राज्य के सप्तांग | सप्तांग सिद्धांत | seven of the kingdom in Hindi

राज्य के सप्तांग | सप्तांग सिद्धांत | seven of the kingdom in Hindi

राज्य के सप्तांग

राजनीतिशास्त्र विषयक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर यह बात भलीभाँति स्पष्ट होती है कि राज्य का विकास उत्तर वैदिक काल में पूर्णतया हो चुका था। ऐतरेय ब्राह्मण में ऐसे राजाओं एवं सम्राटों का वर्णन मिलता है जिनका साम्राज्य चारों ओर से समुद्रों से घिरा हुआ था। राज्य के स्वरूप के प्रतिपादन में इस बात को स्वीकार किया गया है कि राज्य सावयव रूप में होता है और उसके सात अवयव या सात अंग माने गये हैं। महाभारत के भीष्म पर्व में सप्तात्मक राज्य का उल्लेख इस बात की पुष्टि करता है कि राज्य के सात प्रमुख अंग होते हैं । ऋग्वेद में विराट पुरुष को विश्व और उसके चार अंगों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का आविर्भाव माना गया है। यजुर्वेद के बीसवें अध्याय में राजा को विराट पुरुष माना गया है। श्रीमत् भगवत् गीता भी विश्व के विभिन्न रूपों को विराट पुरुष के अवयव के रूप में स्वीकार करती है। मनुस्मृति में दुर्ग को पुर, जनपद को राष्ट्र और मित्र को सुहृदय के रूप में स्वीकार किया गया है। अर्थशास्त्र के अनुसार भी राज्य के सात अंग माने गये हैं। कौटिल्य ने राजा के लिए स्वामी शब्द का प्रयोग किया है। साथ ही कौटिल्य और मनु ने राष्ट्र, दुर्ग, अमात्य, कोष एवं न्याय को राज्य की प्रकृतियाँ तथा राज्य के आधार स्तम्भ के रूप में माना है।

शुक्रनीति में राज्य के स्वरूप को शरीरधारी के रूप में मानते हुए राजा को सिर, मन्त्री का नेत्र, मित्र को कान, मुख को कोष, बल को मन, हाथ को दुर्ग आदि संज्ञाओं को अभिहित किया है। एक अन्य स्थान पर इसी ग्रन्थ में राजा की तुलना वृक्ष से की है। जिसमें राजा वृक्ष का मूल, मन्त्री वृक्ष का तना, सैनिक अधिकारी उसकी शाखाये तथा सैनिक उसके फूल और पत्तियाँ हैं। सम्पूर्ण राष्ट्र ही वृक्ष का बीज है और वृक्ष-फल जनसमूह के रूप में होते हैं।

इस प्रकार उपर्युक्त सभी तथ्यों की व्याख्या करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि राज्य के सप्तांगों में स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र आदि प्रमुख हैं। इन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है-

(1) स्वामी (राजा)-

राज्य के सप्तांगों में स्वामी जिसे कौटिल्य ने राजा की संज्ञा से विभूषित किया है सर्वप्रमुख होता है। अतः राजा को ऐसा होना चाहिए जो शक्तिशाली एवं धर्म परायण हो। क्योंकि राज्य शरीर का सिर और देवता के समान होता है, इसलिए उसे उच्च वर्ण का, उच्च लक्ष्य वाला होना चाहिए। उसे हर कार्य को धैर्य, विचारशीलता और विवेक के साथ करना चाहिये तथा सदैव प्रजा के हित को ध्यान में रखकर चलना चाहिए।

(2) अमात्य-

अर्थशास्त्र और महाभारत में अमात्य का नाम बार-बार आया है। अमात्य का अभिप्राय राज्य में उच्चाधिकारी से होता था। प्रायः राज्य के समस्त कार्य उसी के माध्यम से होते थे। अमात्य के गुणों के विषय में कौटिल्य ने कहा कि अमात्य ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करना चाहिए जिसके अन्दर उत्कृष्ट बुद्धि, स्मृति, प्रजा, बल और आत्म संयम हो। उसे दूरदर्शी होना चाहिए तथा समस्त विपत्तियों का निदान करने में सक्षम होना चाहिए। उसे किसी प्रकार का व्यसनी नहीं होना चाहिए तथा दण्ड प्रयोग दक्ष और नीर-क्षीर विवेकी होना चाहिए, साथ ही उसे अपने राजा के प्रति कृतज्ञ एवं वफादार होना चाहिए।

(3) जनपद-

जन के रहने वाले स्थान को जनपद के नाम से अभिप्रेत किया गया है, वैसे जनपद का बोध राष्ट्र के अधीन भू-भाग से होता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में जनपद की विशद व्याख्या करते हुए लिखा है कि जनपद का क्षेत्र विशद और उपजाऊ होना चाहिए। साथ ही वहाँ की जलवायु स्वास्थ्यवर्धक हो और खनिज पदार्थ, वन-सम्पदा से युक्त हो । कृषि, पशुपालन आर वाणिज्य आदि के लिये उपयुक्त हो तथा जन-समुदाय की पूर्ण सुरक्षा हो सके।

(4) दुर्ग (किला)-

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि दुर्ग राज्य का महत्त्वपूर्ण अंग है क्योंकि राजधानी को दुर्ग से ही सुरक्षित रखा जा सकता है। यही नहीं, कोष की रक्षा करने हेतु एवं सुरक्षात्मक दृष्टि से भी दुर्ग का महत्वपूर्ण स्थान है। सुदढ़, दुर्ग वाले शासक को परास्त करना सरल नहीं होता है। महाभारत, अर्थशास्त्र एवं शुक्रनीति में विभिन्न प्रकार के दुर्गों का उल्लेख हुआ है, जिनमें गिरि दुर्ग, वन दुर्ग और जल दुर्ग प्रमुख हैं। ये अधिकतर नदी द्वीप के मध्य में बनाये जाते थे; साथ ही आवश्यकता पड़ने पर मरुभूमि में भी इनका निर्माण होता था।

(5) कोष खजाना-

राज्य के सप्तांगों में कोष का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। अर्थशास्त्र के अनुसार कोष को सुवर्ण, वैदूर्य एवं विभिन्न रलों से परिपूर्ण होना चाहिए। क्योंकि सुदृढ़ राष्ट्र की रक्षा पूर्णतः कोष और सैनिक पर ही निर्भर करती है। कोष के अभाव में राष्ट्र का पतन निश्चित होता है। अर्थशास्त्र के अनुसार कोष धर्मपूर्वक एकत्र किया जाना चाहिए।

(6) सेना (दण्ड)-

कौटिल्य अर्थशास्त्र से राज्य के विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण अंग अर्थात् सेना के विषय में विशद जानकारी प्राप्त होती है। इसके अनुसार सेना को पूर्ण संगठित एवं नियंत्रित होना चाहिए। जिन शासकों की सेना संगठित और नियंत्रित रही है, उन्हें सदैव सफलता प्राप्त हुई है। लेकिन सेना को संगठित एवं नियंत्रित रखने के लिए राजा का आदर्शमय चरित्र होना चाहिए। साथ ही सैनिकों को उचित और समय पर इतना वेतन मिलना चाहिए, जिससे कि वे अपने परिवार के लोगों को सन्तुष्ट रख सकें। यही नहीं, सैनिकों की भर्ती में वंश-परम्परा का विशेष ध्यान रखना चाहिए। कौटिल्य ने लिखा है कि दण्ड के अभाव में शक्तिशाली, निर्बल को कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिए सेना को दण्ड से आबद्ध किया गया है। दण्ड से समुदाय की रक्षा और समुदाय की मर्यादा सुरक्षित रहती है।

(7) मित्र-

राज्य के लिए मित्र या मैत्री को परमावश्यक तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। राज्य के लिए आवश्यक है कि उसे अन्य राष्ट्र को भित्र बनाये रखना चाहिए। राज्य को ऐसे राज्यों से मैत्री सम्बन्ध रखना चाहिए जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हो और जिससे नियंत्रण भी रखा जा सके। साथ ही मैत्री सम्बन्ध में सदैव समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। इतिहास साक्षी है कि जिन सम्राटों ने अन्य राष्ट्रों से अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री रखी, वे सदैव सफल रहे। अशोक, समुद्रगुप्त, अकबर आदि ऐसे सम्राट थे जो मैत्री सम्बन्ध के कारण ही महान कहे जाते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्य के अस्तित्व में सप्तांगों का विशेष महत्व रहा है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इसे ‘सार्वभौम सत्ता का सार’ की संज्ञा प्रदान की है। साथ ही किसी राज्य की सफलता इसी पर निर्भर करती है कि उसके सप्तांगों या सप्त प्रकृतियों की प्रत्येक शक्ति एक दूसरे का पूर्ण सहयोग करती रही हो।

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