प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम | प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा विधि | प्रयोजनवाद के अनुसार अनुशासन
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम-
शिक्षा के पाठ्यक्रम (Curriculum) के बारे में प्रयोजनवाद का विचार यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकता एवं माँग के अनुकूल रखा जाये तभी वह शिक्षा के उद्देश्यों के साथ काम कर सकता है। मनुष्य के अनुभव, आवश्यकता, विचार बदलते रहने से पाठ्यक्रम भी स्थिर नहीं रह सकता। इसे ऐसे ढंग से निर्मित किया जावे जिससे कि वह सभी लोगों के सभी समय पर काम आ सके। इन बातों को ध्यान में रखकर प्रयोजनवादियों ने पाठ्यक्रम रचना के नीचे लिखे सिद्धान्तों पर जोर दिया है-
(1) क्रियाशीलता और अनुभव के आधार का सिद्धान्त- पाठ्यक्रम का आधार क्रियाशीलता हो अर्थात् जो कुछ भी सीखा-सिखाया जावे वह क्रियात्मक ढंग से हो। उसके साथ विषयवस्तु मनुष्य जीवन के विविध अनुभवों से सम्बन्धित हो अन्यथा जीवन से असम्बन्धित वस्तु को ग्रहण करने से कोई लाभ नहीं होगा। उदाहरण के लिए भाषा भी सीखा जावे तो क्रिया के साथ-साथ हो केवल शब्द जाल न हो।
(2) विविधता का सिद्धान्त- पाठ्यक्रम में जो भी विषयवस्तु हो वह विभिन्न परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। ऐसी दशा में पाठ्यवस्तु सभी लोगों की योग्यता और आवश्यकता को ध्यान में रखकर बनाई जावे। अतः वहाँ विविधता का होना स्वाभाविक है।
(3) रुचि का सिद्धान्त- पाठ्यक्रम में जो भी विषय एवं क्रिया रखी जावे वह पढ़ने वालों की रुचि के अनुकूल हो। यह तभी सम्भव होता है जबकि पाठ्यक्रम विभिन्न सामग्रियों से परिपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए कोई लड़का शारीरिक शिक्षा की ओर रुचि रखता है तो कोई शिल्प की ओर और तीसरा बुद्धि सम्बन्धी क्रियाओं की ओर। अतः इन तीनों की रुचि के अनुरूप उन्हें पाठ्यक्रम के विषय एवं क्रिया मिलनी चाहिए।
(4) उपयोगिता का सिद्धान्त- प्रयोजनवादियों का मत है कि शिक्षा यदि जीवन में उपयोगी न होगी तो उसे ग्रहण करना बेकार है। आज ऐसी स्थिति हमारे देश में है। लड़के लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त कर के बेकार हैं, बेरोजगार हैं, अतएव शिक्षा के पाठ्यक्रम में ऐसे विषय रखे जावें जिनको पढ़कर, ज्ञान प्राप्त कर कोई भी मनुष्य बेरोजगार न रहे अन्यथा वह समाज पर एक बोझ बनता है। उपयोगिता एवं व्यावहारिकता दोनों गुणं पाठ्यक्रम में होना प्रयोजनवादियों के अनुसार जरूरी है। व्यावहारिकता होने से अपने ज्ञान को समयानुकूल प्रयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए गणित का व्यवहार दैनिक जीवन के आदान-प्रदान में करते हैं।
(5) एकीकरण का सिवान्त- इसका तात्पर्य यह है कि अपने विषय को अलग- अलग न करके एक साथ सम्बन्धित कर दिया जाये और तब ज्ञान दिया जाये। उदाहरण के लिए गणित, विज्ञान, भाषा, भूगोल सबको एक ही सन्दर्भ में पढ़ाया जावे। ऐसा करने से ज्ञान की एकता नए नहीं होती है। इसीलिए कुछ विद्वान ‘सहसम्बन्ध’ का भी सिद्धान्त इसके साथ रखते है। इससे सभी विषय परस्पर जुड़े रहते हैं और पढ़ने बालों को सम्पूर्ण ज्ञान होता है, छुट-पुट नहीं।
(6) सामाजीकरण का सिद्धान्त- प्रयोजनवादी सामाजिक विकास पर अधिक बल देते हैं। ऐसी दशा में वे पाठ्यक्रम को समाजीकरण के सिद्धान्त (Principle of Socialization) के अनुसार रखने को कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जो भी अनुभव एवं ज्ञान दिया जावे वह समाज के हित को ध्यान में रखकर दिया जावे। इस आधार पर अमरीका में अपने इतिहास का अध्ययन कराया जाता है और अमरीकी भाषा, अमरीकी साहित्य, विज्ञान एवं कला को पाठ्यक्रम में रखा गया है। रूस में पाठ्यक्रम साम्यवादी सिद्धान्तों का प्रचार भी करता है जिससे वहाँ के लोगों में साम्यवादी समाज की संरचना का ध्यान अधिक रहता है। भारत में सामाजिक विषय (Social Studies) को पाठ्यक्रम में शामिल करना इसी सिद्धान्त को बताता है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम बालकेन्द्रित है, बालकों की आवश्यकता और रुचि का ध्यान रखता है और जीवन में उपयोगी होता है, उससे हम समाज को कुशल एवं क्रियाशील सदस्य बना सकते हैं। यह व्यापक एवं विविध होता है जो बालक को जीवन में आगे बढ़ने में सहायता देता है। ऐसा कथन प्रो० किलपैट्रिक का है।
पाठ्यक्रम के अन्तर्गत आने वाले विषय और क्रियाएँ हैं-शिल्प, विज्ञान, कृषि, बागवानी, भाषा, साहित्य, इतिहास, भूगोल, गणित, समाज विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, व्यायाम शिक्षा, विभिन्न व्यवसाय की क्रियाएँ, खेल-कूद-मनोरंजन की क्रियाएँ, लिखने- पढ़ने, बातचीत करने की क्रियाएँ, रचनात्मक एवं प्रयोगात्मक क्रियाएँ, निरीक्षण और अन्वेषण की क्रियाएँ।
पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में प्रो० जॉन डीवी के विचार पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में उपर्युक्त के अनुसार ही है। उन्होंने भी रुचि, सम्यता, विभिन्नता, अनुभव, सहसम्बन्ध, उपयोगिता, क्रियाशीलता, समस्या समाधान के सिद्धान्तों पर पाठ्यक्रम को बनाने के लिए कहा है। प्रारम्भिक कक्षाओं के लिए भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक विषय, काष्ठ-कला, पाक-विज्ञान, संगीत, चित्रकला, बागवानी, खेल-कूद-व्यायाम, भ्रमण, निरीक्षण, सामाजिक क्रियाओं पर जोर दिया है। उच्च कक्षाओं के लिए इनके अतिरिक्त समाज विज्ञान मनोविज्ञान, उच्च विज्ञान और गणित, तकनीकी विज्ञान, उघोग-व्यवसाय के विभिन्न विषय एवं क्रियाओं को रखा है। इनसे प्रभावित होकर गांधी जी ने भी भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक, विषय, कला, हराफौशल तथा शारीरिक और नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में रखा है। यह अवश्य है कि दोनों ने हस्तकौशल और शिल्प पर अधिक जोर दिया है। डीवी ने काठकता और गांधी जी ने कताई-बुनाई को मुख्य कौशल चुना है जो अपनी-अपनी रुचि के अनुसार था।
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा विधि-
प्रयोजनवादी शिक्षाशास्त्री स्वानुभव और क्रियाशीलता पर अधिक बल देते हैं। इस दृष्टि से उन्होंने शिक्षाविधि को भी अनुभव एवं क्रिया से पूर्ण होना बताया है। इस नियम के अनुसार हमें शिक्षा की निम्नलिखित विधियों का समर्थन प्रयोजनवाद में मिलता है।
(1) करके सीखने की विधि- शब्दों की अपेक्षा क्रिया के द्वारा बालकों को शिक्षा के अनुसार प्रकृतिवादी और प्रयोजनवादी दोनों जोर देते हैं। इस प्रकार से शिक्षा लेने में बालक को अपने आप अनुभव करने का अधिकतम अवसर मिलता है। इससे वह शीघ्र सीखता भी है।
(2) खेल द्वारा सीखने की विधि- छोटे बालकों को खेल में रुचि होती है अतः उन्हें खेल विधि से शिक्षा देना जरूरी है। यहाँ भी प्रयोजनवादी प्रकृतिवादी के समान विचार रखता है। खेल से शिक्षा देने में शिक्षा सरल एवं मनोरंजक बनती है।
(3) सह-सम्बन्ध की विधि- प्रयोजनवादी ज्ञान को एक इकाई मानते हैं और अलग-अलग विषयों का ज्ञान न देकर वे सभी विषयों को एक साथ जोड़कर शिक्षा देने के पक्ष में हैं। यह विधि सह-सम्बन्ट तथा एकीकरण कहलाती है।
(4) योजना विधि- प्रो० विक्पेटिक तथा प्रो० डीवी इस योजना (प्रोजेक्ट) विधि के बड़े ही सनक और जन्नदाता थे। इसमें जीवन की वास्तविक समस्याओं को उपस्थित करके शिक्षार्थी द्वारा स्वयं उसे हल कराने का प्रयास होता है। यह अत्यन्त उपयोगी, व्यावहारिक तथा उपर्युक्त विधि मानी जाती है यद्यपि इसका प्रयोग केवल अमरीका तक ही सीमित रह गया।
(5) प्रयोजनपूर्ण एवं सोद्देश्य सीखने की विधि- इसमें शिक्षार्थी को बता दिया जाता है कि वह शिक्षा क्यों ले रहा है और उसे शिक्षा क्यों दी जा रही है। अतः शिक्षा का प्रयोजन और उद्देश्य बताकर ज्ञान देने से शिक्षार्थी की रुचि और उसका ध्यान शिक्षा की ओर रहता है, उसे अधिक सफलता मिलती है।
(6) बालकेन्द्रित विधि- इसके अनुसार बालक को रुचि, योग्यता, क्षमता, आवश्यकता के अनुकूल शिक्षा दी जाती है। शिक्षक यह जानकर कि बालक में क्या गुण- अवगुण है वह उसी के अनुसार शिक्षा प्रदान करता है। इससे शिक्षक को अधिक सफलता मिलती है। तेज, मन्द, सामान्य बुद्धि को अपने अनुसार शिक्षा लेने का अवसर मिलता है और उनकी प्रगति भी तदनुसार होती है।
(7) प्रयोग विधि- प्रयोजनवादी वैज्ञानिक प्रयोग के पक्ष में अधिक पाये जाते हैं। अतएव इनके अनुसार शिक्षा देने के लिये प्रयोग विधि उत्तम होती है। प्रयोग एक सीमित ढंग से सीमित वातावरण में स्वयं वस्तुओं की सहायता से काम करने का तरीका होता है।
प्रो० जॉन डीवी के द्वारा प्रयुक्त शिक्षण विधियाँ भी इसी प्रकार से हैं। एक पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में हमें उनके विचारों को जान लेना चाहिये। इन्होंने क्रिया विधि, स्वानुभव विधि, रुचिपूर्ण विधि, खेल विधि, निरीक्षण विधि, तर्क विधि, सह-संबंध विधि, प्रयोग विधि, योजना विधि के लिये कहा है। लेकिन सबसे अधिक महत्व योजना विधि के दिया है जिसमें उपर्युक्त अन्य विधियाँ सम्मिलित हो जाती हैं। गांधी जी ने शिक्षा की कुछ विधियों के ऊपर जोर दिया है कियाविधि, प्रयोग, प्रदर्शन, निरीक्षण विधि, सहसम्बन्ध की विधि । इन विचारों से हमें पाश्चात्य एवं भारतीय प्रतिनिधियों के द्वारा बताई गई विधियों का भी ज्ञान मिलता है। अतएव दोनों शिक्षा दार्शनिकों में पर्याप्त मेल दिखाई देता है।
प्रयोजनवाद के अनुसार अनुशासन-
अनुशासन एक प्रकार का नियन्त्रण होता है जिससे मनुष्य के व्यवहार का मार्ग प्रदर्शन होता है। ऐसे नियन्त्रण एवं मार्ग-प्रदर्शन व्यक्तिगत एवं सामाजिक तरीकों से होता है। अतएव व्यक्तिगत अनुशासन तथा सामाजिक अनुशासन हुआ करता है। प्रो० भाटिया ने लिखा है कि प्रयोजनवादी लोग सामाजिक अनुशासन के पक्ष में हैं। प्रो० डीवी ने इस सम्बन्ध में कुछ और आगे कहा है जिससे हमें प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से अनुशासन के बारे में स्पष्ट विचार मिलता है-‘क्रियाशील छात्रों में पुराने अर्थ में नियन्त्रण एवं व्यवस्था तो नहीं रहेगी। किन्तु सामाजिक सहयोग एवं सामूहिक जीवन का उदय होगा और ऐसी दशा में अनुशासन पनपेगा।” अब स्पष्ट है कि प्रयोजनवादी शिक्षाशास्त्री पुराने अनुशासन-सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं करते हैं। वे दमनवादी, प्रभाववादी या मुक्तिवादी सिद्धान्त के स्थान पर समाजवादी सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। यह एक व्यावहारिक दृष्टिकोण है क्योंकि समाज में जिस प्रकार का रहन-सहन होगा उसी प्रकार का अनुशासन होगा। विद्यालय में समाज का जीवन लाकर ऐसे अनुशारान को कार्य किया जाता है।
सामाजिक अनुशासन कुछ हद तक मुक्तिवादी होता है और कुछ थोड़ा-सा प्रभाववादी तथा एक अंश में दमनवादी भी। समाज व्यक्तियों का प्रयोजनपूर्ण संगठन है और एक सदस्य का प्रभाव दूसरे पर पड़ता है तथा एक दूसरे को अपने प्रभाव से वश में रखता है। जहाँ एक मिला-जुला स्वनिर्मित संगठन होता है वहाँ मुक्तिवादी अनुशासन पाया जाता है क्योंकि सभी स्वतन्त्र विचार से काम करते हैं। इसके लिए समाज का नियम सन्तुलन रखता है। प्रयोजनवादी इसी प्रकार के सामाजिक सन्तुलन एवं व्यवहार की अपेक्षा सभी विद्यार्थी एवं शिक्षक से करते हैं।
प्रो० जॉन डीवी प्रयोजनयाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में बच्चों को समाज के हित को सामने रखकर स्वतन्त्रता देने के पक्ष में हैं। उनके विचार में सच्चे अनुशासन उत्पन्न करने के लिए उन्हें सामाजिक परिस्थितियों में कार्य करने का पूर्ण अवसर दिया जावे। सामाजिक पर्यावरण ये कार्य करने से अपने आप अनुशासित होंगे। जहाँ इस प्रकार का वातावरण एवं व्यवहार होगा वहाँ सभी लोग समाज के नियमानुसार कार्य करेंगे ही क्योंकि और दूसरा रास्ता नहीं है। अतएव डीवी भी सामाजिक अनुशासन मानने वाले हैं। प्रयोजनवाद के भारतीय प्रतिनिधि गांधी जी का विचार थोड़ा भिन्न है, इसका कारण उनका आदर्शवादी दृष्टिकोण है। वह मुक्तिवादी अनुशासन के मानने वाले थे परन्तु आत्मनियन्त्रण, आत्मसंयम या ब्रह्मचर्य के आधार पर। गांधी जी ने लिखा है कि अनुशासन का त्याग, आवेगों से मुक्ति, निम्न प्रकृति से छुटकारा, सहकारिता और
अनुशन सामाजिक जीवन से प्राप्त होता है। इसमें आदर्शवाद एवं प्रयोजनवाद का मेल है यद्यपि आदर्शवाद की प्रधानता है। गांधी जी भी इस प्रकार से सामाजिक अनुशासन से सहमत हैं। इन्होंने हस्तकौशल के कार्यों में लगे रहने से अनुशासन प्राप्त होना सम्भव बताया है।
शिक्षाशास्त्र – महत्वपूर्ण लिंक
- शिक्षा में प्रयोजनवाद की आलोचना | प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षालय
- प्रकृतिवाद के रूप | भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रकृतिवाद
- शिक्षा में प्रकृतिवाद का मूल्यांकन | प्रकृतिवादी शिक्षा के लक्षण
- प्रकृतिवाद और आदर्शवाद में अन्तर | difference between naturalism and idealism in Hindi
- शिक्षा में अस्तित्ववाद | अस्तित्ववाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य | अस्तित्ववाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य | अस्तित्ववाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम
- शिक्षा में अस्तित्ववाद का मूल्यांकन | अन्य वादों से अस्तित्ववाद का सम्बन्ध
Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- [email protected]