इतिहास

सामाजिक आन्दोलन तथा सुधार | उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के सामाजिक आन्दोलन तथा सुधार

सामाजिक आन्दोलन तथा सुधार | उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के सामाजिक आन्दोलन तथा सुधार

सामाजिक आन्दोलन तथा सुधार

भारत में सदैव से ही धर्म और समाज के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहा है। 1 9वीं शताब्दी में धार्मिक पुनर्जागरण के प्रणेताओं ने धर्म के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में भी गहरा परिवर्तन किया। इस समय के सामाजिक सुधारकों का लक्ष्य था-आधुनिक ज्ञान और विचार के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करना। मोटे तौर पर हम तत्कालीन धार्मिक पुनर्जागरण को सामाजिक आन्दोलनों तथा सुधारों की भूमिका मान सकते हैं।

अधिकांश सामाजिक दोष एवं कुरीतियाँ धर्म के अंग बन गये थे। इस सन्दर्भ में ब्रह्मसमाज, प्रार्थना-समाज, आर्य-समाज आदि धर्म सुधार आन्दोलन भी थे। इन आन्दोलनों के कारण पूर्व प्रचलित सामाजिक कुरीतियों के प्रति लोगों में घृणा उत्पन्न होने लगी थी और लोग इन बंधनों को तोड़ने लगे थे। सती-प्रथा आदि कुप्रथाओं के विरुद्ध कानून बन गये थे। विदेश यात्रा को भी धर्म-विरुद्ध नहीं समझा जाने लगा तथा छुआछूत और स्त्रियों की दशा सुधारने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाये गये।

अस्पृश्यता का निवारण

उत्तर वैदिक काल में हिन्दू जाति चार वर्षों में विभाजित हो गयी थी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । अन्य तीन वर्ण वाले लोग शूद्रों को अछूत समझते थे। दक्षिण भारत में तो ब्राह्मण उनकी छाया को भी अपवित्र मानते थे। अछूतों का मन्दिर में प्रवेश वर्जित था तथा वे सार्वजनिक कुएँ से पानी नहीं भर सकते थे। उनकी बस्तियाँ शहर के बाहर अथवा अन्य लोगों से होती थीं। अछूतों के साथ, जिनकी संख्या समस्त आबादी का पाँचवाँ भाग थी, सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अमानवीय व्यवहार किया जाता था। महाराष्ट्र और दक्षिण में इनकी दशा विशेष दयनीय थी। 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में कई विचारकों एवं संतों ने इस प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन किये।

19वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, महात्मा ज्योतिबा, फूले आदि ने इस प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन किया लेकिन अधिकांश सवर्ण हिन्दुओं का हृदय नहीं पसीजा । डाक्टर अम्बेडकर को प्रकांड विद्वान् होते हुए भी अछूत जाति का होने के कारण सवर्ण हिन्दुओं के हाथों काफी अपमान सहने पड़े। उन्होंने इस प्रथा का अंत करने में अछूतों का नेतृत्व किया। वर्तमान शताब्दी में महात्मा गाँधी ने इस प्रथा के विरुद्ध समस्त देश में एक व्यापक आन्दोलन चलाया। उन्होंने अछूतों को हरिजन की संज्ञा दी और इनके परिणामस्वरूप देश में अनेक स्थानों पर हरिजनों ने मन्दिरों में प्रवेश किया तथा उनको कुएं से पानी भरने आदि की सुविधाएं प्राप्त हुईं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् न केवल इनको सबके समान संवैधानिक अधिकार प्राप्त हुए बल्कि इनके विकास हेतु सरकारी नौकरियों में कुछ स्थान सुरक्षित रखे गये। शिक्षा प्राप्त करने हेतु स्कालरशिप अथवा अन्य सहायता का प्रावधान रखा गया। क्योंकि अभी तक अछूत जाति के लोग सवर्णों की अपेक्षा पिछड़े हुये हैं। इन सुविधाओं के दसवर्षीय काल को दो बार बढ़ाया जा चुका है।

स्त्रियों की दशा में सुधार

आधुनिक काल के प्रारम्भिक चरणों में भारतीय नारी का प्राचीन गौरव केवल अस्त हो नहीं अपितु विस्मृत हो चुका था। इस समय में नारियों की प्रमुख सामाजिक समस्याएँ (1) सती प्रथा, (2) बाल विवाह, (3) अशिक्षा, (4) बहु पलीकता, (5) पर्दे की प्रथा, (6) सम्पत्ति के अधिकार से वंचित रहना आदि थीं।

19वीं शताब्दी में जब राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द आदि के द्वारा सुधार आन्दोलन हुए उनके परिणामस्वरूप स्त्रियों की दशा में भी सुधार हुआ। सन् 1829 ई० में गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक द्वारा सती प्रथा का अंत कर दिया गया था। 1829ई० मे विधवा विवाह वैध घोषित हो गया था। महाराष्ट्र के महर्षि कर्वे ने स्वयं एक विधवा से विवाह करके समाज के सम्मुख एक आदर्श एवं साहसी उदाहरण प्रस्तुत किया। 1856 ई० के कानून द्वारा दस वर्ष से कम अवस्था वाली लड़कियों का विवाह कानूनन वर्जित कर दिया गया तथा आगे चलकर 1930 ई० में शारदा एक्ट द्वारा लड़के और लड़कियों की न्यूनतम विवाह योग्य आयु क्रमशः 11 और 14 वर्ष निर्धारित की गई।

लेकिन स्त्रियों का जागरण आन्दोलन उन्हें आत्मनिर्भर बनाये बिना सार्थक नहीं गिना जा सकता और बिना शिक्षा के यह आत्मनिर्भरता संभव नहीं है। 19वीं शताब्दी में ईसाई मिशनरियों द्वारा स्त्री-शिक्षा की ओर ध्यान दिया गया। उनके अतिरिक्त राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि समाज-सुधारकों ने भी स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया। आर्य-समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी तथा सर्वेन्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी आदि संस्थाओं द्वारा स्त्री शिक्षा को खूब प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। 1907 ई० में इण्डियन वीमेन्स एसोसियेशन की स्थापना के पश्चात् स्त्री-शिक्षा का और भी अधिक प्रसार हुआ। सन् 1926 में अखिल भारतीय महिला परिषद् की स्थापना हुई जो आज भी स्त्री शिक्षा के प्रसार की देखरेख करती है। स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में महर्षि कर्वे का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में किये गये प्रशंसनीय कार्य के लिये भारत सरकार ने उनको ‘भारतरत्न’ की उपाधि देकर सम्मानित किया है। इसका अनुकरण समस्त भारत में हुआ और बहुसंख्यक महिलाओं ने स्कूलों व कालेजों में प्रवेश लिया तथा चिकित्सा एवं नर्सिंग विद्या का अध्ययन किया। महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आन्दोलन में लाखों महिलाओं ने प्रथम बार निकलकर सक्रिय भाग लिया तथा जेलों में गईं। पर्दे की प्रथा एक भूतकाल की बात हो गई। 1917 ई० में स्त्रियों ने राजनीतिक अधिकारों की मांग की और इसके परिणामस्वरूप उनको प्रान्तीय धारासभाओं में वोट देने का अधिकार प्राप्त हो गया। 1926 ई० में उनको धारासभा का सदस्य बनने का अधिकार प्राप्त हुआ। सन् 1935 ई० के एक्ट के द्वारा उनको केन्द्रीय सभा में भी स्थान मिल गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ-साथ स्त्रियों का मुक्ति आन्दोलन भी समाप्त हुआ क्योंकि भारतीय संविधान में उनको पुरुषों के समान सब अधिकार दिये गये हैं। इतना ही नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत में स्त्रियों को उच्च एवं महत्वशील पद दिए गये। सरोजनी नायडू एक राज्य की राज्यपाल नियुक्त की गईं, राजकुमारी अमृत कौर को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में लिया गया, विजयलक्ष्मी पंडित को प्रमुख विदेशी राज्यों में दूत बनाकर भेजा गया तथा श्रीमती इंदिरा गांधी ने प्रधान मन्त्री की हैसियत में सारे देश का नेतृत्व किया। सन् 1956 क रक्ट द्वारा स्त्रियों को पैतृक संपत्ति का अधिकार प्राप्त हो गया तथा कई राज्यों ने पुरुष के लिये एक स्त्री रहते दूसरी स्त्री से विवाह करना वर्जित कर दिया है।

संसद में प्रस्तुत एक विधेयक के अनुसार अब स्त्रियों को पुरुषों के समान ‘समान कार्य के लिये समान वेतन’ का प्रावधान है। अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के उपलक्ष्य में स्त्रियों की दशा को उन्नत करने के लिये अन्य प्रयत्न भी किये जा रहे हैं।

दास प्रथा का अन्त

अनेक प्रमाणों से विदित होता है कि 18वीं शताब्दी में दास प्रथा प्रचलित थी। अंग्रेजों ने इस प्रथा का उन्मूलन करने के लिये 1 81 1 ई० में दासों का आयात करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 183 2 ई० में दासों को एक जनपद से दूसरे जनपद में ले जाने पर प्रतिबन्ध लगाया गया तथा 1841 ई० तथा 1860 ई० में दास प्रथा को नियम विरुद्ध घोषित किया गया। 19वीं शताब्दी के समाज सुधार आन्दोलनों द्वारा इस प्रथा का समूल नाश कर दिया गया।

बाल वध का उन्मूलन

19वीं शताब्दी के सामाजिक सुधारों द्वारा बाल वध का भी उन्मूलन कर दिया। इस दिशा में लार्ड विलियम बैंटिक, विल्किसन विलोवी तथा मैलविले आदि ने सराहनीय प्रयास किये थे।

निष्कर्ष

19वीं तथा 20 शताब्दी के सामाजिक आन्दोलनों द्वारा समाज का आधुनिकीकरण हुआ। भारत की प्रगति में बाधा स्वरूप खड़ी होने वाली सामाजिक परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करके भारतीय समाज सुधारकों ने अथक प्रयत्न किये तथा समाज को गतिशीलता, निरन्तरता तथा नैतिकता के मार्ग पर अग्रसर किया।

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Pankaja Singh

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