट कॉम्टे तथा हरबर्ट स्पेंसर के विचारों से अत्यधिक प्रभावित था और उसने अपने सिद्धान्त में मानवशास्त्रीय एवं ऐतिहासिक ऑकड़ों का प्रयोग किया, फिर भी इन्होंने न तो स्पष्ट रूप से समाजों का वर्गीकरण किया और न ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का विश्लेषण किया। इन्होंने मानव इतिहास की बौद्धिक स्तर पर पांच अवस्थाओं की बात कही परन्तु इनके विचार अमूर्त ही रहे, वास्तविक समाजों पर इन्हें लागू नहीं किया जा सकता।

सामाजिक परिवर्तन के चक्रिय सिद्धान्त

चक्रिय सिद्धान्त के समर्थक घटनाओं की पुनरावृत्ति में विश्वास करते हैं। इनका मत है कि सामाजिक जीवन में घटनायें एक क्रम (चक्र) में घटित होती है। एक अवस्था कुछ दिन रहती है फिर उसके स्थान पर एक नयी अवस्था पैदा होती है और जब वह अवस्था भी पुरानी हो जाती है तो फिर वही पहले वाली व्यवस्था पुनः स्थापित हो जाती है। भारतीय दर्शन में कर्म-फल का सिद्धान्त जिस प्रकार चक्रवत चलता है, कर्म-फल। उसी प्रकार सामाजिक जीवन में भी घटनाओं की पुनरावृत्ति हुआ करती है। चक्रीय परिवर्तन को दो प्रमुख भागों में विभक्त करके और भी स्पष्ट रूप में समझाया जा सकता है। (1) अर्धचक्र सिद्धान्त, (2) पूर्ण चक्र सिद्धान्त।

(1) अर्धचक्रीय सिद्धान्त- अर्धचक्रीय सिद्धान्त के अनुसार घटनायें एक घड़ी के पेण्डुलम (Pendulam) की भांति एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ती हैं और चरम सीमा पर पहुंचने के बाद पुनः विपरीत दिशा की ओर बढ़ना शुरू करती है तथा पुनः एक निश्चित सीमा पर पहुंचने के पश्चात विपरीत दिशा की ओर बढ़ती हैं। इस प्रकार घटनाओं में एक विशेष प्रकार का उतार-चढ़ाव पाया जाता है जैसे रात और दिन का क्रम अथवा जन्म मृत्यु का क्रम।

(2) पूर्ण चक्रीय सिद्धान्त- पूर्ण चक्र से हमारा आशय घटनाओं के क्रमिक परिवर्तन से जबकि घटनायें विभिन्न स्तरों को प्राप्त करती हुई पुनः उसी स्तर पर पहुँचती हैं। जैसे सम्पूर्ण पृथ्वी का भ्रमण करने वाला व्यक्ति जिस बिन्दु से चलता है विभिन्न स्थानों पर घुमता हुआ अन्त में उसी स्थान पर पुनः पहुंच जाता है। इसी प्रकार ऋतुओं में होने वाला परिवर्तन भी पूर्ण चक्र का सबसे सुन्दर उदाहरण है। जाड़ा,गर्मी एवं बरसात अपने क्रम में चक्रवत आया करते हैं। ऐसा नहीं होता है कि जाड़े के बाद वर्षा आ जाय या गर्मी के बाद पुनः जाड़ा। यह तो प्राकृतिक नियम है और ऋतु परिवर्तन इसी क्रम में घटित होता है।

अब हम चक्रीय परिवर्तन के प्रमुख विचारकों एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों की व्याख्या करेंगे।

स्पेंगुलर का सिद्धान्त (Theory of Spengular)-  स्पेंगुलर ने सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में चक्रीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। आपने अपनी पुस्तक (The Decline of the West) में यह बताया कि संस्कृतियों की तुलना हम ऋतुओं से कर सकते हैं। जिस प्रकार मौसम में जाड़ा, गर्मी एवं बरतास का एक निरन्तर क्रम चला करता है उसी प्रकार संस्कृतियाँ भी एक चक्र के रूप में गतिमान बनी रहती हैं। संस्कृतियों का जन्म, विकास एवं पतन चक्रवत चला करता है। आपने विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का अध्ययन किया तथा उनमें होने वाले परिवर्तनों को एक पहिये के भाँति निरन्तर घूमते हुए अर्थात् एक के बाद एक स्तर पार कर उसी स्थान पर आते पाया। आपने बताया कि आदिमकाल का जंगली व्यक्ति किसी प्रकार की संस्कृति का अधिकारी नहीं था। मानव शरीर के रूप में संस्कृतियों का जन्म होता है किशोरावस्था आती है, युवावस्था आती है तथा वृद्धावस्था के साथ विघटन एवं विनाश की प्रक्रिया चला करती है। अपने समाज के उत्थान की चरम सीमा को संस्कृति कहा एवं पतनावस्था को सभ्यता के नाम से सम्बोधित किया है। आपने इसी सिद्धान्त के आधार पर विभिन्न सम्यताओं के पतन की भविष्यवाणी की है क्योंकि वे सभ्यता के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुकी हैं। अमेरिकन सभ्यता इनमें से एक है। इसी आधार पर स्पेगुलर रेखीय सिद्धान्त के कटु आलोचक माने जाते हैं।

चैपिन का सिद्धान्त (Theory or Chupin)-  चैपिन ने भी चक्रीय सिद्धान्त का समर्थन किया है। आपका विचार है कि समाज में अनेक संस्थाओं का योग है। ये सभी आपस में निकट रूप से सम्बन्धित हैं। यदि संस्थायें विकास विकास के मार्ग पर हैं, एकीकृत एवं संगठित रहती हैं तो संस्कृति का विकास होता है। इसके विपरीत यदि विभिन्न संस्थायें अवनति की ओर उन्मुख होती हैं तो संस्कृति का पतन होता है। विभिन्न संस्थाओं में यदि सामंजस्य रहता है तो सामाजिक एकता कायम रहती है और समाज विकसित होता है। आपने मानव जीवन के जन्म, विकास एवं मृत्यु सिद्धान्त को संस्कृति पर भी लागू किया। उदाहरणार्थ यदि परिवार, राज्य एवं अन्य संस्थायें जबतक एक-दूसरे से सामंजस्य स्थापित कर विकसित होती रहती हैं, विकास होता रहता है और जैसे ही विभिन्न अंग पतनोन्मुख होते हैं, सांस्कृतिक विनाश की सम्भावना बढ़ने लगती है।

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Pankaja Singh

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