सामाजिक आन्दोलन | सामाजिक आन्दोलन के कुछ प्रमुख प्रकार | सामान्य सामाजिक आन्दोलनों की विशेषताएँ | सुधारवादी एवं क्रांतिकारी सामाजिक आन्दोलनों में अन्तर | प्रतिक्रियावादी सामाजिक आंदोलन | अवरोध सामाजिक आन्दोलन | पुनरुत्थान सामाजिक आन्दोलन | पुनर्शक्ति सामाजिक आन्दोलन
सामाजिक आन्दोलन
सामाजिक आन्दोलन एक विस्तृत अवधारणा (Wider Concept) है जो कि सम्पूर्ण सामाजिक जीवन से सम्बन्धित होता है। इस सम्पूर्ण सामाजिक जीवन के विभिन्न अंग हैं धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक, इत्यादि। सामाजिक आन्दोलन इनमें से किसी भी पक्ष से सम्बन्धित हो सकता है और इसी आधार पर सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख किया जा सकता है। उदाहरण के लिए आन्दोलन शैक्षिक जीवन से सम्बन्धित है और राम-जन्म-भूमि, बाबरी मस्जिद आन्दोलन हमारे धार्मिक जीवन में, यद्यपि इसे अब राजनैतिक रंग में रंग दिया गया है।
सामाजिक आन्दोलन के कुछ प्रमुख प्रकार
सामाजिक आन्दोलन के कुछ प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-
(1) (अ) सामान्य सामाजिक आन्दोलन (General Social Movement)- सामान्य सामाजिक आन्दोलन से तात्पर्य ऐसे आन्दोलनों से है जैसे श्रमिक आन्दोलन, युवक आन्दोलन, महिला आन्दोलन एवं शान्ति आन्दोलन। इस प्रकार के आन्दोलनों की पृष्ठभूमि में ऐसे मूल्य होते हैं जिनमें धीरे-धीरे व्यापक रूप में परिवर्तन आते रहते हैं। इन परिवर्तनों को हम सांस्कृतिक परिवर्तन (Cultural Change) कह सकते हैं। इस प्रकार के सांस्कृतिक परिवर्तन (Cultural Change) व्यक्तियों के विचारों में होने वाले परिवर्तनों की ओर सेत करते हैं। विशेष रूप से यह उन अवधाणाओं में परिवर्तन को बतलाते हैं जो व्यक्तियों को स्वयं अपने और अपने अधिकारों तथा विशेष सुविधाओं के विषय में होती हैं।
वास्तव में, कालान्तर में, अनेक व्यक्ति अपनी इच्छाओं एवं अपेक्षाओं के आधार पर अपना एक नवीन दृष्टिकोण (New Outlook) ही विकसित कर लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप मूल्यों की एक नई व्यवस्था (New Sysem of Values) उत्पन्न हो जाती है। मूल्यों की यह नई व्यवस्था जीवन के प्रति उनके समस्त दृष्टिकोण को प्रभावित करती है। चूँकि इन मूल्यों का सम्बन्ध सांस्कृतिक जीवन (Cultural Life) से होता है। इसलिए इन मूल्यों को स्थापित करने के लिए जिस प्रकार की संगठित अभिव्यक्ति की जाती है उसे ही सांस्कृतिक आन्दोलन (Cultural Movement) समझा जा सकता है। इस प्रकार स्वास्थ्य के मूल्यों में वृद्धि, निःशुल्क शिक्षा में विश्वास,मताधिकार का विस्तार, स्त्रियों की स्वतन्त्रता, बच्चों की अधिक देखभाल, विज्ञान की प्रतिष्ठा में वृद्धि आदि। सांस्कृतिक आन्दोलन (Cultural Movement) के स्वरूप कहे जा सकते हैं।
इन्हें सामान्य सामाजिक आन्दोलन इसलिए कहते हैं क्योंकि इन नवीन सांस्कृतिक मूल्यो की स्थापना के द्वारा जिन परिवर्तनों को समाज में लाने का प्रयत्न किया जाता है वे सामान्य रुचि के होते हैं, किसी एक विशेष समूह के हित से सम्बन्धित नहीं होते। सामान्य सामाजिक आन्दोलन के सम्बन्ध में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जिन नवीन मूल्यों का विकास सांस्कृतिक परिवर्तनों के द्वारा होता है उनके साथ कुछ महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक परिवर्तन जुड़े होते हैं। सामान्यरूप से यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति अपने विषय में कुछ ऐसे विचारों को विकसित कर लेते हैं जो वास्तविक जीवन (Real Life) में उन स्थितियों या पदों से सम्बन्धित नहीं होते जिन्हें व्यक्ति उस समय ग्रहण किए होते हैं। यह नये विचार अस्पष्ट (Value) एवं अनिश्चितता (Indefinite) होते हैं। इसीलिए इनकी प्रतिक्रिया स्वरूप जो व्यवहार होता है वह भी अनिश्चित और किसी निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु नहीं होता।
(ब) सामान्य सामाजिक आन्दोलनों की विशेषताएँ
सामान्य सामाजिक आन्दोलन असंगठित (Organised)) प्रकार के प्रयास होते हैं। इनकी केवल एक सामान्य दिशा होती है जिसकी ओर यह धीमी गति से रुक-रूक कर, निरन्तर रूप से बढ़ते रहते हैं। असंगठित प्रकार के होने के कारण इस प्रकार के आन्दोलनों का कोई ठोस नेतृत्व नहीं होता। इनकी सदस्यता भी स्पष्ट नहीं होती। इनको न कोई निर्देशित करने वाला होता है और न नियनत्रित करने वाला ही। महिला आन्दोलनों में यह सभी विशेषताएँ सरलता से देखी जा सकती हैं।
(2) विशेष सामाजिक आन्दोलन (Specific Social Movement)- विशेष प्रकार के सामाजिक आन्दोलन वे होते हैं जिनका कोई सुनिश्चित उद्देश्य अथवा लक्ष्य (Definite) होता है और जिसको इनके द्वारा प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। इस प्रयास में इनका एक संगठन और ढ़ांचा विकसित हो जाता है, जो इसको आवश्यक रूप से एक समाज का स्वरूप प्रदान करता है। इस प्रकार के आन्दोलन में एक स्पष्ट एवं स्वीकृत नेतृत्व का विकास होता है। इसकी सदस्यता निश्चित होती है। इसके सदस्यों में ‘हम-भावना’ (We Feeling) पाई जाती है।
इसकी कुछ परम्पराएँ,मूल्य,नियम बन जाते हैं जो एक दर्शन को व्यक्त करते हैं। इसके सदस्यों में एक प्रकार की आकांक्षाएं विकसित हो जाती हैं। इसके सदस्य अपना एक गुट बनाकर उसके प्रति निष्ठावान होते हैं। इसके अन्तर्गत ‘श्रम विभाजन’ की एक व्यवस्था विकसित हो जाती है। जो ऐसी सामाजिक संरचना के समान होती है। जिसमें व्यक्तियों के निश्चित पद होते हैं। इस प्रकार इसके सदस्यों का व्यक्ति एक निश्चित स्वरूप में ढल जाता है, तथा उनके अपने विषय में कुछ विचार विकसित हो जाते हैं। सुधार आन्दोलन एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन इस प्रकार के आन्दोलनों के उदाहरण हैं। विशेष प्रकार के सामाजिक आन्दोलन की संरचना एवं संगठन पहले से ही विकसित नहीं होती बल्कि इनके जीवन काल में विकसित होते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में, इस प्रकार के आन्दोलन ढीले-ढीले होने के साथ-साथ उत्तेजित व्यवहार के परिणाम होते हैं। इनका कोई स्पष्ट प्रयोजन नहीं होता, इनका व्यवहार एवं सोचने-विचारने की रीति मुख्यतः बेचैनी तथा सामूहिक उत्तेजना के अधीन होती है। यह आन्दोलन धीरे-धीरे जब और विकसित होते हैं तब संगठित, ठोस तथा नियमित रूप से ढलने लगते हैं।
इस प्रकार इनके विकास में अनेक अवस्थाएँ देखी जा सकती हैं। डॉसन तथा गेटिस ने ऐसी चार अवस्थाओं की चर्चा की है-
(1) सामाजिक असन्तोष (Social Unrest), (2) जन-उत्तेजना (Populate Excitement), (3) स्वरूपीकरण (Formalization) तथा (4) संस्थाकरण (Institutionalization) |
हर्बर्ट ब्लूमर के अनुसार इस प्रकार के आन्दोलन पाँच प्रकार से विकसित होते हैं-
(1) उत्तेजना (Agitation), (2) संघ-भाव का विकास (Development of Espiritde- Corps), (3) मनोबल का विकास (Development of Morale), (4) वैचारिक निर्माण होना (Formation of an Ideology) (5) संचालन युक्ति का विकास।
(3) सामाजिक सुधार आन्दोलन (Social Reform Movement) : विल्किन्सन के अनुसार, “सुधारवादी विद्रोह तथा दबाव समूह अभियान में सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों का सम्पूर्ण तिरस्कार निहित नहीं होता है। आवश्यक रूप से वे विद्यमान संरचना में लघु या आंशिक अभियोजना से सम्बद्ध होते हैं।………………सुधारवादी कह सकते हैं कि नीति विशेष या नियम अन्य अधिक महत्वपूर्ण मूल्यों से संघर्षरत हैं। उनकी अधिकारोक्ति होती है कि समाज के कुछ निश्चित भाव कुछ नीतियों से बुरी तरह प्रभावित तथा उसके शिकार हैं। कभी-कभी इसमें राजनैतिक नेताओं के प्रति द्वेषपूर्ण भाव भी निहित होता है। तथापि सामान्यतः सरकार के प्रति अधिक अच्छी धारणा बनी रहती है तथा सुधारक अपनी शिकायतें एवं माँगें अधिक संयत शब्दों में प्रस्तुत करते हैं जिससे सुधार के कार्य का मूर्त लाभ लिया जा सके।”
(4) क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन (Revolutionary Social Movement) : प्रारम्भिक काल में क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रायः सुधार आन्दोलनों (Reform Movement) के समान ही हैं, हाँ वह अशान्ति जो इन्हें उत्पन्न करती हैं कहीं अधिक विस्तृत और व्यापक होती है। जो इस प्रकार के आन्दोलनों में भाग लेते हैं उनमें समाज में व्याप्त शक्ति एवं प्रमुख परम्पराओं का विरोध करने की तीव्रता बहुत अधिक होती है। क्रान्तिकारी आन्दोलन हमेशा सरकार के विरुद्ध होते हैं। इनमें लगभग युद्ध (War) के समान प्रवृत्ति होती है। इनमें राजनीतिक सत्ताधारियों के विरुद्ध असन्तुष्ट तत्वों का संघर्ष पाया जाता है। क्योंकि इसकी प्रकृति युद्ध जैसी होती है इसलिए उनमें हिंसा का प्रयोग करने में संकोच नहीं किया जाता है। किन्तु हिंसा का प्रयोग सदैव ही किया जाना आवश्यक नहीं होता। रक्तहीन क्रान्ति (Bloodless Revolution) के अनेक उदाहरण इतिहास में मिलते हैं। इन उदाहरणों में सत्ताधारी समूह ने स्वेच्छा से क्रान्तिकारी समूह को शक्ति सौंपी है और आन्दोलन को आगे बढ़ने से रोक दिया।
परन्तु जब क्रान्तिकारी आन्दोलनों में हिंसा (Violence) का प्रयोग किया जाता है तब इसका स्वरूप साधारण उत्तेजक भीड़ की हिंसात्मक क्रियाओं से लेकर सैनिक कार्यवाही तक विस्तृत हो सकता है। जैसा कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के गृह युद्ध (Home war) अथवा सन् 1935-39 की स्पेन की क्रान्ति में हुआ है। हिंसा के अतिरिक्त एक क्रान्तिकारी आन्दोलन में अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु अन्य साधनों का प्रयोग किया जाता है, जैसे, नारेबाजी, कट्टर और कुशल नेतृत्व,सार्वजनिक भाषणबाजी, जनसंचार के साधनों का प्रयोग, घोषणा पत्रों का निर्माण, जटिल वैचारिक का निर्माण आदि।
एडवडर्स एवं ब्रिण्टन ने स्वतन्त्र रूप से एक क्रान्तिकारी आन्दोलन की विभिन्न अवस्थाओं का एक योजना-सूत्र तैयार किया है जिसको गैरो (Garrow) ने निम्न प्रकार व्यक्त किया है-
क्रान्तियाँ चेतन रूप से आयोजित निम्न विशेष अवस्थाओं के द्वारा विकसित होती हैं-
(1) अशान्ति, (2) बुद्धिजीवियों का अपसरण, (3) किसी आर्थिक लाभ अथवा सामाजिक मिथ्या विचार का प्रादुर्भाव, (4) विस्फोट, (5) मध्य मार्गियों का शासन, (6) उग्रवादियों का उदय, (7) आतंक छा जाना तथा, (8) सामान्य स्थिति का लौटना एवं इसकी प्रतिक्रिया होना।
सुधारवादी एवं क्रांतिकारी सामाजिक आन्दोलनों में अन्तर
सुधारवादी एवं क्रान्तिकारी आन्दोलनों में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-
(1) उद्देश्यों में अन्तर (Difference in Aims)- सुधारवादी एवं क्रान्तिकारी आन्दोलनों में इनके उद्देश्यों के आधार पर अन्तर पाया जाता है। एक सुधारवादी आन्दोलन विद्यमान सामाजिक व्यवस्था के एक विशेष पक्ष में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिये इसका उद्देश्य बाल-श्रम को समाप्त करना या मदिरापान पर निषेध लगाना हो सकता है। किन्तु एक क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्देश्य बहुत विस्तृत होता है। इसमें सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का ही पुनर्निर्माण करने का उद्देश्य होता है।
(2) रुढ़ियों को स्वीकार करने अथवा उनका विरोध करने का अंतर (Difference in Acceptance and Opposition of Morals)- सुधारवादी आन्दोलन का उद्देश्य सीमित होता है अतः विद्यमान सामाजिक व्यवस्था की रुढ़ियों को स्वीकार कर लिया जाता है। इनके द्वारा ही उन सामाजिक कुरीतियों की आलोचना की जाती है जिनको इस प्रकार के आन्दोलनों द्वारा बदलने का प्रयास किया जाता है। इस रूप में इसके नैतिक औचित्य पर किसी प्रकार का आक्रमण नहीं किया जा सकता। इस प्रकार के आन्दोलनों की यदि आलोचना की जाती है तो केवल इसके नेताओं के विचारों के काल्पनिक होने के कारण ही की जाती है। इसके विपरीत क्रान्तिकारी आन्दोलन हमेशा विद्यमान रूढ़ियों पर प्रहार करता है एवं नैतिक मूल्यों की एक नयी योजना प्रस्तावित करता है। इस कारण विद्यमान रूढ़ियों के आधार पर इनकी तीव्र आलोचना की जाती है।
(3) कार्य विधि में अन्तर (Difference in Working Method)- सुधावादी एवं क्रान्तिकारी आन्दोलनों की कार्य विधि में भी अन्तर देखने को मिलता है। एक सुधारवादी आन्दोलन ऐसे जनमत को विकसित करने का प्रयास करता है जो इसके उद्देश्यों के अनुकूल होता है। परिणामतः यह किसी सार्वजनिक समस्या को उत्पन्न करता है और उसे सम्बन्धित वाद- विवाद को प्रोत्साहित करता है। सुधारवादी दल एक प्रकार से विरोधी दल का कार्य करता है, जिसका वे सभी हित-समूह विरोध करते हैं जो बड़ी संख्या में निष्क्रिय जनसंख्या से घिरे होते हैं। सुधारवादी आन्दोलन अपना उद्देश्य इस उदासीन जनसंख्या तक पहुंचाकर उसका समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करता है। इसके विपरीत क्रान्तिकारी आन्दोलन जनमत का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास नहीं करता। यह व्यक्तियों को अपनी विचारधारा के अनुरूप ढालने के लिये प्रयत्नशील रहता है। इस रूप में यह धर्म के समान कार्य करता है।
प्रतिक्रियावादी सामाजिक आंदोलन
इस आन्दोलन की उत्पत्ति किसी न किसी प्रकार के संरचनात्मक तनावों (Structural Tensions) से होती है। उदाहरणार्थ पेटेल सत्ता का फ्रांसीसियों द्वारा किया जाने वाला प्रतिरोध। प्रतिरोध का स्थैतिक निहितार्थ होता है। परिवर्तन के प्रतिरोध का (लक्ष्य) उन्मेष परिवर्तन लाने से भिन्न होता है। “प्रतिक्रियावादी आंदोलन में परिवर्तन की दिशा वर्तमान से अतीत की ओर उन्मुख होती है न कि प्रतिरोध तक ही सीमित रहती है। हर्टन तथा हण्ट का मत है कि “प्रतिरोधात्मक आंदोलन एक प्रयास है जिसमें किसी प्रस्तावित परिवर्तन को अवरुद्ध या पहले हो चुके परिवर्तन को निर्मूल किया जाता है।” लुइस बर्थ ने प्रतिरोधात्मक आंदोलन को ‘राष्ट्रीयतावादी’ तथा ‘प्रजातीय विशुद्धता’ जैसे तत्वों पर केन्द्रित होने वाला आंदोलन कहा है।
एलन वेस्टन ने दक्षिण पंथियों की निम्नलिखित 5 विशेषताओं का उल्लेख किया है-
(1) दक्षिण पंथियों की पूर्वधारणा है कि अन्तर्राष्ट्रीय विजय लाने की क्षमता वाले समाधान सदैव उपलब्ध रहते हैं, जब ऐसे समाधान उपलब्ध नहीं होते तो वे इसकी विफलता का कारण बुरे लोगों और उनके सहयोगियों द्वारा किये गये षड्यन्त्रों को मानते हैं।
(2) वे सामाजिक, आर्थिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का समाधान ढूँढने वाली योजनाओं का जिन पर उदारवादी और अनुदारवादी न्यूनतम आधार के रूप में सहमत होते हैं,तिरस्कार करते हैं। उनके स्थान पर मौलिकतावादी वृहद् सामाजिक परिवर्तन का लक्ष्य करने वाले तीक्ष्ण उपायों का प्रस्ताव रखते हैं।
(3) वे ऐसे लोगों की समचरित्रता एवं देशभक्ति में विश्वास नहीं करते जो प्रभु सामाजिक समूहों का नेतृत्व करते हैं जैसे- चर्च,श्रमसंघ,व्यावसायिक समुदाय तथा इसी तरह अन्य- एवं घोषणा करते हैं कि अमरीकी व्यवस्था षड्यंत्र का अंग बन गयी है।
(4) षड्यन्त्र के जाल को तोड़ने के लिए वे ‘प्रत्यक्ष क्रिया'(Direct Action) का पक्ष ग्रहण करते हैं, नये राजनीतिक दल के रूप में बहुधा गुप्त संगठनों ‘दाब बटन दबाव प्रचारों’ तथा अग्र समूहों के माध्यम से कभी-कभी ‘प्रत्यक्ष क्रिया घृणा-प्रचार तथा परिकलित हिंसा’ में परिणत हो जाती है।
(5) वे राजनैतिक व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं। वे राजनीतिज्ञों एवं बड़े राजनीतिक दलों पर बरस पड़ते हैं, एवं राजनीतिक समझौते के लेन-देन को मौलिक सत्य के साथ विश्वासघात और लागों को गुमराह करने वाले सर्कस की संज्ञा देते हैं।
अतीत के मानवीय अनुभवों के आधार पर समाज के पुनर्गठन (Reoarganization) हेतु राबर्ट बेल्थ ने भी विभिन्न प्रकरण का उल्लेख किया है। स्थानाभाव के कारण जिनका उल्लेख किया जाना सम्भव नहीं है।
अवरोध सामाजिक आन्दोलन
हर्टन और हण्ट के अनुसार, “अवरोध आन्दोलन एक ऐसा प्रयास है जिसमें प्रस्तावित परिवर्तन को रोका जाता है अथवा पहले से घटित हुए परिवर्तन को समाप्त किया जाता है।” प्राचीन काल से आज तक भारत में अवरोध आन्दोलनों की एक लम्बी कतार रही हैं। वस्तुतः भारत कई सदियों तक गुलाम रहने के बाद भी भारतीय संस्कृति की मौलिक विशेषताओं (Fundamental Characteristics) को नहीं खो पाया है। इसका मुख्य कारण यही रहा है कि विदेशी संस्कृतियों के कारण उत्पन्न सामाजिक परिवर्तनों का विरोध भारतियों ने अवरोध आन्दोलनों के द्वारा किया। 19वीं एवं 20वीं सदियों के भारत में जितने भी सुधार आन्दोलन विकसित हुए, उन सबका विरोध परम्परावादियों ने अवरोध आन्दोलनों के माध्यम से किया। उदाहरण के लिए, जाति व्यवस्था की निर्योग्यताओं, बाल विवाहों एवं विधवा विवाहों, आदि सामाजिक कुरीतियों पर विधान पारित हुए तो हिन्दू धर्म के कट्टरपंथियों ने इनके विरोध में अनेक ऐसीअवरोध आन्दोलनों को विकसित किया। उन्होंने इन आन्दोलनों के माध्यम से भारतीयों को यह कहकर गुमराह किया कि उनका धर्म खतरे में है।
एस. नटराजन ने अपनी पुस्तक ‘ए सेन्चुरी ऑफ सोशल रिफोर्म इन इण्डिया’ में लिखा है कि, “सती प्रथा के दबाव की अपेक्षा विधवा पुनर्विवाह अधिनियम का विरोध कुछ अधिक शक्तिशाली एवं हिंसात्मक था।”
इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए एस. के. रामचन्द्रराव ने अपनी कृति ‘सोशल इंस्टीच्यूशन्स एमंग द् हिन्दूज’ (Social Intitutions Among the Hindus) में लिखा है कि , सन् 1855 में विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में अंग्रेजी शासकों को 25 प्रार्थना पत्रों में पाँच हजार व्यक्तियों ने हस्ताक्षर करके दिये थे, जबकि इसके विरोध में 40 निवेदनों ने अन्तर्गत छः हजार व्यक्तियों ने हस्ताक्षर करके दिये थे।”
इसी प्रकार स्वतंत्र भारत में पं. जवाहर लाल नेहरू के प्रयासों के परिणामस्वरूप हिन्दुओं के व्यक्तिगत कानूनों को लौकिकीकृत करने के उद्देश्य सेहिन्दू कोड बिल (Hindu Code Bill) पारित हुआ तो इसके विरोध में अवरोध आन्दोलनों की झड़ी लग गयी थी, औद्यगिक नगरों में जब अभिनवीकरण (Rationalization) की प्रक्रिया विकसित हुई तो श्रमिक संघों ने अवरोध आन्दोलनों को विकसित किया। हमारी सरकार जब भी ‘मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में संशोधन की बात करती है, तभी मुस्लिम संगठनों से इसके विरोध में असंख्य प्रार्थना-पत्र चले जाते हैं।
आपातकालीन स्थिति (Emergency Period) के दौरान संजय गाँधी के नेतृत्व में दहेज प्रथा उन्मूलन और परिवार नियोजन (Abolition of Dowry System and Family Planning) के जो प्रगतिवादी अभियान चलाये गये, उनका भारत के प्रायः परम्परावादियों ने इस सीमा तक विरोध किया कि मार्च, 1977 के संसद के चुनाव में राष्ट्रीय कांग्रेस (National Congress) से राजनैतिक शक्ति एवं सत्ता छीन कर जनता पार्टी (Janta Party) के प्रतिनिधियों को सौंप दी। इस प्रकार इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि भारत जैसे प्रजातांत्रिक समाज के अन्तर्गत तीव्र सामाजिक परिवर्तन के सभी काल अवरोध सामाजिक आन्दोलनों को प्रेरित करते चले आए हैं।
पुनरुत्थान सामाजिक आन्दोलन
पुनरुत्थान आन्दोलन में जनता विगत अर्थात् भूत को आदर्श मानती है, उस आदर्श स्वरूप की पूजा करती है जो उनके मस्तिष्क पर छाया होता है तथा समकालीन जीवन को इसी आदर्श स्वरूप के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करती है।
इस प्रकार के आन्दोलनों को भग्नाशा (Frustration) के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में समझा जा सकता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति में ‘आत्म-सम्मान’ का लोप हो जाता है। क्योंकि भविष्य में उन्हें अपने आत्म-सम्मान को पुनः प्राप्त कर लेने की आशा नहीं होती इसलिए वह इस आत्म-सम्मान को पाने के लिए भूत की ओर झाँकने का प्रयास करने लगते हैं। भूत के गौरव एवं उपलब्धियों का स्मरण करके उन्हें आत्म-सम्मान और संतोष प्राप्त करने का एक साधन मिल जाता है। ऐसे आन्दोलनों की प्रकृति मुख्य रूप में धार्मिक होगी, ऐसी आशा की जा सकती है। राष्ट्रवादी आन्दोलनों में भी इसी प्रकार का तत्व देखा जा सकता है। अधिकांश राष्ट्रवादी आन्दोलनों में पुनरुत्थान का तत्व प्रमुख होता है जिसमें व्यक्तियों के भूत को गौरव की दृष्टि से देखा जाता है। यह पक्ष उस उत्प्रेरणा से घनिष्ठतः सम्बन्धित होता है जो इस प्रकार के आन्दोलनों की विशेषता होती है अर्थात् विनम्रता की भावना। जो इस प्रकार के आन्दोलनों का संचालन करते हैं उन्हें प्रायः दुखद वैयक्तिक अनुभव होते हैं जिनमें उन्हें निम्न समझा जाता है तथा इस योग्य नहीं समझा जाता कि एक सम्मानित स्थिति प्राप्त कर सकें। उनकी आहत भावनाएँ एवं आत्म-सम्मान को पुनर्स्थापित करने की इच्छा उन्हें उस समूह की स्थिति को उन्नत करने की प्रेरणा प्रदान करती है जिस समूह के साथ उनका घनिष्ठा सम्बन्ध होता है।
पुनर्शक्ति सामाजिक आन्दोलन
(Revitalization Social Movement)
एन्थोनी वैलेस ने अपने एक लेख में यह प्रस्ताव रखा है कि जितने भी प्रकार के आन्दोलनों की चर्चा अनेक विद्वानों ने की है वे सभी प्रमुख सांस्कृतिक व्यवस्थाओं (Cultural Systems) में एक समरूप प्रक्रिया के द्योतक हैं। इस समरूप प्रक्रिया को पुनर्शक्तिकरण (Revitalization) शब्द द्वारा समझा जा सकता है। पुनशक्तिकरण आन्दोलन की परिभाषा एक ऐसे आन्दोलन के रूप में की जा सकती है जिसमें एक अधिक सन्तोषजनक संस्कृति के निर्माण करने के लिए किसी समाज के सदस्यों द्वारा जानबूझकर संगठित एवं जागरुक प्रयास किया जाता है। इस प्रकार पुनशक्तिकरण एक प्रकार से संस्कृति परिवर्तन (Cultural Change) की प्रघटना है। इसमें भाग लेने वालों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी संस्कृति को अथवा इसके किसी बड़े भाग को एक व्यवस्था के रूप में समझें, यह अनुभव करें कि यह व्यवस्था सन्तोषप्रद नहीं है और तब एक ऐसी नई सांस्कृतिक व्यवस्था की खोज करें जिसमें नये सम्बन्धों को स्पष्ट किया गया हो।
पुनशक्ति आन्दोलन प्रायः निम्न दो दशाओं में उत्पन्न होते हैं-
(1) समाज के सदस्य जब अत्यधिक दबावों का अनुभव करते हैं।
(2) जब एक विकृत संस्कृति के प्रति गहन असन्तोष उत्पन्न होता है।
इस प्रकार के आन्दोलन के साथ-साथ अनेक प्रकार्यात्मक परिवर्तनों (Functional Changes) की श्रृंखला जुड़ी होती है, टेढ-मेढ़े मार्गों तथा संचार व्यवस्था को ठीक करना, संगठन, अमुकूलन, सांस्कृतिक परिवर्तन तथा दिनचर्याकरण करना। इस प्रकार के आन्दोलन विभिन्न आधारों के कारण विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं, जैसे परिज्ञान चुनाव पर आधारित, धार्मिक एवं लौकिक बल की मात्रा, सहज-ज्ञानवाद, सफलता तथा असफलता। इस प्रकार का आन्दोलन किसी पैगम्बर या दैनिक पुरुष के रहस्योद्घाटन के रूप में उत्पन्न होता है जो उन्हें उत्प्राकृतिक प्राणी के साथ सन्तोषप्रद सम्बन्ध के रूप में जान पड़ता है। ये दैविक पुरुष जीवन के एक नये मार्ग की रूप रेखा दैविक आज्ञा के आधार पर बनाते हैं।
समाज शास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
- सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा | सामाजिक परिवर्तन के प्रतिमान | सामाजिक परिवर्तन के प्रकार | सामाजिक परिवर्तन तथा सांस्कृतिक परिवर्तन में अन्तर
- उद्विकास | उद्विकास के लक्षण एवं विशेषताएँ | विकास | प्रगति | प्रगति की विशेषताएँ | सुधार | क्रान्ति
- सामाजिक परिवर्तन के कारक | सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारक
- कार्ल मार्क्स के अनुसार संघर्ष का सिद्धान्त | आगबर्न के सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त
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- मोपला कृषक आन्दोलन | बारदोली सत्याग्रह | दकन का विद्रोह | कृषक विद्रोह
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- सांस्कृतिकरण की प्रक्रिया | आधुनिक समाज में मुख्य सांस्कृतिक प्रक्रिया
- सांस्कृतिकरण की समस्यायें | सांस्कृतिकरण से उत्पन्न समस्यायें | सांस्कृतिकरण की समस्या की निवारण
- पश्चिमीकरण का अर्थ | पश्चिमीकरण की विशेषताएँ | पश्चिमीकरण की लक्षण | पश्चिमीकरण के परिणाम
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